Monday, April 10, 2023

इतवार की सड़कबाजी

 



कल दोपहर कुछ सामान लेने के लिए बाजार जाना हुआ। सामान की लिस्ट एक प्लेटफ़ॉर्म टिकट के पीछे लिख कर बग़ल में रख ली। चलने के पहले अधूरी लिखी पोस्ट पूरी करने लगे। प्लेटफ़ॉर्म टिकट को शायद बुरा लग गया। वह पंखे की हवा के सहारे उड़कर बिस्तर के नीचे दुबक गई। उसको निकाल के फिर बगल में रखा और फिर पोस्ट लिखने लगे।
पोस्ट लिखने के बाद चलते समय सामान की लिस्ट खोजी। टिकट नदारद थी। लगता है उसको क़ायदे से बुरा लग गया। उसके स्वाभिमान के स्तर को देखकर लगा कि उसकी बेइज्जती सहन करने का अभ्यास नहीं है। कहीं नौकरी न करने के ये साइड इफ़ेक्ट मतलब किनारे के प्रभाव हैं।
बहरहाल, सामान की लिस्ट दूसरे कागज में बनाई। पर्स लिया और चल दिए। चलते हुए पर्स में देखा तो रुपये बहुत कम थे। कोई नहीं एटीएमकार्ड और मोबाइल साथ थे। सोचा पैसा निकाल लेंगे। गूगल पे कर देंगे। आजकल दस-बीस रुपये के भुगतान भी गूगल पे हो जाते हैं।
पैसा निकालने के लिए रास्ते में जितने भी एटीएम मिले, बंद मिले। हर बंद एटीएम पर लगता, आगे कोई खुला मिलेगा। एक जगह मिल भी गया एटीएम खुला लेकिन वहाँ मशीन ख़राब थी।
चलते हुए सोचा अब गूगल पे से या कार्ड से भुगतान ही करना होगा। आजकल यह सुविधा तो हर जगह होती है।
इस बीच देखा बग़ल में रखा मोबाइल गरम होकर बंद हो गया। चलते हुए प्रभात रंजन जी की Prabhat Ranjan आवारा मसीहा पर बातचीत सुन रहे थे वह भी सुनाई देनी बंद हो गई। स्क्रीन पर सूचना लिखी थी -‘ गर्मी के कारण मोबाइल बंद हो गया है।’
इससे एहसास हुआ कि गर्मी कितनी ख़राब चीज है। ज़्यादा गर्म नहीं होना चाहिए। सिस्टम बैठ जाता है।
मोबाइल बंद हो गया लेकिन भरोसा था कि भुगतान के समय तक ठीक हो जाएगा। हुआ भी ऐसा ही। भुगतान के समय से पहले ही मोबाइल होश में आ गया। मानो गहरी नींद से जगा हो। मोबाइल ने हमारे विश्वास की रक्षा की।
लौटते समय ट्रांसपोर्ट नगर से टाटमिल चौराहे की तरफ़ आने वाले ओवरब्रिज से आए। देखा की बीच सड़क पर डिवाइडर बना हुआ है, लोहे की बारीकेटिंग का। अधिकतर गाड़ियाँ सड़क की दायीं ओर जा रही थीं। मतलब कानपुर की सड़क पर अमेरिका का क़ानून चल रहा था। लेकिन हम बायें ही चले। हमेशा चलते हैं। सड़क के क़ानून का पालन करते हैं।
क़ानून पालन का फल यह मिला कि एक बार बायें मुड़े तो बायें ही बने रहे। सड़क ने हमको मजबूरन वामपंथी बना दिया। हमको टाटमिल चौराहे से दायें मुड़ना था लेकिन चौराहे पर बैरिकेटिंग थी। जो लोग सड़क के नियम के हिसाब से ग़लत मुड़े थे वो ही चौराहे से दायें आगे जा पाये थे। क़ानून के हिसाब से चलने का नुक़सान हुआ।
हमको ट्रैफ़िक विभाग पर ग़ुस्सा आया कि कम से कम बैरिकेटिंग के पास लिख देना चाहिए था कि स्टेशन की तरफ़ जाने वाले दायीं तरफ़ से जायें। लेकिन ज़्यादा ग़ुस्सा करने से हमारे दिमाग़ का स्क्रीन भी मोबाइल की तरह उड़ जाएगा यह सोचकर शांत हो गये। बायीं तरफ़ ही आगे बढ़ते रहे।
आगे टाटमिल चौराहा, फिर पुल पार करके दायीं तरफ़ आए। इसके बाद बांस मंडी चौराहे से अनायास बायें मुड़ गये। पिछले हफ़्ते हुई आगज़नी में यहाँ सैकड़ों दुकाने जल गयीं थीं। करोड़ों का नुक़सान हुआ। उस समय देखने आए थे तो रास्ता बंद था। कल खुला देखा तो अनायास उधर ही घूम गये।
कुछ दूर आगे ही जली हुई दुकानें दिखीं। धुएँ के निशान इमारतों में दिख रहे थे। दुकानों में सन्नाटा था। कुछ कुत्ते अलबत्ता वहाँ टहल रहे थे। सामने कुछ पुलिस वाले तैनात थे। कुछ मोबाइल देखते , कुछ सुरती ठोंकते , बतियाते हुए दिख रहे थे। जिन दुकानों पर कभी चहल-पहल रहती होगी वे सब सन्नाटे में डूबी थीं।
जली हुई दुकानों की सामने की पट्टी पर सड़क पर चाय की दुकान थी। नाम लिखा था -‘राम जाने टी स्टाल।’ पहले सोचा वहाँ रुककर चाय पी जाए लेकिन फिर मन नहीं किया। लौट लिए।
लौटे तो घंटाघर चौराहे से नरोना चौराहे की तरफ़ वाले रास्ते से। आराम-आराम से , ख़रामा-खरामा। चौराहे पर जब मुड़ने लगे तो सामने ट्रेफ़िक पुलिस के सिपाही जी अपने मोबाइल को दोनों हाथों में बंदूक़ की तरह थामे दिखे। बाद में पता लगा वो मेरी कार की फ़ोटो ले रहे थे। हमको कारण समझ में नहीं आया। हमने सीट बेल्ट लगा रखी थी। स्पीड ज़्यादा नहीं थी। इंडिकेटर भी दिया था मुड़ने से पहले। फिर काहे की फ़ोटो।
ट्रेफ़िक पुलिस के सिपाही जी ने हमारी फ़ोटो भले खींची लेकिन रोका नहीं। हम भी घूम गये चौराहे से। मुड़ते समय हमने सुना भाई साहब कह रहे थे -‘वन वे में इधर से क्यों आ रहे हो?’
हमको ताज्जुब हुआ कि कहीं लिखा नहीं रास्ते ने एकल मार्ग। लिखा भी होगा तो इस तरह कि कहीं आते-जाते किसी को दिख न जाये।
यातायात व्यवस्थित रखने की मंशा से कभी भी कोई भी रास्ता एकल मार्ग या पथ परिवर्तन हो जाता है। आप जिस सड़क पर रोज़ आते-जाते हैं , पता चला अचानक उससे अलग किसी सड़क पर चलने के लिये सूचना लग जाती है।
लौटते हुए शुक्लगंज ओवरब्रिज के नीचे गन्ने का रस पिया। 20 रुपये ग्लास। भुगतान गूगल पे से किया। भुगतान करते हुए पूछा -‘सलाहुद्दीन किसका नाम है?’ गन्ना पेरते लड़के ने अपनी तरफ़ इशारा किया -‘मेरा नाम है।’ और कुछ बात हुई नहीं उससे। वह अपने अगले ग्राहक , एक रिक्शावाले के लिए , रस निकालने के लिए गन्ना छाँटने लगा था। हम घर आ गये।
बहरहाल यह तो रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है। इतवार की सड़कबाज़ी के क़िस्से। फ़िलहाल तो नया हफ़्ता शुरू हो रहा है। चकाचक शुरुआत के लिए शुभकामनाएँ।

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