मेरी भी बाहों में ख़ुद को पसारता कोई
मेरी भी शाम की ज़ुल्फें संवारता कोई
मिले थे विरसा में कुनबा के रंजिश और वादे
सुकूँ से जिन्दगी कैसे गुज़ारता कोई
ये दुनिया काग़ज़ी नाव पे है सवार, यही
गली से निकला दिवाना पुकारता कोई
भले ही दिल की नज़र से न ताकता लेकिन
दिली तमन्ना थी मुझको निहारता कोई
हर एक फैसला मन्ज़ूर ही मुझे होता
निगाहे नाज़ से करता जो बारता कोई
जवानी गुज़री इसी आरज़ू की बाहों में
मुझे भी अपना समझ कर पुकारता कोई।
ख़ुदा से अपनी दुआ अब तो है यही जर्रार
चढ़े दिमाग़ को उन के उतारता कोई।
विरसा...पैदाएशी
बारता...बात चीत
कुनबा...ख़ानदान
जर्रार तिलहरी
आयुध वस्त्र निर्माणी, शाहजहांपुर।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10218759370028820
No comments:
Post a Comment