आज साइकिल दिवस है। साइकिल से जुड़ी तमाम यादें हैं। बचपन में साइकिल तब सीखी जब चौथी-पाँचवीं में पढ़ते थे। घर के पास स्कूल के सामने रहने वाले दोस्त श्रीकृष्ण के पास साइकिल से पहले कैंची चलानी सीखे फिर उचक-उचक कर गद्दी पर बैठ कर चलाना सीखा।
बचपन से अब तक कई साइकिलें रही साथ में। एक साइकिल में ब्रेक एक ही तरफ़ था। दूसरा ग़ायब। हमारे नाना जी हैलट अस्पताल में भर्ती थे। उनको खाना देने जाते थे। गांधीनगर से हैलट। करीब तीन किलोमीटर की दूरी बहुत लगती थे उन दिनों। एक बार की याद है जब बारिश में गए थे अस्पताल। ब्रेक लग नहीं रहे थे। आहिस्ते-आहिस्ते गए।
हाईस्कूल तक पैदल ही जाते रहे स्कूल। इंटर में दोस्तों के साथ जाते थे। लक्ष्मी बाजपेयी के साथ जाने की याद सबसे ज़्यादा है। इंटर के बाद इलाहाबाद चले गए इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए। वहाँ किराए की साइकिल से घूमते रहे। तीस पैसे घंटे के हिसाब से मिलती थी साइकिल। कमरा नंबर नोट करा कर ले जाते। घूमते । वापस जमा करा देते।
इंजीनियरिंग के दूसरे साल के इम्तहान के बाद साइकिल से भारत यात्रा के लिए गए। हीरो साइकिल वालों को लिखा तो उन्होंने
275/- प्रति साइकिल रुपए के हिसाब से दी। अब याद नहीं कितने रुपए की छूट दी थी। तीन महीनों के यात्रा में एक टायर खराब हुआ था। करीब सात-आठ हज़ार किलोमीटर चलाने के बाद। कालेज के बाद ध्यान नहीं वह साइकिल कहाँ चली गई।
कालेज के बाद नौकरी के दौरान कुछ दिन साइकिल चलाई। मुझे याद है आर्डनेंस फैक्ट्री की नौकरी ज्वाइन करने साइकिल से गए थे। इसके बाद साइकिल का साथ बहुत दिन छूटा रहा। करीब तीस साल। तीस साल बाद जब जबलपुर पोस्टिंग हुई तब फिर साइकिल की सवारी शुरू हुई। जबलपुर रहने के दौरान खूब साइकिल चलाई। इसके बाद कानपुर , शाहजहांपुर फिर कानपुर में साइकिल का साथ बना रहा।
शाहजहांपुर रहने के दौरान हमारे और श्रीमती जी के लिए एक नयी साइकिल का जोड़ा बच्चों ने भेंट किया। हमारी श्रीमती जी के लिए तो ठीक थे साइकिल। लेकिन हमारे क़द से काफ़ी छोटी थी। नतीजतन एक साइकिल अभी खुली तक नहीं है। हम पुरानी साइकिल ही चलाते रहे कानपुर वापस आने तक।
कानपुर में हमारी जबलपुर वाली साइकिल पर हमारे आउटहाउस में रहने वालों का क़ब्ज़ा हो गया। वो आने -जाने के काम में हमारी साइकिल का प्रयोग करने लगे। हम अपने घर में रखी साइकिल चलाने को तरस गए।
हम पर तरस खाकर हमारे बेटे ने हमारे जन्मदिन पर नयी साइकिल कसवाई। बढ़िया , मोटे टायर वाली साइकिल जिसमें पानी के बोतल रखने का स्टैंड , बत्ती और बिजली वाली घंटी थी। हम चलाते रहे साइकिल कानपुर में लेकिन साइकिल कुछ ज़्यादा जमी नहीं । हमको पुरानी साइकिल ही बढ़िया लगती रही।
बाद में साइकिल से चलना कम हो गया। पैदल चलना बढ़ गया। फ़िलहाल तो साइकिल लखनऊ के घर में इंतजार कर रही है हमारा है। हम भी उस पर सवारी करने का इंतजार कर रहे हैं।
साइकिल से जुड़े अनगिनत किससे हैं यादों में । काफ़ी पहले हमारे पास प्रसिद्ध इतालवी उपन्यास 'साइकिल चोर' का हिंदी अनुवाद था । आधा पढ़ा था । फिर ग़ायब हो गया। आज अभी देखा किताब का अंग्रेजी अनुवाद नेट पर उपलब्ध है। पूरा पढ़ेंगे अब इसे ।
साइकिल से कई यात्राएँ भी प्लान की थीं। एक साइकिल से नर्मदा परिक्रमा करना भी प्लान में था। और भी कई प्लान थे लेकिन अमल में कोई नहीं आ पाया अभी तक। क्या पता आगे कभी किसी प्लान पर अमल हो जाये।
एक सर्वे के अनुसार देश की आधी आबादी के पास साइकिल है। लेकिन साइकिल चलाने वाले कम होते जा रहे हैं। बाइक और कार का चालान बढ़ रहा है।
साइकिल सेहत और पर्यावरण के लिहाज से सबसे अच्छी सवारी है। क्या पता आने वाले समय में जब ऊर्जा के किल्लत बढ़े तब शायद दुनिया में फिर से साइकिल का जलवा क़ायम हो।
आपको साइकिल दिवस की बधाई।
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