Saturday, July 19, 2025

नोयडा से होशियार पुर

 कल रात संगत में ज्ञानरंजन जी से अंजुम शर्मा की बातचीत सुनी। सुबह जागने के बाद ज्ञान जी की 'बहिर्गमन' कहानी का निर्मल वर्मा, श्रीकांत वर्मा से कनेक्शन की बात जानकर कहानी पढ़ना शुरू की। आधी पढ़ी फिर टहलने निकल गए।

कालोनी के बाहर निकलते ही एक घर के बाहर तमाम छोटी-बड़ी कई घंटियाँ टंगी दिखीं। उनको देखकर मुझे ज्ञान जी की कहानी  घंटा  याद की आई। इसको लौटकर पढ़ेंगे। इस कहानी के इस अंश पर काफ़ी देर बातचीत हुई संगत में :

"मैंने ध्यान दिया हॉल में दो प्रकार की महिलाएँ थीं। कुछ बिलकुल डाँगर चिरईजान और कुछ जिन्हें देखकर लगता बाल्टी भर के हगती होंगी। मोटी औरतें पुरुषों के प्रति सबसे अधिक ललकपन दिखा रही थीं। पुरुष भी पीछे नहीं थे। चीज़ों को चखते हुए वे दूसरों की औरतों का शील सभ्यता-पूर्वक चाट रहे थे।"

इस अंश के हिस्से "जिन्हें देखकर लगता बाल्टी भर के हगती होंगी।" को अंजुम शर्मा  द्वारा महिला विरोधी बताये जाने पर  ज्ञान जी ने विस्तार से इस पर अपनी बात रखी। इसे आप संगत में सुन सकते हैं।  किसी कहानी के लिखे जाने के पचास-साथ बाद उसपर किसी भी तरह की कोई चर्चा होना उस कहानी के ख़ास होने की निशानी है। 

आगे एक कालोनी के गेट पर एक मांगने वाला बैठा दिखा। कालोनी के गेट पर किसी भिखारी की के होने की बात थोड़ी अटपटी लगी लेकिन फिर वहीं कालोनी के अंदर स्थित मंदिर से घंटे की आवाज सुनाई दी भिखारी का वहाँ बैठने का कारण समझ में आ गया। जहाँ मंदिर वहाँ भिखारी। लेकिन यह बात सिर्फ़ मंदिरों तक ही सीमित नहीं है। दूसरे धर्मों पर भी लागू है। 

सड़क पर चलते हुए सामने से 'कन्यावती' अपने बेटे के साथ आते दिखी।  हमारी सोसाइटी के बाहर प्रेस करने वाले की पत्नी है। हरदोई के रहने वाले हैं दोनों। पहले दिन नाम सुना तो   लगा उसका नाम सत्यनारायण की कहानी की लीलावती/कलावती की तर्ज पर रखा गया है। कन्यावती घर से खाने का टिफिन लिए , बेटे को प्रैम में बिठाए उस जगह जा रही थे जहाँ उसका पति प्रेस का ठीहा जमाये हुए है। उसने बताया कि वहीं पास ही उसका घर है।

आगे बस्ती में घुसते ही ऐसा लगा नोयडा खत्म हो गया और किसी शहर का पुराना इलाका शुरू हो गया है। यह इलाका होशियारपुर का है। गली में पानी भरते , आते-जाते लोग दिखे। एक महिला अपने बच्चे का हाथ थामे उसे स्कूल के लिए घसीटते ले जा रही थी। एक मकान में बाहर सीढ़ियों पर दो छोटे बच्चे एक -दूसरे के गले में हाथ डाले आपस में बतिया रहे थे। इरान-इजरायल युद्ध, अमेरिका की एकतरफा दादा गिरी, टैरिफ़ के झमेले, बिहार में चुनाव आयोग के कारनामों और सावन में कावंडियों की श्रद्धा और हुड़दंग से बेपरवाह वे एक दूसरे से बतियाने में तल्लीन थे। शायद उनके जीवन के ये सबसे खूबसूरत पल हों।

गालियाँ अधिकांश कंक्रीट की थीं। एक घर के बाथरूम से निकला पानी सड़क पर निर्द्वंद बह रहा था। सामने किसी का घर नहीं था इसलिए शायद किसी को एतराज भी नहीं था। जगह-जगह गलियों में अहातों जैसा माहौल था। लोग नंगे बदन पानी के नल के सामने प्लास्टिक के डब्बे लिए लाइन में खड़े थे। स्टील और लोहे की बाल्टियाँ अब राजनीति में नैतिकता की तरह कहीं दिखती नहीं। जगह-जगह छोटी-छोटी खाने-पीने की दुकानें भी दिखीं। 

एक जगह शंकर भोजनालय नाम का ठेला दिखा। अलग-अलग तरह पराठे और सब्जी के रेट लिखे हुए थे। प्याज के पराठे भी बिक रहे थे। शायद भक्त कांवड़ियों की नजर पड़ी नहीं ठेले पर वरना तोड़-फोड़ कर दिए होते। यह भी हो सकता है शंकर जी का नाम देखकर छोड़ दिए होते। कल गाजियाबाद में KFC के रेस्टोरेंट को बंद कराने और तोड़फोड़ की घटना के बारे में जानकर मुझे परसाई जी का लेख 'आवारा भीड़ के ख़तरे' याद आया। 

सड़क पार एक निःशुल्क शौचालय दिखा। उसके  शटर पर ताला लगा था। मुझे लगा शायद दिल्ली की सरकार की तर्ज पर उत्तर प्रदेश की सरकार भी मुफ्त की सुविधाएं बंद करने पर आमादा है। 

आगे जाने पर देखा कि थोड़ी दूर पर एक मुफ्त शौचालय चालू था। शायद इसीलिए पीछे वाले पर ताला लगा हुआ हो। 

लौटते होशियारपुर की गलियों के मुहाने देखते हुए आए। हर संकरी गली के बाहर एक बड़ा सा बैंक्वेट हाल दिखा। कहीं कुछ और। ऐसी हर बड़ी इमारत के बाहर खड़े दरबान की वर्दी पर DCP लिखा दिखा। हमने पहले उसको डीएसपी पढ़ा। लगा पुलिस के अधिकारी भला कहाँ इनकी रखवाली के लिए लगायें जाएँगे। बाद में डीसीपी देखा तो साफ़ हुआ मामला। लेकिन फिर यह लगा कि पहले की सोच भी कोई बहुत ग़लत नहीं है। आज पुलिस बड़े -बड़े पैसे वालों की रखवाली करने के लिए ही तो है। एक से एक हिस्ट्रीशीटर  की सुरक्षा के लिए सिस्टम लगा हुआ है। 

एक मकान के पास से गुजरते हुए देखा एक लड़की पहली मंजिल के रेलिंग पर झुकी, रेलिंग पर अपना चेहरा टिकाये नीचे किसी से बात कर रही थी। सामने देखा तो एक लड़का एक पेड़ से फूल तोड़ रहा था। दोनों शायद फुसफुसाहट से ऊँचे घराने वाली आवाज़ में बतिया रहे थे। हमको वहाँ से गुजरते देख बतियाना स्थगित करके केवल एक-दूसरे को देखने तक सीमित कर लिया। हम उनकी बातचीत में व्यवधान के अपराध बोध से ग्रसित होकर तेज़ी से आगे बढ़ गए। शायद वे फिर बतियाने लगे हों। हमने पहले सोचा कि मोड़ से पलट के देखें उनको लेकिन उनके वार्तालाप में व्यवधान की बात सोचकर बिना पलटे आगे बढ़ गए। 

कालोनी के बाहर प्रेस की दुकान पर देखा तो कन्यावती का बच्चा वहीं आसपास की दुकानों के बुजुर्गों के साथ खेल रहा था। कन्यावती और उसका पति कालोनी के घरों में प्रेस के कपड़े लेने गए हुए थे। 

हम टहलते हुए वापस घर आ गए। 

इस पोस्ट को ब्लॉग पर पढ़ेंगे तो संबंधित पोस्ट्स के लिंक भी मिल जायेंगे। ब्लॉग पोस्ट का लिंक टिप्पणी में दिया है। 



Friday, July 18, 2025

भुल्लकड़ी के बहाने

कल रात देर तक बारिश हुई। तेज बारिश। सुबह -सुबह कालोनी के सारे ब्लॉक धुले-धुले लगे। ऐसा लगा उनको धोकर सुखाने के लिए टाँग दिया गया हो। मकानों के फोटो लेते हुए सोचा कि क्या पता उनको भी बुरा लगता हो कि बिना पूछे उनके फोटो ले लेते हैं लोग। क्या पता कोई ब्लॉक यह सोचकर भी एतराज करता हो कि ख़ुद तो कपड़े पहनकर घूमते हैं , हमको बिना कपड़े खड़ा रखते हैं जालिम इंसान लोग। हो सकता है इस पर कोई दूसरा ब्लॉग उसको समझाता हो -"अरे हमारे ऊपर ये प्लास्टर, पेंटिंग ही तो हमारे कपड़े हैं।" 

बगल के स्कूल में लोग अपने बच्चों को भेजने के लिए आते दिखे। हर दूसरा बच्चा कार से आता दिखा। कारों की भीड़ स्कूल के सामने, गली में हर जगह है। सड़क पर कारों का जाम सा लग गया। 

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश सरकार हजारों स्कूल बंद कर दिए। कारण बताया गया कि स्कूल में बच्चे नहीं हैं। क्या पता सरकार आने वाले समय में संभावित जाम से बचने के लिए स्कूल बंद करा रही हो। सरकारें वैसे भी बहुत दूरदर्शी होती हैं। 

टहलते हुए अक्सर दोस्तों, साथ काम करने वालों और सीनियरों से बात हो जाती है। हाल-चाल पता हो जाते हैं। पुराने लोगों से बात करते हुए उनसे पुरानी यादें साझा होती हैं, नयी जुड़ती हैं। जिनसे भी हमारे संबंध रहते हैं उनसे जुड़ी कुछ यादें हमारे ज़ेहन में होती हैं, कुछ अच्छी, कुछ बुरी। जिन लोगों के साथ केवल खराब यादें ही जुड़ी होती हैं आम तौर पर हम उनसे बाद में भी संबंध नहीं रखना चाहते। जिनसे संबंध बने रहते हैं उनसे जुड़ी कोई न कोई याद होती है जिसका जिक्र करके बात आगे बढ़ती है। कई बार दो मित्र एक-दूसरे को अलग-अलग यादों के सहारे याद करते हैं। 

घूमते हुए उसी पैदल ब्रिज पर आए जिस पर रात भी चढ़े थे। उसी जगह पर खड़े होकर आती-जाती गाड़ियाँ देखीं जहाँ से कल देख रहे थे। सड़क वही थी लेकिन सुबह का नजारा रात के नजारे से अलग था। जो गाड़ियाँ कल आती-जाती दिखीं थीं आज वाली उनसे अलग होंगी। कुछ देर गाड़ियों को देखने के बाद नीचे उतर आए।

तिराहे पर जहाँ कबूतर बैठते हैं कुछ लोग दाना डाल रहे थे। लेकिन कबूतर वहाँ नहीं थे। वे वहीं पास ही ऊपर की रेलिंग पर बैठे थे। सुबह का नाश्ता करने के बाद उनका पेट भरा था शायद इसीलिए वे दाने को देखते हुए भी आराम से ऊपर ही बैठे रहे। इंसान और जानवर यही अंतर होता है। कबूतर की जगह इंसान होते तो दाने समेट के अंदर रख लेते। आगे काम आयेंगे, सोचते हुए।

पार्क के पास एक दुकान में हर सब्जी/फल के दाम लिखे दिखे। पहली दुकान देखी जहाँ सब्जियों के दाम लिखे थे। लेकिन कुछ सामानों के  दाम अपडेट नहीं लगे। आम भी 59/- रुपए किलो, धनिया भी इसी तरह भाव। 

पार्क में टहलते हुए उन बुजुर्ग की याद आयी जिनकी मोटरसाइकिल नहीं मिल रही थी। पता नहीं मिली होगी कि अभी तक खोज रहे होगे, गाड़ी को गरियाते हुए। 

आजकल तो हर सामान के साथ चिप का जुगाड़ हो रहा है। भूल जाओ तो पता चल जाएगा कि कहाँ है सामान। नयी गाड़ी खरीदी थी तो कुछ दिन तक यह देखते रहना हमारा शग़ल था कि गाड़ी अभी किधर है ? 

लेकिन ये याददाश्त का भी अजब लफड़ा है। याद आते-आते गुम हो जाती है। दुनिया के तमाम काम आजकल पासवर्ड के सहारे चलते हैं। अक्सर भूल जाते हैं। क्या पता केन्द्रीकरण के समय में आने वाले समय में सारे पासवर्ड की कुंजी किसी एक के पास पहुँच जाये और वो उसे भूल जाते। ऐसा होगा तो दुनिया के तमाम काम-धंधे ठहर जाएँगे। 

क्या पता दुनिया बनाने वाले सर्वशक्तिमान जब दुनिया को देखता हो तो इसमें सुधार के बारे में सोचता हो। लेकिन क्या पता उसको भी अपना पासवर्ड बिसरा गया हो। याद ही न आ रहा हो। इसी के चलते दुनिया के तमाम गरीबों, असहायों की प्रार्थनाओं पर कोई कारवाई न कर पाता हो। अपने सच्चे भक्तों पर दुष्टों की बदमाशियाँ चुपचाप देखता रहता हो। क्या पता इसी किसी चक्कर में कोई नया अवतार न हो पा रहा हो। प्राणियों का उद्धार अटका हुआ हो। क्या पता सर्वशक्तिमान की यह भुलक्कड़ी अस्थायी हो । कुछ दिन बाद उसे सब कुछ याद आ जाये और वह अपनी दुनिया को ठीक कर दे। लेकिन क्या पता सर्वशक्तिमान भी अल्जाइमर जैसी किसी तकलीफ़ के चपेटे  में आ गया हो जिसका कोई इलाज उसके यहाँ भी न हो और वह भी  अपने किसी सर्वशक्तिमान को याद कर रहा हो। 

क्या पता भूलने की बीमारी का आने वाले समय में कोई इलाज निकल आए। इंसान के दिमाग़ का  नियमित अंतराल पर बैकअप लेते रहने का हिसाब बन जाये जैसे कम्प्यूटर नेटवर्क का लिया जाता है। जब किसी इंसान के याददाश्त गड़बड़ाए तो उसके दिमाग़ का मदरबोर्ड बदल दिया जाये। सारी यादें नए मदरबोर्ड में फिट करके याददाश्त का मामला टनाटन कर दिया जाये। 

क्या होगा आने वाले समय में यह तो बाद में पता चलेगा। अभी तो जरा देख लें चश्मा कहाँ रखा है। मोबाइल किधर है? 




Thursday, July 17, 2025

पार्क में मोटरसाइकिल

शाम को टहलने निकले। सुबह जो लोग लड़ते-झगड़ते दिखे थे वे आसपास बैठे चाय पी रहे थे। जिसके ऊपर गंदगी का आरोप लगा था उसके दोनों बच्चे नंग-धड़ंग दिगम्बर आपस में खेल रहे थे। दोनों मियाँ बीबी चाय पी रहे थे।

पूछने पर बताया कि वे राजस्थान के भरतपुर के रहने वाले हैं। आते जाते रहते हैं। यहाँ दिहाड़ी पर काम करते हैं। सामने कुछ प्लास्टिक की गाड़ियाँ भी रखी थीं। शायद बेचने के लिहाज़ से। लेकिन बिकती नहीं हैं वे।

अभी बारिश हो रही है। हवा ठंडी बह रही है। पता नहीं फ़ुटपाथ में रहने वाले लोग कहाँ शरण पाये होंगे।

फ़ुटओवर ब्रिज से गाड़ियाँ आती-जाती दिख रहीं थीं। दूर जाती गाड़ियों की लाल लाइट मानो इशारा कर रही हो -“हमारा पीछा मत करो। भिड़ जाओगे।

सड़क पर एक बुजुर्ग मिले। उन्होंने पूछा -“यहाँ कोई पार्क है?” जिस जगह पूछा था वहाँ आगे-पीछे दोनों तरफ़ पार्क थे। हमने बता दिए। वे पास के पार्क की तरफ़ चले गए। हम दूसरे पार्क में आकर टहलने लगे।

कुछ देर बाद वही बुजुर्ग सामने से आते दिखे। हमने पूछा-“पार्क नहीं मिला क्या पीछे ?”

वे बोले-“पार्क तो मिल गया। लेकिन वहाँ मोटरसाइकिल नहीं मिली। मोटरसाइकिल के पहले उन्होंने अपना गुस्सा जाहिर करने के लिए बहन से जुड़ी गाली भी दी थी।

पता चला किसी पार्क के पास मोटरसाइकिल खड़ी करके भूल गए कि किस पार्क के पास खड़ी की। पार्क दर पार्क खोज रहे हैं मोटरसाइकिल। हमने उनको आसपास के और पार्क बताये। वे उनको खोजने चल दिए।

हमको याद आया हम सुबह अपना चश्मा आधा घंटा खोजते रहे और मोबाइल भी दस मिनट खोजा। हमको तो चश्मा और मोबाइल मिल गए। उन बुजुर्ग को पता नहीं उनकी मोटरसाइकल मिली कि नहीं ?

सबेरे की सैर

लिफ्ट से नीचे उतरे तो नज़र अनायास ऊपर की मंजिल की ओर गई। नजर जाते ही ध्यान आया कि जब हम नीचे होते हैं तो ऊपर देखते हैं। ऊपर होते हैं तो निगाह नीचे जाती है। सामने देखना बाद में शुरू होता है।

ऊपर की मंजिल बालकनी के कोने में एक सुखी टाइप परिवार दिखा। एक गोल-मटोल स्वस्थ सा जवानी की तरफ़ उन्मुख बच्चा बनियाइन पहने अपने दाँये हाथ से हवा में डमरू जैसा बजा रहा था। उनके खड़े उसके माँ-बाप उसको जिन भी निगाहों से निहार रहे थे उनको वात्सल्य की निगाह ही कहाँ जाएगा।
नोयडा सिटी सेंटर के पास का तिराहा।
सामने से एक युवा महिला साइकिल पर चली आ रही थी। देखकर लगा कुछ दिन ही हुए होंगे उसका विवाह हुए। उसके माथे पर सिंदूर और चेहरे पर मुस्कान चमक रही थी। शायद कालोनी के घरों में काम करती होगी। खाना बनाने जैसा कुछ काम। कालोनी के माध्यम वर्गीय परिवारों में खाना बनाने के काम के लिए काम वाली महिलायें लगी हैं। कई घरों में खाना बनाती हैं। कोई-कोई तो छह से सात घरों में काम करती हैं। एक घर में दिन में दो बार खाना बनाती हैं। मतलब दिन भर में बारह-चौदह बार खाना बनाती हैं।

कालोनी से बाहर निकलते ही एक दंपति अपने बच्चे को स्कूल बस में बैठाने के लिए लपकते दिखे। बच्चे की मम्मी ने भागती हुई आईं थीं बच्चे को बिठाने। शायद देर हो गई थी। बस में चढ़ाकर हाँफते हुए बच्चे से बोली -"बाय करो बेटा।" बच्चे ने बाय किया। तब तक उनकी साँस स्थिर हो गई थी। हाँफना छोड़कर वे भी मुस्कराने लगीं। उनके पति की गाड़ी बस के सामने बीच सड़क पर खड़ी थी। दोनों दरवाज़े डैनों की तरह खुले थे। बस के हार्न बजाने के बाद लपककर उन्होंने कार किनारे की। मियाँ-बीबी गाड़ी में बैठकर चले गए।

आगे एक कालोनी से गुजरते हुए एक घर के बाहर बेंच नुमा चबूतरे पर दो बच्चियाँ दिखीं। बड़ी बच्ची सीधे बैठी थी, छोटी बच्ची बेंच पर अधलेटी थी। शायद उनकी माँ उस घर में काम करती होंगी या क्या पता बच्ची ही साफ़-सफ़ाई का काम करती हो और गेट खुलने का इंतजार कर रही हो



पार्क में एक आदमी लंगड़ाते हुए टहल रहा था। एक पैर एकदम सीधा किए चलते हुए। उस पैर में शायद चोट लगी थी। उसको देखकर लगा -"चोट लगने पर बड़े-बड़े सीधे हो जाते हैं। पैर क्या चीज है।"

नोयडा सिटी सेंटर तिराहे पर खड़े होकर कुछ देर ट्रैफिक देखा। गाड़ियाँ दिल्ली की तरफ़ भागती हुई चली जा रहीं थीं। कोई भी ठहरकर, तसल्ली से जाते हुए नहीं दिखा। सब हड़बड़ाये हुए भागते जाते दिखे। शायद उनको इस बात का डर होगा कि तसल्ली से चलने पर कहीं जिला बदर न कर दिए जाएँ।

मोड़ के आगे एक आदमी अपनी मोटरसाइकिल पर, उसकी लंबाई के लंबवत दिशा में, आलिंगन मुद्रा में लेटा हुआ अपने मोबाइल पर झुका हुआ था। मोटरसाइकिल चुपचाप उसकी छाती के नीचे दबी खड़ी थी। उसकी चाबी सवार के हाथ में थी इसलिए कुछ बोल भी नहीं सकती थी। पेट्रोल भी तो वही डलवाता था।

आगे दो लोग सड़क किनारे अपनी-अपनी स्कूटी खड़ी किए फुटपाथ पर बैठे अपने-अपने मोबाइल में डूबे हुए था। मन किया कि उनसे कुछ बात करें। लेकिन उनकी मोबाइल तल्लीनता देखकर उनको डिस्टर्ब करने की हिम्मत नहीं पड़ी। उनकी 'मोबाइल तपस्या' भंग होने पर क्या पता वो नाराज होकर कोई श्राप जारी कर देते।
मोबाइल तपस्या में डूबे लोग।


बगल से एक कूड़ा गाड़ी निकली। गाड़ी के डब्बों में गीला कूड़ा/सूखा कूड़ा देखकर मुझे लगा कूड़ा गाड़ी किसी लोकतांत्रिक देश की राजनीतिक पार्टियों को लिए जा रही है। गीला कूड़ा मतलब सत्ता धारी पार्टी, सूखा कूड़ा मतलब विपक्षी पार्टी। यह विचार आते ही मुझे लगा कोई राजनीतिक पार्टी मेरे विचार से बुरा न मान जाये। यह सोचते ही मैंने अपने विचार को उसी कूड़ा गाड़ी में फेंक दिया। पता नहीं मेरा विचार गीले कूड़े में गिरा या सूखे में। पता नहीं उन कूड़ों ने मेरे विचार के साथ क्या सुलूक किया हो। मुझे डर है उसकी बेहूदगी पर रीझकर किसी ने उसे अपनी संसद में न भेज दिया हो।

फुटपाथ किनारे के लोग आपस में तेज-तेज आवाज में लड़ रहे थे। एक महिला दूसरी को इस बात के लिए डाँट  रही थी कि उसके बच्चे फुटपाथ में गंदगी करते हैं। दूसरी महिला क़सम खाते हुए कह रही थी -"हमारे बच्चे ने गंदगी नहीं की।" अपनी सफ़ाई को मजबूती देने के लिहाज से उसने कहा -" उसके बच्चे मर जायें जिसने यहाँ गंदगी की।" 

हम थोड़ा ठहरकर उनका झगड़ा सुनने लगे। दोनों अपनी-अपनी बात हमसे कहने लगे। "अंकल जी, ये गंदगी करती है", "अंकलजी, ये झूठ बोलती है"। हमको लगा हम थोड़ा देर और रुककर उनकी लड़ाई में अंकल सैम की तरह सीजफायर कराकर ट्वीट करें। लेकिन हमको अपने विचार बेहूदा लगा। हम उनको लड़ता हुआ छोड़कर आगे बढ़ गए। 

उनके बगल में ही पिंक ट्वायलेट था। महिलाओं के लिए मुफ्त। शायद महिलाएं उनका उपयोग करती हों लेकिन शायद वहाँ बच्चे नहीं जाते होंगे। या कोई और कारण रहा होगा। लेकिन उनके लड़ने की आवाज़ें दूर तक पीछा करती रहीं। 

नुक्कड़ पर पान की दुकान पर एक नौजवान  सिगरेट पीते हुए धुआँ उड़ा रहा था। धुँआ ऊपर की और लहराते हुए नागिन डांस जैसा करते हुए हवा में गुम हो गया । धुएँ का कालापन ऐसे हवा में  घुल गया  जैसे कोई भ्रष्टाचारी किसी राजनीतिक पार्टी में विलीन हो गया हो। 

पार्क में पेड़-पौधे-हरी घास बहुत खूबसूरत लग रहे थे। हमने उनकी फ़ोटो लेने की सोची लेकिन फिर नहीं ली। सोचा कि पेड़-पौधों की भी निजता होती है। कहीं किसी पेड़ को बुरा लग गया तो उनका मन दुखी होगा। 

लौटते हुए एक आदमी गाड़ी साफ़ करते हुए दिखी। पैर के पंजे में प्लास्टर चढ़ा हुआ था। बताया उसने -"चोट लग गई थी। दफ़्तर में खोलकर बैठें इसे।" 

थोड़ा और बात होने पर उसने बताया वह ड्राइवर है। उसके साहब रिटायर्ड ब्रिगेडियर हैं। डाक्टर हैं। जो लोग विदेश जाने वाले होते हैं उनका मेडिकल करते हैं। बताते-बताते उसकी आवाज में अपने साहब का रुतबा भी मिल गया। हम उसको गाड़ी पोंछता छोड़कर घर आ गए। 






Friday, July 04, 2025

टहलते हुए मास्टर स्ट्रोक

 टहलने निकलते समय हर बार ज़ेहन में सवाल उठता है -'किधर चलें?' हर बार की तरह आज भी उठा यह सवाल। पहले हमने  पार्क में जाकर टहलने की सोची। चल भी दिए उस तरफ़। लेकिन  पार्क की तरफ़ जाने वाले गेट तक पहुंचकर अचानक दूसरी तरफ़ मुड़ गए और सड़क पर आकर टहलने लगे। 


पार्क जाने की जगह सड़क पर आ जाना एक सामान्य इंसान के लिए  सामान्य घटना है। लेकिन किसी असामान्य इंसान के साथ यह घटना होती तो उसके भक्त लोग इसे उसका 'मास्टर स्ट्रोक' बताते। क्या 'मास्टर स्ट्रोक' मारा है कहते हुए उसकी वंदना के स्वरों में अपना सुर मिलाने के आह्वान करते। जो न मानता उसे सामान्य नागरिक के पद  से बर्खास्त करके विधर्मी, देशद्रोही के खाते में डाल देते। 


श्रीलाल शुक्ल जी अपने उपन्यास 'रागदरबारी ' में लिखते हैं : "उत्तम कोटि का सरकारी आदमी, कार्य के अधीन दौरा नहीं करता। वह जिधर निकल जाता है उधर ही उसका दौरा हो जाता है।" इसी तर्ज पर बड़े लोगों से  जो भी काम हो जाता  वह उनका 'मास्टर स्ट्रोक' होता हैं।बड़े लोग किसी के सामने मुर्गा बनते हुए घिघियाते भी हैं तो उनके भक्त लोग कहते हैं -"वाह, क्या मास्टर स्ट्रोक मारा है। अगले के सामने मुर्गा बनकर दिखा दिया और उसकी हिम्मत नहीं हुई कुछ बोल सके। 


सड़क पर लोग आने-जाने लगे थे। बच्चे स्कूल जा रहे थे, बड़े लोग काम पर। हम न स्कूल जाने वालों में, न काम पर जाने वालों में बेमतलब सड़क पर टहल रहे थे। 

पहले ही मोड़ पर नुक्कड़ पर एक पंचर वाले की दुकान पर पंचर के रेट लिखे थे। 'मशरूम पंचर'  दाम   300 रुपए लिखे थे। हमें मशरूम के बारे में पता था, पंचर के बारे में पता था लेकिन  'मशरूम पंचर' के बारे में नहीं पता था। दुकान बंद थी वरना पूछ लेते। अगली बार पूछेंगे अगर याद रहा। 

लेकिन यहाँ 'मशरूम पंचर' रिपेयर रेट  बताकर मुझे डर लग रहा है कि कहीं कोई अगले चुनाव में देश की महँगाई का ठीकरा पंचर बनाने वालों पर न फोड़ दे। कहे -"भाइयों और बहनों, ये पंचर बनाने वाले लोग 300 रुपये में पंचर बनाते हैं। मंहगाई बढ़ने का कारण ये पंचर बनाने वाले हैं।"

सड़क के सामने से जिला अस्पताल का बोर्ड दिख रहा था। 'अस्पताल' के बोर्ड से 'स्प' ग़ायब था। हालांकि यह कोई बड़ी बात नहीं  अस्पताल जब बिना जरूरी दवाओं और मेडिकल स्टाफ के काम कर सकते हैं तो बोर्ड में  डेढ़ अक्षर न होना कोई बड़ी बात नहीं। 

सामने सड़क अभी चलने को काफ़ी उपलब्ध थी लेकिन हम अचानक बिना हाथ दिए बायीं तरफ़ मुड़ गई। इससे एक बार फिर तय हुआ कि आदतें दूर तक पीछा करती हैं।  गाड़ी चलाते अक्सर बिना हाथ/इंडीकेटर  दिए मुड़ जाने वाली आदत पैदल चलते समय भी हावी है। गाड़ी चलाते समय तो अक्सर मुड़ने के बाद हाथ दे देते हैं लेकिन पैदल चलते हुए वह ज़हमत भी नहीं उठाई हमने। मुड़ गए तो मुड़ गए। जो होगा देखा जाएगा। 

आगे एक सीवर सफाई गाड़ी नाली के पानी में पाइप डाले उसको साफ़ कर रही थी। गाड़ी के पीछे रोमन में लिखा था -चकाचक।  हमसे कोई हालचाल पूछता है तो बिना सोचे आदतन कहते हैं -'चकाचक।' हमको लगा कि हमारी बातचीत सुनकर गाड़ी वाले ने नक़ल कर ली है। 

तिराहे पर कबूतर दाना चुगकर शायद अपने-अपने ठीहे पर जा चुके थे। कोई किसी दफ़्तर के मुंडेर पर, कोई किसी धार्मिक स्थल पर, कोई वीराने में, कोई कहीं बाग-बगीचे में। अब कबूतरों की दुनिया का मुझे पता नहीं लेकिन क्या पता वहाँ भी कोई वर्गीकरण होता हो। दफ़्तरों के कोटरों में बैठने वाले कबूतर कामकाजी कबूतर कहलाते होने,  बाग-बग़ीचों , वीरानों में घूमने वाले कबूतर आवारा/ बेरोजगार/मजनू कबूतर, धर्मस्थलों में घूमने वाले धार्मिक कबूतर। और भी तमाम  श्रेणियाँ होंगी। 

क्या पता कबूतरों के यहाँ भी चुनाव होते हों, उनके भी प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति होते हों, उनका भी  कोई 'गुटरगूँ मीडिया' होता हो जो अपने नायक के कसीदे काढ़ता हो, उसके हर स्ट्रोक को 'मास्टर स्ट्रोक' बताता हो। उनके यहाँ भी कबूतरों के दो गुटों में लड़ाई होती हो जिसके रुकने पर कोई तीसरा  कबूतर कहता हो -"हमने सीज फायर करवा दिया।"

आगे और भी तमाम बातें सोचीं कबूतरों के बारे में लेकिन यह सोचकर नहीं लिख रहे कि न जाने कौन कबूतर बुरा मान जाए और मान मानहानि का मुकदमा कर दे। पापुलर मेरठी का शेर भी या आ गया :

"अजब नहीं जो तुक्का भी तीर हो जाए, फटे जो दूध तो पनीर हो जाए

मवालियों को  देखो हिकारत से, न जाने कौन सा गुंडा वजीर हो जाए।"

तुक्का-तीर, दूध-पनीर वाली बातें तो न जाने कब से होती आई हैं। लेकिन गुंडों के वजीर बनने वाली बात जो पहले अपवाद होती थीं अब वे आम होती हैं। हमें डर है कि कहीं इसके लिए भी पापुलर मेरठी साहब को दोषी न ठहरा दिया जाये। 


कबूतर कथा को पीछे छोड़कर आगे बढ़े तो फुटपाथ पर ही गुजारा करने कुछ महिलाएं, बच्चे, पुरुष दिखे। एक महिला अपने बच्चे को सड़क किनारे बैठाये पेशाब करा रहा थी, दूसरी महिला अपने बच्चे की सड़क पर की हुई टट्टी को सड़क पर पड़ी एक पालीथीन से पोंछते हुए साफ़ कर रही थी। उनसे कुछ दूरी पर बना गुलाबी शौचालय (Pink Toilet) शायद उनके लिए नहीं था। आज के समय में  कोई सुविधा   होना लेकिन सबके लिए न होना सभ्य समाज की निशानी हैं। बुनियादी सुविधाएं भी इससे अलग नहीं है।

उन लोगों में से कुछ बच्चे और कुछ बड़े एक बोतल से कोई पेय निकालकर ग्लास में डालकर चुस्की लेते हुए पी रहे थे। पास से गुजरते हुए देखा बोतल पर स्प्राइट लिखा था। कोई इसे भी अपने समाज की संपन्नता से जोड़कर देख सकता है -"हमारे यहाँ बेघर और फुटपाथ पर रहने वाले तक स्प्राइट पीते हैं।" 

स्प्राइट पीने वालों से थोड़ा दूर एक कोने में बैठी बच्ची सर झुकाये एक आम से कुश्ती सी लड़ती हुई आम से गूदा निकालकर खा रही थी। गुठली चूस रही थी। सौ रुपए किलो से ऊपर का आम बच्ची को चूसते देखकर मुझे लगा कि कोई इसके ख़िलाफ़ केस न कर दे कि यह आम बच्ची के पास आया कैसे? पाँच किलो राशन में फल तो शामिल नहीं हैं।

घूमते हुए उसी पार्क की तरफ़ आ गए जहाँ टहलने के लिए जाने की बात हमने सबसे सोची थी। हम पार्क में घुसकर टहलने लगे। टहलते हुए सोचा कि कोई देखेगा तो इसे हमारा यू टर्न बताएगा। कहेगा जहाँ न जाने को हम अपना 'मास्टर स्ट्रोक' बता रहे थे अब उसी जगह पर आकर टहल रहे हैं। लेकिन किसी के कहने से क्या? हमारा 'मास्टर स्ट्रोक' हम तय करेंगे। किसी दूसरे को क्या हक कि हमारा मास्टर स्ट्रोक तय करे? 

यह निर्णय पर पहुंचते ही हमें लगा -"अरे यार यह तो एक और 'मास्टर स्ट्रोक' हो गया।" सुबह-सुबह टहलते हुए तीन मास्टर स्ट्रोक हो जायें इससे ज़्यादा और किसी को क्या चाहिए?  है कि नहीं?