Thursday, September 28, 2023

कोलकाता -एक संवेदनशील शहर



कोलकता पहली बार गये थे 40 साल पहले। 1983 में ।साइकिल से। इलाहाबाद से कन्याकुमारी जाते हुए। 9 दिन में पहुँचे थे इलाहाबाद से कलकत्ता। तीन दिन घूमे थे। उसके बाद अनेक बार आना हुआ लेकिन हर बार टुकड़े-टुकड़े ही घूमे। लौट गये यह सोचते हुए कि अगली बार तसल्ली से घूमेंगे।
इस बार जब गये तो दमदम गेस्ट हाउस में काम करने वाले कामगार ने कहा -‘अनेक दिन बाद आये।’ होटल में टिकते तो कौन पूछता -‘अनेक दिन बाद आए।’ होटल में एक तरह की बन्दिस भी लगती ही की पता नहीं कौन चीज के पैसे लग जायें। गेस्ट हाउस में ड्राइवर जितनी बार आया उतनी बार हमने कहा -‘चाय पी लो। खाना खा लो।’ किसी पाँच सितारा होटल में ठहरते तो ख़ुद भी खाना बाहर खाते अगर वह किराए में शामिल नहीं होता।
कामगार ठेके पर काम करता है। न्यूनतम मजदूरी से भी कम मिलता होगा। लेकिन यही सुकून की बात कि पिछले बीस साल से वहीं लगा है। कुछ देर बात करने पर बताया कि इस महीना का पगार अभी नहीं आया। दिहाड़ी पर काम करते कर्मचारी को भुगतान महीने के आख़िरी सप्ताह तक न मिले यह ठेकेदारी प्रथा में सामान्य बात है।
लौटने की फ़्लाइट शाम साढ़े तीन की थी। शाम की फ़्लाइट बुक करते हुए सोचा था कि इस बार कोलकता में कॉलेज स्ट्रीट जाएँगे। हर बार सोचते हैं, हर बार रह जाता था।
कॉलेज स्ट्रीट भारत के साथ-साथ एशिया का सबसे बड़ा पुस्तक बाजार और पूरी दुनिया में सबसे बड़ा सेकेंडहैंड पुस्तक बाजार है। 900 मीटर लंबी इस सड़क को किताबों का मोहल्ला/कालोनी भी कहते हैं (बंगाली में बोई पारा )। इस सड़क पर कोलकाता के कई शिक्षा संस्थान हैं। कॉलेज स्ट्रीट का इतिहास 1817 से मिलता है जब डेविड हेयर ने तत्कालीन हिंदू समुदाय के सदस्यों के बच्चों को उदार शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से द हिंदू कॉलेज की स्थापना की थी।
कॉलेज स्ट्रीट के तमाम क़िस्से सुन रखे थे। सोचा इस बार देख ही लिया जाये।
दस बजे बुलाया ड्राइवर को। लेकिन निकलते-निकलते सवा ग्यारह बज गये। गूगल मैप के हिसाब बारह बजे पहुँच जाना था। लेकिन सड़क पर ट्रॉफ़िक जाम के चलते पहुँचने का समय बढ़ता गया। सड़क पर भीड़ बढ़ते देखकर वहाँ रुकने का समय कम होते -होते शून्य के क़रीब हो गया। यह सोचा कि रुकेंगे नहीं बस पाँव फिराकर चले आयेंगे।
दिन की धूप थी। सड़क पर ट्रैफ़िक होमगार्ड छाता लगाये ट्रैफ़िक नियंत्रण कर रहा था। सड़क पर चलते लोग भी ,ख़ासकर महिलायें ,धूप से बचने के लिए छाता लगाये थी। एक युवा जोड़ा भी छाते के नीचे शायद सवारी के इंतज़ार में खड़ा दिखा। लड़का छाता पकड़े था। लड़की इधर -उधर और फिर लड़के को देखकर उससे बतिया रही थी। जोड़ा जिस तसल्ली से गप्पगुम था उसे देखकर लगा कि उनको कहीं आना जाना नहीं था। वहीं खड़े होकर बतियाना था।
छाते के नीचे जोड़े को देखकर अपन को ख़ुद का लिखा शेर बिना याद किए याद आ गया:
तेरा साथ रहा बारिशों में छाते की तरह
भीग तो पूरा गये पर हौसला बना रहा।
शेर याद तो आ गया लेकिन ‘याद मैनेजर’को हड़काया कि एकदम बाज़ारू हो गये हो। चंट सेल्समैन। बारिश का शेर धूप में ख़पा रहे हो। ‘याद मैनेजर’ ने मुस्कराते हुए कहा कि मौसम कोई हो छाता तो बचाने का ही काम कर रहा है। शेर भी खप जाएगा , आप चिंता न करें।
इस बीच ड्राइवर ने अपने बारे में बता डाला। 2018 में पूजा के दिनों में पिता नहीं रहे। शादी लव मैरिज से बनाया। इंटरकास्ट। बीबी ब्राह्मण ख़ुद अनुसूचित जाति का। लेकिन कोई ज़्यादा लफड़ा नहीं हुआ। बीस साल हो गये शादी को। एक बच्चा है , क्लास फ़ोर में पढ़ता है। बेटे , पत्नी और परिवार के फ़ोटो , विडियो दिखाये। सब ख़ूबसूरत।
‘प्यार की शुरुआत कैसे हुई?’ पूछने पर बताया। पास में रहती थी। अच्छी लगी तो बात का कोशिश किया। थोड़ा डाँटा-फाटा हुआ पहले फिर बात शुरू हुआ और फिर शादी बना लिया। पत्नी को नौकरी भी मिला था , एयरहोस्टेस का आफ़र भी मिला था लेकिन बेटे के कारण छोड़ दिया।
‘लव मैरिज बीस साल पहले हुआ। अब भी प्यार बना है कि नहीं ?’ हमारे इस सवाल के जबाब में ड्राइवर ने कहा -‘अच्छा है। चलता है । नरम गरम तो चलता रहता है।वो थोड़ा ज़िद्दी है। उसके कारण शराब छोड़ दिया। बेटे पर भी असर पड़ेगा न। सब ठीक है। अच्छा है।’
इसी सिलसिले में किसी बात पर उसने कहा -‘ हम उसको आज तक ‘आई लव यू’ तक नहीं बोला।’
हमको हँसी आ गई। हमने कहा -‘कैसी मोहब्बत कि आज तक उसका शुरुआती नारा तक नहीं निकला मुँह से?’
मन किया कि उनको संगत का विश्वनाथ त्रिपाठी का वह इंटरव्यू सुनायें जिसमें वे अपनी दिवंगता जीवनसंगिनी के प्रति प्रेम न प्रकट करने का अफ़सोस करते हैं। लेकिन बात इधर -उधर हो गई।(विश्वनाथ त्रिपाठी जी से Anjum Sharma की बातचीत का लिंक कमेंटबॉक्स में )
रास्ते में जाम के चलते देर होती गई। जब दो किलोमीटर रह गया कॉलेज स्ट्रीट तो जाम जैसे धरने में बदल गया। पूरी सड़क सी ठहर गई।
सड़क के जाम से निर्लिप्त सड़क किनारे एक रिक्शे में बैठे , लेटे, सड़क के जाम से निर्लिप्त दो बुजुर्ग गप्परत थे। कोई मतलब नहीं दीन दुनिया से। एक के सर पर हैट, दूसरे का सर खुला। पैर रिक्शे की रेलिंग पर। रिक्शे के पहिये पर ताला। अन्दाज़-ए-गुफ़्तगू ऐसा गया कोई बड़े सियासी नेता किसी बहुत बड़ी समस्या पर चर्चा कर रहे हों। ये तो मासूम लोग हैं। किसी रोज़मर्रा की समस्या से निपट रहे होंगे। सड़क के जाम से बेख़बर । वह तो उनके लिये आम बात है ।सियासी लोग भी इसी अन्दाज़ में अपनी योजनाओं पर चर्चा करते होंगे -‘कैसे विरोधी को निपटाया जाये, कैसे चुनाव जीता जाये, कैसे तमाम जगह क़ब्ज़ा जमाया जाये।’ अवाम की तमाम परेशानियाँ उनके लिए रोज़मर्रा की बात होती होगी जिस पर तवोज्जो देना फ़ालतू समय बर्बाद करना लगता होगा। कई समस्याएँ तो उनकी उपेक्षा करने से ही हल हो जाती हैं।
रिक्शे पर बैठे बुजुर्गों को तसल्ली से बतियाते देखकर लगा यह कोलकता की ख़ासियत है। यहाँ जगह लोग बतियाते, अड्डेबाज़ी करते दिख जाते हैं। कई जगह लोग फुटपाथ पर शतरंज , कैरम खेलते दिख जाते हैं।कभी भारत के प्रधान मंत्री जी ने कोकलता को मरता हुआ शहर कहा था। बड़ा बवाल हुआ था। मुझे कोलकाता हमेशा जीवंत, संवेदनशील शहर लगता है जहां कहीं से भी आया गरीब से गरीब इंसान भी इज्जत से जीवन बसर कर सकता है।
थोड़ा आगे ही एक सार्वजनिक शौचालय दिखा। उसकी दीवार पर सुंदर लोकचित्र जहां ख़ुशनुमा लगा वहीं उसके सामने ही सड़क पर उठने के इंतज़ार में पड़ा कूड़ा देखकर लगा कि यहाँ सफ़ाई और गंदगी की गठबंधन सरकार चल रही है ।
इस बीच घड़ी एक बजाने की तरफ़ बड़ी। दो किलोमीटर दूर कॉलेज स्ट्रीट अभी भी बीस मिनट के फ़ासले पर दिख रहा था ।हमें लगा कि देर हुई तो फ़्लाइट छूट जायेगी। हम वापस लौट लिए।
लौटते हुए सड़क किनारे एक टपरी पर चाय पी। बुजुर्ग महिला बांग्ला में बता रही थी कि उसको ब्रेनस्ट्रोक हुआ था। माथा बहुत दर्द करता है। थर्मस से कुल्हड़ में चाय उड़ेलते हुए अपनी कहानी बताती रही। हम कुछ न समझते हुए भी सब बूझते गये। चाय बिस्कुट के बाईस टका हुए। हमारे पास पाँच सौ रुपये का नोट था। उसके पास न चिल्लर थे न फ़ोन पे। पैसे ड्राइवर ने दिये। तीस रुपये। आठ रुपये वापस करने के लिए भी वह इधर-उधर करने लगी। शायद थे नहीं। हमने कहा -‘छोड़ दो।’ ड्राइवर ने छोड़ दिया। बुजुर्ग महिला ने हमको अनेक आशीष दिये।
वहीं खड़े चाय पीते हुये एक रिक्शा वाला और एक आटोवाला वॉकयुद्ध कर रहे थे। बांगला में। पूछा तो पता चला रिक्शा वाला आटनेवाले को हड़का था कि वह यहाँ क्यों खड़ा होता है। उसका सवारी क्यों उठाता है?
आगे फुटपाथ पर एक आदमी लेटा हुआ किसी से बतिया था ।शायद वह वहीं खड़े ट्रक का ड्राइवर था। वहीं पास में बैठा लड़का मोबाइल में मुंडी घुसाये व्यस्त था।
ड्राइवर ने हमको हवाई अड्डे पर छोड़ दिया। हमने चाय के पैसे के साथ कुछ और पैसे उसको दिये। दुनिया में अपनी शर्तों पर आर्थिक सहायता देने वाले संस्थानों की तर्ज़ पर हमने हिदायत दी -‘अपने बेटे के लिए चाकलेट ले जाना और अपनी पत्नी को आई लव यू बोलना।’
हमारी कही बात पर अमल करने को कहकर वह चला गया। हम भी चले आये । पता नहीं उसने हमारी बात पर अमल किया या नहीं। फ़ोन करके पूछते हैं। 😊
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