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….देश बड़ी इस्पीड में चल रहा है
By फ़ुरसतिया on July 12, 2010
एक बार फ़िर हमें यात्रा पर निकलना पड़ा।
दफ़्तर के काम से कोलकता जाना था। रेल में रिजर्वेशन मिला नहीं। सो उड़ते-उड़ाते गये। वैसे तो लखनऊ से कोलकता की सीधी उड़ान है लेकिन एयर इंडिया की नहीं है। उनसे जाने के लिये पूर्वानुमति जरूरी होती है। पिछली अनुमति चार महीना हुये नहीं मिली इसलिये कोलकता गये वाया दिल्ली। कुछ-कुछ पाकिस्तान वाया अमेरिका की तरह।
लखनऊ से दिल्ली के लिये सबेरे की उड़ान पकड़ने के लिये बड़े सबेरे ही आ गये हवाई अड्डे। टैक्सी वाले को आठ मिनट की मोहलत है सवारी छोड़ने की। इससे अधिक देरी पर स्टैंड वाला किराया ठोंक देता है। समय को महत्वपूर्ण मानते हुये टैक्सी वाला हमें हवाई अड्डे पर फ़ेंक कर सा चलता बना।
सुबह वाकई बहुत सुबह ही थी। टैक्सी वाला भागता हुआ आया था। बहुत समय बचा लिया था उसने। ढेर सारा समय हवाई अड्डे पर खड़ा मिला। सारा इफ़रात समय धीरे-धीरे खर्चा किया। तमाम दोस्तों के हाल-चाल उनको जगा-जगा कर पूछे।
जहाज समय पर आया और हम समय पर ही दिल्ली पहुंच गये। सुबह दस बजे। इस बीच दिल्ली में झमाझम बारिश हो चुकी थी। सड़कों पर पानी जमा हो गया था। हमने वहां पहुंचकर सामान बटोरा और अपने मित्र नीरज केला से मिलने उनके दफ़्तर चले गये। वहीं मसिजीवी और अमरेन्द्र के भी दर्शन हुये। इसके साथ ही नीरज केला के ही दफ़्तर में कार्यरत डा.सुमन केसरी जी से भी मुलाकात हुई। उन्होंने अपने समय के कई संस्मरण सुनाये। सुमन जी ने लगे हाथों अपनी किताब लाइब्रेरी से मंगवाकर तीन ठो कवितायें भी सुना डालीं। एक हमारे अनुरोध पर और दो अपनी मर्जी से। एक के साथ दो फ़्री योजना के तहत। उनकी कवितायें सुनना मजेदार अनुभव रहा।
नामवरजी की चर्चा भी हुई। पता चला कि नामवरजी बहुत अच्छे अध्यापक थे। दूर-दूर से उनके लेक्चर सुनने लोग आते थे। इसी से अन्दाजा हुआ कि नामवर जी वाचिक परम्परा के आलोचक क्यों हैं। आज भी वे न्यूटन के जड़त्व के नियम के तहत अपने हिन्दी साहित्य के बालकों की क्लास लिये चले जा रहे हैं। लिखत-पढ़त का समय ही नहीं निकल पाता । यह भी पता चला कि डा.नगेन्द्र भी बहुत अच्छे अध्यापक थे । लेकिन वे नामवर जी को अपने यहां दिल्ली विश्वविद्यालय में नहीं लेना चाहते थे क्योंकि फ़िर दो अच्छे लोगों में तुलना होने लगती। दो अच्छे अध्यापकों में बेकार का तुलनात्मक अध्ययन बचाने की गर्ज से नामवर की नौकरी दिल्ली विश्वविद्यालय में लगने नहीं दी। इसके बाद नामवरजी को मजबूरी में जे एन यू में स्थापित होना पड़ा।
डा. नगेन्द्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय को अपना ब्लॉग समझकर उस पर माडरेशन सा लगा लिया और यह सुनिश्चित किया कि उस पर कोई खिलाफ़ टिप्पणी न हो जाये। कोई उनकी मर्जी के खिलाफ़ दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापक न हो जाये।
दिल्ली से कोलकता की यात्रा फ़िल्म देखते गुजरी। बीच-बीच में हवाई जहाज की उड़ान और बाहर के तापमान की जानकारी स्क्रीन पर आ रही थी। हवाई जहाज तकरीबन दस हजार मीटर की ऊंचाई पर 600 किमी प्रतिघंटा की गति से उड़ता रहा। बाहर का तामपान -45 डिग्री बताया गया। बर्फ़ बिन्दु से पैंतालिस डिग्री नीचे। बाहर निकले तो तुरंतै जम जायें। दस हजार मीटर की ऊंचाई पर उड़ते हुये सोचा मानो घर से स्टेशन की दस किमी को सीधा खड़ाकर उसके ऊपर जहाज उड़ा दिया गया हो।स्क्रीन पर हवाई जहाज की पूंछ में लगी आग देखकर ऐसा लगा रहा था कि जहाज इसई के चलते भागते चला जा रहा था।
फ़िलिम का किस्सा भी सुन लिया जाये। आते-जाते दोनों बार दिलीप कुमार, प्रेम चोपड़ा की कोई फ़िलिम देखी। हीरोइन का नाम आप बताओ। दोनो बार अधूरी रही फ़िलिम। दिलीप कुमार गोरखपुर के जज बने हैं। डबलरोल में हैं। दो घंटे में पिक्चर पूरी न हुई। हमें लगता है अगली बार फ़िर वही सब देखने को मिलेगा जो हम पहले ही देख चुके हैं।
रात नौ बजे के बाद कोलकता उतरे। फ़ेसबुक पर अपना स्टेटस टिपियाते जा रहे थे। कोलकता खुदा हुआ था। गाड़ी की स्पीड बहुत धीमे देखकर अपने स्टेटस पर हमने लिखा -गाड़ी की गति इत्ती धीमी है कि मानो कोई सुकन्या जयमाल के धीरे-धीरे मंच की तरफ़ बढ़ रही है। इत्ता लिखते ही मोबाइल ने गाड़ी की गति से गठबंधन कर लिया और पहले धीमा हुआ और फ़िर बंद। एक बार जो बंद हुआ मोबाइल तो फ़िर तभी चालू हुआ जब हम लौटने के लिये हवाई अड्डे पर आ गये।
कोलकता मुझे हमेशा चहल-पहल भरा, हरा-भरा धड़कता च फ़ड़कता हुआ शहर लगता है। फ़ुटपाथ पर मोटे नल के पाइप से नहाते कोलकतिया लोग, सड़क पर चलते बस, हथरिक्शा और ट्राम। सब धान बाइस पसेरी वाले अंदाज में। दफ़्तर के समय को छोड़ दिया जाये तो किसी को कोई हड़बड़ी नहीं। बंगाली दुकानदार अभी भी लंच के समय दुकान बंदकर खाना खाने जाते हैं। चाय की दुकानों पर अड्डे बाजी के सीन दिखे। फ़ुटपाथ पर चने-चबेने,खाने-पीने की दुकाने जमी हुई हैं। बातचीत के दौरान शिवबाबू ने बताया कि फ़ुटपाथ पर बिकते खाने की चीजों की क्वालिटी पर अभी भी भरोसा किया जा सकता है। दो दिन तक उनकी बात सुनकर यही लगता रहा कि शायद यह कहने के बाद वे किसी फ़ुटपाथी ढ़ाबे पर भोजन कराने की जमीन तैयार कर रहे हैं लेकिन लौटते समय कोलकतियों ने एक चकाचक होटल में खाना खिलाकर मेरी इस धारणा के धुर्रे उड़ा दिये। अब यह अलग बात है कि खाने का खर्चा जबरियन मृणाल ने उठाया जिन्होंने अपनी ब्लॉगिंग को केवल पढ़ने तक सीमित कर रखा है।
दो दिन कोलकता में रहे। अपने तमाम दोस्तों से मिले। मनोज कुमार से चर्चा पर चर्चा की। शिवकुमार मिश्र, प्रियंकर पालीवाल और मृणाल से मिलना हुआ। शाम को। शिवबाबू अपने नये दफ़्तर के झरोखे पर बैठे हमारा इंतजार कर रहे थे। वहीं से चाय पीते-पीते हमने एक ठो चर्चा भी ठोंक दी। लेकिन मेरे इस पुरुषार्थ से शिवबाबू ने प्रभावित होने से इंकार कर दिया और अगले दिन चर्चा नहीं की क्योंकि वे उस दिन ट्विटरिया रहे थे -शायद!
आने के पहले वाले दिन शाम को बैठकी जो शुरू हुई तो रात बारह बजे तक चली। न जाने कित्ती बातें करके डाल दी गयीं। प्रियंकरजी से मैंने फ़िर से लिखने के लिये कहा और उन्होंने फ़िर से लिखना शुरू करने का वायदा किया। मुझे पक्का यकीन है कि वे फ़िर से नहीं ही लिखना शुरू कर पायेंगे। लगता है वे हिन्दी ब्लॉगिंग के नामवर जी बनना चाहते हैं और अपने को ब्लॉगिंग की वाचिक परम्परा तक ही सीमित रखना चाहते हैं।
युसुफ़ी साहब के खोया-पानी में उनके तमाम जुमले याद किये गये और एक जुमला यह भी उछाल दिया गया कि एक बेहतरीन लेखक एक बेहतरीन जुमलेबाज होता है। जिस लेखक के जितने अधिक जुमले चर्चा में आते हैं वह उतना ही अधिक चर्चित लेखक माना जाता है। इसी बहाने माहौल बनाकर हमने न जाने कितने जुमले हम लोगों ने वहां उछाल के डाल दिये।
किसी संदर्भ में जब दो भूतपूर्व मित्रों के अभूतपूर्व शत्रु में बदलने के बाद उनमें आपस में एक दूसरे के पोल-खोलक अभियान की बात चलने पर जुमला उछला- वे दरअसल एक- दूसरे के बारे में निशुल्क जानकारी देकर सूचना के अधिकार के द्वारा फ़ीस देकर जानकारी देने-लेने का खर्चा बचा रहे हैं। एक-दूसरे की पगड़ी उछाल रहे हैं।
श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी, परसाईजी पर भी काम भर की बातें हुईं। कुमार विश्वास के बहाने हिन्दी कविता पर भी जबान साफ़ की गयी। गौतम राजरिशी और इसके बाद कंचन तथा फ़िर अमरेन्द्र की पोस्ट में कुमुदिनी और भौंरा पर बहुत बातें हुई। इसके पहले मुझसे भी इस तरह की बहसें कम से कम दो बार हो चुकी हैं। जहां तर्क की बात को कवि जनों ने पोयटिक जस्टिस की तलवार से काट-काट कर टुकड़े कर दिया।
कवि के लिये ऐसे ही नहीं कहा गया है -जहां न जाये रवि, वहां जाये कवि। रवि रश्मियां सीधी रेखा में चलती हैं। जहां अवरोध होगा रुक जायेंगी। लेकिन कवि के साथ सीधी रेखा का बधन नहीं होता। वह पोयटिक जस्टिस की कमंद के सारे जहां मन आयेगा वहां कूद-फ़ांद सकता है। इसीलिये कवि से लोग डरते हैं। कवि से भले ही कम डरा जाये लेकिन उसके प्रसंशकों से अवश्य डर के नहीं तो बच के तो रहना ही चाहिये। पता नहीं कब कौन प्रंसशक आपकी तार्किक बात से हत्थे से उखड़ जाये और तर्क के अभाव में उखड़ा हुआ हत्था आपके ऊपर फ़ेंक कर मार दे।
प्रियंकरजी का मानना था कि जिस पीढी ने प्रेम गीत पढ़े नहीं। जिसका प्रेम गीतों से नाता सिनेमा गीतों के जरिये ही जुड़ा उस पीढी के लिये कुमार विश्वास जैसे गीतकार के लिये दीवानगी सहज-स्वाभाविक है। हरेक को अपनी हिस्से में पापुलर होने का हक है।
इसी क्रम में बता दें कि कुमुदिनी खिलती भले ही रात में हो लेकिन अरुंधति राय के उपन्यास गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स में एक जगह सुबह के किस्से बताते हुये उन्होंने कुमुदिनी के ऐंठे-मुर्झाये हुये फ़ूल का जिक्र किया है( गिरजे में गरमी थी और कुमुदिनी के फ़ूलों के सफ़ेद सिरे करारे होकर ऐंठ-बरर गये थे- मामूली चीजों का देवता पृष्ठ 16 )। अब बताइये जब सुबह कोई कुमुदिनी का मुर्झाये फ़ूल किसी भौंरे को दिखा और उसने उसको चूम लिया तो तब भी आप हंगामा करोगे क्या? ऐंठे हुये को तो लोग ऐसे भी मनाने के लिये चूमने लगते हैं। कवि बिम्ब विधान और कल्पना की उड़ान में सर्वाधिकार संपन्न जीव होता है। उसके अधिकार को चुनौती देना अपने को बुद्धिमान और समझदार कहलाना ही होता है। और कलयुग में समझदार और बुद्धिमान की क्या गत होती है यह बात किसी से छिपी क्या भैया। इसलिये जो जिसको जैसे चूमना चाहता है चूमने दो, बेकार में अपने होंठ न फ़ड़काओ। वैसे भी 24×7 के दौर में दिन-रात, देर-सबेर, ठांव-कुठांव की बातें बेमानी हो गयी हैं। किसी भी समय कुछ भी किया जा सकता है।
बतकही के दौरान हिन्दी ब्लॉगिंग की असहिष्णुता पर भी चर्चा हुई। लोग बात-बात में एक-दूसरे की ऐसी-तैसी करने के लिये तैयार हो जाते हैं। अपने कपड़े और दूसरे की इज्जत उतारने लगते हैं। तमाम बातों के अलावा आभासी माध्यम के चलते भी ऐसा होने की बात समझ में आती है। लोग दूसरे के वैसा ही सोचकर त्वरित प्रतिक्रिया करते हैं जैसे वे होते हैं।
इसी क्रम में तमाम ब्लॉगरों और उनके ब्लॉग पर चर्चा हुई। प्रमोद सिंह जी सबसे ने ज्यादा टाइम खाया। प्रियंकरजी के अनुसार उनकी भाषा बड़ी समर्थ है। हमें उस समय भी लगा और अभी भी लग रहा है कि प्रियंकरजी ने उनके लेखन को समर्थ बताने की बजाय उनकी भाषा को समर्थ क्यों बताया।
शिवकुमार मिश्र की दुर्योधन की डायरी के किस्से खासकर खुले। शिवकुमार ने बताया कि कैसे उन्होंने इसे लिखना शुरू किया। मृणाल ने खास तौर पर इस बात के लिये आग्रह किया कि वे इसे दुबारा शुरू करें। हमें डर है कि वे मृणाल की बात मान न लें।
बतियाते-गपियाते-खाते-पीते-चलते-विदा लेते हुये जब हम अपने ठिकाने पर पहुंचे तो कैलेंडर की तारीख बदल चुकी थी।
अगले दिन सुबह दिल्ली और फ़िर वहां से कानपुर के लिये चले। कोलकता हवाई अड्डे पर पहुंचते ही नठिया मोबाइल फ़िर चलने लगा। रास्ते में फ़िर वही दिलीप कुमार जी की पिक्चर देखी। दिल्ली हवाई अड्डे पर तीन-चार घंटे रुककर फ़िर कानपुर पहुंचे।
सुबह कोलकता से चलकर दोपहर बाद कानपुर पहुंचना और शाम को दफ़्तर पहुंचकर काम निपटाने लगना सही में देश बड़ी इस्पीड में चल रहा है।
दफ़्तर के काम से कोलकता जाना था। रेल में रिजर्वेशन मिला नहीं। सो उड़ते-उड़ाते गये। वैसे तो लखनऊ से कोलकता की सीधी उड़ान है लेकिन एयर इंडिया की नहीं है। उनसे जाने के लिये पूर्वानुमति जरूरी होती है। पिछली अनुमति चार महीना हुये नहीं मिली इसलिये कोलकता गये वाया दिल्ली। कुछ-कुछ पाकिस्तान वाया अमेरिका की तरह।
लखनऊ से दिल्ली के लिये सबेरे की उड़ान पकड़ने के लिये बड़े सबेरे ही आ गये हवाई अड्डे। टैक्सी वाले को आठ मिनट की मोहलत है सवारी छोड़ने की। इससे अधिक देरी पर स्टैंड वाला किराया ठोंक देता है। समय को महत्वपूर्ण मानते हुये टैक्सी वाला हमें हवाई अड्डे पर फ़ेंक कर सा चलता बना।
सुबह वाकई बहुत सुबह ही थी। टैक्सी वाला भागता हुआ आया था। बहुत समय बचा लिया था उसने। ढेर सारा समय हवाई अड्डे पर खड़ा मिला। सारा इफ़रात समय धीरे-धीरे खर्चा किया। तमाम दोस्तों के हाल-चाल उनको जगा-जगा कर पूछे।
जहाज समय पर आया और हम समय पर ही दिल्ली पहुंच गये। सुबह दस बजे। इस बीच दिल्ली में झमाझम बारिश हो चुकी थी। सड़कों पर पानी जमा हो गया था। हमने वहां पहुंचकर सामान बटोरा और अपने मित्र नीरज केला से मिलने उनके दफ़्तर चले गये। वहीं मसिजीवी और अमरेन्द्र के भी दर्शन हुये। इसके साथ ही नीरज केला के ही दफ़्तर में कार्यरत डा.सुमन केसरी जी से भी मुलाकात हुई। उन्होंने अपने समय के कई संस्मरण सुनाये। सुमन जी ने लगे हाथों अपनी किताब लाइब्रेरी से मंगवाकर तीन ठो कवितायें भी सुना डालीं। एक हमारे अनुरोध पर और दो अपनी मर्जी से। एक के साथ दो फ़्री योजना के तहत। उनकी कवितायें सुनना मजेदार अनुभव रहा।
नामवरजी की चर्चा भी हुई। पता चला कि नामवरजी बहुत अच्छे अध्यापक थे। दूर-दूर से उनके लेक्चर सुनने लोग आते थे। इसी से अन्दाजा हुआ कि नामवर जी वाचिक परम्परा के आलोचक क्यों हैं। आज भी वे न्यूटन के जड़त्व के नियम के तहत अपने हिन्दी साहित्य के बालकों की क्लास लिये चले जा रहे हैं। लिखत-पढ़त का समय ही नहीं निकल पाता । यह भी पता चला कि डा.नगेन्द्र भी बहुत अच्छे अध्यापक थे । लेकिन वे नामवर जी को अपने यहां दिल्ली विश्वविद्यालय में नहीं लेना चाहते थे क्योंकि फ़िर दो अच्छे लोगों में तुलना होने लगती। दो अच्छे अध्यापकों में बेकार का तुलनात्मक अध्ययन बचाने की गर्ज से नामवर की नौकरी दिल्ली विश्वविद्यालय में लगने नहीं दी। इसके बाद नामवरजी को मजबूरी में जे एन यू में स्थापित होना पड़ा।
डा. नगेन्द्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय को अपना ब्लॉग समझकर उस पर माडरेशन सा लगा लिया और यह सुनिश्चित किया कि उस पर कोई खिलाफ़ टिप्पणी न हो जाये। कोई उनकी मर्जी के खिलाफ़ दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापक न हो जाये।
दिल्ली से कोलकता की यात्रा फ़िल्म देखते गुजरी। बीच-बीच में हवाई जहाज की उड़ान और बाहर के तापमान की जानकारी स्क्रीन पर आ रही थी। हवाई जहाज तकरीबन दस हजार मीटर की ऊंचाई पर 600 किमी प्रतिघंटा की गति से उड़ता रहा। बाहर का तामपान -45 डिग्री बताया गया। बर्फ़ बिन्दु से पैंतालिस डिग्री नीचे। बाहर निकले तो तुरंतै जम जायें। दस हजार मीटर की ऊंचाई पर उड़ते हुये सोचा मानो घर से स्टेशन की दस किमी को सीधा खड़ाकर उसके ऊपर जहाज उड़ा दिया गया हो।स्क्रीन पर हवाई जहाज की पूंछ में लगी आग देखकर ऐसा लगा रहा था कि जहाज इसई के चलते भागते चला जा रहा था।
फ़िलिम का किस्सा भी सुन लिया जाये। आते-जाते दोनों बार दिलीप कुमार, प्रेम चोपड़ा की कोई फ़िलिम देखी। हीरोइन का नाम आप बताओ। दोनो बार अधूरी रही फ़िलिम। दिलीप कुमार गोरखपुर के जज बने हैं। डबलरोल में हैं। दो घंटे में पिक्चर पूरी न हुई। हमें लगता है अगली बार फ़िर वही सब देखने को मिलेगा जो हम पहले ही देख चुके हैं।
रात नौ बजे के बाद कोलकता उतरे। फ़ेसबुक पर अपना स्टेटस टिपियाते जा रहे थे। कोलकता खुदा हुआ था। गाड़ी की स्पीड बहुत धीमे देखकर अपने स्टेटस पर हमने लिखा -गाड़ी की गति इत्ती धीमी है कि मानो कोई सुकन्या जयमाल के धीरे-धीरे मंच की तरफ़ बढ़ रही है। इत्ता लिखते ही मोबाइल ने गाड़ी की गति से गठबंधन कर लिया और पहले धीमा हुआ और फ़िर बंद। एक बार जो बंद हुआ मोबाइल तो फ़िर तभी चालू हुआ जब हम लौटने के लिये हवाई अड्डे पर आ गये।
कोलकता मुझे हमेशा चहल-पहल भरा, हरा-भरा धड़कता च फ़ड़कता हुआ शहर लगता है। फ़ुटपाथ पर मोटे नल के पाइप से नहाते कोलकतिया लोग, सड़क पर चलते बस, हथरिक्शा और ट्राम। सब धान बाइस पसेरी वाले अंदाज में। दफ़्तर के समय को छोड़ दिया जाये तो किसी को कोई हड़बड़ी नहीं। बंगाली दुकानदार अभी भी लंच के समय दुकान बंदकर खाना खाने जाते हैं। चाय की दुकानों पर अड्डे बाजी के सीन दिखे। फ़ुटपाथ पर चने-चबेने,खाने-पीने की दुकाने जमी हुई हैं। बातचीत के दौरान शिवबाबू ने बताया कि फ़ुटपाथ पर बिकते खाने की चीजों की क्वालिटी पर अभी भी भरोसा किया जा सकता है। दो दिन तक उनकी बात सुनकर यही लगता रहा कि शायद यह कहने के बाद वे किसी फ़ुटपाथी ढ़ाबे पर भोजन कराने की जमीन तैयार कर रहे हैं लेकिन लौटते समय कोलकतियों ने एक चकाचक होटल में खाना खिलाकर मेरी इस धारणा के धुर्रे उड़ा दिये। अब यह अलग बात है कि खाने का खर्चा जबरियन मृणाल ने उठाया जिन्होंने अपनी ब्लॉगिंग को केवल पढ़ने तक सीमित कर रखा है।
दो दिन कोलकता में रहे। अपने तमाम दोस्तों से मिले। मनोज कुमार से चर्चा पर चर्चा की। शिवकुमार मिश्र, प्रियंकर पालीवाल और मृणाल से मिलना हुआ। शाम को। शिवबाबू अपने नये दफ़्तर के झरोखे पर बैठे हमारा इंतजार कर रहे थे। वहीं से चाय पीते-पीते हमने एक ठो चर्चा भी ठोंक दी। लेकिन मेरे इस पुरुषार्थ से शिवबाबू ने प्रभावित होने से इंकार कर दिया और अगले दिन चर्चा नहीं की क्योंकि वे उस दिन ट्विटरिया रहे थे -शायद!
आने के पहले वाले दिन शाम को बैठकी जो शुरू हुई तो रात बारह बजे तक चली। न जाने कित्ती बातें करके डाल दी गयीं। प्रियंकरजी से मैंने फ़िर से लिखने के लिये कहा और उन्होंने फ़िर से लिखना शुरू करने का वायदा किया। मुझे पक्का यकीन है कि वे फ़िर से नहीं ही लिखना शुरू कर पायेंगे। लगता है वे हिन्दी ब्लॉगिंग के नामवर जी बनना चाहते हैं और अपने को ब्लॉगिंग की वाचिक परम्परा तक ही सीमित रखना चाहते हैं।
युसुफ़ी साहब के खोया-पानी में उनके तमाम जुमले याद किये गये और एक जुमला यह भी उछाल दिया गया कि एक बेहतरीन लेखक एक बेहतरीन जुमलेबाज होता है। जिस लेखक के जितने अधिक जुमले चर्चा में आते हैं वह उतना ही अधिक चर्चित लेखक माना जाता है। इसी बहाने माहौल बनाकर हमने न जाने कितने जुमले हम लोगों ने वहां उछाल के डाल दिये।
किसी संदर्भ में जब दो भूतपूर्व मित्रों के अभूतपूर्व शत्रु में बदलने के बाद उनमें आपस में एक दूसरे के पोल-खोलक अभियान की बात चलने पर जुमला उछला- वे दरअसल एक- दूसरे के बारे में निशुल्क जानकारी देकर सूचना के अधिकार के द्वारा फ़ीस देकर जानकारी देने-लेने का खर्चा बचा रहे हैं। एक-दूसरे की पगड़ी उछाल रहे हैं।
श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी, परसाईजी पर भी काम भर की बातें हुईं। कुमार विश्वास के बहाने हिन्दी कविता पर भी जबान साफ़ की गयी। गौतम राजरिशी और इसके बाद कंचन तथा फ़िर अमरेन्द्र की पोस्ट में कुमुदिनी और भौंरा पर बहुत बातें हुई। इसके पहले मुझसे भी इस तरह की बहसें कम से कम दो बार हो चुकी हैं। जहां तर्क की बात को कवि जनों ने पोयटिक जस्टिस की तलवार से काट-काट कर टुकड़े कर दिया।
कवि के लिये ऐसे ही नहीं कहा गया है -जहां न जाये रवि, वहां जाये कवि। रवि रश्मियां सीधी रेखा में चलती हैं। जहां अवरोध होगा रुक जायेंगी। लेकिन कवि के साथ सीधी रेखा का बधन नहीं होता। वह पोयटिक जस्टिस की कमंद के सारे जहां मन आयेगा वहां कूद-फ़ांद सकता है। इसीलिये कवि से लोग डरते हैं। कवि से भले ही कम डरा जाये लेकिन उसके प्रसंशकों से अवश्य डर के नहीं तो बच के तो रहना ही चाहिये। पता नहीं कब कौन प्रंसशक आपकी तार्किक बात से हत्थे से उखड़ जाये और तर्क के अभाव में उखड़ा हुआ हत्था आपके ऊपर फ़ेंक कर मार दे।
प्रियंकरजी का मानना था कि जिस पीढी ने प्रेम गीत पढ़े नहीं। जिसका प्रेम गीतों से नाता सिनेमा गीतों के जरिये ही जुड़ा उस पीढी के लिये कुमार विश्वास जैसे गीतकार के लिये दीवानगी सहज-स्वाभाविक है। हरेक को अपनी हिस्से में पापुलर होने का हक है।
इसी क्रम में बता दें कि कुमुदिनी खिलती भले ही रात में हो लेकिन अरुंधति राय के उपन्यास गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स में एक जगह सुबह के किस्से बताते हुये उन्होंने कुमुदिनी के ऐंठे-मुर्झाये हुये फ़ूल का जिक्र किया है( गिरजे में गरमी थी और कुमुदिनी के फ़ूलों के सफ़ेद सिरे करारे होकर ऐंठ-बरर गये थे- मामूली चीजों का देवता पृष्ठ 16 )। अब बताइये जब सुबह कोई कुमुदिनी का मुर्झाये फ़ूल किसी भौंरे को दिखा और उसने उसको चूम लिया तो तब भी आप हंगामा करोगे क्या? ऐंठे हुये को तो लोग ऐसे भी मनाने के लिये चूमने लगते हैं। कवि बिम्ब विधान और कल्पना की उड़ान में सर्वाधिकार संपन्न जीव होता है। उसके अधिकार को चुनौती देना अपने को बुद्धिमान और समझदार कहलाना ही होता है। और कलयुग में समझदार और बुद्धिमान की क्या गत होती है यह बात किसी से छिपी क्या भैया। इसलिये जो जिसको जैसे चूमना चाहता है चूमने दो, बेकार में अपने होंठ न फ़ड़काओ। वैसे भी 24×7 के दौर में दिन-रात, देर-सबेर, ठांव-कुठांव की बातें बेमानी हो गयी हैं। किसी भी समय कुछ भी किया जा सकता है।
बतकही के दौरान हिन्दी ब्लॉगिंग की असहिष्णुता पर भी चर्चा हुई। लोग बात-बात में एक-दूसरे की ऐसी-तैसी करने के लिये तैयार हो जाते हैं। अपने कपड़े और दूसरे की इज्जत उतारने लगते हैं। तमाम बातों के अलावा आभासी माध्यम के चलते भी ऐसा होने की बात समझ में आती है। लोग दूसरे के वैसा ही सोचकर त्वरित प्रतिक्रिया करते हैं जैसे वे होते हैं।
इसी क्रम में तमाम ब्लॉगरों और उनके ब्लॉग पर चर्चा हुई। प्रमोद सिंह जी सबसे ने ज्यादा टाइम खाया। प्रियंकरजी के अनुसार उनकी भाषा बड़ी समर्थ है। हमें उस समय भी लगा और अभी भी लग रहा है कि प्रियंकरजी ने उनके लेखन को समर्थ बताने की बजाय उनकी भाषा को समर्थ क्यों बताया।
शिवकुमार मिश्र की दुर्योधन की डायरी के किस्से खासकर खुले। शिवकुमार ने बताया कि कैसे उन्होंने इसे लिखना शुरू किया। मृणाल ने खास तौर पर इस बात के लिये आग्रह किया कि वे इसे दुबारा शुरू करें। हमें डर है कि वे मृणाल की बात मान न लें।
बतियाते-गपियाते-खाते-पीते-चलते-विदा लेते हुये जब हम अपने ठिकाने पर पहुंचे तो कैलेंडर की तारीख बदल चुकी थी।
अगले दिन सुबह दिल्ली और फ़िर वहां से कानपुर के लिये चले। कोलकता हवाई अड्डे पर पहुंचते ही नठिया मोबाइल फ़िर चलने लगा। रास्ते में फ़िर वही दिलीप कुमार जी की पिक्चर देखी। दिल्ली हवाई अड्डे पर तीन-चार घंटे रुककर फ़िर कानपुर पहुंचे।
सुबह कोलकता से चलकर दोपहर बाद कानपुर पहुंचना और शाम को दफ़्तर पहुंचकर काम निपटाने लगना सही में देश बड़ी इस्पीड में चल रहा है।
Posted in बस यूं ही, संस्मरण | 29 Responses
भयानक श्रन्गारिक वर्णन… वैसे ट्रैम का भी तो यही हाल है..
शिव जी ने बडी सही बात की.. जब मै कोलकाता मे था तब हम कैन्टीन का खाना छोडकर बाहर फ़ुटपाथ की टपरियो पर खाना खाते थे… और वहा खाने के लिये भी लाईन लगती थी… कोलकाता ने अपने आप को सहेजकर रखा है… वहा अभी भी २०-३० रूपये मे कोई भर पेट खाना खा सकता है और ये मै साल्टलेक जैसे पाश जगह की बात बता रहा हू…
P.S. प्रमोद जी तो है ही अमेजिग.. मुझे जितनी अच्छी उनकी पोस्ट्स लगती है उतने ही अच्छे उनके जवाब..
Pankaj Upadhyay की हालिया प्रविष्टी..काश सोंचने के पैसे मिलते-
बढ़िया विवरण…चौचक….औचक और भौचक।
चौचक इसलिए कि सम्पूरण वाला लगा।
औचक इसलिए कि आप कोलकाता हैं यह अचानक पता चला।
भौंचक इसलिए कि….मोटे नल के नीचे नहाते बंगाली-कलकतिया को प्रेमचंद के ‘गबन’ फिल्म में भी दिखाया गया है …..यानि कलकत्ता अब भी वही है
शानदार फुरसतिया पोस्ट।
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..नील गोदामसलामीपत्रकार-फत्रकारभंभ ररती कोठी ललकारता देहातसतीश पंचम
विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..क्या आपको हिन्दी वर्णमाला आती है Do you know Hindi Alphabets
ओर हाँ मोबाइल का बिल भी दे दीजिये करिये …
dr.anurag की हालिया प्रविष्टी..सुनो खुदा -तुम्हे छुट्टी की इज़ाज़त नहीं है
प्रमोद सिंह का समूचा लेखन ही समृद्ध है पर उनकी भाषा तो बस उनकी अपनी है. वैसी भाषा लिखने वाला दूसरा कोई नहीं दिखता. न हिंदी ब्लॉग जगत में और न उस हिंदी साहित्य में जिसमें कई संपादक अपने पट्ठों की मांसपेशियों/पैक्स की फ़ैशन परेड नुमा नाना उपक्रम जब तब आयोजित-प्रायोजित करते रहते हैं .
नामवर जी ने कभी भारतेन्दु के गद्य को बोल-चाल का नहीं बल्कि ’बोलता हुआ गद्य’ जैसा कुछ कहा था. प्रमोद जैसा ठेठ देसी ठाठ का अभिव्यंजक गद्य हिंदी ब्लॉग जगत की वह उपलब्धि है जिसके लिये हिंदी साहित्य अभी प्रतीक्षारत है और तब तक प्रतीक्षारत रहेगा जब तक प्रमोद की कोई किताब हिंदी साहित्य परिसर में अपनी वाजिब जगह नहीं बनाती.
शिवकुमार मिश्र में एक अच्छे व्यंग्य लेखक की सारी संभावनाएं मौजूद हैं. पर कोई उन्हें छाप दें तो वे हत्थे से उखड़ जाते हैं.पहले एक बार ऐसा हो चुका है.पता नहीं वे सूचित न किये जाने से नाराज थे या फिर वे एक्स्ट्रीम किस्म के पर्यावरण प्रेमी हैं जो कागज़ नष्ट नहीं करना चाहते. अब उन्हें कौन समझाए कि कागज़ खाली बैलेंसशीट छापने के लिये नहीं होते. अब यह अलग बात है कि शरद जोशी मानते थे कि इस देश में कोरा कागज़ छपे हुए कागज़ से ज्यादा डिमांड में होता है.
मृणाल अत्यंत बहुपठित व्यक्ति लगे . यह उनसे दूसरी मुलाकात थी. साहित्य को लेकर उनका उत्साह संक्रामक है. इतना तो अब साहित्यकार कहाने वालों में नहीं दिखता. उससे भी अधिक प्रभावित करती है उनकी शांत होकर पूरे अवधान के साथ सुनने की कला,जिसका इधर बहुत टोटा है. जिस तरह से वे ऑरवेल के ’एनिमल फ़ॉर्म’ और श्रीलाल शुक्ल के ’राग दरबारी’ के व्यंग्य को जोड़ कर देख रहे थे उनके साहित्यप्रेम और सजग विवेक का परिचय मिल रहा था.
आप सबसे मिलना आनन्ददायक था. बहुत-बहुत सुखद !
Priyankar की हालिया प्रविष्टी..विमलेश त्रिपाठी की दो कविताएं
इस्पीड तो इस पोस्ट की देखकर डर लगता है.. एक सांस में पढ़ता चला गया… मेरे दिल के करीब है शहर कलकत्ता… आपने तो सिर्फ सड़क के किनारे नहाते लोग देखे और ठेले पर से खाना खाते लोग… मैंने तो एक बुझे हुए तंदूर मे एक साथ पांच लोगो को सोकर बुझी हुई आग से ठण्ड भगाते देखा है. खैर इस बार आपकी फुर्सत काफी तवील हो गई थी..
आपकी इस कलकत्ता यात्रा में एक पल मेरे नाम भी है, एक छोटा सा पल जब मनोज जी ने आपसे मेरी बात करवाई. जबरिये सही!!
कोलकाता में भी चैन नहीं, कुछ नहीं तो चार ठो ब्लॉगर बटोर कर साहित्त-चर्चे कड्डाली..
अ से अध्यापक का आ से आलोचक बन कर जैसे तैसे ठिंया पर टिके हुये नामवर सिंह बेचारे को भी साहित्य चर्चा में घसीट लिया ? नारायण नारायण नारायण ।
ब्लॉगर से आपका जुड़ाव देख बेबी कॉचम्मा की याद आती है..” जहाँ डोले काला भँवरा, वहीं डोलूँ मैं !”
( अरुधँति रॉय की उसी किताब – मामूली चीजों का देवता के पृष्ठ 133 से )
इसी इसटोरी की एक अउर फ़िलिम इसके पहले बन चुकी है.. अब उसका नाँव आप बताइये..
पठनीयता तो ऐसी है कि इस प्रविष्टि ने कल ही २० मिनट और जगा दिया ! ‘खोया पानी’ तक तक पहुंचा ही दिया आपने ! अन्य कुछ लिंकों तक जाना भी लाभकारी रहा |
विज्ञान की पृष्ठभूमि से जुड़े व्यक्ति द्वारा इतना सरस लिखना अचरज में डालता है ! ”
Abhishek की हालिया प्रविष्टी..सी-थ्रीफाइव पोटाचियो घूघूरियानों भाग 2
राम त्यागी की हालिया प्रविष्टी..वो भी क्या दिन थे …
बतियाने के चक्कर में फोटो-सोटो नहीं हो पाया. अगली बार आइये तो फिर कैमरा तैयार रखेंगे आफिसे में.
अभय जी त बता दिए नहीं तो हम पहले टिपियाते तो ज़रूर बताते कि ऊ फिलिम का नाम दास्तान था. इसी कहानी पर एक फिलिम पहले बनी थी. नाम शायद अफसाना था. अशोक कुमार जी थे उसमें. हाँ, दोनों फिलिम का डायरेक्टर एक ही थे.
अब अच्छा पढने का शौक किसको नही होता…
मस्त पोस्ट!
प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI की हालिया प्रविष्टी..जमीनी स्तर क्या कोई नया परिवर्तन का वाहक बन सकता है ब्लॉग
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