Friday, August 06, 2010

कल्पना का घोड़ा,हिमालय की ऊंचाई और बिम्ब अधिकार आयोग

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कल्पना का घोड़ा,हिमालय की ऊंचाई और बिम्ब अधिकार आयोग

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कवि और लेखक अपनी बात कहने के लिये उपमा/रूपक का सहारा लेते हैं। फ़ूल सा चेहरा, झील सी आंखे, हिमालय सी ऊंचाई, सागर सी गहराई, मक्खन सा मुलायम, चाकू सा तेज, कल्पना का घोड़ा।
इस तरह से बात समझने में आसानी होती है। पढ़ा/सुना/देखा/सोचा और बात समझ में आ गयी। जिस चीज को किसी ने देखा हो उस सरीखा किसी दूसरे को बताया जाये तो दूसरे के बारे में खट से एक अंदाज हो जाता है।
लेकिन बिम्ब/उपमाओं की भी उमर होती है। समय के साथ वे उपमायें बेमानी सी हो जाती हैं लेकिन रूढ़ हो जाने के चलते चालू रहती हैं। प्रयोग करते रहते हैं लोग! उपमायें कोई ’प्रयोग किया फ़ेंक दिया’ जैसी खपतिया सामान तो होती नहीं। पीढियों तक चलती हैं। लेकिन इसई के चलते लफ़ड़ा भी होता है अक्सर।
अब जैसे देखिये जैसे कल्पना के घोड़े पर सवार होने की बात है। यह उपमा जब प्रयोग में आना शुरु हुई होगी तब घोड़ा ही सबसे तेज सवारी होता होगा। कल्पना को तेज भगाना है सो घोड़े पर बैठा दिया। भागती चली गयी किड़बिड़-किड़बिड़। जिन लोगों ने इसका प्रयोग शुरु किया होगा वे पुरुषवादी मानसिकता के भी बताये जा सकते हैं। क्योंकि घोड़े पर बैठने का काम ज्यादातर पुरुषों ने किया। महिलायें तो डोली/पालकी पर ही चलती रहीं। तो जहां कल्पनाओं की बात चली। पुरुषों की कल्पनायें भागती चली गयी घोड़े पर और स्त्रियों की कल्पनायें धीरे-धीरे पिछलग्गू बनी चलती रहीं। पिछड़ गयीं। क्या यह भी एक कारण है महिलाओं के पीछे रह जाने का?
कल्पना के लिये घोड़े की सवारी करते हुये दिखाना ऐसा ही है जैसा बाढ़ में राहत सामग्री बंटना। कागज पर सब बंट गयी लेकिन पहुंची कहीं नहीं।
अब कोई कह सकता है कि कल्पना तो अंतत: स्त्रीलिंग शब्द है। चाहे पुरुष की हो या स्त्री की। घुड़सवारी तो कल्पना ही करेगी। लेकिन यह भी सोचा जाये कि जो स्त्री पात्र कभी खुद घोड़े पर नहीं बैठी वह अपनी कल्पना को कैसे बैठा देगी। बैठायेगी भी तो बहुत दूर तक भेजने में सकुचाइयेगी। इत्ती दूर तक ही भेजेगी ताकि अंधेरा होने के पहले कल्पना वापस घर लौट आये। या फ़िर किसी पुरुष कल्पना के साथ सवार होकर उसके साथ जायेगी।
बहरहाल छोड़िये औरत/मर्द की बात। अब आप यह सोचिये कि आजकल तेज सवारी कार के जमाने में कल्पना को घोड़े पर सवार बताना क्या सही है। सड़कों से घोड़े गायब हैं, गांवों से अस्तबल गायब हैं, सेनाओं में घोड़े केवल परेड के लिये बचे। ले-देकर घोड़े सिनेमा में बचे हैं जहां हीरो या विलेन को किसी घोड़े पर दांव लगाते दिखाना होता है बस्स। ऐसे में कल्पना के लिये घोड़े की सवारी करते हुये दिखाना ऐसा ही है जैसा बाढ़ में राहत सामग्री बंटना। कागज पर सब बंट गयी लेकिन पहुंची कहीं नहीं।
अब कल्पना के घोड़े की जगह कल्पना की साइकिल,मोटर साइकिल, कार, मर्सिडीज ,आल्टो प्रयोग होना चाहिये। सामूहिक कल्पनाओं के लिये मेट्रो कल्पना, राजधानी कल्पना, शताब्दी कल्पनायें प्रयोग की जा सकती हैं।
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कभी-कभी लोग बड़ी अटपटी उपमायें प्रयोग करते हैं। ऐसा लगता है कि कवि/लेखक लोग हमेशा क्रांति के मूड में रहते हैं। जो चीज दिखी सामने उसे हथियार में बदल लिया। जो बिम्ब दिखा उसे जोत दिया अपनी रचना सवारी में। चल बेटा पाठक के पास। पाठक अपना दिल खोले इंतजार कर रहा है। पलक पांवड़े बिछाये हुये।
बिम्ब/ उपमानों का भी कोई बिम्ब-उपमान अधिकार होना चाहिये। जिस किसी बिम्ब को उसकी गरिमा के अनुरूप न लगाया जाये वो भाग के चला जाये बिम्ब अधिकार आयोग में और ठोंक से मानहानि का दावा।
आये दिन इस तरह के अन्याय/अत्याचार होते रहते हैं बिम्बों/उपमानों के साथ। किसी को कहीं फ़िट कर दिया कोई कहीं। बिम्ब/ उपमानों का भी कोई बिम्ब-उपमान अधिकार होना चाहिये। जिस किसी बिम्ब को उसकी गरिमा के अनुरूप न लगाया जाये वो भाग के चला जाये बिम्ब अधिकार आयोग में और ठोंक से मानहानि का दावा। ऊंचाई का बिम्ब ऊंचाई के लिये, नीचाई का नीचाई के लिये। महानता का बिम्ब महान लोगों के साथ लगेगा, कम महान लोगों का कम महान लोगों के साथ। सीनियर बिम्ब सीनियर पात्र के लिये जूनियर बिम्ब नये,ताजे, फ़ड़कते पात्र के लिये। किसी भी बिम्ब के साथ दुभांती हुई तो वह बिना फ़ीस के अदालत में मुकदमा ठोंक सकता है। उसका केस कोई सरकारी वकील बिम्ब लड़ेगा जिसको साहित्य की भी जानकारी होगी।
बहुतायत में प्रयोग किये जाने वाले बिम्ब बिम्ब आयोग अधिकार में अर्जी लगा सकते हैं कि साहब देखिये काम तो हमसे हचक के लिया जाता है लेकिन मजूरी वही जो सबको मिलती है। फ़िंच जाते हैं प्रयोग होते-होते लेकिन उसके हिसाब से भुगतान नहीं होता। कम उमर वाले नये बिम्ब को खतरे वाली जगहों में भेजने की मनाही हो सकती है। स्त्री बिम्बों की सुरक्षा के लिये विशेष उपाय किये जायें। उनके भी आरक्षण की बात चल सकती है ताकि उसे भी लटकाया जा सके।
अगर ऐसा हुआ तो बड़े मजेदार किस्से आयेंगे सामने। अब देखिये एक नामचीन च लोकप्रिय गीतकार ने शहीद की शान में कवितापेश की है।
शहीद की शान में कवितायें लिखना एक उज्ज्वल परम्परा शहीदों पर कविता लिखना हमेशा सुरक्षित रहता है। कोई कुछ बोल नहीं सकता सिवाय सर झुकाकर आंखे नम कर लेने के। कवि को भी कविता में शहीद अलाउंस मिल जाता है। उसके काव्यदोष को अनदेखा कर दिया जाता है। पोयटिक जस्टिस का भी विशेषाधिकार तो हमेशा ही रहता है कवि के साथ।
हां तो बात शहीद पर लिखी गयी कविता की हो रही थी। तो कवि ने लिखा है और फ़िर सुर में गाया भी है- है नमन उनको कि, जिनके सामने बौना हिमालय अब बताइये इसका मतलब क्या समझा जाये। हिमालय को बौना बना दिया शहीद के सम्मान में।
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हिमालय को हम दिनकरजी की कविताओं से जानते आये हैं।
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट
पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

अब बताइये कभी का साकार,दिव्य,गौरव विराट बौना होकर कैसा लगेगा? कवि हिमालय को बौना बनाये बिना भी शहीद को महान बता सकता था। हिमालय से अनुरोध करता तो वह शहीद के सम्मान में अपना माथा झुका देता। उससे कहते तो वह शहीद की याद में नदियों के रूप में बह जाता। लेकिन शायद कवि मजबूर है। उसका काम हिमालय को बौना बिना चल नहीं पायेगा।
एक सैनिक के मुंह से ही कभी हमें सुनवाया गया था-
कट गये सर हमारे तो कुछ गम नहीं
सर हिमालय का हमने न झुकने दिया।

शहीद की शान में कवितायें लिखना एक उज्ज्वल परम्परा शहीदों पर कविता लिखना हमेशा सुरक्षित रहता है। कोई कुछ बोल नहीं सकता सिवाय सर झुकाकर आंखे नम कर लेने के। कवि को भी कविता में शहीद अलाउंस मिल जाता है।
अपनी जान देकर भी जिस हिमालय के सर को झुकने से बचा पाने का संतोष सैनिक के मन रहा होगा उसी हिमालय को सैनिक के सम्मान में बौना बना दिया। सैनिक की आत्मा कलपती होगी। जिसकी रक्षा के लिये वह शहीद हो गया वही उसके चलते बौना हो गया। बेटे की शहादत पर बाप का सीना चौड़ा होता है, सर फ़ख्र से ऊंचा होता है। किसी बेटे की शहादत के बारे में लिखते हुये कोई कवि लिखे बेटे के शहीद होने से बाप बौना हो गया-इसी तरह की बात लगती है हिमालय को बौना बताना।
धर्मपाल अवस्थीजी ने कारगिल के शहीदों की याद करते हुये कविता में पाकिस्तानी सैनिकों का जिक्र करते हुये लिखा है- अउना, बउना सब पउना सब। ( वे सब भगोड़े तुम्हारे सामने (शहीदों के सामने) औने,बौने, पौने हैं)। लेकिन यहां कवि जी ने हिमालय का हिसाब कर दिया। देश का गौरव सैनिक की शहादत से बौना हो गया। बलिहारी है कवी जी की।
कोई आशु कवि इस तरह की उपमायें लिखे तो बात समझ में आती हैं लेकिन हमारे समय के लोकप्रिय गीतकार इस तरह की वीरतायें दिखायें हैं तो उनको कौन रोकेगा? कौन टोकेगा? खासकर तब जब वे इस बात को अपना कविता पाठ शुरू करने से पहले बताते हैं अंग्रेजी में- Its better to be a good poet than a bad engineer. जब अच्छे कवि के ये हाल हैं तो खराब कविगणों के क्या हवाल होंगे। उनके प्रशंसक जो उनको अनुकरण करके लिखने-पढ़ने का अभ्यास करते हैं वे भी इसी महान परम्परा को आगे बढ़ायेंगे। अटपटे,चौंकाने वाले बिम्ब इस्तेमाल करेंगे, बेमेल उपमायें देंगे और कविता- कल्याण करेंगे।
वैसे कवि की अपनी स्वतंत्र सत्ता होती है। वह अपने मन, मूड, मौका, मर्जी के अनुसार अपने बिंब तय करता है। कभी-कभी तो चाहकर भी अटपटा बिम्ब बदल नहीं पाता। किसी-किसी कविता में तो बिम्ब का अटपटापन ही उसकी खूबसूरती बन जाता है। बिम्ब से अटपटापन हटा दो कविता की खूबसूरती का फ़ेयरवेल हो जाता है।
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रचनाओं के साथ नये-नये प्रयोग करने की चाह के चलते भी चौंकाने वाले बिम्ब प्रयोग में लाये जाते हैं। अक्सर इस तरह के प्रयोग देखते रहने के चलते अब तो इस तरह के प्रयोगों में चौंकाने की क्षमता भी खोते जा रहे हैं।
निदा फ़ाजली जी की बहुत प्रसिद्ध गजल है जिसमें उन्होंने मां के बारे में लिखते हुये लिखा था- बेसन की सोंधी रोटी पर ,खट्टी चटनी जैसी मां। बहुत प्यारी सी बलि-बलि जाऊं टाइप उपमा है मां की। न जाने कितने लोगों ने इस जमीन पर गजलें लिखीं होंगी। लेकिन इसको अलग नजरिये से देखा जाये तो लगता है कि संबंधो की वस्तुओं में बदलने की कवायद की शुरुआत है। मां का दर्जा दुनिया के हर साहित्य में ऊंचा ,सबसे ऊंचा माना गया है। मां के उदात्त गुणों की बात की जाती है। मां की ममता , प्रेम, क्षमा, त्याग के न जाने कितनी-कितनी तरह उपमायें प्रयोग की गयीं होंगी। लेकिन इसमें मां की याद को खट्टी चटनी,चौका-बासन,चिमटा, फुकनी जैसी बताकर शायर ने मां को सामान में बदल दिया। बहुत प्यारा बिम्ब है लेकिन मां को सामान में बदलने के बाद।
रचनाओं के साथ नये-नये प्रयोग करने की चाह के चलते भी चौंकाने वाले बिम्ब प्रयोग में लाये जाते हैं। अक्सर इस तरह के प्रयोग देखते रहने के चलते अब तो इस तरह के प्रयोगों में चौंकाने की क्षमता भी खोते जा रहे हैं।
अरे लेकिन हम भी यह सब क्यों लिख रहे हैं। हम कोई कवि या आलोचक तो हैं नहीं। मात्र पाठक और श्रोता हैं। एक श्रोता और पाठक को यह अधिकार थोड़ी होता है कि वह कवि और शायर के काम में दखल दे। है कि नहीं!

मेरी पसंद

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गीत !
हम गाते नहीं
तो कौन गाता?
ये पटरियां
ये धुआँ
उस पर अंधरे रास्ते
तुम चले आओ यहाँ
हम हैं तुम्हारे वास्ते।
गीत !
हम आते नहीं तो
कौन आता?
छीनकर सब ले चले
हमको
हमारे शहर से
पर कहाँ सम्भव
कि बह ले
नीर
बचकर लहर से।
गीत!
हम लाते नहीं
तो कौन लाता?
प्यार ही छूटा नहीं
घर-बार भी
त्यौहार भी
और शायद छूट जाये
प्राण का आधार भी
गीत!
हम पाते नहीं
तो कौन पाता?
-विनोद श्रीवास्तव,कानपुर

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

84 responses to “कल्पना का घोड़ा,हिमालय की ऊंचाई और बिम्ब अधिकार आयोग”

  1. प्रवीण पाण्डेय
    चिन्तनात्मक चिन्ता।
  2. anitakumar
    वाह आज तो बिम्बों का मानवीकरण हो गया। आज कल कल्पना सुपर सौनिक जेट पर बैठ कर उड़ती है। अब तक तो इसी दुनिया में रहती थी अब सेटलाइट के चलते पूरे ब्रम्हांड में घूम आती है।बहुत दिनो बाद आप की पोस्ट पर विनोद श्रीवास्तव जी की कविता का आगमन हुआ है,कविता अच्छी लगी। आप की चिन्तायें जायज हैं।
  3. समीर लाल
    अनावश्यक एवं अफसोसजनक विवेचन.
    चूँकि बात सभी कवियों और कवि समुदाय के रचनाकर्म की चली है, तो किसी भी रचनाकार की लेखनी, उसकी सोच और उसकी कल्पना का आधार उसकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति एवं विशिष्टता होती है, उस पर अनावश्यक टीका टिप्पणी करना शोभा नहीं देता वो भी तब जबकि वो बेवजह हो.
    चूँकि यह कमेंट आपने मेरी फेस बुक की वाल पर किया अतः मुझे कहना पड़ा. अभी अभी उसी वाल पर राजेश स्वार्थी का कमेंट भी देखा तो सोचा कि आपके संज्ञान में वो भी लाता चलूँ.
    Rajesh Swarthi
    हिमालय पर्वत की सबसे ऊँची चोटी एवरेस्ट को फतह कर इन्सान कितना गौरवान्वित महसूस करता है अपनी विजय पर. वही हिमालय, जिसे भारत की सीमा पर खड़ा प्रहरी कहा गया है और जिसकी ऊँचाईयों के आगे सारे पर्वत नत मस्तक है, जब उसे लाँघ कर सीमा पार से दुश्मन हमारे देश पर हमला करने घुस आता है, तो इन सैनिकों की बहादुरी, हौसले, शहादत उन दुश्मनों के नापाक इरादों को रौंद देते है. ये बहादुर जांबाज अपनी जान की परवाह न करते हुए उन्हें मूँह तोड़ जबाब देते हैं. तब इनके हौसलों की ऊँचाई के आगे हिमालय की ऊँची से ऊँची चोटी भी बौनी ही नजर आती है. किसी को बौना या खुद से छोटा करने के अर्थ यह कतई नहीं होता कि हमने उसका कद काट दिया. किसी लकीर को छोटा करने के लिए उससे बड़ी लकीर खींच देना काफी है. उसे काटने या असम्मानित करने की जरुरत भी नहीं.
    यहाँ कविता में कवि उन जाबांजों के हौसलों की बात कर रहा है, जिनकी ऊँचाईयों की कोई सीमा ही नहीं. हिमालय को तो फिर भी आप फुट और मीटर में माप सकते हैं.
    मित्र, कवि की भावनाओं को समझो और अपनी सोच व्यापक करो. यह एक श्रृद्धांजलि गीत है और शहीदों के प्रति कवि की भावनाओं की अभिव्यक्ति. कयदा यह कहता है कि अगर साथ गा न सको, शहीदों का साथ निभा न सको तो कम से कम उनके सम्मान में बोले जा रहे दो शब्दों को किसी की शोहरत की जलन से उत्पन्न अपनी खीज का माध्यम न मनाओ. मत मानो अहसान उन शहीदों का किन्तु उनके सम्मान में कहे जा रहे शब्दों को काट उनका अपमान तो न करो.
    हिमालय के कद की चिन्ता में घुलते रहे किन्तु शहीदों के सम्मान में दो शब्द न फूटे.
    वैसे यह कोई नई बात नहीं, आजकल शोक सभाओं और शमशान तक में लोग गुट बनायें हँसते नजर आते हैं और शोक संदेशों तक में व्याकरण की त्रुटियाँ निकाल अपने आपको व्याकरणाचार्य मनवाने से नहीं चुकते.
    यह गीत तो सुना होगा:
    जब घायल हुआ हिमालय
    खतरे में पड़ी आज़ादी
    जब तक थी साँस लड़े वो
    फिर अपनी लाश बिछा दी
    अब यह न कहने लगना कि कवि की सोच पर तरस आ रहा है कि अटल, अडिग, विराट हिमालय को घायल बता दिया.

    बाकी तो आप भी लिखने को स्वतंत्र हैं, मुझे क्यूँ बोलना चाहिये. शुभकामनाएँ.
  4. वन्दना अवस्थी दुबे
    जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि…. मतलब अनूप जी. पता नहीं कितने “आइडिये” हैं आपके पास….
    लेकिन सच है बिम्बों के बिना हमारी कोई बात पूरी ही नहीं होती जैसे. शाम को ही मैं एक बच्चे को कह रही थी- कैसे बांस जैसे लम्बे होते जा रहे हो? गधे की तरह पूरा बोझा (बैग) क्यों लादे रहते हो? मेंढक की तरह कूदते क्यों रहते हो?….. कमाल का विषय चुना है आज आपने.
    आपकी विशिष्ट शैली के वाक्य पूरा दृश्य उकेर रहे हैं.
    “बहुतायत में प्रयोग किये जाने वाले बिम्ब बिम्ब आयोग अधिकार में अर्जी लगा सकते हैं कि साहब देखिये काम तो हमसे हचक के लिया जाता है लेकिन मजूरी वही जो सबको मिलती है। फ़िंच जाते हैं प्रयोग होते-होते लेकिन उसके हिसाब से भुगतान नहीं होता। कम उमर वाले नये बिम्ब को खतरे वाली जगहों में भेजने की मनाही हो सकती है। स्त्री बिम्बों की सुरक्षा के लिये विशेष उपाय किये जायें। उनके भी आरक्षण की बात चल सकती है ताकि उसे भी लटकाया जा सके”
    बहुत पते की बात है ये-
    “शहीद की शान में कवितायें लिखना एक उज्ज्वल परम्परा शहीदों पर कविता लिखना हमेशा सुरक्षित रहता है। कोई कुछ बोल नहीं सकता सिवाय सर झुकाकर आंखे नम कर लेने के। कवि को भी कविता में शहीद अलाउंस मिल जाता है। उसके काव्यदोष को अनदेखा कर दिया जाता है।”
    ये चिन्ता तो बहुत सार्थक चिन्ता है, केवल शहीदों की ही नहीं, हम सबकी भी-
    “अपनी जान देकर भी जिस हिमालय के सर को झुकने से बचा पाने का संतोष सैनिक के मन रहा होगा उसी हिमालय को सैनिक के सम्मान में बौना बना दिया। सैनिक की आत्मा कलपती होगी। जिसकी रक्षा के लिये वह शहीद हो गया वही उसके चलते बौना हो गया।”
    कमाल की नज़र-
    “लेकिन इसमें मां की याद को खट्टी चटनी,चौका-बासन,चिमटा, फुकनी जैसी बताकर शायर ने मां को सामान में बदल दिया। बहुत प्यारा बिम्ब है लेकिन मां को सामान में बदलने के बाद”
    सब बहुत बढिया, लेकिन एक जगह कर दी न गड़बड़?
    ” पुरुषों की कल्पनायें भागती चली गयी घोड़े पर और स्त्रियों की कल्पनायें धीरे-धीरे पिछलग्गू बनी चलती रहीं। पिछड़ गयीं। क्या यह भी एक कारण है महिलाओं के पीछे रह जाने का?”
    भले ही कल्पनाओं के लिये पिछलग्गू शब्द का इस्तेमाल हुआ, लेकिन ये कल्पनाएं थीं तो स्त्री की ही न? कब तक पिछलग्गू और पीछे मानी जाती रहेंगीं महिलाएं?
    आज एक पत्रिका में राजेन्द्र यादव का ” मर्द-नामा” कॉलम पढ रही थी, उन्होंने भी वहां महिलाओं को खूब कम-बुद्धि , डांवाडोल और पता नहीं क्या-क्या कहा…. :(
  5. amrendra nath tripathi
    पहले तो राजेश स्वार्थी जी को दिया गया ( समीर लाल जी की फेसबुक पर भी ) जवाब रख दूँ , फिर आपकी पोस्ट पर बात जारी करूंगा .. इत्मीनान से …
    @ समीर लाल जी ,
    कवि की जिस निजता का तर्क आप रख रहे हैं , वह किसी निर्जन-आइलैंड में नहीं है , वह निर्वात की जद पर नहीं है , वह इसी समाज में और इसी के विधान ( सामाजिक और सांस्कृतिक दोनों ) में परखी जायेगी .. कमजोरियों पर टीका-टिप्पणी होनी ही चाहिए .. सीमाओं की उपेक्षा और शक्ति का स्वीकार होना चाहिए .. !!
    ” @ Rajesh Swarthi जी ,
    खांची भर वाग्जाल रचने से बेहतर होता है छटाक भर काम की बात करना .. अफ़सोस है कि इतने ज्यादा अनावश्यक विस्तार के बाद भी आप कोई ठोस तर्क नहीं दे सके , आप इस घटिया कवि को बचा नहीं सके .. भावुलता के ”माइलेज” का तर्क कोई तर्क नहीं .. यह कोई नई बात नहीं है कि दोयम दर्जे का आत्ममुग्ध लेखक अपनी कला के घटियापन को शहादत , मजहबी , निजी बेचारगी … आदि-आदि के के लपेट के साथ चला देने का नाटक करता रहा है .. ” सच बात मान लो चेहरे पे धूल है / इल्जाम आईने पे लगाना फिजूल है ! ” .. आपकी कविता की छिछली-समझ पर तरस आता है कि श्रेष्ठ कवि प्रदीप की जिन पंक्तियों को आपने रखा है उसमें हिमालय का घायल होना देश के हृदय – प्रदेश / संवेदना – निलय के घायल होने से है , हिमालय वहाँ पूरे भारत का रूपक है , यहाँ हिमालय की सकारात्मक उपस्थिति है , इसलिए कवि प्रदीप का काव्य विवेक सही है .. यह अर्थ – गौरव कुमार विश्वास की दोयम दर्जे की कविताई में ढूँढने से भी नहीं मिलेगा .. क्या वहाँ बौने हिमालय के भाव-साम्य को पूरे भारत के बौनेपन से बैठाएंगे , कुमार विश्वास की कविता में उनके घटिया काव्य-विवेक की वजह से हिमालय नकारात्मक रूप में दिखाया गया है .. यह बात अगर समझ में आ सके तो बेहतर .. बाकी शहीदों की शहादत की चिंता आपसे कम नहीं है मुझे , हाँ उनकी बेमोल कुर्बानियों पर किसी घटिया कवि को ”माइलेज” नहीं लेने देंगे .. और हम देशभक्त हैं या नहीं इसके लिए आप या किसी कुमार विश्वास का ‘सर्टिफिकेट’ नहीं चाहिए !! .. आभार !! ”
  6. Pankaj Upadhyay
    ऎसे सारे कवियो को या कहे तो सारे ही कवियो को एक बार ये पढना चाहिये और पूछना चाहिये कि वो लिखते क्यो है?
    रेनर मारिया रिल्के का पहला पत्र फ़्रैंज कापुस के नाम
  7. जी मैं, ख़्वामखाँ !

    तन कातिक मन अगहन
    बार-बार हो रहा
    मुझमें तेरा कुआर
    जैसे कुछ बो रहा हो

    जैसी कविताओं को घँटों सिर धुनने के बाद भी महसूस नहीं कर पाया,
    ऎसे अमूर्त भावों की अपनी नासमझी पर शर्म के मारे टहनी पर टँगे हुये चाँद को देखने की प्रैक्टिस / तपस्या करना चाहा, पर वह हैलुसिनेशन जग ही न सका ।
    इस प्रकार मैं अपनी मूढ़ता से उऋण न हो पाया ।
    हाँ, याद आया.. मारी कटारी मर जाना हो नयनों की धार से.. इन जैसों से तो मैं कई कई बार घायल होकर मरने से बचा हूँ । न तो नयन-कटारी की धार किसी को दिखा, न ही मेरा घायल होकर ज़िन्दा बच निकलना कोई भाँप पाया ।
    नासमझों.. ना समझे ? समझने वाले समझ गये.. ना समझे वो अनाड़ी है.. अईसा एकु दईं नरगिस मऊसी फिलिम मॉ बोलिन रहा.. हम वहिका गाँठि मा बाँधे डोल रहेन हैं !
  8. eswami
    वीर रस और वीर प्रसंग में अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग ऐतिहासिक रूप से किया जाता रहा है!
    हनुमान की पूंछ में लगन न पायी आगि ।
    सगरी लंका जल गई ,गये निसाचर भागि। ।
    अब कर दिया तो कर दिया हिमालय को सैनिक से बौन इसी लाईसेंस के तहत! हां अतिशयोक्ति और बिंब/उपमा की अतार्किकता/अटपटेपन का फ़र्क जानना जरूरी है. अतार्किक हुए बिना भी अतिशयोक्तिपूर्ण हुआ जा सकता है. और अटपटा हुए बिना भी नई उपमाएं गढी जा सकती हैं.
    बीडी जलाईले जिगर से पिया वाले बिंब में गुलज़ार नें कामाग्नि का उल्लेख किये बिना उसकी उष्णता का जो चित्र खींचा है, अपने लोक साहित्यिक प्रसंग में परम काव्य है. आगे दैहिक संबंध की गुप्तता बनाए रखने पर “धुआं ना निकालीं ओ लब से पिया/ ये दुनिया बडी घाघ है” जैसा करिश्मा और प्रयोग गुलज़ार के यहां ही संभव है.
    मानता रहा हूं कि कविता का युग खत्म हुआ लेकिन वो अपवाद स्वरूप घटित होती जरूर है.
    हाल ही में रेडियो पर एक गीत सुना, जिसके मायने हैं –
    “जिंदा हूं बमुश्किल सांस लेता हूं.
    उस खुदा के आगे झुका हूं जिस पर ऐतबार नही करता
    क्योंकि मुझे कैद मिली उसे रिहाई
    क्योंकि जब दिल टूटता है हिस्से बराबर नही होते
    मैं क्या करूं जब मेरा बेहतर हिस्सा तुम थीं
    मैं क्या कहूं जब मेरा दम घुटता है तुम्हे फ़र्क नही पडता
    मेरे टुकडे टुकडे हो रहे हैं
    जब दिल टूटता है हिस्से बराबर नही होते.” ( http://www.youtube.com/watch?v=9yZ1uI5yPbY )
    ऐसे बिंब मेरी उम्मीद जिंदा रखते रहे हैं.
  9. amrendra nath tripathi
    कवि की चेतना पर जब हुल्लड़ और कुल्हड़ की अंधी चिकनाई चढ़ जाती है तो वह कहीं से भी दो बेमेल शब्दों-उपमाओं-रूपकों-बिम्बों को कविता में लड़ाने लगता है जैसे मेला में लड़ाने वाले तमाशा दिखाते वक़्त तीतर और बटेर को लड़ाते हैं .. फिर चारों तरफ दर्शक खड़े होकर हत्थी मारने का काम बखूबी करते ही रहते हैं .. वैसे तो कवि अपने मन का मालिक है , चाहे चाँद को चौराहे पर गिरवीं रखे चाहे अपनी मेहरारू का जेवर चंद्रमा पर लोकर में जमा कर आये , पर जब ससुरा अपने आपको ‘कबिरा दीवाना था , मीरा दीवानी थी ‘ की परम्परा में जोड़ के ”गुड कवि” की सामाजिक स्वीकृति का दावा ठोंकने लगता है ( भिखारी की तरह माँगी गयी कुछ अंध-भक्तों की करतल ध्वनि के बल पर ..) , तो जरूरी हो जाता है कि एक सामाजिक इकाई के तौर पर ( किसी के द्वारा भी ) उस ‘मगरूर’ कवि को उसकी औकात बताई जाय !.. दिखाया जाय कि कबीर-मीरा आदि की हिन्दी-कविता की परम्परा इतनी सस्ती नहीं है कि उसमें बच्चू तुमको आसानी से इंट्री-कार्ड मिल जाएगा .. मर्सिडीज में बैठो और कल्पना की मर्सिडीज दौडाते रहो , लन्दन – अमेरिका जाते रहो , पर साहित्य/साहित्यकार के सामने चौड़ाई लिए तो सेकण्ड भर में तुम्हे नापकर बता देगा कि कितने पानी में हो , कितने बौने हो .. क्योंकि साहिय-कर्म इतना आसान नहीं —
    `’कबीर’ यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
    सीस उतारे हाथि धरि, सो पैठे घर माहिं॥ ”
    — ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे सबके बस का नहीं है इसका ‘इंट्री-कार्ड’ पाना ! इस शाश्वत – प्रासाद में पैठ के लिए विरल वाणी-साधना की अपेक्षा होती है , ऐसे ‘फ्री-फंड’ में नहीं होता यह !!
  10. Abhishek
    हम्म…
    बाकी कुछ भी हो लिखने वाले ने उपमा पर इतना तो नहिये सोचा होगा इसकी गारंटी :)
  11. Ghost Buster
    समीर लाल जी से सहमत हूं.
    कुमार विश्वास को नहीं जानता, पहली बार देखा, सुना. गीत ठीक-ठाक लगा. वीडियो का अच्छा प्रयोग कर भावनाओं को बखूबी उभारा गया है. अच्छा काम है.
    उनके द्वारा हिमालय के साथ किये गये व्यवहार पर आपकी आपत्तियाँ मुझे कन्विन्सिंग नहीं लगीं. कहीं पूर्वाग्रह जैसा कुछ मामला तो नहीं?
  12. समीर लाल
    साहित्य जगत का एन्ट्री पास?? बहुत ही अजीब सी लगी यह बात-कौन बांटता है यह एन्ट्री पास और क्या योग्यता है इसे पाने की? कितने का है, जरुर जानना चाहूँगा. हर लिखने वाला जानना चाहेगा कि कैसे प्राप्त किया जाये इसको. सर्वोपरि तो यही जानना कठिन हो रहा है कि साहित्य कहते किसे हैं??? सब अलग अलग परिभाषा लिए घूम रहे हैं, पहले हम इस पर एकमत हो लें तो आगे बढ़ें.
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  13. समीर लाल
    शायद इसी एन्ट्री पास की अवधारणा ने हिन्दी साहित्य जगत का बंटाधार किया है, दोस्त!! कुछ लोग एन्ट्री पास बांटने का बीड़ा उठाये घूम रहे हैं और कुछ एन्ट्री पास पाने का. जो तथाकथित एन्ट्री पास पा गये हैं, वो खुली हवा में पनपते वृक्ष की बजाये गमले में लगे बोनसाई बन एक विशिष्ट वर्ग के बीच प्रसंशित हो मुग्धमना बने बैठे हैं बिना किसी विस्तार के. न छाया है और न कोई प्रयोजन. महज सजावट की वस्तु!!
    काश!! एन्ट्री पास का इन्सपेक्टर राज भी चूंगी नाकों की तरह खत्म हो और साहित्य का वृक्ष अपना स्वभाविक विस्तार पा सके. फल का स्वाद और छाया का आराम तो आम जन के हाथ है, वो बता ही देंगे.
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  14. amrendra nath tripathi
    @ समीर लाल जी ,
    इन्ट्रीपास और साहित्य दोनों मूल्य तो लोकमंगल की साधनावस्था हैं , कोई दूसरा नहीं बांटता , व्यक्ति के अन्दर विराजमान वाक्-शक्ति ही उसे प्राप्त करती/कराती है एक स्थिति विशेष के बाद ..जिसके लिए ‘प्रतिभा’ , ‘व्युत्पत्ति’ और ‘अभ्यास’ जैसे साहित्य-मूल कारकों की चर्चा होती आयी है ..पर यह साधनभूत स्थिति है .. अफ़सोस होता है कि आप सा साहित्य-साधक इतना भी नहीं समझ पाया कि मेरे बातों में साहित्य के सन्दर्भ में ‘इन्ट्रीपास’ का मतलब किसी सिनेमा टिकेट से नहीं है .. कबीर का दोहा भी इसी विचार से दिया है , इसके बाद भी आपने समझने का प्रयासभर भी नहीं किया ..साहित्य में व्यंजना शब्द-शक्ति भी होती है , उसका भी काम लिया करें कभी कभी .. सीधा सीधा ‘हिंट’ भी मैंने अपनी टीप में दिया है — ” इस शाश्वत – प्रासाद में पैठ के लिए विरल वाणी-साधना की अपेक्षा होती है ” अफ़सोस है कि इसके बाद भी आप पूर्वाग्रह से ही आगे बढ़े और मेरी बातों का उत्स न समझ सके , आप जैसे श्रेष्ठ ब्लोगर से यह पूर्वाग्रह-पूर्ण चूक विस्मय में डालती है !
  15. नीरज रोहिल्ला
    जिस युग में “टूटा टूटा एक परिन्दा ऐसे टूटा, फ़िर जुड न पाया” गीतकार, संगीतकार और गायक तीनों की नजरों से पास हो जाये वहां और क्या उम्मीद है।
    खैर, हमको कविता की समझ नहीं है तो इस बार Fence पर बैठ कर केवल टिप्पणियां पढेंगे :)
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  16. जी मैं, ख़्वामखाँ ..
    हम इँन्ट्रेस तऽ पास करि भयेन..
    ई एन्ट्री-पास हमहू का चहित रहा हो,
    ई कउनों अलग तिना केर पास आय का ?
    कउने देश माँ मिली, केहिसे पाई.. यूनीभर्सिटी का नामौ मिली जात तौन भल रहत ।
    हम तो जाना रहा के पहिले इँन्ट्रेस पास लोगन का साहित्त का लैसन्स मिली जात रहा ।
    नियम बदलि गा होय त, एक ठईं पास हमहूँ का देवाय द्यातौ फुरसतिया भाय !
    तबहिन जनौ आपौ जबरिया लिखत हो, फुरसतिया भाय ?

  17. Shiv Kumar Mishra
    बिंब के बिना कविता लिखना अपराध है. बिंब ही कविता का डिंब है. लेकिन बिंब के लिए कभी-कभी कवि कुछ ज्यादा ऊंची उड़ान भर लेता है. और जब ऐसा होता है अतिउत्साह में कवि गज़ब कर डालता है. एक बांग्ला ‘गान’ है;
    सींग नेई तोबू नाम तार सिंघो
    डीम नेई तोबू अश्वो डिम्बो
    गाये लागचेका – भेबाचेका
    हम्बा-हम्बा, डिक-डिक
    इसका मतलब है जिसकी सींग नहीं है उसका भी नाम सिंह है…जहाँ अंडा नहीं हो वहां भी घोड़े का अंडा पैदा किया जा सकता है……………
    और लिखें का?
    Shiv Kumar Mishra की हालिया प्रविष्टी..हलवा-प्रेमी राजाMy ComLuv Profile
  18. amrendra nath tripathi
    @ ‘इंट्रीपास’ और उसके प्रेमियों ..
    सबके भीतर ही है वह , खोजिये , बाकी चीजें स्पष्ट कर चुका हूँ …
    @ ” कउने देश माँ मिली, केहिसे पाई.. यूनीभर्सिटी का नामौ मिली जात तौन भल रहत ।”
    — समीरलाल जी को समझ में आ गया हो तो उनसे इस विषय में ज्ञान-परामर्श लीजिये , नासमझी की कवायद वहीं से शुरू हुई और मौक़ा मिलते ही ‘मत चूकौ चौहान ‘के अंदाज में तकुवाये बैठे लोगों को लगने लगा कि ‘कौवा कान लिहे भागा जाय ‘ , फिर अपना कान कौन देखता है ! समीर जी की रहनुमाई में किसी पर चढ़-बजने का भी अपना मजा है न ! जो लिखा है उसे समझ तो लिया होता कम-से-कम !! खैर …….
    amrendra nath tripathi की हालिया प्रविष्टी..बजार के माहौल मा चेतना कै भरमब रमई काका कै कविता ध्वाखा My ComLuv Profile
  19. Harshit
    समीर लाल जी आपको देखा तो सोचा मैं भी कुछ लिख कर ही जाऊं ……ब्लॉग लिखने वाला और ब्लॉग पर बार-बार कुमार विरोधी टिपण्णी लिख कुतर्क देने वाला दोनों ही व्यथित चित्त-वृति वाले लोग हैं …इन्हें साहित्य की चिंता मात्र भर नहीं …….ये परेशान है क्योंकि इनका पडोसी भर पेट खाना खा रहा है….इज्ज़त पा रहा है .. वरिष्ट लोगों के बीच उठ-बैठ रहा है…..वास्तव में ये वो सब पाना चाहते हैं जों डॉ. कुमार विश्वास पा रहे हैं. …..इनके हिसाब से साहित्यकार वो है जों बड़ा ही दीन-हीन हो ….कविसम्मेलन में मिली हुई शॉल को रास्ते पे बैठे भिखारी को दान दे दें…..ये तब भी उसकी प्रशंसा नहीं करेंगे बल्कि उसके मरने का इंतज़ार करेंगे ……क्योंकि मरणोपरांत किये कार्यो की समीक्षा करना ही इन्हें संस्कारों में मिला है
    अमरेद्र तो वैसे भी कुमार विश्वास से द्वेष रखने वाले इंसान हैं…..वो साहित्य से तो कम छात्र राजनीति से प्रभावित ज्यादा ज्यादा देखते हैं……कुमार विश्वास के खिलाफ लिखकर लोकप्रियता बटोरने के चक्कर में हैं……और सफल भी हुए , ब्लॉग जगत में लोग जान गए इन्हें …..इस सफलता के लिए इन्हें मुबारकबाद …और फुरसतिया ब्लॉग्गिंग जगत में गिरती अपनी लोकप्रियता को सँभालने की कोशिश करते हुए ….भाई दोनों ही मार्केटिंग कर रहे हैं तो करने देते हैं …..वैसे भी डॉ. विश्वास के समकक्ष तो कहीं पर से नहीं…..जिन साहित्यकारों के साथ विश्वास साहब का उठाना-बैठा हैं उनकी एक झलक इन्हें मिले. या फिर हाथ मिलाने का मौका तो तपाक से एक पोस्ट लिख टिप्पणिया बटोर लेंगे ……
    जों व्यक्ति शिष्ट नहीं है ….जिसकी कलम हिंदी की उच्च डिग्री रखने के बाद में अपने से उम्र में, ओहदे में और तजुर्बे में बड़े व्यक्ति के लिए शब्दों का चुनाव नहीं जानती ….ऐसे कूप-मंडूक से क्या शिकायत….अब आदतन अमरेन्द्र जवाब देगा….और तीखा,पैना :-) क्यों ऊर्जा व्यर्थ गवाते हो भाई …..
    अब हवाएं ही करेंगी रोशनी का फैसला,
    जिस दिए में तेल होगा बस वही रह जाएगा
    ॐ शांति ॐ
  20. Uchit Awasthi
    “ससुरा” लिखे हैं एक भद्र कवि को अमरेन्द्र. पाखी के समारोह में जिस कवि के लिए इन के कुलगुरु और मान्य विद्वान नामवर जी भी “अद्भुत भाषा और विषद स्मरण शक्ति ” वाला कवि बोले थे {रिपोर्ट देख लें}…[जब ससुरा अपने आपको ‘कबिरा दीवाना था , मीरा दीवानी थी ‘ की परम्परा में जोड़ के ”गुड कवि” की सामाजिक स्वीकृति का दावा ठोंकने लगता है ( भिखारी की तरह माँगी गयी कुछ अंध-भक्तों की करतल ध्वनि के बल पर ..) ]
    इस से पहले भी पढ़ा था एकवचन में इनका संवाद …..अफसोसनाक है की इर्ष्या और डाह किसी को इतना असभ्य बना सकती है. हो सकता है की आप सही हों किन्तु साहित्य की एक शाब्दिक मर्यादा है …या तो मामला व्यक्तिगत है जिस की बू आ रही है या आप को क्षमा मांगनी चाहिए …..और यह असभ्यता भी एक ऐसे व्यक्ति के लिए जो यहाँ आप से संवाद के लिए उपस्थित नहीं है.
  21. Harshit
    शर्म आ रही है क्या …..कमेन्ट प्रकाशित करने में….चिटठा जो खोल दिए हैं
  22. जी मैं, ख़्वामखाँ ..
    क्यॊं इतने कुँठित हो, अमरेन्द्र ?
    हर जगह तुम्हारी छवि यूँ ही धूमिल होती जाती है !
    गाल तुम्हारे अपने हैं, जितना मर्ज़ी हो बजाओ.. पर दूसरों के गाल पर नज़र डालोगे, तो…
    मुझे तुम पर तरस आता है । मैं घुमा फिरा कर बातें क्यों करूँ, प्रखरबुद्धि होते हुये भी, क्यॊं इतने कुँठित हो, अमरेन्द्र ?
  23. Uchit Awasthi
    “ससुरा” “भिखारी”, “कविता का बनिया ” “घटिया”,और ना जाने क्या क्या ???? अनूप जी आप का ब्लॉग बहुत मन से पढ़ते हैं हम सब किन्तु इसे ऐसा मत होने दीजिये की हमे लगे की हम किसी चरित्रहनन कार्यशाला मे बैठे हैं. सहमती असहमति अपनी जगह. बातचीत का सलीका अपनी जगह. अमरेन्द्र जी भी शायद सहमत हों
  24. जनता का सवाल है कि देश का अगला इन्डियन आयडल कौन बनेगा?
    समीर लाल जी के फेसबुक पर कमेन्ट करने वाले भी उन्ही की स्टाईल में कमेन्ट करते है | देखिये ना स्वार्थी जी भी समीर लाल जी की तरह ही हर लाईन के बाद फुल स्टॉप लगा रहे है
    देखिये समीर लाल जी लिखते है – विवेचन. बेवजह हो. चलूँ.
    और देखिये स्वार्थी जी लिखते है – विजय पर. भी नहीं. सकते हैं.
    चंद्रबिंदु का उपयोग भी केवल इन्ही दो लोगो ने किया है |
    और वैसे भी ये बात तो बच्चा बच्चा जानता है कि जब भी समीर लाल जी के खिलाफ कोई बात होती है स्वार्थी जी तुरंत वहां उपस्थित हो जाते है | समीर जी की फ्रेंड्स लिस्ट में मेरा भी नाम है और इस से पहले स्वार्थी साहब ने उनको कभी कमेन्ट नहीं किया | बल्कि समीर लाल जी की वाल पोस्ट आने पर ही स्वार्थी जी और समीर लाल जी फेसबुक पर दोस्त बने है | इस बात की पुष्टि समीर लाल जी के फेसबुक प्रोफाईल पर जाकर की जा सकती है | तो क्या स्वार्थी जी को सपना आया था कि समीर जी की वाल पर ये सब हो रहा है ?
    तो जब स्वार्थी समीर जी के मित्र ही नहीं थे उन्होंने वाल पोस्ट कैसे पढ़ ली और अपना कमेन्ट कैसे कर दिया | स्पस्ट है कि हमेशा की तरह समीर लाल जी ने जब देखा कि उनके खिलाफ कुछ कहा गया तो उन्होंने अपना लोगिन चेंज किया और स्वार्थी के नाम से फेसबुक में लोगिन किया फिर फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी और तुरंत अनूप जी को जवाब लिखा और अपने मन की खुन्नस साफ़ की |
    और उसी खुन्नस की वजह से उन्होंने राजेश स्वार्थी की प्रोफाईल की बजाय अपने नाम से यहाँ पर कमेन्ट पोस्ट किया क्योंकि यदि यहाँ वो स्वार्थी के नाम से कमेन्ट करते तो उनका आई पी अनूप जी दो मिनट में पकड़ लेते |
    समीर लाल जी जब तर्कों से नहीं जीत सकते तो वे ऐसे ही हथकंडे अपना लेते है ये उनका पुराना और प्रिय शगल है |
  25. sanjay bengani
    कविताजी की ज्यादा समझ नहीं है, बिम्ब, छाया हमें बिन्दी, लाली से शब्द लगते है अतः बोलना अपराध होगा. बाकि हमारे भीतर भी वीररस का कवि भोत बार जोर मारता है, धरती फटने से बचाने के लिए दबा देते है. एंट्रीपास की परवाह किसे है, ब्लॉग है ना…
  26. सतीश पंचम
    अरे भई…इहां तो बड़ी बमचक मची है ।
    वैसे भी कविता फविता की समझ अपने को ज्यादा नहीं है। कुछ जो थोड़ी बहुत है समझ है वह किसी खाने पीने वाली कविताओं के आसपास ही है…….. याद है…पीपल के घने साये थे….गिलहरी के जूठे मटर खाए थे……टाइप…….और अपन तो इसी में खुश हैं।
    यहां गंभीर चिंतन चल रहा है सो नो हा हा ही ही…..। इतना जरूर कहूंगा कि साहित्य रचने वाला कोई भी हो सकता है…..उसमें एंट्री पास वाली बात अमरेन्द्र जी ने एक व्यंजना के तौर पर कही लगती है…..यह कहना कि लोहे के चने चबवा दिए का मतलब यह नही कि बंदा लोहा ही चबाएगा…….कुछ बातें समझाइश वाली भी होती हैं।
    रही बात बिंबो के इस्तेमाल की तो वह कविता का एक ऐसा हिस्सा है जिसकी तुलना मैं खेतों में हल चलाने से करूँगा। ( गँवईं माणूस हूँ इसलिए उसी अंदाज में कहूंगा :)
    हाँ तो मैं बिंबों की तुलना हल से इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यदि ज्यादा गहराई से खेत में हल चला दिया जाय तो नीचे की मिट्टी उपर आकर सत्यानाश कर देगी…..और फसल का तो जो होगा सो होगा…. साला फिर से सोड़ा खाद देकर उसकी उर्वरता वापस लाने में बंदे का भट्ठा बैठ जाएगा……। बिंब उतने ही अच्छे लगते हैं जितने कि कविता को उर्वर बनाए रखे, उसमें हरितिमा और जीवंतता को दर्शाए…न कि कस्तूनतूनिया और ओकलाहोमा को लाकर सामने पटक दे और कहे इसमें से होरी और धनिया कहीं दिख रहे हों तो बताओ :)
    सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..मुन्नी झण्डू बाम हुई आईटम सांग कॉमनवेल्थ के लिए बिल्कुल सटीक बैठ रहा हैसतीश पंचमMy ComLuv Profile
  27. amrendra nath tripathi
    वो बात जिसका सारे फ़साने में जिक्र न था,
    वो बात उनको बहुत नाग़वार गुज़री है। ( ~ फैज़ )
    — आप लोगों की अधिकाँश बाते रोष और रुदन में की गयी अभिव्यक्तियाँ है , तर्क की बातें होतीं तो जवाब दिया जाता , मैंने जो भी आरंभिक कमेन्ट में लिखा वह फोक-स्टाइल में व्यंजना में लिखा है , लोक-समझ से दूर लोग भाव-ग्रहण न कर सके , जब समझ में बात न आये तो गाल नहीं बजाना चाहिए ..गुट बना कर तो आप ही लोग धावा बोले हैं , मैं न तो कवि हूँ , न ही कुमार विश्वास जैसा प्रसिद्धि , चाटुकारों और तालियों का भिखारी , इसलिए मजे में हूँ , याद रहे मेरा लक्ष्य कुमार विश्वास का व्यक्तित्व नहीं बल्कि कवित्व है , कुमार विश्वास को एक प्रवृत्ति मान के चल रहा हूँ , उससे मेरा विरोध है !
    — गुरुवर नामवर जी बड़े समीक्षक हैं , सम्मान करता हूँ … और किसी के द्वारा कही कोई भी बात समीक्षा/तर्क की कसौटी पर कसी जानी चाहिए/ कसी जा सकती है / कसी जायेगी ..
    — कुंठित ?.. वह जो किसी दुसरे के ब्लॉग पर बाबा बना किसी के कमेन्ट को वीटो पावर से डिलीट करवाता है क्या वह नहीं ? .. याद आया ? .. ‘जे बिनु काज दाहिने बाएं’ , जाने किस सुपरमैसी के लिए घूमता रहता है क्या वह नहीं ? .. ‘चिराग तले अन्धेरा देखिये पहले’ ..! .. तर्क के बजाय फतवे पे उतरना आपकी नियति है !
    ”ये वो जगह है जहां चुप रहें तो बेहतर है,
    लोग नुक्ते का भी अफ़साना बना लेते हैं | ” … अफ़साने भी मनगढ़ंत/फिजूल/नासमझी/गुटबाजी/व्यक्ति-द्रोह/’आइदेंतिती-क्राइसिस’/अंध-आका-भक्ति/अवसरवाद/……आदि के ! ये अफ़साने आपको मुबारक !
    amrendra nath tripathi की हालिया प्रविष्टी..बजार के माहौल मा चेतना कै भरमब रमई काका कै कविता ध्वाखा My ComLuv Profile
  28. kanchan
    एक बहुत ही सुन्दर व्यंग्य, जो कि व्यक्तिगत आक्षेपों कि बलि चढ़ गया… पढ़ कर कष्ट हुआ
    आश्चर्य हुआ कि माँ की बेसन और खट्टी चटनी से तुलना करने का विरोध यूँ कर होता है क्यों कि वो वस्तु है और फिर वहीँ किसी वस्तु के ही एक शहीद व्यक्ति से बौना हो जाने पर इतना विरोध.
    क्या हम शिव सेना नहीं हो गए जिन्हें जिनका विरोध करना है, उनका बस करना है. चाहे जो है, जैसे हो.
    हिमालय सम्मानित है इसलिए, क्यों कि हमने ही उसे अपनी किसी कविता में सम्मान दे दिया और भारत के प्रहरी के रूप में मान लिया. मगर वो जो जीता जगता शख्स था, जिसकी अपनी पारिवारिक संवेदनाएं भी थीं, जिसने उन्हें छोड़ मौत को चुना और भारत माँ के प्रहरी होने का धर्म निभाया, उसके सामने अगर दूसरे प्रहरी को बौना मान लिया जाये तो इतना शोर क्यों ?
    पता नहीं मै अपनी बात ठीक से कह पा रही हूँ या नहीं मगर मुझे बुरा लग रहा है यूँ बेबात की बात का मुद्दा बनाना.
    मै kumar विश्वास के समर्थन या अमरेन्द्र के विपक्ष में बोलने के लिए नहीं कह रही, फिर भी मुझे लगता है की अमरेन्द्र जी के पास जो अपनी उर्जा है, उसका प्रयोग जहाँ तहां कुमार विश्वास का नाम पढ़ कर विरोध करने से बेहतर है की कुछ अलग रचनात्मकता उकेरी जाये.
    अपनी बात कहते समय हम अगर अपनी भाषा नियंत्रण करने में असफल रहते हैं तो हम शब्दों के पुजारियों और गाँव के पट्टीदारो में क्या अंतर रह जाता है ?
    चन्दर बरदाई जो बात बात में पृथ्वी राज को हिमालय, सागर और इन्द्र से भी बड़ा batate हैं, कबीर दास जिनकी जीभ में राम पुकार पुकार के छाले पड़ गए हैं (हद है कबीर के jhooth की), जायसी, जिनकी नायिका के हाथ की अंगूठी विरहावस्था में उसके हाथ का कंगन हो गयी है…
    इन सब रचनाकारों से हम वंचित रह जाते अगर वो इस कंप्यूटर युग में पैदा हुए होते और इस त्वरित विरोध के भागी बने होते….
    हर विधा का अपना आनंद है, इन बिंबों का भी… आप को नहीं पसंद आप ना प्रयोग करें और ना पढ़ें मगर हम जैसे लोगो का आनंद ना छीने.. गुलज़ार की कत्थई आँखों वाली लड़की मिले तो डर जाऊँगी मै. मगर पढ़ कर जो आनंद मिलता हैं उसे khona नहीं chahti.
    एक बात और.. andhbhakti से kam jahreeli ये andh विरोध कि bhavana नहीं है….
    kanchan की हालिया प्रविष्टी..सलामत रहे दोस्ताना हमाराMy ComLuv Profile
  29. Uchit Awasthi
    भाई अमरेन्द्र जी! एक तो आप “हकीर तिनका ” और “फैज़ साहब का यही शेर किस-किस जगह और कितनी बार लिखेंगे,अरे भाई कौन आप को हकीर कह रहा है ?आप खूब छाती कूटीये लेकिन ऐसी की आप के हाथ लोगों के चाँद पर ना नाचने लगें ….अब आप गाली गलौच करेंगे तो यही लगेगा की आप को एक स्टार का छाया भय हो गया है .पर कुमार साहब को तो आप लोगों का आभरी होना चाहिए की मंच के महाकवि नीरज तक को आप की पाठशाला ने नोटिस नहीं लिया और उसी मंच के महारथी डॉ कुमार पर आप पेज दर पेज लिखे जा रहें हैं. और तो और आप के ही परिसर मे वो एक स्टार की तरह आये.थैले भर रूपया, तीन घंटा भर का धमाल और पीछे भागती भीड़ बटोर कर अगले मंच पर चल दिए. आप के यहाँ के एक इरफ़ान साहब हैं ,इस बार भारत आने पर उन्होंने जो सी डी दी थी JNU की उस मे तो भाई ने धुंआ कर दिया था. कहीं वही घाव तो नहीं रिस रहा.
  30. दोस्ताना सलामत
    सहमत हूँ कँचन, टिप्पणियों का ट्रैक चिरँजीवी अमरेन्द्र जी के टीप के बाद ही बिगड़ा है ।
    जोधपुरिये जासूस की टिप्पणी पर यह ट्रैक किधर जायेगा, हम्मैं खेद है..अनूप जी । अब होय देयो जौन हुई रहा है ।
  31. amrendra nath tripathi
    @ …. JNU , कुमार विश्वास के व्यक्तित्व और इन फिजूल की बातों को क्यों हमसे शेयर कर रहे हो जब मैं कुमार विश्वास के ‘कवित्व’ पर बात कर रहा हूँ ( जिसका कि अब आप से अंध-भक्तों से करने का कोई माने भी नहीं रह गया है ) .. इस सबके लिए आप कुमार विश्वास से बतलाइये वही बेहतर … कोई शेर जहां जहां प्रासंगिक लगेगा , वहाँ वहाँ उद्धृत करूंगा , काहे इसका ‘टेंसन’ लेते हो !!
    @ कंचन जी , ‘क्या करना चाहिए ‘- इसका स्मरण कराने का शुक्रिया .. आभारी हूँ !
    amrendra nath tripathi की हालिया प्रविष्टी..बजार के माहौल मा चेतना कै भरमब रमई काका कै कविता ध्वाखा My ComLuv Profile
  32. Harshit
    @ कंचन जी आपकी तर्कसंगत बात का पूर्ण मन और आदर के साथ समर्थन करता हूँ ….लेकिन व्यक्ति विरोधी लोग यहाँ भी कुतर्क ढून्ढ लेंगे …..मुझे ये बात नहीं समझ आती की इनकी आलोचना की कलम गुलज़ार, प्रदीप , समीर, साहिर, आनंद बक्षी, प्रसून जोशी के बिम्बों पर क्यों नहीं चलती …….क्यों पड़े हैं कुमार विश्वास के पीछे ?
    और अनूप जी उर्फ़ फुरसतिया जी इनको कुमार विश्वास के देशभक्ति गीत ( बिम्बों )से इतनी ही समस्या थी तो स्वयम उनसे सम्पर्क करते….. कवि का भाव समझ लेते ….एक पोस्ट लिख ब्लॉग जगत में अमरेन्द्र जैसे लोगों के साथ ग्रुपबाजी क्या प्राप्त कर लिया इन्होने ? यकीनन दुराशय ही मुख्य भावना है.
    वरना टिप्पणीकार द्वारा शब्दों की सीमायें तोड़ने पर प्रथम आपत्ति तो स्वयम ब्लॉग लेखक की तरफ से ही आनी चाहिए थी …..असहमति जताइए लेकिन शालीनता और शब्दों की मर्यादा में रहकर….किसी की तरफ जब एक ऊंगली उठाई जाती है तो बाकी की तीन आपकी तरफ ही इशारा करती हैं.
  33. amrendra nath tripathi
    @ ……आपने लिखा – JNU में .” थैले भर रूपया, तीन घंटा भर का धमाल ” — लग रहा है कि किसी ”गुड पोयट” नहीं बल्कि किसी आइटम-बाज की हकीकत उसी के अंध-भक्त ने रख दी .. मैंने भी तो यही कहता आया हूँ कि वह ‘गुड पोयट’ नहीं बल्कि ”गुड थैला-बाज या धमाल-बाज ” है ! .. जैसे भी सही , रोष-रुदन में ही सही पर आपने कम-से-कम यह कबूला तो .. आभारी हूँ मित्र इसके लिए आपका !!
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  34. समीर लाल
    @ समीर लाल जी जब तर्कों से नहीं जीत सकते तो वे ऐसे ही हथकंडे अपना लेते है ये उनका पुराना और प्रिय शगल है |
    -इतना पुराना और प्रिय शगल और ऐसी गल्तियाँ??
    समीर लाल तो बहुत कच्चे खिलाड़ी निकले. इतना भी नहीं समझते कि चन्द्र बिन्दु और फुल स्टाप तो बदल देते. :)
    समीर लाल की हालिया प्रविष्टी..कैसी हत्या – लघुत्तम कथा और कविताMy ComLuv Profile
  35. गिरिजेश राव
    हम आप से भरपूर सहमत हैं अनूप जी।
    कभी किसी ने कुछ बिम्ब, प्रतीक आदि आदि के लिए कहा था – “… इनके देवता कर गए हैं कूच।”
    स्वस्थ आलोचना न तो फैन क्लब में भाषण है और न तो विश्वास प्रस्ताव पर विरोध पक्ष का वक्तव्य।…
    एक इंजीनियर (बेहतर वाला हूँ) की जुबान में कहूँ तो Load goes to stiffness.
    आलोचना के साथ भी ऐसा ही है और उसे इसी अर्थ में लिया जाना चाहिए न कि व्यक्तिगत स्तर पर।
    अमरेन्द्र जी की तल्खी उस ‘हल्केपन’ के प्रति है जो ग़ैर ज़िम्मेदार प्रशंसा की हवाओं पर उँचासें भरता है। किसी प्रवृत्ति के शीर्ष जन ही आलोचना के लक्ष्य होते हैं।
    हाँ, अभिधा, व्यन्जना और लक्षणा शब्द शक्तियों का आदर करना चाहिए। समझना चाहिए। अब अमरेन्द्र जी को क्या कहूँ? कितने दिनों से पीछे पड़ा हूँ कि ‘हिन्दी’ ब्लॉग पर कुछ लिखें इस बारे में । ये हैं कि लोगों को करेर शायरी सुना कर और गम्भीर कउड़ा बहस कर तंग करने में ही आनन्द मनाते हैं।
    का किया जाय? ज़माना बहुत खराब है, लोग सुनते ही नहीं।
    [डिस्क्लेमर: यह टिप्पणी किसी भी भूत, वर्तमान या भविष्य़ के प्राणी के विरुद्ध नहीं है।
    बताना पड़ता है यार ! ]
    गिरिजेश राव की हालिया प्रविष्टी..पिन कोड 273010- एक अधूरा प्रेमपत्र – 7My ComLuv Profile
  36. सुशीला पूरी
    इतना गज़ब आप ही कर सकते हैं …………. विनोद श्रीवास्तव जी का गीत पढ़कर आनंद आ गया ।
  37. गौतम राजरिशी
    जैसा कि अपने ब्लौग की परिपाटी बन चुकी है ऐसा ही यहाँ होते देखकर अब कोई आश्चर्य नहीं हो रहा। अनूप जी का अपना एक अनूठा अंदाज़ है, उनकी अपनी शैली है आलोचना की…या फिर तारीफ़ की।
    किसका बिम्ब, कौन-सा अच्छा है, कौन-सा बुरा है, कौन-सा तार्किक है, कौन-सा बेतुका…? अपना-अपना तरीका है हर लिखने वाले का, अपनी राय जाहिर करने का। दुनिया भर के शायर अभी भी समंदर से प्यास बुझाते रहते हैं अपने शेरों में…समंदर के खारे पानी से। लेकिन जैसा कि कंचन लिखती है, उनके पाठक आनंद उठाते हैं।सारी कविता यदि तर्कों पे चलने लगी फिर तो उठा लिया हमने कविता का लुत्फ़।
    हाँ, तमाम टिप्पणियों ने एक अच्छे-भले व्यंग्य का जायका जरूर खराब कर दिया।
    गौतम राजरिशी की हालिया प्रविष्टी..उलझ के ज़ुल्फ़ में उनकी गुमी दिशाएँ हैंMy ComLuv Profile
  38. eswami
    संजय का कहना ठीक है “एन्ट्री-पास” कि फ़िक्र किसे है? ब्लॉग है ना. जो मन मे आए लिखो, करो, किसने रोका है?
    एक पाठक के बतौर, शहीद की शान में उसके कद और इरादों को हिमालय से बडा करार दिये जाने में भी कोई समस्या नही है. हां ये बिम्ब मुझे प्रभावित नही करता चूंकि मैने इससे बेहतर पढा हुआ है. लेकिन उतना खिजाता भी नहीं कि उसे इग्नोर/दरकिनार ना कर सकूं.
    होता ये है की दरकिनार किये जाने लायक रचनाएं जब बार-बार महिमामंडित की जाती हैं, तब कोफ़्त ज़रूर होती है. “टूटा टूटा एक परिंदा” से मुझे कोफ़्त हुई थी और जब देखता था की लोग इस गीत के दीवाने हुए फ़िर रहे हैं तो अजीब लगता था. ये जान कर अच्छा लगा कि मैं अकेला नही था जिसे पसंद नही आया था बिंब. उसी तरह मां के चटनी-रोटीकरण से भी मुझे खीज हुई थी – दोबारा, अकेला नहीं हूं ये जान कर भी भला लगा.
    बाकी संवाद जारी रहे, बढिया इनपुट आ रहे हैं और हम अलग अलग दृष्टीकोणों से परिचित हो भी रहे हैं. अच्छा है!
  39. Uchit Awasthi
    @अमरेन्द्र ,उस सूचना का और कोई आशय नहीं था. बस ये बताना था की आप अपना तेवर आलोचक का रखें,लठैत का नहीं.बिना किसी को पूरा पढ़े आप ज़बान की लगाम ढीली छोड़ देते हैं.आप से बात के बाद ही आज ऑनलाइन पाखी का एड देखा की काशी में नामवर पर केन्द्रित अंक के विमोचन और सम्मान समरोह में भी वही “ससुरा” “भिखारी”, “कविता का बनिया ” “घटिया” आमंत्रित हैं सञ्चालन हेतु. यहाँ मेरा मन नामवर जी का नाम बता कर आप को चुप करने का नहीं बल्कि बताने का है की किसी की दो चार रचना पढ़ कर गरियाने की बजाय पूरा जानो और पढो तब बोलो. और भाई JNU का कोई bramputra होस्टल जहाँ डॉ साहब ने काव्य पाठ किया और मान+धन लिया इस लिए बताया की आप जान लो की समाज की हर तह पर स्वीकार होना आप को मान्य न हो पर खोज का विषय तो है ही. और भाई अगर कविता ज्यादा पैसे दे कर सुनी जा रही तो कौन लेह में बादल फट गया.आज तक हिंदी वाले राजकीय सेवा में रचे साहित्य को पूंजी माने इतराते हैं. आप से क्यूँ किसी को द्वेष होगा और समीर लाल से प्रेम.एक बार की कुल मुलाकात है वो भी परदेश में जहाँ मिलना होता है घुलना नहीं. आशा है डॉ कुमार को छोड़ कर हमें नहीं गरियांगे.
  40. Uchit Awasthi
    माफ़ करिए पोस्ट इतने जी से लिखी की आदरणीय नामवर जी के साथ जी लगाना भूल गया.
  41. amrendra nath tripathi
    @ …. काफी बात आपसे हो चुकी है .. किसी भी रूप में आप वह बात मान भी बैठे हैं , जो प्रेष्य थी .. आप या कुमार विश्वास को गरियाने का मेरा हेतु न था , न है .. उनकी कविता और उनका यू-ट्यूबीय परफार्मेंस(मान+धन+धमाल) दोनों को देखा है .. आपको अपनी बात कहने का हक है और मुझे अपनी .. आप मुझे अंध-विरोधी कह रहे हैं ठीक वैसे ही जैसे मैं आपको अंध-भक्त .. सबका अपना सोच और अभिव्यक्ति है .. कविता की परख करना मैं जरूरी समझता हूँ , कवि चाहे कुमार हो या कोई और .. आपसे असहमत हूँ पर गरियाया तो कभी भी आपको नहीं .. शुभकामनाएं !!
    amrendra nath tripathi की हालिया प्रविष्टी..बजार के माहौल मा चेतना कै भरमब रमई काका कै कविता ध्वाखा My ComLuv Profile
  42. kanchan
    अमरेंद्र जी के ही मेल से पता चला कि कत्थई आँखों वाली लड़की ज़ावेद अख्तर की कृति है।
    त्रुटि सुधार…!
    एक बार फिर स्पष्ट कर दूँ.. अमरेंद्र में कई खूबियाँ हैं। इस टिप्पणी का अर्थ उनका विरोध कतई नही, बल्कि उन्ही के शब्दों में इस प्रवृत्ति का विरोध है…!
    kanchan की हालिया प्रविष्टी..सलामत रहे दोस्ताना हमाराMy ComLuv Profile
  43. Uchit Awasthi
    ‎@अमरेन्द्र अच्छा लगा आप को ऐसा देख कर.इस बार होली पर भारत आना है तब आप से ज़रूर मिलूँगा.डॉ साहब से तो एक बार Amsterdum में मिला था .कितना अद्भुत अनुभव था,लगभग मेजर गौतम जैसा ही.आप से मुलाकात भी अच्छी ही होगी ऐसी उम्मीद है.हो सके तो एक बार डॉ कुमार की “मद्यन्तिका” पढ़िए.शायद हमें हिंदी की एक महान कविता पर अच्छी आलोचना पढने को मिले.कुछ बुरा लगा हो तो क्षमा करेंगे
  44. वन्दना अवस्थी दुबे
    देख रही हूं, कि कैसे किसी व्यक्ति को महिमा मंडित किया जाता है. हमारे यहां आये दिन इंसान से भगवान बनने की प्रक्रिया इसी लिये फल फूल रही है. एक गम्भीर मुद्दा, जिस पर सार्थक बहस की जानी चाहिये थी, व्यक्तिगत झगड़े में तब्दील हो गया. अब तो कुमार विश्वास जी राष्ट्र ध्वज फिर राष्ट्र को भी बौना बतायेंगे, ये भी तो आखिर प्रतीक ही हैं, हिमालय की तरह. कोई सैनिक हिमालय को दी गई इस विकलांग उपमा से प्रसन्न नहीं हो सकता.
    गौतम जी की तरह मुझे भी यही लग रहा है कि-
    “तमाम टिप्पणियों ने एक अच्छे-भले व्यंग्य का जायका जरूर खराब कर दिया।”
    अमरेन्द्र जी बहुत सही कह रहे हैं, और सच का सुर रूखा तो हो ही जाता है.
    वन्दना अवस्थी दुबे की हालिया प्रविष्टी..चिट्ठी न कोई संदेशMy ComLuv Profile
  45. Uchit Awasthi
    @अनूप जी …आप के लिए मेरे दादा की एक कहावत पेश है “भुस में दे कै आग ज़मालो दूर खड़ी”
  46. amrendra nath tripathi
    @ उचित अवस्थी .. , स्वागत है आपका भारत में , आइये , जरूर मुलाक़ात होगी .. असहमति के बाद भी संवाद होना चाहिए .. ‘मद्यन्तिका’ देखूंगा , पर उसे मैं ‘महान रचना’ तभी कहूंगा जब वह मुझे परख-प्रक्रिया में महान लगेगी .. ;-) .. आभार !!
    @ वन्दना अवस्थी दूबे जी , शुक्रिया , इस बात का कि आप किसी श्रेष्ठ या अ-श्रेष्ठ कविता में मूलस्थ औपम्य-विधान की भूमिका को बखूबी पहचान रही हैं/
    व्यंग्य के जायके के असमय / कुसमय (कु)टीप-कवलित होने का अफ़सोस मुझे भी है !
    amrendra nath tripathi की हालिया प्रविष्टी..बजार के माहौल मा चेतना कै भरमब रमई काका कै कविता ध्वाखा My ComLuv Profile
  47. (डॉ.) कविता वाचक्नवी
    भावभूमि, हिमालय के मानापमान या उपमाओं और प्रतीकों के सार्थक या तार्किक / अतार्किक प्रयोग की बात छोड़ भी दी जाए तो कम से कम रसोद्रेक के लिए ही सही सचेत होना चाहिए. रस भंग होने की स्थिति काव्य और साहित्य की प्रभविष्णुता की उत्पादक कैसे हो सकती है भला ?
    इस पर भी विचार न करें…. तब भी रस की निष्पत्ति…….? …. / साहित्य…. ?
  48. anil pusadkar
    बस इतना ही कहूंगा “हे राम”
    anil pusadkar की हालिया प्रविष्टी..इफ़ बास इज़ रांगMy ComLuv Profile
  49. राम त्यागी
    चिंतन मन को भाया …फोटो झकास हैं !!
    राम त्यागी की हालिया प्रविष्टी..वारेन ड्यू

    1. वैसे तो इ स्वामी ने एक टिपण्णी में मेरे मन की बात सबसे पहले कह दी थी ….कविता के बारे में मेरी एक सीमित समझ है …खालिस पाठक सी .मेरा मानना है ..के कवि अपने समय का चौकीदार होता है……अपने समय का साक्षी भी ….अनदेखे ओर देखे अनुभवों को इस तरह शब्दों का लिबास पहनाना के पढने वाले को चेरा जाना पहचाना लगे ..कभी कभी अपना….. ओर यहाँ चलती किसी बहस में भाग लेने की मेरी कतई इच्छा नहीं है …निदा फाजली साहब ओर गुलज़ार का किसी ने नाम लिया तो दुःख हुआ …पर हैरानी नहीं हुई..अक्सर मैंने देखा है ….हिंदी के बड़े ज्ञाता .ज्ञानी लोग …वे भी जिनकी कई किताबे छप चुकी है …जो कवितायों के विशेषग माने जाते है .गुलज़ार की त्रिवेनियो पर शेर कहकर तारीफ़ कर देते है ….ओर आज़ाद नज्मो को कविता कह कर….मैंने हिंदी के बड़े -बड़े खम्बो की बोझिल उबाऊ ओर लम्बी लम्बी कविताएं पढ़ी है ….दुर्भाग्य से एक सच ये भी है के हिंदी के कई लोग उर्दू की गजलो ओर नज्मो को थोडा हलके में लेते है …बिना पढ़े ओर समझे वे अपने पूर्वाग्रहों मेंग्रसित वे निष्कर्ष निकाल लेते है …ओर उसी को अंतिम सत्य….
      निदा साहब का एक शेर है …..
      “दो ओर दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है
      सोच समझ वालो को थोड़ी नादानी दे मौला ”
      दो पंक्तियों में कितना बड़ा सार है …..गर समझने वाला चाहे तो…..बिना विम्बो के कविता क्या आप गध भी नहीं रच सकते …….
      आपने सोंधी रोटी का जिक्र किया है …शायद मजाक में किया है…लेकिन सच तो ये है के ये कितनी मांये इसे पढ़ सुनकर बस आँख भरकर अपने काम में लग जाती है .ये वो मांये है जिन्हें साहित्यक समझ नहीं है …..जिन्होंने कोई कविता नहीं पढ़ी….जिन्हें उर्दू के कई लफ्जों के मायने नहीं आते …..
      मसलन.देखिये ….
      बान की खुर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे
      आधी सोयी आधी जागी थकी दोपहरी जैसी मां
      अजीब बात है ……आगे वे लिखते है
      “बाँट के अपना चेहरा ,माथा आँखे जाने kahan गयी
      फटे पुराने इक एलबाम में चंचल लड़की जैसी मां ”
      मेडिकल कॉलेज में बीटल्स ओर एल्विस सुनने वाले मेरे अंग्रेजीदां दोस्त ठहर गये थे इसे सुनकर ……….क्या इतने मुश्किल विम्ब है………
      दरअसल ये दिल से निकले विम्ब है …..
      अब गुलज़ार पे आते है .उन्हें समझने के लिए एक खास समझ की जरुरत है …..मसलन
      एक बेचारी नज़्म के पीछे /सैंकड़ो रोजमर्रा के मसले /तेज नेजे उठा के भागते है /मुन्तशिर ज़ेहन के बियाबान में /
      दस्तानो की बीबा शहजादी /लीरा लीरा सा पैरहन पहने /हांफती कांपती बदहवास बेचारी /मुझसे आकर पनाह मांगती है /एक बेचारी नज़्म की इस्मत
      सैंकड़ो रोजगार के मसले……..
      कितना आसान है न ये सब कहना…….अगर वाकई इतना आसान है .तो देखिये गुलज़ार यहाँ किस तरह कहते है
      एक सनसेट है, पके फल की तरह
      पिलपिला रिसता, रसीला सूरज
      चुसकियाँ लेता हूँ हर शाम लबों पे रखकर
      तुबके गिरते हैं मेरे कपड़ों पे आ कर उसके
      एक इमली के घने पेड़ के नीचे
      स्कूल से भागा हुआ बोर-सा बच्चा
      जिस को टीचर नहीं अच्छे लगते
      इक गिलहरी को पकड़ के
      अपनी तस्वीरें किताबों की दिखा कर खुश है
      मेरे कैन्वस ही के ऊपर से गुज़रती है सड़क इक
      एक पहिया भी नज़र आता है टाँगे का मुझे
      कटकटाता हुआ एक सिरा चाबुक का
      घोड़े की नालों से उड़ती हुई चिनगारियों से
      सादा कैन्वस पे कई नुक्ते बिखरते हैं धुएँ के।
      कोढ़ की मारी हुई बुढ़िया है इक गिरजे के बाहर
      भीख का प्याला सजाए हुए, गल्ले की तरह,
      माँगती रहती है ख़ैरात ‘खुदा नाम’ पे सब से।
      जब दुआ होती है गिरजे में तो बाहर आकर
      बैठ जाता है खुदा गल्ले पे, ये कहते हुए
      आज कल मंदा है, इस नाम की बिक्री कम है।
      ‘क़ादियाँ’ कस्बे की पत्थर से बनी गलियों में
      दुल्हनें ‘अलते’ लगे पाँव से जब
      काले पत्थर पे क़दम रखती हुई चलती हैं
      हर क़दम आग के गुल बूटे से बन जाते हैं!
      देर तक चौखटों पे बैठे, कुँवारे लड़के
      सेंकते रहते हैं आँखों के पपोटे उनसे।
      नीम का पेड़ है इक-
      नीम के नीचे कुआँ है।
      डोल टकराता हुआ उठता है जब गहरे कुएँ से
      तो बुजुर्गों की तरह गहरा कुआँ बोलता है
      ऊँ छपक छपक अनलहक़
      ऊँ छपक छपक अनलहक।
      गोया हमें क्या मतलब किसी कविता की परिभाषा से ….उसके क्षेत्रफल से …. उसकी लम्बाई ओर गहराई से …बौधिक कुशलातायो का पैमाना मापती कविताओं से ….नियम ओर अनुशासन में बंधी कविताओं से……. ..हमें तो निरा पाठक रहने दीजिये …..
      dr.anurag की हालिया प्रविष्टी..सुन जिंदगी!! किसी-किसी रोज तेरी बहुत तलब लगती हैMy ComLuv Profile
    2. ज़मालो का मुँहबोला भाई--कमाल !
      डॉ अनुराग ने अब तो सब स्पष्ट कर ही दिया.. पईसा वसूल टिप्पणी !
      प्रतीकों उपमानों और बिम्बों के बिना रचित-पठित साहित्य अधूरा स्वरालाप ही होगा ।
      मैंनें अपना स्टैन्ड बदल दिया है.. .. ?
      ना जी ना… मुझे तो ज़मालो का मुँहबोला भाई टिपियाने को पठाता रहा । कारण ?
      काहे कि मौज़ लिये केर साट्टीफ़िकेट हमहूँ धरे हन ।
      सिर फूटे की नौबत पर वोहिका बाद में देखाइत.. हन्डेड पारशेन्ट पारफ़ेक्ट डिस्केमर डिस्क्लेमर जउन होत हुये…
      हालाँकि टिप्पणियों की उड़ान को कनॉडा की ओर डाइवर्ट करने की चेष्टा इन-प्रॉक्सी की गयी थी, फिर भी ……
      ऎसे मुद्दों पर चिट्ठाकार को बीच बीच में क्या अपनी उपस्थिति दर्ज़ नहीं कराते रहना चाहिये था ?
      और… और, मेरा चरित्र-परिवर्तन हो गया !!
    3. ज़मालो का भाई कमाल
      डॉ अनुराग ने अब तो सब स्पष्ट कर ही दिया.. पईसा वसूल टिप्पणी !
      प्रतीकों उपमानों और बिम्बों के बिना रचित-पठित साहित्य अधूरा स्वरालाप ही होगा ।
      मैंनें अपना स्टैन्ड बदल दिया है.. .. ?
      ना जी ना… मुझे तो ज़मालो का मुँहबोला भाई टिपियाने को पठाता रहा । कारण ?
      काहे कि मौज़ लिये केर साट्टीफ़िकेट हमहूँ धरे हन ।
      सिर फूटे की नौबत पर वोहिका बाद में देखाइत.. हन्डेड पारशेन्ट पारफ़ेक्ट डिस्केमर डिस्क्लेमर जउन होत हुये…
      हालाँकि एक बीच में एक बार टिप्पणियों की उड़ान को कनॉडा की ओर मोड़ने की चेष्टा इन-प्रॉक्सी की गयी थी,
      पर क्या ऎसे मुद्दों पर चिट्ठाकार को बीच बीच में अपनी उपस्थिति दर्ज़ नहीं कराते रहना चाहिये ?
      और.. और यह देख निट्ठल्ले का चरित्र परिवर्तन हो गया !!
    4. अनूप भार्गव
      अब जब कि इस विषय पर गर्मा गरम बहस शान्त सी हो गई है , कुछ भोले से सवाल पूछना चाहूँगा कुमार विश्वास जी या उन के प्रशंसकों से :
      १. जब विश्वास जी इतनी अच्छी कविता लिखते हैं तो उन्हें श्रोताओं से हर पंक्ति पर तालियों की भीख क्यों मांगनी पड़ती है ?
      २. वह ५ मिनट की कविता को ५० मिनट के चुटकुलों के साथ क्यों सुनाते हैं । चुटकुले सुनने के लिये तो और भी स्थानों पर जाया जा सकता है ।
      ३. श्रोताओं को कविता के करीब लाने की बजाय क्या वह उन्हें कविता से दूर नहीं ले जा रहे ?
      वैसे मुझे उन की यह कविता न तो बहुत ही पसन्द आई और ना ही इतनी बुरी भी लगी ।
    5. बवाल
      छायावाद के विषय में अज्ञानता आजकल हर जगह परिलक्षित हो रही है। कारण दिल के साथ-साथ दिमाग के इस्तेमाल की जगह लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ दिमाग का अतिशय इस्तेमाल करने लगे हैं या कहिए कि फ़ैशन चला बैठे हैं। कविता में हिमालय का बौनापन कवि की अक्खड़ता दर्शा तो ज़रूर रहा है मगर यह उनकी उम्र की वजह से भी है। सभी तो दुष्यंत कुमार जैसा मर्म कमसिनी में नहीं पा सकते ना। खै़र वो प्रस्तुतिकरण उम्दा कर रहे फ़्यूज़न के अंदाज़ में, किंतु यदि बिंबों में बौद्धिक स्पंदन आ जाए तो फिर कहना ही क्या। अनूपजी हमें नहीं लगता के आपके इस सुन्दर विष्लेषण की प्रतिक्रिया में टिप्पणियों के आलिंद को कोपलताओं से सजाया जाए। हाँ जी, यह बात तो फिर भी कहेंगे कि माँ के लिए उपमा ’खट्टी’ की जगह ’मीठी’ चटनी की दी जाती तो ……………………………………………. खै़र जाने दीजिए। हा हा। बहुत आनंद आया।
      बवाल की हालिया प्रविष्टी..जाने क्या वो लिख चलेबवालMy ComLuv Profile
    6. Uchit Awasthi
      एक आखिरी बात अनूप जी से …लोकप्रियता इसे कहतें हैं की ज़रा उल्लेख भर आने से आप की पोस्ट को डॉ कुमार के नाम ने ही इतना पोपुलर कर दिया है .अभी तक इतनी अधिक टिप्पिनी शायद ही आई हों. जय हो. इस की भी रेखा होती होगी हाथ में .इस बार डॉ कुमार विश्वास का हाथ देखना पड़ेगा.
    7. aradhana
      पैसा वसूल पोस्ट पर डॉ अनुराग की पैसा वसूल टिप्पणी. एक पर एक फ्री. निदा जी की उक्त रचना मुझे बहुत-बहुत अच्छी लगती है. मैं उसे कई बार पढ़ चुकी हूँ, याद फिर भी नहीं होती.
      और हाँ, एक बात और… आज से मैं अपनी कल्पनाएँ फरारी में दौड़ाऊँगी. शायद घोड़े पर दौड़ाने के कारण ही इतनी धीरे-धीरे चलती है कि कोई बिम्ब ही नहीं मिलता :-)
      aradhana की हालिया प्रविष्टी..तस्वीरें बोलती हैं शब्दों से ज्यादाMy ComLuv Profile
    8. अपूर्व
      आइडिया अच्छा है आपका..मुझे तो लगता है कि मानवों और पशुओं के साथ-साथ बेचारी जड़ वस्तुयों की रक्षा को भी आयोग बनाना चाहिये..प्रकृति अधिकार आयोग..जो यह देखे कि पेड़, पौधे, पहाड़ समुद्र किसी के भी अधिकारों का हनन न हो..अगर कोई हिमालय को बौना बनाने का क्लेम करता है..तो उसे प्रापर प्रासीक्यूशन के जरिये अपने दावे को सिद्ध करने की चुनौती देनी चाहिये..वो बताये कि हिमालय को प्रिसाइजली कितने मीटर और मिलीमीटर से बौना किया गया..मीजरमेंट क्या आइएसआइ स्टैंडर्ड्स पे जाचाँ गया..और लंबाई बढ़ाने के इस तरीके मे प्रतिबंधित दवाओं का सहारा तो नही लिया गया..सिद्ध न कर पाने की स्थिति मे हिमालय की मानहानि के जुर्म मे एक तगड़ा हर्जाना वसूलना चाहिये..ऐसे ही जो कवि शायर लोग बिना किसी पुख्ता सबूत के अपनी खयाली महबूबाओं की तारीफ़ करने मे चाँद तारों की बेइज्जती करते हैं..उन्हे भी कानून के दायरे मे लाना चाहिये..और पक्के प्रमाण देने वाले कवि को अपने बिंबों पर पचास साल तक पेटेंट करा कर रायल्टी खाने का अधिकार भी देना चाहिये…कविता करना आखिर सब्जी वालों का काम तो नही है..वैसे ही कल्पना को बेचारे घोड़े मे सवार कर दौड़ाने वालों को इसका जूरी के सामने लाइव डेमो दे कर प्रूव करने को कहा जाय..और न साबित कर पाने की स्थिति मे उन्हे घोड़ो के अस्तबल मे ही रहने और चने खाने की सजा देनी चाहिये..फिर उनकी कल्पना किसी मरियल टट्टू की सवारी करने की हिम्मत भी नही करेगी..
      सौ-पचास बिंब हम भी लगे हाथों पेटेंट करा लेते है..जिंदगी अच्छी मुफ़्तखोरी मे कटेगी.. :-)
    9. Mukesh Kumar Tiwari
      आदरणीय अनूप जी,
      बिम्बों के बहाने न जाने कितने प्रतिबिम्ब बनाये, लेकिन लिखनेवालों की अस्मिता इतना बचा रखा जैसे कि द्रोपदी के चीर को प्रभुजी बचाये रक्खे थे। रोचकता तो आपकी लेखनी का कमाल है, बड़ा मजा आया पढ़कर।
      हाल के दिनों में एक बहुत ही नया बिम्ब हमारे सामने आया था सोच रहा हूँ कि आप सब से बाँट लिया जाये(मौका जो है) ” प्राईसेस आर स्काई रॉकेटिंग” यह स्टील के संबंध में था। हकीकत में तो बाकी सभी दैनन्दिन जरूरतों की वस्तुयें तो घोड़े की तेजी से बढ़ी हों लेकिन स्टील तो आसमान छू रहा है} अब तो लगने लगा है कि लोहे और सोने में साम्य कैसे हो रहा है(शायद “पारस” तेजड़ियों के पास ही है जब चाहे लौहे के छुआ देते हैं जब चाहे सोने को)
      सादर,
      मुकेश कुमार तिवारी
      Mukesh Kumar Tiwari की हालिया प्रविष्टी..पतों के बीच लापता होते हुयेMy ComLuv Profile
    10. नीरज रोहिल्ला
      अनूप भार्गव जी ने कम शब्दों में मेरे मन की बात कह दी,
      उनको केवल यूट्यूब पर ही सुना है लेकिन उनका बीच में तालियों के गडगडाहट…तालियों की फ़लाना…तालियों की ढिमका की मांग करना रचना का मजा किरकिरा कर देता है।
      कुमार विश्वास को पर्सनली एक मंझे हुये कवि से अधिक आज के युग का सफ़ल एंटरटेनर समझता हूँ।
      नीरज रोहिल्ला की हालिया प्रविष्टी..हे दईया कहाँ गये वे लोगMy ComLuv Profile
    11. Harshit
      अनुराग जी ने सारी बात स्पष्ट कर दी ……और अनूप जी ब्लॉग की टी.आर. पी. बटोरने का खेल जो आपने खेला वो आपको मुबारक हो ….. टिप्पणियों की संख्या एक व्यक्ति के नाम मात्र से बढ़ गई ….कभी मौका लगे तो मंच पर कुमार विश्वास का साथ पाने की चेष्टा करियेगा …. जनता अपने आप बोलेगी ….
      —-अनूप भार्गव
      अब आप कुमार विश्वास को खड़े होने, चलने, बैठने, हाथ धोने के भी तरीके सिखायेंगे क्या?
      और जन कवि को न आलोचकों की जरूरत होती है और न ही साहित्य के तकनीकी सलाहकारों की …….कविता वो होती है जो सीधे दिल पर असर करती हैं….आपको आपत्ति किस बात से हैं …..कुमार विश्वास की कविता के बिम्बों से ? उनकी लोकप्रियता से ? उनके मंचीय सञ्चालन से? या उनके जनसंपर्क के तरीके से ?
      एक उदाहरण गुलज़ार के दे दूं चलते -चलते
      ” फिर से अइयो बदरा बिदेसी,
      तेरे पंखो पे मोती जडूगी ”
      भाई हमने तो बरसात के पंख नहीं देखे …….मोती जड़ना तो दूर की बात हैं
      खैर जाने दीजिये आप नहीं समझेंगे …. इस असाधारण रूपकालंकार/ बिम्ब को
      मुझे समझ नहीं आ रहा कोई ब्लॉग लेखक को कुछ क्यों नहीं बोल रहा ……क्योंकि ये मात्र व्यंग नहीं बल्कि …..दुराशय से किया गया योजनाबद्ध तरीके से रचा गया प्रपंच है
      इन्ही शब्दों के साथ
      अलविदा
    12. Uchit Awasthi
      @अनूप भार्गव….१. [जब विश्वास जी इतनी अच्छी कविता लिखते हैं तो उन्हें श्रोताओं से हर पंक्ति पर तालियों की भीख क्यों मांगनी पड़ती है ]
      आप इसे भीख कहतें हैं हम इसे सम्प्रेषण का आग्रह समझतें हैं.और जब संप्रेषक के पास अन्य प्रस्तुतकर्ताओं की तरह संगीत या और कोई सहारा न हो.जैसे आप को अपने व्यंग्य लेख में तस्वीरें चिपकानी पड़ती हैं,क्या दर्शक चित्र से समझने वाले अबोध शिशु हैं ?नहीं बल्कि यह अपने कथ्य को ध्यान में एकाग्र करने का नुस्खा है.
      २. [वह ५ मिनट की कविता को ५० मिनट के चुटकुलों के साथ क्यों सुनाते हैं । चुटकुले सुनने के लिये तो और भी स्थानों पर जाया जा सकता है ]
      आश्चर्य है की आप इतने एकाक्षी हो चुके हैं की प्रतुत्त्पन्मति से उपजा परिहास आप को चुटकुला लगा.आज हिंदी की युवा पीढ़ी के पास एक पूरा मुहावरा कोष है डॉ कुमार के जुमलों का. आप ज़रा ढूंड कर चुटकुला दिखायें उस प्रस्तुति में …बीच में किसी के “वाह” कहने पर हुए ध्यान भंग को जो शख्स “अरे आप यहाँ हो ?मैं तो आप को आगरा में ढूंढ़ रहा था ” जैसी कुशल मेधा से वातावरण को बिखरने से बचा ले जाये,खुद में या किसी और में धुंद लें तो हमें भी बताइयेगा.
      तीसरे प्रश्न के लिए ज़रा गूगल का सर्च इंजन देखें,या डाउनलोड डेटा. 50 करोड़ से ज्यादा बार डाउनलोड होना यदि कविता से दूर कर रहा है तो आप JNU से मंगवा लीजिये कोई सच्चा कवी जो ५० को भी याद हो सके .
    13. amrendra nath tripathi
      @ …. आखिर JNU गले से नीचे क्यों नहीं उतर रहा है | JNU ने जब उन्हें बुलाया था तो वह एक कवि को नहीं , एक इंटरटेनर को बुलवाया था | यहाँ जब कुमार विश्वास आया था तो अपने साथ सफ़ेद कुर्ता-पाजामा पहने एक चाटुकार को भी लेकर आया था जो कुमार के योजनानुसार बगल की एक छत पर चढ़ के वीडियो-रिकार्डिंग करने के चक्कर में शारीरिक संतुलन खोने की वजह से गिरते-गिरते बचा था | उसे वहाँ पर कुछ लोगों ने सम्हाला | यहाँ कुमार एक ‘इंटरटेनर’ के तौर पर चुटकुलों से तालियों की भीख माँगता रहा और पाता रहा , बेशक ! फिर जैसा कि यहाँ उसके एक प्रशंसक ने एक टिप्पणी में कहा है कि माल का थैला और धमाल लेके यहाँ से दफा हो गया | इस तरह की बातों को कहना जरूरी नहीं समझता पर बार-बार JNU को सायास लाने से एक स्पष्टीकरण देना पड़ता है |
      — अनूप भार्गव जी के कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है , यह उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है | ‘आगरे में ढूंढना’ तो जाने कब का मुहावरा है , लोक-वाणी में बहुत समय से बोला जा रहा है | शायद कुमार जब पैदा नहीं हुआ होगा तब से | कुमार मूलतः ‘गुड पोयट’ से अलग मसखरे-बाज या चुटकुले-बाज ही है , और यह कोई खराब चीज भी नहीं है इतनी पर जब वह स्वयं को ‘गुड पोयट’ के दंभ में प्रस्तुत करता है , आलोचनापरकता वहाँ आती है | और यह किसी को बुरी नहीं लगनी चाहिए | डाउनलोड होना किसी श्रेष्ठता का सूचक नहीं , अश्लील फ़िल्में या दृश्यों के टुकड़े तो बहुत डाउनलोड होते हैं पर वे ‘श्रेष्ठ’ फिल्म या दृश्य नहीं कहे जाते | गुलशन नंदा के उपन्यास प्रेमचंद से ज्यादा बिकते हों तो इसका मतलब यह नहीं कि गुलशन नंदा प्रेमचंद से बड़े या श्रेष्ठ कथाकार भी हुए | ‘प्रसिद्धि’ और ‘श्रेष्ठता’ दो अलग अलग चीजें हैं |
      — प्रत्युत्पन्नमति वह है जो किसी भी नयी बात पर एक नए तरीके से ‘ह्यूमर’ की नवीनता के आग्रह को व्यक्त करती हुए सामने वाले को प्रभावित करे | इसमें मुख्यतया नयेपन का आग्रह है | चुटकुला जाने कितनी बार और कहाँ कहाँ बोला जाता है , इसका भी अपना महत्व है , पर यह वह नहीं है , कुमार तो एक चुटकुले को अधिकाँश परफार्मेंस में औंटटा रहता है | उसमें प्रत्युत्पन्नमति का कमाल नहीं , सस्ती चुटकुले-बाजी का धमाल है ! इसकी चुटकुले-बाजी भी अधिकांशतः निकृष्ट कोटि की है जिसपर वह भूरि-भूरि यौनिकता/अश्लीलता की छाया रखने की कोशिश करता रहता है ! द्विअर्थी संवादों की कोटि का प्रयास ही रहता है उसके यहाँ |
      — अंतिम बात कहूंगा कि व्यक्ति की सकारात्मकता और संभावनाओं में मुझे सदैव विश्वास रहा है , इसलिए इससे भी इनकार नहीं करूंगा कि भविष्य में कुमार विश्वास अच्छा नहीं लिख सकता , अगर वह अच्छा करता है तो ‘प्रसिद्धि’ और ‘श्रेष्ठता’ दोनों एक ही व्यक्ति में मिलेगी , यह भी कम खुशी की बात नहीं , पर जो सीन इस समय है उसकी कविता की , वह असंतोषजनक और आपत्तिजनक है ! लेकिन अच्छा करने के लिए उसको अपनी आलोचनाओं को सकारात्मक ढंग से लेनी चाहिए , उसे अपनी कविता के ‘कबिरा दीवाना था’ के कबीर से सीखना चाहिए कि ‘निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय’ , पर वह तो आलोचनाओं को भी नहीं सह पा रहा है और चेलों से लठैती करा रहा है ! …. आभार !
      amrendra nath tripathi की हालिया प्रविष्टी..बजार के माहौल मा चेतना कै भरमब रमई काका कै कविता ध्वाखा My ComLuv Profile
    14. Uchit Awasthi
      @अमरेन्द्र “कुंठितेश” जी. उन्हें तो पता भी नहीं होगा आप के इस अखंड विधवा विलाप का. और हाँ न हम उन के लठैत हैं और न आप की इस मनसबदारी के कोई ब्लोगर मुखिया.अक्ल का खातें हैं और पूरी दुनिया पर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हैं. JNU क्या-क्या है,ये हमें न बताइये.और हम जहाँ से पढें हैं वो क्या है दुनिया जानती है. पर आप की इस प्रतिक्रिया से वो कारण पता चला जिस की वज़ह से आप स्रावित हैं.आप को तो पूरा दृश्य याद है???? जब आप की चेतना पर डॉ साहब का जनसमूह से सत्यापित बुलडोज़र चला था. अच्छा हुआ हमें सही सही कारण पता चल गया.आई ए एस की तैयारी में जितनी हिंदी पढ़ी थी उस के अनुसार जल्दी ही JNU की उसी छत से शायद नया “गोरख पाण्डेय” मिल जाये.और हाँ डॉ साहब अगली बार आगरा में किसी को ढूंढने जायेंगे तो आप ज़रूर मिलोगे.पुरुष ही थे तो तब एक बार ज़रा खड़े हो कर ये सब बोल देते उस दिन जब आप की ही चटाई पर आप का मुंडन कर गए थे वो , वहीँ कारसेवा हो जाती.आप को भी आराम रहता और हम को भी.ज़मालो कोई और भुस का बिटोरा ढूंड लेती .क्यूँ अनूप जी ?
    15. Uchit Awasthi
      और एक बात और .अनूप जी को संबोधित टीप पर भी आप का उवाच बता रहा है की पीड़ा कितनी विकट है.सामान्य शिष्टाचार का उलघंन औरों को भी आता है.इलाहाबाद इतना ज़रूर सिखाता है की ले कैसी और दे कैसी.
      सादर
    16. Uchit Awasthi
      इसे कहते हैं सभ्य और शालीन सोच …बहुत बहुत प्रणाम अनूप जी
      काश आप से कुछ लोग थोडा सा तो सीखते …..
    17. Harshit
      मै दोबारा नहीं आना चाहता था..लेकिन अमरेन्द्र भाई की टीप ने बाध्य किया…..बहुत अभद्र शब्दों का प्रयोग कर चुके आप …..ये निजी रंजिश निकालने का मंच नहीं है….कुछ दिनों पहले पवन झा जी ने इब्नबतूता के लेकर एक पोस्ट लिखी थी….बहुत सी प्रतिक्रियां आई …..कुछ पक्ष में थी और कुछ विपक्ष में ….लेकिन यहाँ तो सभी हदें तोड़ी जा रही हैं… एक दुसरे को नीचा दिखने के लिए कुतर्क दिए जा रहे हैं ……ये हो रही है साहित्य की सेवा
      अमरेन्द्र एक बात बताएँगे आप……क्या पूरे हिन्दुस्तान को कविता समझने के लिए हिंदी में उच्च डिग्रियां हासिल करनी चाहिए? एन्जीनिअर्स, मनेजर्स, डिजाइनर, पेंटर, चायवाला, कुली, एयरफोर्स ओफ़िशिअल्स और अन्य सेवाओ में संलग्न लोगो को कविता समझने, उसे अपनाने, गुनगुनाने का अधिकार नहीं है ….क्या मन के भावो को समझने के लिए भाषा विशेष की डिग्री चाहिए?
      यहाँ ब्लॉग जगत में बहुत से कवि- कवित्रियाँ मौजूद हैं….और मैंने जितना भी पढ़ा है…सभी एक दुसरे के बिम्बों की तारीफ करते नहीं थकते ….कुमार को छोडिये यदि आप सब सच में हिंदी का भला चाहते हैं तो अपनी ऊर्जा वहां लगाइए ( बात बिम्ब से शुरू हुई थी…इसलिए मैं सिर्फ वही बात करूंगा…दलदल में नहीं चाहता बातों को ले जाना ) ……एक प्रश्न और ……कहीं विरोधी लोगों की चिंता की विषय-वास्तु ये तो नहीं की कुमार कविता के माध्यम से पैसा कमा रहे हैं और दुसरे वंचित हैं ….तो किसने रोका है आपके पास श्रेष्ठ माल है …..बेचो जाकर, कीमत मिलेगी बाजार में ….अब चेतन भगत पा ही रहे हैं…. आमिर की साल में आई एक फिल्म ही बॉक्स ऑफिस में धमाल करती हैं ….सभी पूर्व रिलीज के आंकड़े तोड़ते हुए …..
      अमरेन्द्र आप और आपका संगठन कुमार विश्वास विरोधी है ये तो पूरा ब्लॉग जगत जानता है…..आप हर उस जगह पहुँच जाते हैं जहाँ कुमार की बात छिड़ी हो…..आप मत पसंद करिए, लेकिन जैसे शब्दों का आप इस्तेमाल करते हैं वो अभद्रता है, सभ्य समाज में नीची द्रष्टि से देखा जाता है……ये लोग जो ब्लॉग जगत में आज आपको उकसा कर हाँ में हाँ मिला रहे हैं…..कल डॉ. विश्वास के गले मिल मंच के बराबर बैठेंगे.
      रही बात कुमार के चेलों की तो खुद को प्रशंसक तो मानता हूँ उनका ……मेरे जैसे हजारों है उनके पास….आप भी किसी के चेले ही है ….जो आपको उकसा रहा है और खुद मुह छिपाए फिर रहा है …. इतना जरूर कहूँगा …अपनी ऊर्जा कुछ उत्पादक कार्यों में व्यय करें न कि व्यक्ति विशेष से द्वेष रखें ….आप बहुत मेधावी हैं…..शायद भविष्य में आपके रूप में कोई हिंदी का नायक ही हो…..
      उम्मीद है अब आप इस चर्चा को यहीं विराम देंगे
      शुभकामनाये
      ओह्म शांति ओह्म
    18. अनूप भार्गव
      @हर्षित जी:
      आपको आपत्ति किस बात से हैं …..कुमार विश्वास की कविता के बिम्बों से ? उनकी लोकप्रियता से ? उनके मंचीय सञ्चालन से? या उनके जनसंपर्क के तरीके से ?
      >> हर्षित जी ! मुझे इन में से किसी भी बात पर आपत्ति नहीं है । मुझे शिकायत सिर्फ़ इस बात से है कि वह कवि सम्मेलनों में भीड़ तो जुटा रहे हैं लेकिन कवि सम्मेलनों को कविता से दूर ले जा रहे हैं । यदि आप यह मानते हैं कि उन की प्रस्तुति में जो ९०% से अधिक होता है , वह कविता है तो मुझे आप से कुछ नहीं कहना है ।
      @उचित अवस्थी जी
      आप इसे भीख कहतें हैं हम इसे सम्प्रेषण का आग्रह समझतें हैं.और जब संप्रेषक के पास अन्य प्रस्तुतकर्ताओं की तरह संगीत या और कोई सहारा न हो.जैसे आप को अपने व्यंग्य लेख में तस्वीरें चिपकानी पड़ती हैं,क्या दर्शक चित्र से समझने वाले अबोध शिशु हैं ?नहीं बल्कि यह अपने कथ्य को ध्यान में एकाग्र करने का नुस्खा है.
      >> सम्प्रेषण का आग्रह एक बार समझ में आता है , दो बार समझ में आता है लेकिन जब हर पंक्ति पे किया जाने लगे तो कविता की सम्प्रेषणता पर सन्देह होने लगता है । आप ही के उदाहरण को लेते हुए “आठ पंक्तियों के लेख में अगर मुझे ८० चित्र लगाने पड़ें तो लेख शायद अपनी बात ठीक से नहीं कह रहा है और या वह शायद ’चित्र दीर्घा’ के लिये अधिक उपयुक्त है – ठीक वैसे ही जैसे ’कुमार’ जी एक Standup Comedy Club के लिये …..
      २. [वह ५ मिनट की कविता को ५० मिनट के चुटकुलों के साथ क्यों सुनाते हैं । चुटकुले सुनने के लिये तो और भी स्थानों पर जाया जा सकता है ]
      @ आश्चर्य है की आप इतने एकाक्षी हो चुके हैं की प्रतुत्त्पन्मति से उपजा परिहास आप को चुटकुला लगा.
      >> अजीब बात है कि वह ’ प्रतुत्त्पन्मति’ से उसी परिहास को हर कवि सम्मेलन में बार बार जन्म दे देते हैं । कुछ परिहास तो पहले से ही अन्य कवियों द्वारा रचे हुए होते हैं , उन्हें सिर्फ़ दोहराना होता है । कविता को तो कवि से जोड़ा जा सकता है लेकिन इन परिहासों को किस से जोड़ा जाये ? जिस नें पहले सुना दिया उसी के हो गये । नीरज जी भी ’कारवां गुज़र गया’ को बार बार सुनाते हैं लेकिन
      १) वह वह गीत उन का अपना होता है और
      २) अच्छी कविता को कई बार सुना जा सकता है , ’मैं आप को आगरा में ढूँढ रहा था’ पर बार बार हँसना मुश्किल होता है ।
      @तीसरे प्रश्न के लिए ज़रा गूगल का सर्च इंजन देखें,या डाउनलोड डेटा. 50 करोड़ से ज्यादा बार डाउनलोड होना यदि कविता से दूर कर रहा है तो आप JNU से मंगवा लीजिये कोई सच्चा कवी जो ५० को भी याद हो सके .
      >> सर्च इंजन या डाउनलोड डेटा कब से कविता के मानक और गुणवत्ता के मापदंड हो गये ? यदि आप सिर्फ़ गूगल के आंकड़ों को ले तो शीर्ष पर ऐसे शब्द/लेख मिलेंगे जिन्हें शायद आप यहां लिख भी न सकें ।
      अनूप भार्गव की हालिया प्रविष्टी..एक ख़यालMy ComLuv Profile
    19. amrendra nath tripathi
      @ हर्षित …
      जब ‘बात’ का जवाब आपके पास नहीं है तो आपको मेरे ही शब्दों में खोट दिख रही है | जैसे लाल चस्मा लगाए मनई को दुनिया लाल दिखती है , कुछ ऐसा ही आप लोगों के साथ भी है | बाकी पहली बार नहीं है कि आप जो मनगढ़ंत आरोप लगा रहे हैं | आप लोगों ने जो कहा वह तो है ही , एक जलनखोर महराज हमें ‘कुंठित-लुंठित’ सब बोल के गए हैं | पर हमें कोई दुःख नहीं है | ” काजर की कोठरी में कैसहूँ सयानो जाय / एक लीक काजर की लागिहैं पै लागिहैं ” ! आखिर हम कुमार विश्वास और उनके अंध-भक्त जैसे थोड़े ही हैं | आप लोग बड़े लोग हैं आलोचना भी नहीं सह पाते और हम छोटे मनई हैं आपलोगों द्वारा दी गयी गाली को भी आभूषण मान कर पहिन लेते हैं | का करें ई ससुरी इलिम बड़ी खराब चीज है जौन कहती है कि ‘जू गलत दिखे कहते रहो’ | अब इलिम भले ‘ससुरी’ है पर यहिके बिना जिन्दगी दूभर लगै लगी है ! :)
      @ उचित अवस्थी ..@.सामान्य शिष्टाचार का उलघंन औरों को भी आता है.इलाहाबाद इतना ज़रूर सिखाता है की ले कैसी और दे कैसी
      — अरे भैया कल तक तो नहीं लेकिन अब तौ हम डरे लगे हैं आपसे ! जान बख्शो महराज , अब आप जू कहेंगे हम वही कहेंगे | खुस्स्स्सस्स्स्स.! आप और कुमार की खुशी खातिर हम तो यहू कह देंगे कि कुमार विश्वास हिन्दी नहीं , भारत नहीं , विश्व नहीं , नौ ग्रह नहीं बलुक पूरे ब्रह्माण्ड के सबसे बडुवार – शालीन – भक्तवत्सल – उदार – आद आद …… कबि हैं ! इंसान की बात जाने दो तैतीस करोड़ देवता तक उनके फैन हैं ! खुस्स्स्सस्स्स्स.! मुला अब पिंड छोड़ो हमार !
      और , कल लिखे थे कि आपसे मिलके खुशी होगी , अब तो हमारी हालत खराब है , भैया , ई भारत आप और कुमार विश्वास के सौभाग्य से बहुत बड़ी आबादी का देश है , जब भारत आना तो उनके करोड़ों करोड़ों फैन्स में से किसी से भी मिल लेना , हमें बख्श देना ! आप हमारा हाथ-गोड़ तोड़ देंगे तो हम का करेंगे , काहे से कि आप धमका रहे हैं कि आप माहिर-खिलाड़ी हैं इसके कि ” ले कैसी और दे कैसी ” ! मिलने की बात ही क्या हम तो आपको कोस भर दूर देखकर ही भाग खड़े होंगे ! अब ऐसे प्रसंशक जिसके होंगे , मारे भय के उसको सब महान कवि मान लेंगे ! हमहू मान लिए प्रभू , खुस्स्सस्स्स्सस्स्स.! :)
      ***** अब आप लोगन की हमारी और से जीत , और हमारी ओर से संवाद-विराम *****
      amrendra nath tripathi की हालिया प्रविष्टी..बजार के माहौल मा चेतना कै भरमब रमई काका कै कविता ध्वाखा My ComLuv Profile
    20. समीर लाल
      @ अनूप जी:
      अभी तो आप जारी हैं. जारी रहिये. कोई फरक नहीं पड़ता. लेकिन इस बीच:
      //समीरलाल ने अपनी बात बजरिये राजेश स्वार्थी कही//
      आपके तकनीकी ज्ञान की बलिहारी जाऊँ.
      इस तरह तो आप मुझ पर सीधे आरोप लगा रहे हैं. यह स्वर्था अनुचित एवं आप जैसे वरिष्ट एवं मित्र से अवांछनीय है. आप शक कर सकते हैं, आपका अधिकार क्षेत्र है. जिन प्रमाणों को लेकर आप आरोप लगा रहे हैं, उन हर बातों को गलत साबित करने की क्षमता मुझमें है किन्तु मुझे इस तरह के किन्हीं भी अनर्गल प्रलापों और आरोपों पर स्पष्टिकरण देने की आवश्यकता महसूस नहीं होती.
      उपर काफी बार पूरी टिप्पणी में आप मेरा नाम ले चुके हैं, २२/२४ बार और ले लें तो १०८ की पूरी माला फिर जायेगी. आपका शायद कुछ अभिप्राय सिद्ध हो जाये. ( वैसे मेरा नाम उतना सिद्ध भी नहीं) लेकिन अपने गुरु के लिए इतना तो कर ही सकता हूँ.
      निवेदन मात्र इतना है कि आप मुझे आरोपों और प्रत्यारोपों के अपने इस शौकिया शगल और छिछले खेल से बाहर ही रखें. आजीवन आभारी रहूँगा.
      कहीं दिल दुखा हो-जाने अनजाने में-तो हमेशा की तरह क्षमाप्रार्थी.
      समीर लाल की हालिया प्रविष्टी..कैसी हत्या – लघुत्तम कथा और कविताMy ComLuv Profile
    21. बवाल
      छिड़ गई रिंद में और शैख़ में तौबा-तौबा
      सामना हो गया, दीवाने का दीवाने से
      बवाल की हालिया प्रविष्टी..जाने क्या वो लिख चलेबवालMy ComLuv Profile
    22. bodhisattva
      आप का कहना ठीक है, लेकिन साहित्य में थोड़ी सहूलियत दो प्रभु नहीं तो फिर सब तथ्य और विज्ञान ही रहेगा।
    23. अजित वडनेरकर
      शानदार बहस चल रही है। इत्मीनान से इसका आस्वाद लिया जाएगा।
      फुरसतिया को फुरसत से ही पढ़ना पड़ता है।
      यहां कुछ निरर्थक नहीं।
    24. बेचैन आत्मा
      आपने अपनी कल्पना के घोड़े ठीक से नहीं दौड़ाए ..नाहक कवियों पर इल्जाम धर दिया. आधुनिक संदर्भ में कवि जब कल्पना के घोड़े दौड़ाता है तो इसका मतलब कल्पना चावला के घोड़े से होता है. बिम्ब अधिकार आयोग में आपने कल्पना के ही घोड़े दौड़ाए हैं.
      अपनी जान देकर भी जिस हिमालय के सर को झुकने से बचा पाने का संतोष सैनिक के मन रहा होगा उसी हिमालय को सैनिक के सम्मान में बौना बना दिया। …यह तो बहुत नाइंसाफी है.
      बेसन की सोंधी रोटी पर ,खट्टी चटनी जैसी मां…इतने प्यारे बिंब की जो खटिया खड़ी कर दे ऐसे व्यंग्याकार से तो अच्छे-अच्छे कवि घबड़ाए..
      अंत भला तो सब भला. अंत में आपको भी एक कवि और एक गीत अच्छा लगा.
      …कवि धन्य हुआ.
      आपका पोस्ट पढ़कर मुझे कुछ-कुछ होने लगता है क्या लिखा हूँ नहीं पढुंगा. गलत हो तो बता देना माफी मांगने के लिए तत्पर हूँ. वैसे भी आजकल माफी मांगने से बड़े-बड़े पाप धुल जाते हैं..!
      बेचैन आत्मा की हालिया प्रविष्टी..आजादी के 63 साल बादMy ComLuv Profile
    25. बेचैन आत्मा
      मैने जब कमेंट किया तो किसी दूसरे की टिप्पणी नहीं पढ़ी. मैं प्रायः ऐसा ही करता हूँ ताकि कमेंट में भी मौलिकता बनी रहे. अब जब औरों के कमेंट पढ़ा तो सर में खुजली हो रही है. भागता हूँ यहाँ से..
      बेचैन आत्मा की हालिया प्रविष्टी..आजादी के 63 साल बादMy ComLuv Profile
    26. अपूर्व
      एक बात कहूँगा..
      कल ही आपकी पोस्ट पढ़ी और पढ़ कर कुछ उजबक सी प्रतिक्रिया दे मारी आपकी ही नकल करने की कोशिश करते हुए( ..एकलव्ययी तरीके से..तब तक कोई टिप्पणी पढ़ी नही थी..उसके बाद सारी पढ़ीं और विवाद-विषय-वस्तु से परिचित हुआ..मेरी तुच्छ प्रतिक्रिया आपकी पोस्ट पर ही थी..इस बहस मे किसी पक्ष विपक्ष पर नही!!..
      बहस के बारे मे मुझे यही लगता है कि एक अच्छे परफ़ार्मर और सामान्य कवि की सामान्य रचना को आवश्यकता से अधिक तूल दे कर अनावश्यक विवाद का विषय बनाया जा रहा है..किसी भी विवाद मे जब आरोप-प्रत्यारोप की भाषा यदि शालीनता की सीमा का अतिक्रमण करती है तब बहस अपने मूल कथ्य से भटक कर वैयक्तिक अहं का विषय बन जाती है…और फिर उस शब्दमंथन के अतिरेक से कोई सार्थक परिणाम नही वरन वैमनस्यता का हलाहल ही प्राप्र्त होता है..(हालाँकि असुर प्रवृत्ति के लिये यह अभीप्स भी होता है)..लोगों की अपनी पसंद होती है और श्रेष्ठता के अपने मानक भी…उसे दूसरों पर आरोपित करना या अतार्तिक तरीके से डिफ़ेंड करना अक्सर कोई सार्थक परिणाम नही दे पाता…. यहाँ पर ऐसे वाग्बाण किसी तार्किक परिणति पर पहुँचते नही लगते वरन पूर्वाग्रहों को पुष्ट करते ही लगते हैं..
      कोई भी कविता आनंद लेने और आत्ममंथन का आह्वान करती है..पहलवानी का नही ;-)
      ..और बहस करने लायक और भी श्रेष्ठ कविताएँ लिखी गयीं हैं..और लिखी जा रही हैं….वे भी अपनी ओर ध्यान दिये जाने की मांग करती हैं!
    27. Chaupatswami
      एक असफ़ल कवि और असफल गायक टाइप बंदे में मंचीय गीतकार बनने की प्रबल संभावनाएं निहित होती हैं. ’डॉ.’ कुमार विश्वास उसी अर्थ में ’संभावनाशील’ अर्धगीतकार प्रजाति के बन्दे हैं जो जीवन भर एक ही गीत लिखने के अभिशाप के साथ जन्मे हैं.
      अच्छे साहित्यिक गीतों से सर्वथा अपरिचित हिंदी-प्रदेशों की कैरियरोन्मुख काव्य-बुभुक्षित,प्रेम-बुभुक्षित,प्रेम-प्रतीक्षारत वेलेंटाइनी पीढ़ी ने उनके प्रेम-प्रयोजनीय गीतों को लपक लिया है.
      कुमार विश्वास भी अपने क्लाइंट्स की मांग को एक अच्छे व्यवसायी की तरह ताड़ गये हैं और फिर-फिर उसी उत्पाद की रिसाइकिलिंग कर आपूर्ति में संलग्न हैं.भवानी भाई ऐसों के बारे में बहुत पहले कह गये हैं : ’जी हां हुज़ूर ! मैं गीत बेचता हूं ’
      कुमार विश्वास बेचें,कमाएं,आमदनी पर जायज टैक्स भरें और प्रसन्न रहें.पर साहित्य के विशाल और उदात्त परिसर में उनकी कोई जगह न थी, न है और न होगी.
      Chaupatswami की हालिया प्रविष्टी..मैत्री पर एक टीप और विवाद जो नहीं थाMy ComLuv Profile
    28. Harshit
      फुरसतियाँ जी वाकई काफी सोच समझ कर अपना नाम रखा है आपने ….बहुत फुरसत है आपके पास . पहले सोचा की अधीरता वश कमेन्ट कर देने की गलती की है मैंने…लेकिन फिर समीर जी को आपका जवाब देखा….बस इरादा बदल दिया…पहले खुद शिष्ट बनिए फिर शिष्टाचार का पाठ पढ़ाइए. जब मित्र कहलाने व्यक्ति के साथ आप ऐसे पेश आये है तो न जाने गैरों के साथ क्या रवैया हो आपका.
      कुमार विश्वास ने हजारों को मुग्ध किया है…मुग्ध करने का गुण भी सभी में नहीं होता ….अब देखिये न मात्र उनके नाम से ८० टिप्पणियों के ऊपर का स्कोर चल रहा है आपका…..इतना तो शायद कभी न बटोर पाते आप…आप में वो क्षमता कहाँ?
      कुमार विश्वास के बारे में डिटेल तो खूब जानते हैं आप….कोई विडियो आपकी नज़र से तो नहीं निकला आजतक ऐसा मै नहीं बकौल टिप्पणी आपने ही क़ुबूल किया है…..बड़ी शिद्दत से देखा है उनका नया विडियो इसलिए पहला कमेन्ट यू ट्यूब पर भी आपके जानिब से.
      बात बिम्ब से शुरू हुई थी तो सारा मामला कंचन जी , गौतम जी , डा.अनुराग, बेचैन आत्मा और दुसरे साथियों ने साफ़ कर दिया है…..जिसे जानते और समझते हुए भी आप अहम् वश स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं.
      @ अमरेन्द्र जवाब तो आपने नहीं दिए….और जब व्यक्तिगत आक्षेप हो तो क्या कूदना…जिस घटना के कारन आपका वाक् और ब्लॉग युद्ध चल रहा है..उचित परिचित हैं उससे….वही वजह है आपकी नाराज़गी की…बेशक इल्म तो है आपके पास….लेकिन तजुर्बा नहीं..जो होता तो लोग आपको कुमार विश्वास के खिलाफ ऐसे इस्तेमाल न कर पाते
      @चौपटस्वामी आपका नाम बहुत खूबसूरत हैं :-) बस जिंदगी में एक ब्रेक ही तो चाहिए …..अफ़सोस हिंदी के मसीहाओं को नहीं मिला….मुमकिन है आप भी उनमे से एक हो ……आपके कथनानुसार “हिंदी-प्रदेशों की कैरियरोन्मुख काव्य-बुभुक्षित,प्रेम-बुभुक्षित,प्रेम-प्रतीक्षारत वेलेंटाइनी पीढ़ी ने ने उनके प्रेम-प्रयोजनीय गीतों को लपक लिया है” …….अब क्या करें दूसरी पीढ़ी तो है भी नहीं…इसी से काम चलाना पड़ेगा …
      मेरी पीढ़ी की ख़ुशी इसमें भी है कि हमारा कवि अर्थशास्त्री भी है …..डिमांड एंड सप्लाई का फार्मूला इम्प्लीमेंट करता है…हम इसे मल्टी-टेलेंट कहते हैं …..भविष्य की चिंता आप न करें…वर्तमान ने साहित्य श्री प्रदान कर उन्हें साहित्य में स्थान दिला दिया…और भविष्य में हमारे बच्चे उन्हें पाठ्य पुस्तकों में पढेंगे. ये वादा रहा
      हर्षित
    29. K M Mishra
      इसीलिये तो कहते हैं कि जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि ।
      ”कल्पना के घोड़े – किड़बिड़.किड़बिड़ । फ़िंच जाते हैं प्रयोग होते.होते । स्त्री बिम्बों की सुरक्षा के लिये विशेष उपाय किये जायें।“ – जय हो अनुप दादा की ।
      और जहां न पहुंचे कवि वहां पहुंचे अनुप दादा । (दादा बंगाली वाला] बड़े भईया कानपुर वाले । अब से दादा ही कहूंगा)
      देख रहा हूं कि आपको पढ़ते पढ़ते अब आपके पाठक भी फुरसतिया हो गये हैं । कमेंट भी अब फुरसतिया टाईप आने लगे हैं । संगत का असर । मेरे ऊपर तो आलसी गिरेजेश हावी हैं ।
      K M Mishra की हालिया प्रविष्टी..क्या आप बोर हो रहे हैं My ComLuv Profile
    30. विवेक सिंह
      आखिर अतिशयोक्ति अलंकार भी तो कोई चीज है !
      विवेक सिंह की हालिया प्रविष्टी..वैसे तो चलता इसके बिनMy ComLuv Profile

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