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…इलाहाबाद के कुछ लफ़्फ़ाज किस्से
By फ़ुरसतिया on October 26, 2009
…और इस तरह इलाहाबाद में ब्लागर संगोष्ठी संपन्न हुई।
शानदार अनुभव हुये। लोगों से मिले-मिलाये। घूमे-घुमाये। गपियाये। हंसे-ठठाये। लौट के आये।
अब आप इसे हमारी बेशरमी कहें या संवेदनहीनता या फ़िर हमारे और हमारे साथ रुके साथियों के लिये किये गये तथाकथित शानदार वीआईपी टाइप इंतजाम की कृपा कि हमें वहां एक भी ऐसा अनुभव नहीं हुआ कि हम उसका रोना रो सकें।
संभव है तमाम अव्यव्स्थायें रही हों लेकिन अपनी कमजोर नजर के चलते उनको देख न पाये हों। हम इसी में लहालोट हो गये कि जिनको हम पढ़ते-सुनते आये उनसे रूबरू होकर गले मिल रहे हैं। हमारे लिये यही उपलब्धि रही। हम अपने ब्लागर साथियों से मिलने गये थे। इससे ज्यादा और कुछ की इच्छा लेकर नहीं गये थे। जितना सोचकर गये थे उससे ज्यादा पाकर लौटे। हमें अफ़सोस है कि एक भी अनुभव ऐसा नहीं जुटा सके हम जिसका रोना हम यहां रो सकें।
शायद इस तरह राष्ट्रीय संगोष्ठी का पहला अनुभव होने के कारण हम उन कमियों को देख ही न पाये हों जो दूसरे साथियों को साफ़-साफ़ दिखीं। कुछ को केवल वही दिखीं।
यहां नीचे की फोटो देखिये। फोटो परिचय ऊपर दिया है। आगे बढ़ाने के माउस का प्रयोग किया जाये।
इलाहाबाद में वर्धा विश्वविद्यालय और हिन्दुस्तानी एकाडेमी के संयुक्त तत्वावधान में संपन्न ब्लागर संगोष्ठी में तमाम खुशनुमा अनुभव लेकर लौटे। लौटकर देखा कि कुछ भाई लोगों के साथ कुछ भी खुशनुमा हुआ ही नहीं। इतनी परेशानी में रहे साथी कि हमें अपराध बोध भी हो रहा है कि ससुर साथ-साथ रहे लेकिन उनकी परेशानी न भांप पाये। लोगों को बिस्तर- चाय तक न मिली और हम हैं कि चाय की दुकान पर बेंच को कैंची की तरह फ़ंसाकर खिलखिलाते रहे। हम एकदम नीरो हो गये। भाई अरविन्द मिसिर को मच्छर काटते रहे और हम बगलै में भरते खर्राटे रहे। जितनी मच्छर व्यथा उनकी पोस्ट पर प्रकट हुई उससे तो लगता है कि मिसिरजी अगर भारी भरकम व्यक्तित्व के न रहे होते तो शायद मच्छर उनको उठा ले गये होते और शायद अपने किसी सम्मेलन का उद्घाघन करवा लेते जबरियन।
बहरहाल, संगोष्ठी के लिये बुलौवे पर जब हम रात करीब नौ बजे २२ को इलाहाबाद पहुंचे तो वहां भैया अजित, रविरतलामी और अमिताम त्रिपाठी लपक के गले लगाये। जरा सा चूक हो जाती तो चश्मा गया था। हम तो बचा लिये सावधानी के चलते लेकिन अजित जी दू ठो चश्मा अपने तोड़ लिये।
तुरंतै सिद्धार्थ भी वो हुये जिसे हिंदी में नमूदार होना कहा जाता है। हमने गले मिलने के बाद उन्होंने मुस्कराने की कोशिश की लेकिन हमने गले मिलते ही उनपर एक् एतराज ठोंक दिया। हमने कहा –
अजित और रविरतलामी से मिलते ही हमारा तो दिल गार्डन-गार्डन हो गया। खाना-ऊना खाकर टहलते हुये पास प्रयाग स्टेशन के पास चाय पीने गये। न जाने कित्ती-कित्ती बाते हुईं। रविरतलामी वो शक्स हैं जिसने हमें ब्लाग की दुनिया में ढकेला। अपराधी सामने था। लेकिन हम कुछ कर न सके सिवाय प्रमुदित च किलकित होने के। अजित अपनी फ़ोटो जैसे ही दिखे। अलबत्ता लम्बाई देखकर लगा कि दो-चार इंच विनजिप हो गये हैं।
लौटकर कमरे में अजित जी ने माजिस का तबला बजाते हुये गजल सुनायी- जब से हम तबाह हो गये/तुम जहांपनाह हो गये। क्या आवाज है। क्या माचिसची है। जाकिर हुसैन सुनते तो कहते भाई साहब हमको भी सिखाओ न! अभी भी इसी गजल को सुनते हुये टाइपिया रहे हैं। शब्दों के सफ़र की पांडुलिपि देखकर मन खुश हो गया।
अजितकी गजल इधर सुन लीजिये।
रात करीब साढ़े ग्यारह बजे रवि भैया (शब्द कापी राइट देबाशीष्) के लोटपोट (शब्द राइट-अफ़लातून) पर देखा कि चर्चा हुई नहीं थी। हमको याद आया कि शिवकुमार मिसिर ने एस.एम.एस. किया था-
सुबह-सुबह मसिजीवी पधारे। उनके पधारते ही हम चायपान हेतु गम्यमान हुये। रास्ते में एक दुकान पर चने लिये , खाये गये। ठेले के बगल में खड़े होकर फ़्री में फोटो खिंचवाये। चाय की दुकान पर गप्पाष्ट्क हुआ। मसिजीवी की निगाहें सामने दीवाल पर लिखे विज्ञापन- खून के आंसू न बहायें/ हकीम दीवान चंद के पास आयें विज्ञापन पर टिकी थीं। लगता है कि उनको अपनी किसी समस्या का समाधान मिल गया था।
लौट के आये और फ़िर लोटपोट पर चर्चा ठेल दिये। खा-पीकर सम्मेलन स्थल पर पहुंचे। सबके किये गाड़ी-वाड़ी का इंतजाम था। पहुंच गये। कार्यक्रम समय से कुछ ही देर बाद शुरु हुआ।
नामवरजी उद्धाटन किये। इसके बाद विभूति नारायण जी बोले। इसके पहले रविरतलामी ने ब्लाग के बारे में जानकारी दी और ज्ञानजी विषय प्रवर्तन किये।
इसके बाद सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की किताब सत्यार्थ मित्र का विमोचन हुआ।
यह पहले सत्र की कहानी थी। इसके बाद खा-पीकर दूसरे सत्र का किस्सा हुआ।
यह सत्र वर्धा विश्वविद्यालय के परिसर में हुआ। इसकी रपट आप जगह-जगह बांच चुके होंगे। सो दोहराने से क्या फ़ायदा!
लेकिन यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अविनाश जिस विषय पर बोलने के लिये तैयार होकर आये थे उसपर बोलने पर उनके ही अनुसार नर्वसा गये और बोलने का काम आउटसोर्स कर दिया। आउटसोर्सित साथी ने बिना पूछे माइक थामकर जो याद था सब बोल डाला।
मीनू खरे जी के बोलते समय बोधिसत्व ने टिपियाया- मैडम जरा समय का ध्यान रखें।
बोधि को जाना था इसलिये वे जाने के पहले बोल लेना चाहते थे। जब बोलने आये तो उनको याद आया कि उनको क्या बोलना है यह याद नहीं है। बताये जाने पर वे बोले और अपने विचार व्यक्त किये।
मीनूजी टोंकने से असहज हुईं होंगी और फ़िर कुछ ही देर में अपना वक्तव्य समाप्त किया।
इसके बाद और भी तमाम लोग बोले। मात्र विषय के दायरे में कैद न रहकर जिसकी जो समझ में आया वह बोला। तमाम विचार सामने आये। कुछ लोग आगे आने वाले खतरों की तरफ़ इशारा कर रहे थे। अफ़लातून जी ने प्रस्ताव किया कि यहां ब्लाग संबंधी कुछ घोषणा की जाये ताकि उसका पालन हो सके। अच्छा ही हुआ कि ऐसा नहीं हुआ वर्ना अभी तक वह नकार दी जाती और खंडन-मंडन हो गया होता।
पहले दिन के दूसरे सत्र के खात्मे के पहले प्रमेंन्द्र मुझे श्रोताओं में दिखे। उनको बुलाकर मैंने उनका परिचय सबसे कराया। कल जब सुरेश चिपलूनकरजी की रपट देखी कि प्रमेन्द्र का किसी ने परिचय तक नहीं कराया तब मुझे लगा कि कितना आत्मविश्वास है सुरेशजी का कि वे बिना जाने ही तमाम घटनाओं को सत्य मानकर उसकी भर्त्सना कर सकते हैं। वे कुछ भी कर सकते हैं। सक्षम हैं। संजय बेंगाणी को हिंदूवादी बता सकते हैं। अगर संजय इस बात का खंडन नहीं करते तो भाई हम भी उनको राष्ट्रवादी न मानकर हिन्दूवादी ही मानने के लिये मजबूर होंगे।
सत्र की समाप्ति के बाद फ़िर इधर-उधर टहले-टहलाये। गपियाये। प्रियंकरजी के ठहरने का इंतजाम विश्राम होटल में था उनको वहां से जबरियन् उठा लाये। अजितजी को वापस जाना था। पठा आये।
अगले दिन के किस्से अब अगली पोस्ट में ही सुनाये जायेंगे।
शानदार अनुभव हुये। लोगों से मिले-मिलाये। घूमे-घुमाये। गपियाये। हंसे-ठठाये। लौट के आये।
अब आप इसे हमारी बेशरमी कहें या संवेदनहीनता या फ़िर हमारे और हमारे साथ रुके साथियों के लिये किये गये तथाकथित शानदार वीआईपी टाइप इंतजाम की कृपा कि हमें वहां एक भी ऐसा अनुभव नहीं हुआ कि हम उसका रोना रो सकें।
संभव है तमाम अव्यव्स्थायें रही हों लेकिन अपनी कमजोर नजर के चलते उनको देख न पाये हों। हम इसी में लहालोट हो गये कि जिनको हम पढ़ते-सुनते आये उनसे रूबरू होकर गले मिल रहे हैं। हमारे लिये यही उपलब्धि रही। हम अपने ब्लागर साथियों से मिलने गये थे। इससे ज्यादा और कुछ की इच्छा लेकर नहीं गये थे। जितना सोचकर गये थे उससे ज्यादा पाकर लौटे। हमें अफ़सोस है कि एक भी अनुभव ऐसा नहीं जुटा सके हम जिसका रोना हम यहां रो सकें।
शायद इस तरह राष्ट्रीय संगोष्ठी का पहला अनुभव होने के कारण हम उन कमियों को देख ही न पाये हों जो दूसरे साथियों को साफ़-साफ़ दिखीं। कुछ को केवल वही दिखीं।
यहां नीचे की फोटो देखिये। फोटो परिचय ऊपर दिया है। आगे बढ़ाने के माउस का प्रयोग किया जाये।
इलाहाबाद में वर्धा विश्वविद्यालय और हिन्दुस्तानी एकाडेमी के संयुक्त तत्वावधान में संपन्न ब्लागर संगोष्ठी में तमाम खुशनुमा अनुभव लेकर लौटे। लौटकर देखा कि कुछ भाई लोगों के साथ कुछ भी खुशनुमा हुआ ही नहीं। इतनी परेशानी में रहे साथी कि हमें अपराध बोध भी हो रहा है कि ससुर साथ-साथ रहे लेकिन उनकी परेशानी न भांप पाये। लोगों को बिस्तर- चाय तक न मिली और हम हैं कि चाय की दुकान पर बेंच को कैंची की तरह फ़ंसाकर खिलखिलाते रहे। हम एकदम नीरो हो गये। भाई अरविन्द मिसिर को मच्छर काटते रहे और हम बगलै में भरते खर्राटे रहे। जितनी मच्छर व्यथा उनकी पोस्ट पर प्रकट हुई उससे तो लगता है कि मिसिरजी अगर भारी भरकम व्यक्तित्व के न रहे होते तो शायद मच्छर उनको उठा ले गये होते और शायद अपने किसी सम्मेलन का उद्घाघन करवा लेते जबरियन।
बहरहाल, संगोष्ठी के लिये बुलौवे पर जब हम रात करीब नौ बजे २२ को इलाहाबाद पहुंचे तो वहां भैया अजित, रविरतलामी और अमिताम त्रिपाठी लपक के गले लगाये। जरा सा चूक हो जाती तो चश्मा गया था। हम तो बचा लिये सावधानी के चलते लेकिन अजित जी दू ठो चश्मा अपने तोड़ लिये।
तुरंतै सिद्धार्थ भी वो हुये जिसे हिंदी में नमूदार होना कहा जाता है। हमने गले मिलने के बाद उन्होंने मुस्कराने की कोशिश की लेकिन हमने गले मिलते ही उनपर एक् एतराज ठोंक दिया। हमने कहा –
भैये कुछ तो लिहाज करो। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी के संयोजक हो। जरा हड़बड़ाये , हकबकाये से रहो। तुम मिलते ही हमको पहचान लिये। चाहिये तो यह था कि तीन बार कमरे में आधी दूरी तक आते और बाहर चले जाते। इसके बाद हमसे ही पूछते कि अनूप शुक्ल आ गये क्या? इसके बाद कहते अरे भाई साहब दिमाग काम नहीं कर रहा है। माफ़ करियेगा।सिद्धार्थ हमारी बात को नजर अन्दाज किये। शायद परेशान होने का काम उन्होंने बाद के लिये रख छोड़ा था।
अजित और रविरतलामी से मिलते ही हमारा तो दिल गार्डन-गार्डन हो गया। खाना-ऊना खाकर टहलते हुये पास प्रयाग स्टेशन के पास चाय पीने गये। न जाने कित्ती-कित्ती बाते हुईं। रविरतलामी वो शक्स हैं जिसने हमें ब्लाग की दुनिया में ढकेला। अपराधी सामने था। लेकिन हम कुछ कर न सके सिवाय प्रमुदित च किलकित होने के। अजित अपनी फ़ोटो जैसे ही दिखे। अलबत्ता लम्बाई देखकर लगा कि दो-चार इंच विनजिप हो गये हैं।
लौटकर कमरे में अजित जी ने माजिस का तबला बजाते हुये गजल सुनायी- जब से हम तबाह हो गये/तुम जहांपनाह हो गये। क्या आवाज है। क्या माचिसची है। जाकिर हुसैन सुनते तो कहते भाई साहब हमको भी सिखाओ न! अभी भी इसी गजल को सुनते हुये टाइपिया रहे हैं। शब्दों के सफ़र की पांडुलिपि देखकर मन खुश हो गया।
अजितकी गजल इधर सुन लीजिये।
रात करीब साढ़े ग्यारह बजे रवि भैया (शब्द कापी राइट देबाशीष्) के लोटपोट (शब्द राइट-अफ़लातून) पर देखा कि चर्चा हुई नहीं थी। हमको याद आया कि शिवकुमार मिसिर ने एस.एम.एस. किया था-
भैया संत समागम कब से शुरु होगा? और दो-चार लोगों से कह दीजियेगा कि मेरी तबियत खराब है तो हो सकता है चार-पांच टिप्पणी और मिल जाये। मेरे प्रचार के लिये मैं पूरी तरह आप पर निर्भर हूं।हमने उनकी बात को मजाक में लिया। और मजाक-मजाक में कैलेंडर बदलने के पहले चर्चा करके डाल दी।
सुबह-सुबह मसिजीवी पधारे। उनके पधारते ही हम चायपान हेतु गम्यमान हुये। रास्ते में एक दुकान पर चने लिये , खाये गये। ठेले के बगल में खड़े होकर फ़्री में फोटो खिंचवाये। चाय की दुकान पर गप्पाष्ट्क हुआ। मसिजीवी की निगाहें सामने दीवाल पर लिखे विज्ञापन- खून के आंसू न बहायें/ हकीम दीवान चंद के पास आयें विज्ञापन पर टिकी थीं। लगता है कि उनको अपनी किसी समस्या का समाधान मिल गया था।
लौट के आये और फ़िर लोटपोट पर चर्चा ठेल दिये। खा-पीकर सम्मेलन स्थल पर पहुंचे। सबके किये गाड़ी-वाड़ी का इंतजाम था। पहुंच गये। कार्यक्रम समय से कुछ ही देर बाद शुरु हुआ।
नामवरजी उद्धाटन किये। इसके बाद विभूति नारायण जी बोले। इसके पहले रविरतलामी ने ब्लाग के बारे में जानकारी दी और ज्ञानजी विषय प्रवर्तन किये।
इसके बाद सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की किताब सत्यार्थ मित्र का विमोचन हुआ।
यह पहले सत्र की कहानी थी। इसके बाद खा-पीकर दूसरे सत्र का किस्सा हुआ।
यह सत्र वर्धा विश्वविद्यालय के परिसर में हुआ। इसकी रपट आप जगह-जगह बांच चुके होंगे। सो दोहराने से क्या फ़ायदा!
लेकिन यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अविनाश जिस विषय पर बोलने के लिये तैयार होकर आये थे उसपर बोलने पर उनके ही अनुसार नर्वसा गये और बोलने का काम आउटसोर्स कर दिया। आउटसोर्सित साथी ने बिना पूछे माइक थामकर जो याद था सब बोल डाला।
मीनू खरे जी के बोलते समय बोधिसत्व ने टिपियाया- मैडम जरा समय का ध्यान रखें।
बोधि को जाना था इसलिये वे जाने के पहले बोल लेना चाहते थे। जब बोलने आये तो उनको याद आया कि उनको क्या बोलना है यह याद नहीं है। बताये जाने पर वे बोले और अपने विचार व्यक्त किये।
मीनूजी टोंकने से असहज हुईं होंगी और फ़िर कुछ ही देर में अपना वक्तव्य समाप्त किया।
इसके बाद और भी तमाम लोग बोले। मात्र विषय के दायरे में कैद न रहकर जिसकी जो समझ में आया वह बोला। तमाम विचार सामने आये। कुछ लोग आगे आने वाले खतरों की तरफ़ इशारा कर रहे थे। अफ़लातून जी ने प्रस्ताव किया कि यहां ब्लाग संबंधी कुछ घोषणा की जाये ताकि उसका पालन हो सके। अच्छा ही हुआ कि ऐसा नहीं हुआ वर्ना अभी तक वह नकार दी जाती और खंडन-मंडन हो गया होता।
पहले दिन के दूसरे सत्र के खात्मे के पहले प्रमेंन्द्र मुझे श्रोताओं में दिखे। उनको बुलाकर मैंने उनका परिचय सबसे कराया। कल जब सुरेश चिपलूनकरजी की रपट देखी कि प्रमेन्द्र का किसी ने परिचय तक नहीं कराया तब मुझे लगा कि कितना आत्मविश्वास है सुरेशजी का कि वे बिना जाने ही तमाम घटनाओं को सत्य मानकर उसकी भर्त्सना कर सकते हैं। वे कुछ भी कर सकते हैं। सक्षम हैं। संजय बेंगाणी को हिंदूवादी बता सकते हैं। अगर संजय इस बात का खंडन नहीं करते तो भाई हम भी उनको राष्ट्रवादी न मानकर हिन्दूवादी ही मानने के लिये मजबूर होंगे।
सत्र की समाप्ति के बाद फ़िर इधर-उधर टहले-टहलाये। गपियाये। प्रियंकरजी के ठहरने का इंतजाम विश्राम होटल में था उनको वहां से जबरियन् उठा लाये। अजितजी को वापस जाना था। पठा आये।
अगले दिन के किस्से अब अगली पोस्ट में ही सुनाये जायेंगे।
Posted in बस यूं ही, संस्मरण | 47 Responses
धन्यवाद.
एक बात बताइए… ये ब्लॉगर लोग इतनी चाय क्यों पीते हैं?
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टिप्पणी पोस्ट करने के पहले ही रचना ने जवाब सुझा दिया है…. “ब्लॉगर लोग प्रायः यह भूल जाते हैं कि उन्होंने अभी-अभी चाय पी थी। ध्यान तो स्क्रीन पर जमी रहती है।”
प्रणव मुखर्जी से लेकर सुधीर-विनोद और लल्लन सिंह तक सबके दर्शन हो गये,
“तुरंतै सिद्धार्थ भी वो हुये जिसे हिंदी में नमूदार होना कहा जाता है।”
इसको यूँ होना चाहिए,
‘तुरंतै सिद्धार्थ भी वो हुये जिसे फ़ारसी में नमूदार होना कहा जाता है।’
विवेक : हिन्दी ब्लागर की राष्ट्रीय संगोष्ठी में हम होकर आये हैं तुम? हमने जो लिखा है वो चाहे जिस भाषा में होता हो लेकिन कहेंगे हम हिन्दी में ही। आखिर राष्ट्रभक्ति भी कोई चीज होती है।
regards
बढ़िया….और उस ब्लैक ड्यूक टी-शर्ट में खूबे फ़ब रहे हैं आप तो…
वैसे भूतपूर्व ब्लॉगर आने हेतु ऍलीजिबल थे या नहीं?
और खबर है की वरिष्ठोँ को वीआईपी सुविधा मिली, तो ये बताओ कि भूतपूर्व होने से हमारी वरिष्ठता खत्म तो नहीं हो जाती?
2) प्रमेन्द्र का परिचय अवश्य करवाया गया होगा, अब आपसी सम्बन्धों की खातिर यदि वे बिन बुलाये पहुँच ही जाये तो इतना तो आपको मजबूरी में करना ही पड़ा होगा, लेकिन निमन्त्रण पत्र तो निश्चित ही नहीं भिजवाया गया था उन्हें…
3) मेरी पोस्ट के मुख्य भाव को भटकाने की तमाम कोशिशों के बावजूद मूल प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि हिन्दी ब्लॉगरों के सम्मेलन में संघ-भाजपा विरोधी नामवर सिंह किस हैसियत से मौजूद थे? हो सकता है आपको इसके जवाब पता न हों, लेकिन जिन्हे पता हैं वे तो दें…
ऊ अंग्रेजी में कहते हुए सुना था कभी कि शो मस्ट गो ऑन ।
वैसे कोई तो कागज के फूल में से भी खुश्बू ले लेता है……ओर किसी को असली गुलाब से भी खुश्बू नहीं मिल पाती (अगर जुकाम हुआ हो तो
नामवर सिंह उस वि.वि. के चान्सलर हैं जिसके वाइस चान्सलर वी.एन राय हैं। यानि आयोजक संस्था महात्मा गांधी अन्तर राष्ट्रीय हिंदी वि.वि. वर्धा के यही दो सर्वोच्च अधिकारी हैं।
वाकई फ़ुरसत से लिखते हैं आप। दिल ख़ुश हो गया आपकी रिपोर्ट देख कर। सब कुछ बहुत रोचक शैली में समेटा है आपने। सिद्धार्थ जी की क्षणिक निराशा जो कुछ टिप्पणियों से पैदा हो गयी थी जरूर दूर हो गयी होगी।
इलाहाबाद में जिन किसी ब्लॊगर अतिथि मित्रों को कष्ट हुआ हो उसके लिये हमें दुख है। यह राष्ट्रीय संगोष्ठी का प्रथम प्रयत्न था अतः सुधार की गुंजाइश तो रहेगी ही। मेरा विनम्र निवेदन है कि ऐसे ब्लॉगर मित्र कहीं अन्यत्र इसी प्रकार का आयोजन करें जो भविष्य के लिये प्रतिमान हो और जिससे हमें भी कुछ सीखने को मिले। अपनी तरफ से हम कोई शिकायत का मौका नहीं देगें। अनूप जी मजेदार और तथ्यपरक रिपोर्टिंग के लिये आभार
सादर
यही तो मैं कहना चाहता हूं, सिर्फ़ चूंकि वे लोग आयोजक हैं और उन्होंने चन्द ब्लागरों को एकत्रित करने के लिये पैसा देकर मंच “खरीदा” है, इसलिये वे उपदेश देने के हकदार हो गये???
चलिये तीन सवालों में से एक का जवाब तो मिला कि नामवर सिंह की एकमात्र काबिलियत “स्पांसर” की थी…
बाकी के दो सवालों के जवाब मुझे भी मालूम हैं और आपको भी…। यह बात तो पहले से ही स्थापित थी कि हिन्दी ब्लॉग जगत में स्पष्ट रूप से तीन गुट हैं… और यह बात इस ब्लागर सम्मेलन के बाद आई विभिन्न रिपोर्टों, टिप्पणियों और लेखों के बाद और भी मजबूती से स्थापित हो गई है…कि हिन्दुत्ववादियों को “कुछ लोग” बुरी तरह से नापसन्द करते हैं… हालांकि इससे कम से कम मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता… बल्कि इससे तो “इरादों” को और मजबूती मिलती है…
(आपके संक्षिप्त जवाब के बाद मैं अपनी तरफ़ से इस बहस को विराम देता हूं, क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि जिन लोगों ने “तटस्थ” रहने की भूमिका और अपनी “साफ़सुथरी इमेज” बनाये रखने की जुगाड़, आज तक बड़ी सफ़ाई से निभाई है, वे भी लपेटे में न आ जायें)…
शु्भकामनाओं सहित…
४ दिन से स्वयं मैं चिट्ठाजगत व ब्लॉग वाणी से खोज खोज कर केवल इलाहाबाद के संगोष्ठी प्रकरण पर केन्द्रित लेख ही पढ़ रही हूँ | अवसन्न थी…. और इस सब के बीच सिद्धार्थ की मनोदशा का अनुमान लगाती जा रही थी, कि आयोजन के पश्चात कारज निपट जाने की राहत व खुशी भी क्या दूर की कौडी हो गयी, ……इतनी मारा मार मची लगी कि स्वयं एक थर्ड पार्टी होते हुए, इतनी दूर बैठे हुए, केवल पढने मात्र से त्रस्त हुई पडी थी| आयोजक होना बड़ा खतरे का खेल है| ……आपकी इस पोस्ट ने राहत दी|
पिछली बार इलाहबाद में ही ब्लॉग पर परिचर्चा के अवसर पर अपना होना याद आया कि किस प्रकार १२ घंटे में ६ क्रोसिन खाकर भी उस दिन हम इस बात पर प्रमुदित थे कि सब एक साथ मिल-जुल रहे हैं और अपने एक मित्र साथी द्वारा हाथ में लिए किसी कार्य को सिरे तक पहुँचाने में रत्ती- भर योगदान तो कर रहे हैं|…
नामवर जी की उपस्थिति के विषय में उठे प्रश्न उठा है| यह तो सभी को विदित ही होगा कि आयोजक संस्था म.गाँ. अं. हिं.वि.वि. के कुलाधिपति नामवर जी ही हैं| निर्मल वर्मा जी के निधनोपरांत से नामवर जी इस पद पर हैं| वैसे सिद्धार्थ ने भी उत्तर ( स्पष्टीकरण ) दे ही दिया है|
चित्रावली बहुत जीवंत है, आनंद आ गया|| अपनी अनुपस्थिति स्वयं को खल रही है|
वैसे आप को तो खिल-खिल में हमारे इस खलने की याद आयी नहीं होगी :)|
वाह ताज नही वाह अजित कहो:)
इन्तजार खत्म नहीं हुआ है, अभी दूसरे दिन की रिपोर्ट बाकी है.
बढ़िया.
बधाई अनूप जी — अजित भाई का गायन भी बेहतरीन रहा जी
- लावण्या
विवाद का अध्याय बंद होना चाहिये, रोज-रोज एक ही पाठ पाठ पढ़ते पढते दीमाग खराब हो जाता है। जो हुआ अच्छा हुआ, जहाँ कमियाँ रही उसे आगे सुधारने का प्रयास होना चाहिये।
निराशा भी उसी से व्यक्त की जाती है जिससे आशा की जाती है, जो मन में निराशा थी भी वह सिद्वार्थ जी से दूभाषिक बातीचीत से खत्म हो भी गई, हमने भी अपने छोटप्पन और उन्होने भी अपने बड़प्पन का परिचय दिया, और महीने मे एक दो चाय तो हम पीते ही और जल्द ही हम फिर चाय पीयेगे ही।
आपने तो सब की फोटो खीची सिवाय हमारी, जबकि जब हम भारत भ्रमण पर निकले थे तो सिर्फ आपके कैमरे की कैद में आ पाये थे, बाकी गुडगॉव, फरीदाबाद, दिल्ली और आगरा तक तो कैमरे की कैद से बच ही निकले थे चूके तो सिर्फ कानपूर में और इस बार आप चूक गये।
आपकी पूरी पोस्ट मे एक ही चीज काम कि मिली और वो है अजित जी की गजल
बाकी तो पह्ले दिन क हाल चाल पर अन्य पोस्ट बान्च चुके है और दूसरे दिन का हाल चाल तो आन्खो देख है
बारहा के टाइप कर रहा हू कुछ मुश्किल हो रही है
वीनस केशरी
फ़ोटो तो एकदम चकाचक आये हैं। एक अन्य चिट्ठे पर अजितजी का गाना सुनकर मन अति प्रसन्न हो गया। बाकी बमचक तो चलती ही रहती है।
इलाहाबाद के मच्छर सुधरे नहीं, १९९८ में जब हम अपनी बी.ई. की काउन्स्लिंग के लिये आये थे तब भी हमारा आधा किलो खून चूस लिया था और इसी से हम ४१ किलो वजन का क्राईटीरिया ५ केले और २ गिलास लस्सी पीकर पार कर पाये थे, शायद अरविन्द जी का खून ज्यादा मीठा हो, वैसे हमारे कहने का अर्थ ये नहीं कि उनकी शिकायतें जायज नहीं हैं पर अपनी अपनी आशायें/उम्मीदें होती हैं।
प्रमेन्द्र से केवल ईमेल पर बातचीत हुयी है लेकिन हमारे दिल के वो बेहद करीबी हैं और उनसे बडी आशायें हैं।
http://hindini.com/eswami/archives/286
1. इलाहाबाद ……………………..आशायें/उम्मीदें होती हैं।
2. प्रमेन्द्र से ……………………….और उनसे बडी आशायें हैं।
1. इलाहाबाद शहर के मच्छर ऐसे ही है, इसका मुख्य कारण भी है, जब आप 1998 में शहर मे आये थे तो यहाँ इलाहाबाद सिटी कम, कस्बा ज्यादा था। कम्पनी बाग, खुसरूबाग, और इलाहाबाद सिटी को समेटे 2/3 हिस्सा कैन्टोनमेंट एरिया की हरियाली इलाहाबाद के मच्छरो की ईदगाह है।
2. भाई आपका स्नेह है जो समय समय पर मिलता रहता है , अन्यथा हम कहाँ ? बस उसी आशाओ सार्थकता की चाह है कि किसी दिल में चोट न पहुँचे। पूरी कोशिश है कि आशाओ पर खरा उतरूँ।
“कुछ लोग आगे आने वाले खतरों की तरफ़ इशारा कर रहे थे।” ई पनघट की डगरवा इत्ती कठिन काहे होती है कि हर तरफ ख़तरा ही ख़तरा. इत्ता ख़तरा तो आतंकी हमले में भी नहीं है जित्ता चा पीकर कलम (कीबोर्ड) तोड़ने में है?
“खून के आंसू न बहायें” का इत्ता विज्ञापन करने के बावजूद भी संगोष्ठी के भागीदारों द्बारा इत्ती आंसू क्यों बह रहे हैं?
“सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की किताब सत्यार्थ मित्र का विमोचन हुआ।” किताब की समीक्षा बाद में छपेगी या नामवर जी ने मंच पै ही कर दी?
BTW, अजित की गजल तो जबर्ज़स्त रही.
हम क्या कहें – सबेरे से ५ कप चाय हो चुकी हैं और छठी चपरासी लाने वाला है!
kaka zyada chai peene se acidity ho jati hai.
अनुप जी, हम तो आपकी लेखनी के सताये हुये हैं । अब जल्दी से आप भी अपना व्यंग्य संकलन छपवा लीजिये । पहली किताब मैं लूंगा ।
ढेर सारी शुभकामनायें.
संजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
Email- sanjay.kumar940@gmail.com