"मूंगफली और आवारगी में एक खराबी ये है कि आदमी एक बार शुरू कर दे तो समझ नहीं आता खत्म कैसे करे।"
मुस्ताक युसूफ़ी साहब की यह बात कल गंगापुल पर आवारगी करते हुए उस समय याद आई जब पुल की शुरुआत में ही रिक्शा ठेले पर मूंगफली बिकती दिखी। मन किया थोड़ी मूंगफली ले लें और गंगा किनारे बैठकर खाएं। लेकिन ठेले के सामने से गुजरते हुए मन की बात पर अमल रह गया। आगे जाकर सोचा कि ले लिए होते तो अब तक शुरू भी हो गए होते।
पुल किनारे फुटपाथ पर और भी सामान बिक रहा था। पान मशाला, मौसमी सब्जी और पानी के गोलगप्पे। गोलगप्पे के ठेले के पास चार-पांच लोग खड़े गोलगप्पे खा रहे थे। हम भी खड़े हो गए। देखते रहे लोगों को खाते। हमको खड़ा देख गोलगप्पे वाले ने दोना थमा दिया। खिलाने लगा। हम भी मना नहीं किये। खाते हुए दाम पूछे। बताया -10 के आठ। चार बतासे खाकर हमने दोना फेंक दिया।
पैसे देते हुए हमको याद आया कि कुछ दिन पहले एक रेस्टोरेंट में बतासे खाये थे। दाम था पच्चीस रुपये के पांच बतासे। मतलब सड़क के दाम से चार गुने दाम रेस्टोरेंट के। दोनों ही जगह खाकर लगा -‘फिजूल में खाये।’एक समान अनुभव के लिय सड़क और रेस्टोरेंट में दाम में चार गुने का अंतर। यहां सड़क पर अतिरिक्त भाव यह भी हावी रहा कि कोई देख न ले खाते हुए। मतलब कम पैसे में ज्यादा अनुभव मिले ठेलिया पर बतासे खाते हुए।
पुल पर खड़े होकर रेलगाड़ी देखी, पुल से गुज़रते लोग देखे। ओवरब्रिज से उतरते लोग देखते हुए लगा कि पूरा कानपुर फिसलपट्टी से उतरता हुआ शुक्लागंज में जमा हो रहा है।
नीचे नदी का पानी अंधेरे की चादर ओढ़े चुपचाप बह रहा था। बिना आवाज किये। दिन-रात चलता रहता है नदी का पानी बिना किसी शिकवे-शिकायत के। आदमी हो तो काम के लिए ओवर टाइम मांगे।
लौटते में गंगाघाट गए। सब दुकानें बंद हो गयी थी। चाय पीने का मन था। शाम को पी नहीं थी। एक दुकान पर पूछा तो बोला -"चार-पांच चाय पीनी हो तो बनाएं। अकेले के लिए चाय न बनाएंगे। काफी पी लो।" हमने कहा बनाओ। बोला -"मशीन ठंडी हो गयी है। दस मिनट लगेंगे गर्माने में।" हमने कहा -"गर्माओ, बनाओ। आते दस मिनट में।"
दस मिनट समय का कत्ल करने के लिए घाट की तरफ गए। कई तख्त पड़े थे। एक पर बैठ गए। और भी तख्तों पर बैठे कुछ लोग बतिया रहे थे। दो तख्त गुट समझिए। दोनों बातचीत में गालियों के सम्पुट लगा रहे थे। हर दो-तीन वाक्यों के बाद मां या बहन की गाली। छोटी मोटी गाली बड़ी गाली के साथ मुफ्त में वाले अंदाज में।
उनकी बातें और उनमें गालियों के इस्तेमाल सुनकर अंदाज हुआ कि वे गाली दे भले मां-बहन की रहे थे लेकिन दोनों एक ही गाली अलग-अलग समय पर दे रहे थे। जब एक की बात में मां की गाली सुनाई दी तब दूसरे दल की तरफ से बहन की गाली आई। जब दूसरे ने मां की गाली दी तब पहले ने बहन की गाली दी या फिर बिना गाली की बात कही। गालियों के प्रवाह में एकता का अभाव दिखा। एक समय में एक ही गाली देते तो गालियों के अनुनाद से कायनात हिल जाती लेकिन देश में विपक्षी एकता की तरह यहां भी गालियों में एकता नहीं हो पाई।
हमको अकेला बैठे देख कुछ बच्चे बगल में आकर खड़े हो गए। फिर बैठ भी गए। एक ने पूछा -"पूजा करने आये हैं, फूल चढ़ाना है, मूर्ति विसर्जन करना है।" बात शुरू करने का उसका तरीका होगा यह। हमने बताया ऐसे ही बैठे हैं। निठल्ले।
बच्चों ने अपने बारे में बताया -'यहीं रहते हैं। हम पांच में पढ़ते है। यह मेरा छोटा भाई है। वो सबसे छोटा जो साइकिल चला रहा है। साथ में जो चला रहा है वो गाली बहुत बकता है। पिता जी सहालग में काम करते हैं।"
हमने पूछा -'तैरना आता है?"
छोटा बोला -"हमको आता है। सबसे पहले हम सीखे। फिर ये सीखा। हम अच्छे से तैर लेते हैं। इसको कम आता है।"बताते हुए उसने हाथ के चप्पू हवा में चलाए।
बात करते हुए बाकी दोनों बच्चे भी आ गए। गाली देने वाला बच्चा भी। हमने उससे पूछा -"ये बता रहा था तुम गाली बहुत बकते हो।" उसने कहा -"ये सब भाई लोग खुद बहुत गाली बकते हैं।"
इसके बाद बच्चे हमारा फोन और घड़ी देखने लगे। एक ने पूछा-"घड़ी से बात भी हो जाती है? कित्ते की है?" हमने बताया -"हां बात हो जाती है। लेकिन दाम नहीं पता। बेटे ने दी है।"
एक बच्चे ने फोन देखकर कहा -"आई फोन है। आई फोन 11" हमको ठीक से पता नहीं कौन सा आईफोन है। लेकिन हमने कहा -"आई फोन 13 है।" उसने फोन हाथ में लेना चाहा। हमारे मन में बीच के वर्ग वाली शंका उभरी -"लेकर भाग न जाये बच्चा।" बच्चा वही था जिसके बारे में गाली देने की बात कही थी दूसरे बच्चों ने। 'गाली देता है तो बदमाश भी होगा' -यह भी सोच लिया। बिना कोशिश के जजमेंटल हो गए अपन।
फोन न देकर हमने बच्चों के फोटो खींचने की बात कही। लाओ तुम्हारा फोटो खींच देते हैं। बच्चों ने बारी-बारी से फ़ोटो खिंचाए। रेलिंग पर लेटकर , शंकर जी की मूर्ति के पास। फोटो खींचते ही भागकर आता बच्चा -'देखें कैसी आई।' देखकर खुश हो जाते फिर अगला कहता हमारी खींचो।
इस बीच दस मिनट हो गए थे। काफी की दुकान पर गए। काफी बन गयी थी। हमने काफी ली। बच्चे भी आ गए थे साथ में। उनको बिस्कुट दिलाये। एक बच्चा बोला -"हमको क्रीम वाला बिस्कुट चाहिए।" दूसरा बोला -"हमको भुजिया खाना।" दुकानदार ने उनके प्रभाव में आये बिना दो बिस्कुट के पैकेट दिए उनको। पाँच रुपये वाले। हमारी काफी दस रुपये की थी। बीस रुपये में पांच लोगों की चाय काफी हो गयी।
लौटते हुए एक आदमी फुटपाथ किनारे बैठा दिखा। साइकिल बगल में खड़ी थी। हमारी जजमेंटल नजर को लगा -"दारू पिये होगा।" बात की तो बताया उसने -"घर लौट रहे हैं। साइटिका का दर्द उठता है। इसलिए बैठ गए। बताते-बताते खड़ा हो गया आदमी लेकिन दर्द ने उसे फिर बैठा दिया।"
अपने बारे में बताते हुए कहा -" कलट्टरगंज में बोरे सिलने का काम करते हैं। 500 रुपये दिहाड़ी है। सुबह दस बजे से शाम 7 बजे तक काम करते हैं तब मिलती है दिहाड़ी। शुक्लागंज में घर है। तीन बेटियां हैं। दो की शादी हो गई। तीसरी बीए में पढ़ती है। उसकी शादी करनी है।"
साइकिल के बारे बताया-"ये मालिक ने दी। हमारी चोरी चली गयी थी। टिपटॉप रखते थे लेकिन एक दिन कोई मार ले गया। खोजी। मिली नहीं। हमने कहा -कोई बात नहीं। फिर मालिक ने दे दी । बोला -ये चलाओ।"
चलते हुए फोटो ली हमने। थोड़ा हिल गयी थी। दिखाई तो बोला -"गरीब आदमी की फ़ोटो ऐसी ही आती है।"
फोटो बाद में देखी तो हमको इरफान की याद आई।
रास्ते में फुटपाथ पर एक बुजुर्ग बंदरिया चुपचाप सो रही थी। एक बच्ची बंदरिया उसकी चम्पी करते हुए उसको शायद सुला रही थी। रात हो रही थी।
https://www.facebook.com/share/p/Cg474PoqzL1GuyPq/
No comments:
Post a Comment