अठारह रुपये की चाय। बताओ भला।
सबसे पहले बाहर की चाय पीना शुरु किये थे 1981 में। इलाहाबाद में। 30 पैसे की एक चाय। कल बनारसी टी स्टॉल वाले ने 18 रुपये धरा लिए। 37 साल में 60 गुनी मंहगी हो गयी है चाय। मोटा मोटी हर साल क़ीमत दोगुनी हो रही।
लेकिन यह तो बनारसी टी स्टॉल की बात हुई।
शहर में अभी भी कई जगह 5 रुपये की एक चाय मिलती है। उतना भी मिलती तो कई जगह 100 रुपये की भी है। उससे तुलना करेंगे तो समझ लो आग ही लग जायेगी।
शहर में अभी भी कई जगह 5 रुपये की एक चाय मिलती है। उतना भी मिलती तो कई जगह 100 रुपये की भी है। उससे तुलना करेंगे तो समझ लो आग ही लग जायेगी।
कहने का मतलब चाय के दाम के दाम सही में कितने बढ़े इस पर कुछ कहना मुश्किल काम है। हर अखबार अपने हिसाब से अलग दलों की सरकार बनने वाले सर्वे दिखाता है वैसे ही चाय के दाम दुकान के हिसाब से बदलते हैं।
बनारसी टी स्टॉल पहले मोतीझील के पास था। सुनते हैं सेल्स टैक्स वालों से कुछ लफड़ा हो गया , शायद लेनदेन में। वह दुकान अंततः बन्द हो गई। लब्बोलुआब यह निकला कि सरकारी मशीनरी से पंगा नहीं लेना चाहिए।
लेकिन बाद में अस्सी फ़ीट रोड पर दुकान खुली। एक जगह और भी खुली। एक कि जगह दो दुकान हो गईं। इसका लब्बोलुआब यह निकला कि बढ़ोत्तरी के लिए पंगा फायदेमंद होता है।
अब आगे पीछे दो लब्बो लुआब हो गए। दोनों में कौन ज्यादा फायदेमंद है यह कहना मुश्किल। आप जिसको ठीक समझें ग्रहण कर लें। हम किसी की गारंटी नहीं लेते। वैसे भी फैशन के दौर में गारंटी की बात करना बेवकूफी की बात है। करनी नहीं चाहिए लेकिन अब तो सबको पता चल गया कि बेवकूफी का सौंदर्य अद्भुत होता है इसलिए अगर कर भी ली गारंटी की बाद फैशन के दौर में गारंटी की बात तो कोई आफत नहीं आ जायेगी।
चलते चलते सोचते हैं कि व्यंग्य की कोई बात कर डालें। बात बहुत ऊंची सोची थी कहने के लिए लेकिन फिर याद आया कि सुरक्षा मानकों के हिसाब से 3 फ़ीट से ऊपर काम करने के पहले संरक्षा उपकरण का इस्तेमाल करना चाहिए। सुरक्षा अधिकारी की अनुमति ले लेनी चाहिए। अब सुबह-सुबह यह सारा तामझाम कहाँ से किया जाए।
व्यंग्य के बारे में ऊंची बात कहने में सुरक्षा का तामझाम की बात तो हमने ऐसे ही कही। असल बात यह है कि कल आलोक पुराणिक ने टेढ़ी बात कहते हुए कहा -'व्यंग्यकार मूलतः हरामी होता है।'
आलोक पुराणिक अक्सर मंचीय मजबूरी के चलते साथ में मौजूद व्यंग्यकारों को ऊंचा व्यंग्यकार बताते हैं। लोगों को खुश होने की बजाय समझना चाहिए कि वे मूलतः उनके बारे में कह क्या रहे हैं। हमारे प्रति आलोक पुराणिक का खालिश प्रेम भी देखिए कि उन्होंने हमको कभी व्यंग्यकार नहीं कहा , हमेशा वृत्तान्तकार कहा।
लेकिन अब मान लो हम व्यंग्य के बारे में कोई ऊंची बात कह डालें तो हमको कुछ लोग जो शरीफ माने भले न लेकिन लिहाज के मारे कहते हैं उनको बड़ा खराब लगेगा। उनको कष्ट होगा कि जो बात उनकी समझ में सिर्फ उनको पता थी वह वास्तव में सबको पता है।
ये मुआ शराफत का लालच हमको ऊंचा व्यंग्यकार बनने से रोकता है।
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