कल रात संगत में ज्ञानरंजन जी से अंजुम शर्मा की बातचीत सुनी। सुबह जागने के बाद ज्ञान जी की 'बहिर्गमन' कहानी का निर्मल वर्मा, श्रीकांत वर्मा से कनेक्शन की बात जानकर कहानी पढ़ना शुरू की। आधी पढ़ी फिर टहलने निकल गए।
कालोनी के बाहर निकलते ही एक घर के बाहर तमाम छोटी-बड़ी कई घंटियाँ टंगी दिखीं। उनको देखकर मुझे ज्ञान जी की कहानी घंटा याद की आई। इसको लौटकर पढ़ेंगे। इस कहानी के इस अंश पर काफ़ी देर बातचीत हुई संगत में :
"मैंने ध्यान दिया हॉल में दो प्रकार की महिलाएँ थीं। कुछ बिलकुल डाँगर चिरईजान और कुछ जिन्हें देखकर लगता बाल्टी भर के हगती होंगी। मोटी औरतें पुरुषों के प्रति सबसे अधिक ललकपन दिखा रही थीं। पुरुष भी पीछे नहीं थे। चीज़ों को चखते हुए वे दूसरों की औरतों का शील सभ्यता-पूर्वक चाट रहे थे।"
इस अंश के हिस्से "जिन्हें देखकर लगता बाल्टी भर के हगती होंगी।" को अंजुम शर्मा द्वारा महिला विरोधी बताये जाने पर ज्ञान जी ने विस्तार से इस पर अपनी बात रखी। इसे आप संगत में सुन सकते हैं। किसी कहानी के लिखे जाने के पचास-साथ बाद उसपर किसी भी तरह की कोई चर्चा होना उस कहानी के ख़ास होने की निशानी है।
आगे एक कालोनी के गेट पर एक मांगने वाला बैठा दिखा। कालोनी के गेट पर किसी भिखारी की के होने की बात थोड़ी अटपटी लगी लेकिन फिर वहीं कालोनी के अंदर स्थित मंदिर से घंटे की आवाज सुनाई दी भिखारी का वहाँ बैठने का कारण समझ में आ गया। जहाँ मंदिर वहाँ भिखारी। लेकिन यह बात सिर्फ़ मंदिरों तक ही सीमित नहीं है। दूसरे धर्मों पर भी लागू है।
सड़क पर चलते हुए सामने से 'कन्यावती' अपने बेटे के साथ आते दिखी। हमारी सोसाइटी के बाहर प्रेस करने वाले की पत्नी है। हरदोई के रहने वाले हैं दोनों। पहले दिन नाम सुना तो लगा उसका नाम सत्यनारायण की कहानी की लीलावती/कलावती की तर्ज पर रखा गया है। कन्यावती घर से खाने का टिफिन लिए , बेटे को प्रैम में बिठाए उस जगह जा रही थे जहाँ उसका पति प्रेस का ठीहा जमाये हुए है। उसने बताया कि वहीं पास ही उसका घर है।
आगे बस्ती में घुसते ही ऐसा लगा नोयडा खत्म हो गया और किसी शहर का पुराना इलाका शुरू हो गया है। यह इलाका होशियारपुर का है। गली में पानी भरते , आते-जाते लोग दिखे। एक महिला अपने बच्चे का हाथ थामे उसे स्कूल के लिए घसीटते ले जा रही थी। एक मकान में बाहर सीढ़ियों पर दो छोटे बच्चे एक -दूसरे के गले में हाथ डाले आपस में बतिया रहे थे। इरान-इजरायल युद्ध, अमेरिका की एकतरफा दादा गिरी, टैरिफ़ के झमेले, बिहार में चुनाव आयोग के कारनामों और सावन में कावंडियों की श्रद्धा और हुड़दंग से बेपरवाह वे एक दूसरे से बतियाने में तल्लीन थे। शायद उनके जीवन के ये सबसे खूबसूरत पल हों।
गालियाँ अधिकांश कंक्रीट की थीं। एक घर के बाथरूम से निकला पानी सड़क पर निर्द्वंद बह रहा था। सामने किसी का घर नहीं था इसलिए शायद किसी को एतराज भी नहीं था। जगह-जगह गलियों में अहातों जैसा माहौल था। लोग नंगे बदन पानी के नल के सामने प्लास्टिक के डब्बे लिए लाइन में खड़े थे। स्टील और लोहे की बाल्टियाँ अब राजनीति में नैतिकता की तरह कहीं दिखती नहीं। जगह-जगह छोटी-छोटी खाने-पीने की दुकानें भी दिखीं।
एक जगह शंकर भोजनालय नाम का ठेला दिखा। अलग-अलग तरह पराठे और सब्जी के रेट लिखे हुए थे। प्याज के पराठे भी बिक रहे थे। शायद भक्त कांवड़ियों की नजर पड़ी नहीं ठेले पर वरना तोड़-फोड़ कर दिए होते। यह भी हो सकता है शंकर जी का नाम देखकर छोड़ दिए होते। कल गाजियाबाद में KFC के रेस्टोरेंट को बंद कराने और तोड़फोड़ की घटना के बारे में जानकर मुझे परसाई जी का लेख 'आवारा भीड़ के ख़तरे' याद आया।
सड़क पार एक निःशुल्क शौचालय दिखा। उसके शटर पर ताला लगा था। मुझे लगा शायद दिल्ली की सरकार की तर्ज पर उत्तर प्रदेश की सरकार भी मुफ्त की सुविधाएं बंद करने पर आमादा है।
आगे जाने पर देखा कि थोड़ी दूर पर एक मुफ्त शौचालय चालू था। शायद इसीलिए पीछे वाले पर ताला लगा हुआ हो।
लौटते होशियारपुर की गलियों के मुहाने देखते हुए आए। हर संकरी गली के बाहर एक बड़ा सा बैंक्वेट हाल दिखा। कहीं कुछ और। ऐसी हर बड़ी इमारत के बाहर खड़े दरबान की वर्दी पर DCP लिखा दिखा। हमने पहले उसको डीएसपी पढ़ा। लगा पुलिस के अधिकारी भला कहाँ इनकी रखवाली के लिए लगायें जाएँगे। बाद में डीसीपी देखा तो साफ़ हुआ मामला। लेकिन फिर यह लगा कि पहले की सोच भी कोई बहुत ग़लत नहीं है। आज पुलिस बड़े -बड़े पैसे वालों की रखवाली करने के लिए ही तो है। एक से एक हिस्ट्रीशीटर की सुरक्षा के लिए सिस्टम लगा हुआ है।
एक मकान के पास से गुजरते हुए देखा एक लड़की पहली मंजिल के रेलिंग पर झुकी, रेलिंग पर अपना चेहरा टिकाये नीचे किसी से बात कर रही थी। सामने देखा तो एक लड़का एक पेड़ से फूल तोड़ रहा था। दोनों शायद फुसफुसाहट से ऊँचे घराने वाली आवाज़ में बतिया रहे थे। हमको वहाँ से गुजरते देख बतियाना स्थगित करके केवल एक-दूसरे को देखने तक सीमित कर लिया। हम उनकी बातचीत में व्यवधान के अपराध बोध से ग्रसित होकर तेज़ी से आगे बढ़ गए। शायद वे फिर बतियाने लगे हों। हमने पहले सोचा कि मोड़ से पलट के देखें उनको लेकिन उनके वार्तालाप में व्यवधान की बात सोचकर बिना पलटे आगे बढ़ गए।
कालोनी के बाहर प्रेस की दुकान पर देखा तो कन्यावती का बच्चा वहीं आसपास की दुकानों के बुजुर्गों के साथ खेल रहा था। कन्यावती और उसका पति कालोनी के घरों में प्रेस के कपड़े लेने गए हुए थे।
हम टहलते हुए वापस घर आ गए।
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