सुबह उठे। टहलने निकले। गेट पर दरबान मिला। नमस्ते ठुकी। हाल पूछने पर बताया कि हीटर फुंक गया। सर्दी में परेशानी । और कोई समस्या पूछने पर बताया कि गुमटी में कोई खूंटी नहीं है कपड़े टांगने की। लग जायेगी कहते हुए हम सड़क पर निकल लिए। कह तो दिया अब देखना है लगती कित्ते दिन में है।
सड़क पर झाड़ू लगाती एक महिला से बात करने लगे। चार बच्चे हैं। पति बीमार। सांस की समस्या। महिला अकेली कमाने वाली। साफ चमकते दांत वाली महिला अपने सर से ऊंची झाड़ू सड़क पर लगाती बतियाती रही। घर में समस्याएं हैं लेकिन खुद कमाई का आत्मविश्वास उसकी आवाज और चेहरे पर चमक रहा था।
सड़क पार करके पार्क में धंस गए। सुबह की टहलाई करते दिखे लोग। एक बच्ची बेंच पर अकेली बैठी थी। उसके मां-पिता-भाई दूर तक टहलने जाते हैं। बच्ची को उसकी छोटी बहन के साथ पार्क में छोड़ जाते हैं। लौटकर साथ ले जाते हैं।
'तुम बैठी क्यों हो? झूला क्यों नहीं झूलती ?' हमारे इस सवाल के जबाब में बच्ची कहती है - 'भाई के आने पर उसके साथ रेस करनी है। झूलने से थक जाऊंगी।फिर उसको हरा नहीं पाऊंगी।' बच्ची भाई से जीतने के लिए अपनी ऊर्जा बचाकर रखती है।
बच्ची अपना रेसिंग ट्रैक दिखाती है। कई जगह से उखड़ा हुआ। उसको भी ठीक कराने की सोंचते हुए उससे पूछते हैं कि पार्क में और क्या कमी है ?
वह मुझे एक सी-सा के पास ले जाकर बताती है -'इसकी सीट नहीं है।' हम जल्दी ही उसकी मांग पूरी करने का वादा करके टहलने लगते हैं।
बच्ची अपनी छोटी बहन के साथ झूला झूलने लगती है। उसको झूला झुलाने वाली लड़की भी बच्ची है। उससे कुछ बड़ी। चेहरे से पता लगता है कि किसी गरीब घर की बच्ची है। छोटी बच्चियों के देखभाल के लिए रखी गयी होगी। बिना स्कूल की पढ़ाई के जिंदगी के स्कूल में नाम लिख गया।
पार्क के बाहर अलग-अलग समय में उद्घाटन, लोकार्पण, वृक्षारोपण के नामपट्ट लिखे हैं। सब रिटायर हो गए। नामपट्ट के नाम भी धूमिल हो गए। लगता है नाम भी रिटायर हो गये। नाम पट्ट पर नाम देखने की ललक भी मजेदार है इंसान में।
कई नामपट्ट देखे पिछले दिनों। कई ऐसे लोग जिनके नाम से लोग कांपते थे उनके नामपट्ट पर बन्दर अपने बच्चों के साथ लिए कूदते रहते हैं। अपनी पूंछ लोगों के नाम के आगे पंखे की तरह फहराते हैं।
अभी याद आया कि बच्ची के कहने पर झूला लगवाने का आदेश दिया है हमने। अब सोच रहे हैं कि झूले के बगल में नामपट्ट भी लगवाने की व्यवस्था करनी चाहिए- 'झूले का उद्घाटन किया फलाने इस दिन।' लेकिन लफड़ा यह कि झूला आयेगा तीन हजार का, नाम पट्ट और उद्घाटन समारोह का खर्च होगा तीस हजार का।' सोचकर शर्मा गए और नामपट्ट का विचार स्थगित कर दिया।
दोपहर में फिर गए पार्क। देखने कि क्या-क्या काम होना है। एक बच्चा पार्क में आल्थी-पालथी मारे पढ़ रहा था। पूछने पर बताया कि घर में लोग पढ़ने नहीं देते। कहीं खेत पर भेज देते हैं , कहीं जानवर चराने। इसीलिए यहां पार्क में आ जाता है पढ़ने।
बच्चे को पार्क में पढ़ता देखकर पास में ही अपनी निर्माणी की इस्टेट लाइब्रेरी को शुरू करने का हमारा इरादा और पुख्ता हो जाता है। लाइब्रेरी पिछले साल उद्घाटन के बाद से बन्द है। जब भी उसको शुरू करने की बात सोची गयी तब यह बात उठी कि पढ़ने कौन आएगा ? हमको जबाब मिल गए -'जयेंद्र जैसे लोग आएंगे।'
जयेंद्र से पूछते हैं -'पास में लाइब्रेरी खुलेगी तो वहां पढ़ने आओगे?'
'पैसे कितने पड़ेंगे लाइब्रेरी में पढ़ने के?' बच्चे का पहला सवाल होता है।
हमने कहा-'कोई पैसा नहीं पड़ेगा।जल्द ही लाइब्रेरी खुलेगी।'
टहलकर वापस आये। दफ्तर चले गए। दिन बीत गया। अभी फिर दिन शुरू हुआ तो सोचा लिखा जाए किस्सा।
अभी इत्ता ही। बाकी फिर कभी।
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