Wednesday, March 15, 2006

भौंरे ने कहा कलियों से

http://web.archive.org/web/20110831120358/http://hindini.com/fursatiya/archives/112

भौंरे ने कहा कलियों से

होली पर आमतौर पर ऊलजलूल हरकतें करने की परम्परा है। जो जितना बांगड़ूपन  दिखा सके वह उतना बड़ा कलाकार माना जाता है। पंकज बेंगानी पूरे मोहल्ले को लिये बसंती को खोजते रहे। उसे रंगने की सोचते रहे। लेकिन बसंती हाथ न आई-अंत तक। लाहौल बिला कूवत! बसंती न हो गयी आशीष श्रीवास्तव की नायिका हो गयी-हर बार गच्चा दे जाती है।
बसंती की खोज में प्रत्यक्षा का शामिल किया जाना ऐसा ही लग रहा था मानो किसी महिला अपराधी को पकड़ने के लिये कम से कम एक महिला पुलिस कर्मी जरूरी होता है।
बसंती को सफलता पूर्वक भागते देखकर हम फिर बाग में गये। देखा बसंत बिखरा हुआ है। प्रमाण स्वरूप एक भौंरा दिखा जो एक कली के चारो तरफ मंडरा रहा था। कली मौज के मूड में थी। बोली तुम अभी तो बगल की कली के ऊपर मंडरा रहे थे। इधर कैसे आये?
भौंरा बोला -मैं  तो जन्म से एक कलीव्रता हूं। लेकिन क्या करूं मानोसीजी ने मेरी कुंडली विचारकर मुझे ‘फ्लर्टयोग’ बताया है। उनकी बात का मान रखने के लिये मैं कली-कली मंडरा रहा हूं। वैसे भी अब मैं अपनी कली से चाहते हुये भी प्रणय निवेदन नहीं कर सकता क्योकिं अब वह फूल बन चुकी है और फूल से प्यार करने में समलैंगिकता का ठप्पा लग सकता है। लिहाजा अब मेरे पास तुम्हारे चारों तरफ मंडराने के अलावा कोई चारा नहीं हैं।
कली ने ‘हाऊ स्वीट’ कहते हुये मौन स्वीकृति दे दी तथा भौंरा कली का उपग्रह सा बन कर उसके चक्कर काटने लगा।
पिछले तीन घंटे में यह आठवां भौंरा था जो किसी न किसी बहाने कली के चक्कर लगाने आया था लेकिन कली की पंखुड़ियों पर पहले प्रेम के नखरे-ठसके बरकरार थे।
कली भौंरे के गुंजन सुनते-सुनते ऊब गयी जिस तरह जीतू के कमेंट के तकाजे से जनता त्रस्त हो जाती है। लिहाजा वह भौंरे से बतियाने लगी-
ये देबू नहीं दिखते आजकल। क्या उनके दुश्मनों की तबियत कुछ नासाज है?
भौंरा पहले तो भुनभुनाया यह सोचकर कि शायद देबू उसके रकीब का नाम है लेकिन तुरंत याद कि हो न हो ये वही देबाशीष हों जो हमेशा नुक्ताचीनी में लगे रहते हैं।
भौंरा बोला-  असल में आदमी जो काम साल भर नहीं कर पाता वो तीज-त्योहार में करता है। सो देबू भइया आजकल जुटे हैं ब्लागर की तारीफ में वो भी अखबार में। अभी तक एक्को कमेंट नहीं मिले हैं। यहां वही अपने ब्लाग में लिखते तो बोहनी तो हुइयै जाती।
 अइसा होना तो नहीं चाहिये। देबाशीषजी तो फीड-वीड में ही मस्त रहते हैं। तारीफ-वारीफ  झमेले में नहीं पड़ते। रवि रतलामीजी बता रहे थे कि वो कोई दूसरे देबाशीष हैं।
और यहां की चौपाल का क्या हाल है? पूरा आपातकाल लगा है। कोई बोलता नहीं है। एक शेर कुलबुला रहा है:-
वही पेड़ ,शाख,पत्ते वही गुल वही परिंदे,
एक हवा सी चल गयी है,कोई बोलता नहीं

है।चौपाल का तो अइसा है कि जिस सेठ की दुकान है वो दूसरे काम में लगा है। अपनी
दुकान दूसरे को तका गया है। लिहाजा दुकान ठंडी है। वैसे भी आज हर एक की तो अपनी
खुद की दुकान है। दुकानें ज्यादा ग्राहक कम हैं।
अतुल वगैरह जो पिछले साल हुल्लड़ मचा रहे थे वे भी नदारद हैं। कहां चले गये।
अतुल तो आजकल नवजोत सिंह सिद्धू हो गये हैं।लिखना-पढ़ना  बंद ।केवल  टीपबाजी कर रहे हैं। टिपियाने  से जो समय  बचता है उसमें  वो आइडिया उछालते हैं । हर  आइडिया  को तीन लोग  लपकते हैं तो चार लोग गिरा देते हैं। आइडिया ससुरा महिला विधेयक हो जाता है।संसद में कभी पास ही नहीं हो पाता।
शशिसिंह का क्या हाल हैं जो जीते थे इंडीब्लागर का चुनाव?
हाल वही हुये जो इंडीब्लागर का इनाम जीतने के बाद होता है-लिखना बंद।
जीतेंद्र की उछल-कूद में कुछ कमी दिखती है। क्या बात है?
कुछ बात नहीं है। बस लगता है उनके पास भी काम की कमी हो गयी है लिहाजा बिजी हो
गये हैं। कपडे़ अरगनी पर टांगकर सो रहे हैं।
कली बोली:-यार, बहुत बोरियत हो रही है । होली पर तमाम लोगों  ने कुछ न कुछ कविता-दोहा-शुभकामनायें झेलाईं है। तुम भी कुछ वैसा ही करो  न!
भौंरा बोला-तुम्हारे भोलेपन पर मेरा दिल मचल सा रहा है। मेरे मन में कुछ-कुछ होने  लगा है  लेकिन मैं उसकी उपेक्षा करके सुनाता हूं। सुनो ध्यान से:-
होली आवत देखकर ,ब्लागरन करी पुकार,
भूला बिसरा लिख दिया,अब आगे को तैयार।
पिचकारी ने उचक  के, रंग से कहा पुकार,
पानी संग मिल जाओ तुम, बनकर उड़ो फुहार।
कीचड़ में गुन बहुत हैं, सदा राखिये साथ,
बिन पानी बिन रंग के ,साफ कीजिये हाथ।
रंग सफेदा भी सुनो ,धांसू है औजार,
पोत सको यदि गाल पर,बाकी रंग बेकार।
वस्त्र नये सब भागकर , भये अलमारी की ओट,
चलो अनुभवी वस्त्रजी ,झेलिये रंगों की चोट।
सुनकर कली खिलखिल करने लगी। भौंरा डरा कि कहीं यह खिलकर फूल न बन जाये।
तथा प्यार का क्षितिज सिमट न जाये लिहाजा वह कली को ताजे समाचार सुनाने लगा।
पता है तुमको जो बिहार की ट्रेन का अपहरण हुआ था उसमें से नक्सली भाग क्यों गये?
कली ने बताया कि पुलिस को देखकर भागे होंगे।
भौंरा बोला-भक, पुलिस से भी कहीं कोई डरता है  आजकल वो भी बिहार में । हुआ  असल में यह कि किसी ने अफवाह फैला दी  कि जीतेंदर अपना ब्लाग अब ट्रेन में भी  सुनायेंगे ।अफवाह से सहमने  के बावजूद वे टिके रहे तो किसी ने जोड़ दिया कि वे अब
 कविता भी लिखेंगे जिस तरह दूसरे ब्लागर-
ब्ला
गगरिन लिखती हैं। फिर तो उनकी रही-सही हवा भी हवा हो गयी तथा वे रामलाल की उड़नतस्तरी हो गये ।सर पर पांव रखकर महाब्लाग के
आइडिये की तरह गायब हो गये।
कली ने कहा होली में टाईटल-साईटिल देने का रिवाज है। तुम कुछ नहीं करोगे?
भौंरा बोला-किसको क्या- टाईटिल दें। लोग इत्ते हो गये हैं। सबके नाम भी याद नहीं।
फिर भी जो हो सकता है दिया जा रहा है। लोग बुरा न माने तो अच्छा , मान लें तो
 बहुत अच्छा।लेकिन किसी को बताना मत कि हमने दिये हैं टाईटिल वर्ना मजा
किरकिरा हो जायेगा।

कली बोली-यार, तुम्हारे तो  टाईटिल न हो  गये बोर्ड का पर्चा हो  गये।सुनाओ जल्दी। आयम स्वेटिंग।
कली के पसीने को सूंघते तथा निहारते हुये भौंरा टाईटिल पढ़ने लगा:-
जीतेन्द्र:-
लट्ठ पड़ा जब जीतेन्द्र पर,गये तुरत घबराय,
कपड़े रंगे उतारकर,दिये डोरी पर लटकाय।
शशिसिंह:-
हमने पहले ही कहा,ये इंडीब्लागीस बड़ा बवाल,
अतुल अंगूठा टेक भये,शशि की भी वैसी ही चाल।
आशीषश्रीवास्तव:-
आशीष फिरत हैं बाबरे,लिये कुंवारापन हाथ,
है कोई कन्या सिरफिरी,जो गहै हमारे हाथ।
मानोसी चटर्जी:-
मानसी की मत पूछिये,जन्मतिथि धरो लुकाय,
जो इनके हत्थे चढ़ी ,जाने क्या-क्या देंय बताय।
अमित:-
अमित,अमित से सौ गुने,लड़कपना अधिकाय,
घुमाफिरा कर दोष सब, कन्यन पर रहे लगाय
 लाल्टू:-
लाल्टू जी तो धांसकर,  लिखते हैं भरमाय/हडकाय,
समझगये तो ठीक है,  वर्ना क्या ‘कल्लोगे’ भाय!
मसिजीवी:-
मसिजीवी तो रेल की ,पटरी के हैं पास।
ठहर गयी है रेल,क्या चले बुझावन प्यास।
रविरतलामी:-
रविरतलामी के हाथ का कैसे करें बखान,
इत्ता टाइप हम करें तो निकल जायेंगे प्रान।
लक्ष्मी नारायन गुप्त:-
लक्ष्मी भइया समझ में, आयी न आपकी चाल,
इत कहते हो रूढि है,उत चातक-स्वाती सा हाल।
 ईस्वामी:-
स्वामीजी से क्या कहें,पूरा औघड़ का अवतार,
सांड़ का रोल माडल गहे,भैंसन को रहे निहार।
 देबाशीष:-
क्या हाल बना रखा है ,हे देबाशीष , महाराज,
कल कैसे लिख पाओगे,यदि नहीं लिखोगे आज!
प्रत्यक्षा:-
कविता को अब छोड़कर ,लेखन ही लें अपनाय,
हम भी समझेगें कुछ-कुछ,कुछ आपहु समझो भाय।
इन्द्र अवस्थी:-
ठेलुहे तो हैं ठेठ ही,  मौंरावा के लाल ,
आलस में इनसे बड़ा ,कौन माई का लाल।
 राजेश कुमार सिंह:-
राजन लौटे देश में , हुई लेखनी ठप्प,
नून-तेल भारी हुआ,भूले कविता -गप्प।
सारिका सक्सेना:-
कुछ साज बज रहे थे मेरे मन की सरगमों में,
अब सुन रही हूं केवल,शब्दांजलि की उलझनों को।
क्षितिज कुलश्रेष्ठ :-
क्षितिज  तुम्हारा चिंतन ही स्वयं काव्य है,
बर्लिन में समलैंगिग बन जाना सहज सम्भाव्य है।
जोगलिखी:-
ये आपके  तरकश से कैसे तीर चलते हैं,
जिनको महान कहते हैं उन्हीं से बचते हैं।
‘सृजन-गाथा’ :-
ब्लाग बहुत ही अच्छा है , लोकप्रियता से न घबराइये,
वाह-वाह से डरें मत बिल्कुल ,बस आप लिखते जाइये।
 शुऎब:-
शुऐब ओसामा से जरा मिलना बहुत संभलकर,
पोटा का सोंटा पड़ जायेगा,रह जाओगे तड़पकर।
रमनकौल:-
रमनकौल जी बसि रहे ,न जाने केहि देश,
हम नित खोजत हैं यहां मिल जाये किस भेष!
समीर लाल:-
उड़नतस्तरी उड़ रही,जमकर पंख पसार,
ऊंचाई बढ़ जायेगी,कुछ कम हो यदि भार।
अतुल अरोरा:-
स्टेचू सा खड़ा है,ये रोजनामचा ब्लाग,
बहुत दिनों तक सोते बीते,अब तो जाओ जाग।
पंकज नरुला:-
मिर्ची सेठ ने किया ये तो बड़ा कमाल,
मिर्च बेचना त्यागकर, लिया सृष्टि का हाल।
सुनाते सुनाते भौंरे ने देखा कि कली बोरहोकर सो गयी है। भौंरे ने कली को चूमकर
‘हैप्पी होली’कहा तथा दूसरी कली पर डोरे डालने निकल पड़ा।
नोट-बाकी के टाईटिल पढ़ने के लिये दुबारा पढ़ें। टिप्पणी देकर टाईटिल सुझायें।
लेकिन अब क्या दुबारा पढ़ेंगे।दूसरा ही लेख पढ़  लें -आइडिया जीतू का लेख हमारा।


फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

10 responses to “भौंरे ने कहा कलियों से”

  1. समीर लाल
    बहुत मेहनत की है भाई अनूप जी.
    बहुत बधाई इतने बढियां तरीके से आपने होली मनवा दी, बहुत जमाने बाद टाइटिल देखने मिले…
    वैसे अगर मै इतनी मेहनत से टाईप करुँ तो उडन तश्तरी पर भार जरुर कम हो जायेगा.:)
    पुनः बधाई.
    समीर लाल
  2. Raman Kaul
    सब लोगन का रख रहे फुरसतिया जी ध्यान
    कुर्सी हिलती देख कर नारद जी पकड़ें कान।
    बोले प्रभु सब को मिले महा समय वरदान
    फुरसतिया सी फुरसत हो, और शब्दों की खान।
    शब्दों की हो खान, रोज़ चिट्ठा लिख पाएँ
    इन्द्र, देब, राजेश, रमन, फुरसतिया हो जाएँ।
  3. जीतू
    बहुत अच्छे, हमारे आइडिया पर हाथ साफ़ कर दिये तुम तो, खैर कोई बात नही।
    आपको और आपके परिवार को होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं। हमारी तरफ़ से भी होली खेल लेना भाई, हम तो होली के दिन भी आफिस मे बैठे है।
  4. रवि
    भौंरे ने एक व्यंज़ल-टाइटल यह भी दिया था, जो जानबूझकर छोड़ दिया गया था. यह तो पाठकों के साथ अन्याय था, अतः जबरन, टिप्पणी के जरिए, पेश किया जा रहा है-
    फ़ुरसतिया:-
    ये टाइटिल तो महज़ बहाना है
    मकसद कच्छा चोली रँगना है
    फ़ुरसतिया की लेखनी की मार
    देखें रोता कौन किसे हँसना है
    सवाल कुछ भी नहीं था यारों
    दरअसल सारा नगर रँगना है
    सोच कर अभी खुश मत हो
    अगली बार तुम्हें ही फंसना है
    व्यंग्य बाण तो देखे थे बहुत
    ये तो हाइड्रोज़न बम चलना है
  5. Tarun
    क्‍या सही है भौंरे की वाणी, फुरसतिया की जुबानी
  6. Amit
    वाह बढ़िया, मजा आ गया। मैं पढ़ते पढ़ते सोच ही रहा था कि कब मेरी भी ऐसी-तैसी करेंगे कि तभी अपना नाम दिखाई पड़ गया!! :D
  7. रमण कौल
    सब लोगन का रख रहे फुरसतिया जी ध्यान
    कुर्सी हिलती देख कर नारद जी पकड़ें कान।
    बोले, प्रभु सब को मिले महा समय वरदान
    फुरसतिया सी फुरसत हो, हो शब्दों की खान।
    हो शब्दों की खान, रोज़ चिट्ठा लिख पाएँ
    इन्द्र-देब-राजेश-रमन फुरसतिया हो जाएँ।
    (कल यह टिप्पणी लिखी थी, शायद 4-5 कड़ियाँ होने के कारण अनुमोदित नहीं हुई। अब बिना कड़ियों के कोशिश की है।)
  8. फ़ुरसतिया » आइडिया जीतू का लेख हमारा
    [...] कली-भौंरा वार्तालाप सुनकर जीतेंदर सबसे तेज चैनेल की तरह  भागते हुये सबसे नजदीक के थाने पहुंचे। थानेदार से मिले। बोले -हमारे आइडिये की चोरी हो गयी है। हम रिपोर्ट लिखाना चाहते हैं। थानेदार बोला-अरे लिख जायेगी रिपोर्ट भी। पहले तफसील से बताओ। कित्ता बड़ा आइडिया था? कौन से माडल का था?ये स्वामीजी की भैंस भी चोरी गयी है। ये देखो ये है फोटो। इसी तरह से था कि कुछ अलग? जीतू बोले-ये देखो मैं पूरा प्रिंट आउट लाया हूं। ये लेख है। इसी में मेरा आइडिया लगा दिया गया है। थानेदार बोला- तुम्हारा आइडिया भी सोना-चांदी की तरह हो गया है क्या? इधर चोरी हुआ उधर गला दिया गया!किसने चुराया आइडिया? किसी ने चोरी करते देखा उसे?कहां रखा था? जीतू बोले-ये मेरा दिमाग में था।शुकुल ने चुराया। देखने को तो किसी ने देखा नहीं लेकिन है  हमारा ही। थानेदार ने जीतू को सर से पेट तक देखा ।बाकी का छोड़ दिया।बोला- कोई सबूत है कि ये आइडिया तुम्हारा ही है। कोई स्टिंग आपरेशन का टेप वगैरह है जिसमें तुम्हारे आइडिये की चोरी किये जाने की हुये फोटो हो? इतना हाईटेक दरोगा देखकर जीतू की ऊपर की सांस ऊपर ही रह गयी। नीचे की नीचे निकल गयी। लेकिन वाणी ने साथ दिया तथा वे हकलाते हुये बोले- साहब बात यह है कि आप देख ही रहे हैं कि ये जो भौंरा-तितली संवाद लिखा गया है उसमें निहायत बेवकूफी का आइडिया इस्तेमाल किया गया है और यह बात सारी दुनिया जानती है कि बेवकूफी की बात करने का आधिकारिक कापीराइट मेरे ही पास है। मेरे अलावा इतनी सिरफिरी बातें सोचने का माद्दा किसी के पास नहीं है। यहां तक कि कविता लिखने वाले ब्लागर तक इतनी सिरफिरी बात नहीं सोच सकते। लिहाजा यह तो तय है कि आइडिया मेरा ही है। आप जल्दी से रिपोर्ट लिखकर कापी मुझे दे दीजिये ताकि उसका स्कैन करके मैं नेट पर डाल दूं। थानेदार ने कोने में ले जाकर जीतू से पता नहीं क्या कहा कि वे चुपचाप नमस्ते कहकर वापस आ गये। कुछ लोग कहते हैं कि थानेदार ने जीतू से रिपोर्ट लिखने के १०० रुपये मांगे थे लेकिन मुफ्त के साफ्टवेयर प्रयोग करने के आदी हो चुके जीतू इसके लिये तैयार नहीं हुये। [...]
  9. फुरसतिया » तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचोली
    [...] आज की फोटो-कार्टून तरकश से लिये गये हैं। कार्टून का पूरा मजा लेने के लिये और होली के टाइटिल देखने के लिये तरकश देखिये। मेरी पसंद में आज आपके लिये भारत के प्रख्यात शायर ‘ प्रोफेसर वसीम बरेलवी’ का गीत खासतौर से तमाम टेपों के बीच से खोजकर यहां पोस्ट किया जा रहा है। हमारी पिछले साल की होली से संबंधित पोस्टें यहां देखिये:- बुरा मान लो होली है भौंरे ने कहा कलियों से आइडिया जीतू का लेख हमारा [...]
  10. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] पालिसी 2.हमने दरोगा से पैसे ऐंठे 3.भौंरे ने कहा कलियों से 4.आइडिया जीतू का लेख हमारा 5.मुट्ठी में [...]

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Sunday, March 05, 2006

हमने दरोगा से पैसे ऐंठे

http://web.archive.org/web/20110101193126/http://hindini.com/fursatiya/archives/111

  रात को बगोदर पहुंच गये थे। प्रोग्राम के अनुसार हमें पांच जुलाई को ही बगोदर पहुंच जाना था लेकिन गया में दत्तात्रेय शास्त्री जी से मिलने के कारण बोधगया  में ठहरना हो गया तथा इसके बाद तेज बारिश ने बाधा पहुंचाई। कुछ समय मगध  विश्वविद्यालय  में भी लग गया।लिहाजा हम पांच जुलाई को केवल डोबी तक ही पहुंच पाये।रात डोबी में रुककर हम छह जुलाई को सबेरे बगोदर के लिये चले।

डोबी से ही ‘ऊँच-नीच’ का सिलसिला शुरू हो गया था।सड़कें इस कदर ऊँची-नीची थीं मानो स्पीड-ब्रेकर को फैला कर बिछा दिया गया हो।कभी तो आधा-आधा किमी तक की ऊँचाई मिलती थी। इन पर ट्रक तक चींटी की रफ्तार से चलते दिखाई देते।

हम चढ़ाई पर चढ़ते-चढ़ते पस्त हो जाते थे। चढ़ाई के बाद ढलान कुछ देर सुखद अनुभूति के रूप में आती जहां हम सर्राते हुये आगे बढ़ते लेकिन कुछ दूरी के बाद चढ़ाई फिर हमारा स्वागत करने को सामने दिखाई पड़ती।यह रास्ता वास्तव में थका देने वाला था।अगर इस रास्ते पर साईकिल की गद्दी से एक-एक फुट ऊपर उचककर चढ़ाई चढ़ाते हमारे घर वाले देख लेते तो शायद बीच रास्ते से वापस  बुला लेते।
बगोदर हाई स्कूल
बहरहाल दिन भर की थकान भरी यात्रा के बाद हम शाम को बगोदर पहुंचे।बगोदर में हमारे जानने वाला कोई नहीं था। जिन जगहों पर हमारा कोई तय ठिकाना नहीं होता था वहां हम कुछ देर घूम-घाम कर मुफ्त का आशियाना खोजते। बगोदर में भी ज्यादा परेशान नहीं होना पड़ा। बगोदर हाईस्कूल के छात्रावास में हमें रहने को छत तथा खाने को खाना मिल गया।

बगोदर स्कूल के प्रधानाचार्य विनय अवस्थी से कुछ नाराज से हुये क्योंकि उसने अपना परिचय अंग्रेजी में दिया था।लेकिन नाराजगी ज्यादा देर नहीं रही। वे हमसे रास्ते के अनुभव सुनते रहे।

खा-पीकर हम कुछ देर तक छात्रावास के बच्चों से गपियाते रहे फिर पता ही नहीं लगा हम कब सो गये। जागे तो सबेरा हो चुका था।

सात जुलाई का दिन , खास दिन था। हमारे साथी विनय अवस्थी का जन्मदिन था । सबेरे ही उसको हमने जन्मदिन की शुभकामनायें दीं। छात्रावास के बच्चों ने वहीं के फूलों लो तोड़कर माला बनाकर अवस्थी को पहनाई। कुछ देर बाद नास्ता करके हम आगे के लिये चल दिये।

हम खरामा -खरामा चले जा रहे थे। रास्ते में एक नदी पड़ी जिसका नाम मुझे याद नहीं आ रहा। नदी के किनारे हम कुछ देर खड़े रहे। नदी के प्रवाह को देखते रहे। कुछ देर में पास के ही गांवों की कुछ प्रोढ़ महिलायें वहां नदी में नहाने लगीं। अधिकतर ने ऊपर कुछ कपड़े नहीं पहने थे। वे केवल धोती पहने/लपेटे थीं।वे हमसे बेखबर नदी में नहाने में तल्लीन थीं। हमारे लिये महिलाओं को इस तरह नहाते देखने का पहला मौका था। हम नदी के प्रवाह के साथ-साथ नदी में सौन्दर्य प्रवाह को भी देखने में तल्लीन हो गये।

लेकिन हमारी तल्लीनता ज्यादा देर तक बरकरार नहीं रह सकी। जब हम नदी में नहाते सौन्दर्य को देख रहे थे उसी समय नदी के किनारे निपटता आदमी सौन्दर्य के साथ-साथ शायद हमें भी देख रहा था। निपटने के बाद पहले तो उसने महिलाओं को इस तरह नहाने के लिये जोर से डांटा। फिर वह हमारी तरफ बढ़ा। उसे अपनी तरफ बढ़ते देख हम सड़क की तरफ बढ़ लिये। इससे उसका कर्तव्य बोध भी बढ़ गया तथा उसने तमाम प्रचलित तथा अप्रचलित गालियों के अलावा हमें धमकी दी -भाग जाओ नहीं तो छह इंच छोटा कर देंगे।

लेकिन हम गरदन कटने के दायरे से बहुत दूर जा चुके थे। डर के मारे हमारे पैर बहुत देर तक कांपते रहे।अगली सांस हमने तभी ली जब हम नदी को मीलों पीछे छोड़ आये थे।
बिहार पुलिस दल
जान बच जाने की बात सोचते हुये हमने चैन की सांस लेना शुरू किया ही था कि हमारा सामना एक पुलिस दल से हुआ। पहले तो हमें लगा कि हमारी हरकत की रिपोर्ट कर दी गयी है तभी पुलिस दल हमारी तलाश कर रहा था। लेकिन पहली ही बातचीत से हमें लगा कि हमारा डर फिजूल था।

पुलिस दल ने हमसे निहायत शराफत से बात की। हमारे अनुभव सुनने के लिये दरोगा ने हमें अपने साथ एक ढाबे में  चाय पिलाई।हमारी खूब हौसला आफजाई की। रास्ते के लिये तमाम हिदायतें दीं।

हम इतने में ही अविभूत थे। लेकिन चलते समय और भी कुछ होना बाकी था। जब हम चलने लगे तो दरोगा ने अपने पास के सारे पैसे अपने पर्स से निकालकर (शायद चार-पांच सौ रहे होंगे) हमें रास्ते में खर्चे के लिये दे दिये। हमने कुछ ना नुकुर किया । पुलिस जो लोगों से पैसे ऐंठने के लिये कुख्यात है उसी पुलिस का बिहार का दरोगा हमें अपने पास के सारे पैसे दे रहा था। यह हमारे लिये सर्वथा नया अनुभव था । लेकिन यह सच भी था।
बहरहाल उसने आग्रह तथा अधिकार पूर्वक हमें पैसे लगभग जबरदस्ती दे दिये।

२३ साल पहले की  वह छवि मेरे जेहन में आज तक जस की तस अपनी पूरी चमक के साथ ताजा है।
इसी तरह के तमाम अनुभव  हैं जो मेरे मन में अच्छाई  के प्रति लगातार विश्वास कायम करती रहती हैं।


फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

9 responses to “हमने दरोगा से पैसे ऐंठे”

  1. समीर लाल
    इसी तरह के कुछ सुखद अनुभव सब के साथ जो होते रहते हैं, आज भी मानवता को जिंदा रखे हैं.बहुत सुन्दर लिखते है, अनूप जी आप.
  2. जीतू
    मजा आ गया। लेकिन लग रहा है, तुम पूरी पूरी बातें नही बता रहे हो, कहो तो अवस्थी ‘ठलुआ नरेश’ से वैरीफिकेशन करा लिया जाय।
    बकिया चकाचक, आगे की कडियों का भी इन्तजार रहेगा।
  3. आलोक
    क्या यह सब आपने अपनी स्मृति से लिखा है या उस समय रोज संस्मरण लिखते थे?
  4. प्रेमलता पांडे
    विश्वास हुआ है कि अभी मानवता हर हाल में शेष है।
    -प्रेमलता पांडे
  5. आशीष
    ये लो कर लो बात. इधर फूरसतिया जी ने दारोगा से पैसे ऐंठ लिये उधर रवी जी ने तांत्रिक को सौ रूपये का चूना लगा दिया.
    अब स्वामी जी का ईंतजार है, उन्होने किसे चूना लगाया है ?
    आशीष
  6. Tarun
    आप सीनियर चिठा्कारों को विशेष आमंत्रण है कि इस बार अनुगूँज में लिख ही डालिये, भाभी जी के गुस्‍से का ठीकिरा हमारे सर पे फोड़ दीजयेगा
  7. फ़ुरसतिया » यायावर चढ़े पहाड़ पर…
    [...] बगोदर से हम नास्ता करके सबेरे चल दिये। यात्रा के कार्यक्रम के हिसाब से हमारा अगला पड़ाव धनबाद था। हम साइकिल से खरामा-खरामा चलते हुये बढ़े जा रहे थे। मौसम कुछ गरम सा था। ८ जुलाई ,सन्‌ १९८३ । बारिश कुछ-कुछ होकर रुक जाती थी। गर्मी तथा उमस थी वातावरण में। कुछ देर बाद हमें याद आया कि हम हजारीबाग जिले में चल रहे हैं। हजारीबाग से याद आया कि यहीं की सेन्ट्रल जेल से जयप्रकाश नारायण दीवार फाँदकर फरार हो गये थे। जेल की सुरक्षा व्यवस्था को धता बता कर फरार होने से जयप्रकाश जी की प्रसिद्धि बहुत हो गयी थी। हमें कुछ पता नहीं था हजारीबाग जेल के बारे में तथा इलाका भी वीरान सा था लेकिन सड़क के बायीं तरफ की हर ऊँची दीवार देखकर हम अनुमान लगाते कि हम जेल के बगल में चल रहे हैं। घाट सेक्सन में साइकिल चलाने में बहुत मेहनत पड़ती है। ऊँचाई पर चढ़ते समय दम फूलने लगता लेकिन हम जिद्द में साइकिल से नीचे नहीं उतरते थे। ऊँचाई पर चढ़ते हुये हमारी गति ट्रक के बराबर होती । कभी-कभी चढ़ाई पर चढ़ते समय हम बगल से गुजरते ट्रक की पीछे की जंजीर पकड़कर ट्रक के साथ चलते। दुर्घटना के अंदेशे को देखकर ड्रायवर क्लीनर हमको डांटते लेकिन हम जहां मौका मिलता जंजीर थाम लेते। [...]
  8. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] की सेफ्टी पालिसी 2.हमने दरोगा से पैसे ऐंठे 3.भौंरे ने कहा कलियों से 4.आइडिया जीतू [...]

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Saturday, March 04, 2006

स्वर्ग की सेफ्टी पालिसी

http://web.archive.org/web/20110101192931/http://hindini.com/fursatiya/archives/110

स्वर्ग की सेफ्टी पालिसी

[४ मार्च को पूरे विश्व में संरक्षा दिवस मनाया जाता है। इस अवसर पर लिखा लेख फिर से प्रकाशित जा रहा है। यह लेख उन लोगों के लिये है जिन्होंने इसे पहले नहीं पढ़ा था। जिन लोगों ने पढ़ रखा वे भी अगर पढ़ना चाहें तो कोई रोक नहीं है]
वीणा की टुनटुनाहट के बीच अपने इस बार के मृत्युलोक डेपुटेशन के ओवरस्टे को स्वीकृत कराने के बहाने सोचते हुये नारद जी स्वर्गलोक के मुख्यद्वार पर पहुंचे.द्वाररक्षक ने उन्हें कोई टुटपुंजिया सप्लायर समझकर गेट पर ही रोक लिया.इस दौरे में इक्कीसवीं बार नारदजी ने अपना विजिटिंग कार्ड साथ लेकर न चलने की मूर्खता पर धिक्कारा.बहरहाल,कुछ देर तक तो वे इस दुविधा में रहे कि इसे वे अपना सम्मान समझें या अपमान.बाद में किसी त्वरित निर्णय लेने मे समर्थ अधिकारी की भांति ,जो होगा देखा जायेगा का नारा लगाकर,उन्होंने इसे अपना अपमान समझने का बोल्ड निर्णय ले लिया.
 नारदजी ने पहले तो,अरे तुम मुझे नहीं पहचानते का आश्चर्यभाव तथा उसके ऊपर अपने अपमान से उत्पन्न क्रोध का ब्रम्हतेज धारण किया.अगली कडी के रूप में द्वाररक्षक का ओवरटाईम बन्द होने का श्राप इशू करने हेतु जल के लिये उन्होंने अपने कमंडल में हाथ डाला तो पाया कि जैसे किसी सरकारी योजना का पैसा गंतव्य तक पहुंचने से पहले ही चुक जाता है वैसे ही उनके कमंडल का सारा पानी श्रापोयोग से पहले ही चू गया था.मजबूरन नारदजी ने अपने चेहरे की मेज से ब्रम्हतेज की फाईलें समेट कर उस पर दीनता के कागज फैलाये. उधर गेटकीपर ने,किसी देवता का खास आदमी ही बिना बात के इतनी अकड दिखा सकता है ,सोचते हुये उन्हें अन्दर आने की अनुमति दे दी.
नारदजी अन्दर घुसे.वहां किसी फैक्टरी सा माहौल था.कुछ लोग धूप सेंक रहे थे,कुछ छांह की शोभा बढा रहे थे.कुछ चहलकदमी कर रहे थे,गप्परत थे कुछ ने अपने चरणों को विराम देकर मौनव्रत धारण किया था–मानों कह रहे हों इससे ज्यादा काम नहीं कर सकते वे.जो जितना फालतू था उसके चेहरे पर उतनी ही व्यस्तता विराजमान थी.नारदजी स्वर्ग को निठल्लों का प्रदेश कहा करते थे.यहां के निवासियों को कुछ करना-धरना नहीं पडता था.खाना-पीना, कपडे-लत्ते की सप्लाई मृत्युलोक के भक्तगण यज्ञ ,पूजा पाठ के माध्यम से करते थे.
नारदजी स्वर्ग के सबसे प्रभावशाली देवता विष्णुजी से मिलने के लिये उनके चैम्बर की तरफ बढे.नारदजी ने देखा कि विष्णुजी अपने सिंहासन पर किसी सरकारी अधिकरी की तरह पडे-पडे कुछ सोच रहे थे.नारदजी को देखकर उन्होंने अपने चिन्तन को गहरा कर लिया ,व्यस्तता बढा ली तथा नजरें अपने चैम्बर में उपलब्ध एक़मात्र कागज में धंसा लीं.पहले तो नारदजी ने सोचा कि कि विष्णुजी शायद अपने शेयर पेपर्स देख रहें हों या फिर शाम को खुलने वाली महालक्ष्मी लाटरी के नंबर के बारे में अनुमान लगा रहे हों.वे एक सिंसियर स्टाफ की तरह बाअदब, बामुलाहिजा चुपचाप खडे रहे.देर होने पर नारदजी ने कनखियों से झांककर देखा कि विष्णुजी की नजरें तो एक खाली कागज पर टिकी हैं.उन्होंने फुसफुसाहट ,सहमाहट में थोडी हकलाहट मिलाकर विष्णुजीको दफ्तरी नमस्कार किया.
विष्णुजी ने अपनी नजरें कागज की गहराइयों से खोदकर नारदजी के चेहरे पर स्थापित की.अपने चेहरे पर मुस्कराहट की छटा बिखेरी तथा ‘हाऊ डु यू डु से लेकर ओ.के.देन सी यू ‘की ड्रिल एक मिनट में पूरी कर
इसके बाद वो अपने चेहरे की मुस्कराहट का बल्ब आफ करने वाले ही थे कि उन्हें यह ध्यान आया कि नारदजी तो इस बार मृत्युलोक होकर आये हैं जहां वे खुद,यदा यदा हि धर्मस्य….संभवामि युगे-युगे,का बहाना बनकर कई बार डेपुटेशन पर जा चुके हैं.उन्होंने अपने मन के कारखाने में एक अर्जेन्ट ‘वर्क आर्डर ‘प्लेस करके मृत्युलोक और नारद जी के प्रति प्रेम पैदा किया.अपने कमरे के बाहर लाल बल्ब जलाया. अर्दली को नरक की कैन्टीन से चाय लाने के लिये भेज दिया और नारदजी से इत्मिनान से बतियाने लगे.
विष्णुजी:-और सुनाइये मि.नारद ,इस बार कहां घूम के आये.
नारदजी:-साहब,इस बार मैं धरती पर स्थित स्वर्ग भारत देश की यात्रा करके आया हूं.
विष्णुजी:-धरती पर स्वर्ग !क्या भारत स्वर्ग हो गया?क्या वहां के लोग भी स्वर्ग के निवासियों की तरह कुछ काम-धाम नहीं करते?खाली बैठे रहते हैं?
नारदजी:-नहीं साहब ,ऐसी बात नहीं है.लोग कामचोरी ,लडाई-झगडा,खुराफात,चुगलखोरी आदि जरूरी कामों से फुर्सत पाकर काम-धाम को भी क्रतार्थ करते हैं.पर ऐसा कम ही होता है कि लोग जरूरी खुराफातें छोडकर काम-धाम में समय बरबाद करें.
इसके बाद नारदजी ने चाय की चुस्कियों के बीच अपने डेपुटेशन से जुडी जानकारियां दी.विष्णुजी ने भी,व्हेन आई वाजा देयर ड्यूरिंग रामावतार/कृष्नावतार…..,कहते-कहते शेयर कीं.नारदजी ने उन्हें मुम्बई में हुये फिल्म महोत्सव के बारे में भी बताया .वीणा की धुन पर मस्त-मस्त गाने सुनाये.फिल्म महोत्सव के बारे में सुनकर विष्णुजी उदास हो गये.उस दौरान उन्होंने पृथ्वी पर धर्म की बढती हानि और अधर्म के बढते उत्पादन को देखते हुये धर्म की संस्थापना के लिये अपने डेपुटेशन का प्रस्ताव पेश किया था.अपना पीताम्बर वगैरह प्रेस करवा कर जाने की तैयारी कर ली थी.वे इन्तजार करते रहे.फिल्म महोत्सव निकल गया पर प्रस्ताव की फाइल लौट के नहीं आई.उन्होंने तमाम दूसरी योजनाऒ की तरह धर्म की स्थापना का इरादा भी मुल्तवी कर दिया.
विष्णुजी ने नारदजी से पूछा:-और सुनाओ आजकल भारत में क्या हो रहा है?
नारदजी:-मार्च में सेफ्टी माह मनाने की तैयारी हो रही है.
सुनते ही विष्णुजी उछल पडे.नारदजी को लगा कि कहीं विष्णुजी अपने खर्चे पर तो नहीं धर्म की स्थापना करने चल पडे या फिर किसी सफेद हाथी ने तो नहीं इन्हें पुकारा जिसकी रक्षा के लिये भगवान उछलकर जाना चाहते हैं.बहरहाल कुर्सी की आकर्षण शक्ति ने उन्हें पुनर्स्थापित किया.नारदजी विष्णुजी के उछलने का कारण जानने के लिये अपने चेहरे पर हतप्रभता स्थापित कर पायें इसके पहले जी विष्णुजी ने सवाल दागने शुरु कर दिये:-
ये सेफ्टी माह क्या होता है?कैसे मनाया जाता है?किस देवता की पूजा करनी पडती है?कितने दिन का व्रत रखना पडता है?इसे मनाने वाले को क्या फल मिलता है?मैनें तो किसी शास्त्र/पुराण में इसकी चर्चा सुनी नहीं .विस्तार से बताओ नारद–मुझे जानने की इच्छा हुयी है.
नारदा उवाच:-पहले तो मैं आपको सेफ्टी के बारे में बताता हूं.किसी दुर्घटना के बाद सबसे ज्यादा हल्ला जिस चीज का मचता है उसे सेफ्टी कहते हैं.सेफ्टी का जन्म दुर्घटना के गर्भ से होता है.
विष्णुजी:-सो कैसे?
नारदजी:-जब तक कोई दुर्घटना नहीं होती तब तक सेफ्टी का कोई नामलेवा नहीं होता.सेफ्टी अल्पमत में होती है.दुर्घटना के बाद बहुमत सेफ्टी की आवश्यकता की तरफ हो जता है.अत:सेफ्टी के महत्व के लिये दुर्घटनायें बहुत जरूरी हैं.
विष्णुजी:-पर आप तो कह रहे थे कि सेफ्टी से दुर्घटनायें कम होती हैं.
नारदजी:-दरअसल यह अफवाह सेफ्टी पालिसी का बहुमत विभाजित करने के लिये फैलाई जाती है.सेफ्टी पालिसी के न होने पर दुर्घटना होने पर सब लोग एक मत से कहेंगे कि सेफ्टी पालिसी का ना होना ही दुर्घटना का कारण है.सेफ्टी पालिसी के होने पर बहुमत विभाजित हो जायेगा.दुर्घटना होने पर कोई कोई कामगार को कोसेगा,कोई मशीन को दोष देगा,कोई अपने कर्मों को,कोई सेफ्टी पालिसी को और कोई इसे आपकी (भगवान की)मर्जी मानेगा.दुर्घटना के कारणों की मिली-जुली सरकार बन जायेगी.किसी एक कारण की तानाशाही नहीं रहेगी .
विष्णुजी:-सेफ्टी माह कैसे मनाया जाता है?
नारदजी:-यह मार्च माह में मनाया जाता है.भाषण,सेमिनार,वाद-विवाद,कविता,पोस्टर प्रतियोगिता आदि आयोजित होती हैं.सेफ्टी बुलेटिन निकाला जाता है.4मार्च को संरक्षा दिवस (सेफ्टी डे)मनाया जाता है.संरक्षा शपथ ली जाती है.
विष्णुजी:-यार,यह तुमने अच्छा बताया .चलो हम भी इस बार सेफ्टी माह मनाते हैं.तुम ऐसा करो फटाफट एक स्वर्ग की सेफ्टी पालिसी बना लाओ.
नारदजी:-साहब ,सेफ्टी पालिसी की जरूरत तो वहां होती है जहां दुर्घटनायें होती हैं और दुर्घटनायें वहां होती हैं जहां कुछ काम-धाम होता है .स्वर्ग में कोई काम-धाम तो होता नहीं है. स्वर्ग में सेफ्टी पालिसी की क्या जरूरत !
विष्णुजी:-देखो यार जहां तक काम-धाम की बात है तो स्वर्ग में काम-धाम का कल्चर तो कोई पैदा नहीं कर सकता .लोग-बाग जुगाड लगाकर यहां आते ही इसी लालच में हैं कि कुछ काम ना करना पडे.काम-काज की परम्परा शुरु हो जायेगी तो लोग यहां आना ही बंद कर देंगे.पर दुर्घटनाऒ की चिन्ता तुम ना करो.उनका इन्तजाम मैं कर दूंगा.अभी मेरे सुदर्शन चक्र में इतनी धार बाकी है.मैं एक बार जो सोच लेता हूं वो करके रहता हूं.मृत्युलोक में धर्म की स्थापना के लिये बार-बार मुझे यों ही नहीं बुलाया जाता.कहते-कहते विष्णुजी की आवाज गनगना उठी.
नारदजी जानते थे कि ,जो सोच लेता हूं वह करके रहता हूं ,कहने के बाद विष्णु जी की सोच-समझ की दुकान बन्द हो जाती है तथा सारी बुकिंग फिर जिद के बहीखाते में होने लगती है.इस समय उनकी स्थिति उस सरकारी अफसर की तरह हो जाती है जो अपनी तारीफ में आत्मनिर्भरता की स्थिति को प्राप्त कर चुका होता है .ऐसी दशा में तारीफ के अलावा किसी दूसरी फ्रीक्वेन्सी की आवाज उन्हें नहीं सुनायी देती.
नारद जी ने ,तू दयालु दीन हौं ,की मुद्रा धारण करके विनयपूर्वक निवेदित किया- साहब आप दुर्घटनायें क्यों करायेंगे?लोग तो आप का नाम लेकर भवसागर पार करते हैं.पर मुझे सेफ्टी पालिसी का कोई उपयोग नहीं समझ में रहा है.इसका कोई जस्टीफिकेशन ना होने पर कागज ,समय तथा पैसे की बरबादी के लिये आडिट आब्जेकशन होगा.
विष्णुजी:-यू डोन्ट केयर फार जस्टीफिकेशन.बन जायेगी तो पडी रहेगी.कभी ना कभी किसी काम आयेगी ही.अब मान लो कोई कल्पतरु के नीचे खड़े होकर स्वर्ग की सेफ्टी पालिसी मांग ले और वह कह दे–”सारी आई डोन्ट हैव सेफ्टी पालिसी “.तो कैसा लगेगा? कल्पवृक्ष /स्वर्ग की तो इमेज चौअट हो जायेगी.मृत्युलोक में लोग कहेंगे–क्या फायदा माला जपने.तपस्या करने,यज्ञ में घी-तेल, अन्न फूंकने से जब इसके फलस्वरूप स्वर्ग जाने पर कल्पतरु एक सेफ्टी पालिसी तक नहीं दे सकता..ये तो अच्छा हुआ तुमने बता दिया वर्ना हम धोखा खा सकते थे.’एनी वे’जाओ जल्दी करो .एक हफ्ते में सेफ्टी पालिसी बनाकर ले आओ.
नारदजी ने अपना अन्तिम हथियार इसतेमाल करते हुये एकदम बाबुई अन्दाज में कहा-साहब आप कहते हैं तो बनाने की कोशिश करता हूं पर एक हफ्ते में सेफ्टी पालिसी नहीं बन सकती.काम ज्यादा है.
बाबू के जवाब में अफसर कडका– आई डोन्ट वान्ट टु हियर एनी थिंग.यू गेट लास्ट एन्ड कम बैक आफ्टर वन वीक विथ सेफ्टी पालिसी आफ स्वर्गा.
वीणा उठाकर गेटलास्ट होते-होते नारदजी ने दृढ विनम्रता से कहा.साहब आप कह रहे हैं तो कर देता हूं पर यह काम हमारा है नहीं.हमारा काम तो आप लोगों की स्तुति/चापलूसी करना,लोगों की निन्दा करना ,टूरिंग जाब करके खबरें इधर-उधर करना है.लिखाई-पढाई करना मेरा काम नहीं है.यह काम तो चित्रगुप्त ,सरस्वती जी का है–जिन्हें आपने कलम सौंपी है.
यह कहते हुयी नारदजी विष्णुजी के कमरे से बाहर आ गये.उनकी वीणा से निकलते ‘हरे कृष्ण गोविंद हरे मुरारी ‘के स्वर विष्णुजी के कानों में गुदगुदी करने लगे थे.
एक सप्ताह बाद नारदजी द्वारा बनाई स्वर्ग की सेफ्टी पालिसी पढते समय विष्णुजी को एक नियम दिखा-अपने शरीर के किसी भी अंग को किसी भी चलती मशीन/वस्तु के संपर्क में ना लायें.
विष्णुजी चौंके.नारदजी को बुलाया.बोले:-यह तो मेरी शक्तिहरण का षडयंत्र है.अगर यह नियम रहेगा तो मैं अपना सुदर्शन चक्र कैसे चलाऊंगा?पापियों का नाश कैसे करूंगा,दुष्टों का संहार कैसे करूंगा?अधर्म का नाश तथा धर्म की स्थापना कैसे करूंगा?
इस पर नारदजी बोले:-साहब जिससे नकल करके मैने यह सेफ्टी पालिसी बनाई है उसमें तो यही नियम है.इसे कैसे हटा दूं मुझे समझ नहीं आता.जानकारी नहीं है मुझे.आप या तो सेफ्टी पालिसी बनवा लें या धर्म की स्थापना कर लें.
विष्णुजी बोले:-फिलहाल तो मैं धर्म की स्थापना पर ही ध्यान दूंगा.तब तक तुम कोई ऐसी सेफ्टी पालिसी खोजो जिससे मेरे सुदर्शन चक्र के संचालन में कोई बाधा ना पडे.
तबसे नारदजी ऐसी सेफ्टी पालिसी की तलाश में हैं जिसकी नकल करके वो स्वर्ग की सेफ्टी पालिसी बना सकें.मुझसे भी पूंछ चुके हैं कि क्या मैं उनकी सहायता कर सकता हूं?
क्या आप उनकी सहायता कर सकते हैं?

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

6 responses to “स्वर्ग की सेफ्टी पालिसी”

  1. SHUAIB
    अच्छा लेख है।
  2. Tarun
    अच्‍छा लिखा हुआ है पढ़कर मजा आ गया लेकिन सेफ्‍टी का मतलब तो सुरक्षा होता है, संरक्षा मतलब यही है ना कि किसी वस्‍तु को विशेष रूप से संभाल के रखा जाये।
  3. पद्मनाभ मिश्र
    अच्‍छा लिखा हुआ है पढ़कर मजा आ गया
  4. विवेक सिंह
    सिक्योरिटी और सेफ्टी का भेद समझ आना इस पोस्ट से मेरी उपलब्धि रही .पहले मैं भी तरुण की तरह ही सोचा करता था ,
    वैसे विष्णु जी को तो हमने हमेशा देवताओं से ऊपर ही समझा था जो क्षीर सागर में रहते हैं, ब्रह्मा, विष्णु और महेश को हम भगवान और बाकी को देवता समझते थे !
    देवता कभी कभी इन तीनों के पास अर्जी लेकर जाते रहते हैं !
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