Tuesday, October 26, 2004

हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे

आजकल मैं देश के तकनीकी विकास के लिये बहुत चिन्तित रहता हूं.इन्टरनेट तकनीकी विकास का महत्वपूर्ण माध्यम है.मैं मानता हूं कि 'पीसी' में रुचि पैदा करने के लिये जो भूमिका कंप्यूटर गेम अदा करते हैं कुछ-कुछ वही भूमिका इंटरनेट में रुचि पैदा करने में चैटिंग और ब्लागिंग की है.

मैं इंटरनेट-प्रसार-यज्ञ में यथासंभव योगदान देने के लिये ब्लाग लिखकर अपने ब्लाग के बारे में मित्रों को अधिकाधिक जानकारी देने का प्रयास करता हूं.फोन करता हूं तो अपने ब्लाग के बारे में जरूर बताता हूं बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि बताने के लिये फोन करता हूं.यह अलग बात है कि जबसे मेरे इस प्रचार अभियान ने जोर पकङा है तबसे हमारे मित्रों के फोन उठने कम हो गये है.अगर उठते भी हैं तो मित्रगण
के बाथरूम,बाजार,आफिस आदि-इत्यादि निरापद स्थानों में होने की सूचना देकर बैठ जाते हैं.बहरहाल तकनीकी विकास चाहे हो या न हो हमारी दौङधूप में कोई कमी नही आई.

अपने संपर्क के सभी मित्रों का तकनीकी विकास कर चुकने के बाद मैं चैन की सांस लेने की सोच ही रहा था कि
पंकज के खोये हुये बस्ते ने मुझे बेचैन कर दिया.लगा कि मैं उन मित्रों के साथ अन्याय कर रहा हूं जिनके संपर्क-सूत्र जीवन की आपाधापी में छूट गये हैं.उनका भी तकनीकी विकास करके मुख्यधारा में लाना मेरा पुनीत कर्तव्य है.

इसके पहले कि मैं 'मित्र-खोज' शुरू करता , मेरे आलस्य ने मुझे जकङ लिया.जैसे किसी विकास योजना की घोषणा होते ही उसको चौपट करने वाले तत्व उस पर कब्जा कर लेते हैं.मैं भी जङत्व के नियम का आदर करके चुप हो गया.पर पता नहीं कहां से मेरे मित्रप्रेम और न्याय बोध ने मेरे आलस्य का संहार कर दिया.जैसे अक्कू यादव से पीङित महिलाओं ने उसको निपटा दिया हो या फिर कुछ ऐसे जैसे पंचायतों के परंपरागत न्याय को अदालतें खारिज कर दें.बहरहाल मित्र खोज-यात्रा शुरु हुयी.

शुरुआत हमारे अजीज दोस्त राजेश से हुयी.बिना समय बरबाद किये मैंने मतलब की बात शुरु कर दी.उनको ब्लागिंग और अपने ब्लाग के बारे में बताया.पढने को कहा.मैं सोच रहा था कि इसके बाद बात कट जायेगी या फोन.पर जो हुआ वह अप्रत्यासित था.मेरा प्यारा दोस्त मुझसे 16 साल पहले सुनी कविता पंक्तियां दोहरा था:-

1.वो माये काबा से जाके कह दो
अपनी किरणों को चुन के रख लें
मैं अपने पहलू के जर्रे-जर्रे को
खुद चमकना सिखा रहा हूं.

2.......नर्म बिस्तर ,
ऊंची सोंचें
फिर उनींदापन.

इसमें पहली कविता एक चमकदार कवि के मुंह से सुनी थी मैनें.दूसरी मैंने लिखी थी. इन बिछुङी कविताओं को दुबारा पाकर मेरा 'मित्र-मिलन' सुख दूना हो गया.

इतने दिन बाद इन पंक्तियों को मैंने कई बार दोहराया.तुलना की- आपस में इनकी.मुझे लगा -जो आराम मेरी लिखी कविता में है वो चमकदार कविता में नदारद है.किसी को चमकना सिखाना मेहनत का काम है.'माये काबा'से दुश्मनी अलग कि अपनी समान्तर सत्ता चला रहा है.कहीं सद्दाम हुसैन सा हाल न कर दे सर्वशक्तिमान.
पता लगा जर्रे-जर्रे को चमकाने में खुद बुझ गये.इसके मुकाबले मेरी कविता जीवन-सत्य के ज्यादा करीब है.व्यवहारिक नजरिया है--ऊंची सोच के सो जाना.मैं अपनी 'तारीफ में आत्मनिर्भरता' और कालांतर में निद्रा की स्थिति को प्राप्त हुआ.

कुछ देर बाद मैंने पाया कि मैं एक सभा में हूं.मेरे चारो तरफ लटके चेहरों का हुजूम है.मैंने लगभग मान लिया था कि मैं किसी शोकसभा में हूं.पर मंच से लगभग दहाङती हुई ओजपूर्ण आवाज ने मेरा विचार बदला.मुझे लगा कि शायद कोई वीररस का कवि कविता ललकार रहा हो.पर यह विचार भी ज्यादा देर टिक नहीं सका.मैंने कुछ न समझ पाने की स्थिति में यह तय माना कि हो न हो कोई महत्वपूर्ण सभा हो रही हो.

मेरा असमंजस अधिक देर तक साथ नहीं दे पाया.पता चला कि देश के शीर्षतम भ्रष्टाचारियों का सम्मेलन हो रहा था.सभी की चिन्ता पिछले वर्ष के दौरान घटते भ्रष्टाचार को लेकर थी.मुख्य वक्ता 'भ्रष्टाचार उन्नयन समिति'का
अध्यक्ष था.वह दहाङ रहा था:-

मित्रों,आज हमारा मस्तक शर्म से झुका है.चेहरे पर लगता है किसी ने कालिख पोत दी .हम कहीं मुंह दिखाने लायक न रहे.हमारे रहते पिछले साल देश में भ्रष्टाचार कम हो गया.कहते हुये बङा दुख होता है कि विश्व के तमाम पिद्दी देश हमसे भ्रष्टाचार में कहीं आगे हैं.दूर क्यों जाते हैं पङोस में बांगलादेश जिसे अभी कल हमने ही आजाद कराया वो आज हमें भ्रष्टाचार में पीछे छोङ कर सरपट आगे दौङ रहा है.

मित्रों ,यह समय आत्ममंथन का है.विश्लेषण का है.आज हमें विचार करना है कि हमारे पतन के बुनियादी कारण क्या हैं ?आखिर हम कहां चूके ?क्या वजह है कि आजादी के पचास वर्ष बाद भी हम भ्रष्टाचार के शिखर तक
नहीं पहुंचे.दुनिया के पचास देश अभी भी हमसे आगे है.क्या मैं यही दिन देखने के लिये जिन्दा हूं?हाय भगवान तू मुझे उठा क्यों नहीं लेता?

कहना न होगा वीर रस से मामला करुण रस पर पहुंच चुका था .वक्ता पर भावुकता का हल्ला हुआ.उसका गला और वह खुद भी बैठ गया.श्रोताओं में तालियों का हाहाकार मच गया.

कहानी कुछ आगे बढती कि संचालक ने कामर्शियल ब्रेक की घोषणा कर दी.बताया कि कार्यक्रम किन-किन लोगों द्घारा प्रायोजित थे.प्रायोजकों में व्यक्तियों नहीं वरन् घोटालों का जलवा था.स्टैम्प घोटाला,यू टी आई घोटाला आदि
युवा घोटालों के बैनरों में आत्मविश्वास की चमक थी.पुराने,कम कीमत के घोटाले हीनभावना से ग्रस्त लग रहे थे.अकेले दम पर सरकार पलट देने वाले निस्तेज बोफोर्स घोटाले को देखकर लगा कि किस्मत भी क्या-क्या गुल खिलाती है.

कामर्शियल ब्रेक लंबा खिंचता पर 'भ्रष्टाचार कार्यशाला'का समय हो चुका था.कार्यशाला में जिज्ञासुओं कि शंकाओं का समाधान होना था.शंका समाधान प्रश्नोत्तर के रूप में हुआ.कुछ शंकायें और उनके समाधान निम्नवत हैं:-

सवाल:गतवर्ष की अपेक्षा भ्रष्टाचार में पिछङने के क्या कारण हैं?आपकी नजरों में कौन इस पतन के लिये जिम्मेंदार है?
जवाब:अति आत्म विश्वास,अकर्मण्यता,लक्ष्य के प्रति समर्पणका अभाव मुख्य कारण रहे पिछङने के.इस पतन के लिये हम सभी दोषी हैं.

सवाल:आपका लक्ष्य क्या है?
जवाब: देश को भ्रष्टाचार के शिखर पर स्थापित करना.

सवाल:कैसे प्राप्त करेंगे यह लक्ष्य?
जवाब:हम जनता को जागरूक बनायेंगे.इस भ्रम ,दुष्प्रचार को दूर करेंगे कि भ्रष्टाचार अनैतिक,अधार्मिक है.जब भगवान खुद चढावा स्वीकार करते हैं तो भक्तों के लिये यह अनैतिक कैसे होगा?

सवाल: तो क्या भ्रष्टाचार का कोई धर्म से संबंध है?
जवाब:एकदम है.बिना धर्म के भ्रष्टाचारी का कहां गुजारा?जो जितना बडा भ्रष्टाचारी है वो उतना बडा धर्मपारायण है.मैं रोज पांच घंटे पूजा करता हूं.कोई देवी-देवता ऐसा नहीं जिसकी मैं पूजा न करता हूं.भ्रष्टाचार भी एक तपस्या है.

सवाल:तो क्या सारे धार्मिक लोग भ्रष्ट होते हैं?
जवाब:काश ऐसा होता!मेरा कहने का मतलब है कि धर्मपारायण व्यक्ति का भ्रष्ट होना कतई जरूरी नहीं है .परन्तु एक भ्रष्टाचारी का धर्मपारायणहोना अपरिहार्य है.

सवाल:कुछ प्रशिक्षण भी देते हैं आप?
जवाब:हां नवंबर माह में देश भर में जोर-शोर से आयोजित होने वाले सतर्कता सप्ताह में हर सरकारी विभाग में अपने स्वयंसेवकों को भेजते हैं.

सवाल:सो किसलिए?
जवाब:असल में वहां भ्रष्टाचार उन्मूलन के उपाय बताये जाने का रिवाज है,सारे पुराने उपाय तो हमें पता हैं पर कभी कोई नया उपाय बताया जाये तो उसके लागू होने के पहले ही हम उसकी काट खोज लेते हैं.गफलत में नहीं रहते हम.कुछ नये तरीके भी पता चलते हैं घपले करने के.

सवाल:आपके सहयोगी कौन हैं?
जवाब:वर्तमान व्यवस्था.नेता,अपराधी,कानून का तो हमें सक्रिय सहयोग काफी पहले से मिलता रहा है.इधर अदालतों का रुख भी आशातीत सहयोगत्मक हुआ है.कुल मिलाकर माहौल भ्रष्टाचार के अनुकूल है.

सवाल:जो बीच-बीच में आपके कर्मठ,समर्पित भ्रष्टाचारी पकङे जाते हैं उससे आपके अभियान को झटका नहींलगता?
जवाब:झटका कैसा?यह तो हमारे प्रचार अभियान का हिस्सा एक है.इसके माध्यम से हम लोगों को बताते हैं कि देखो कितनी संभावनायें हैं इस काम में.लोग जो पकङे जाते हैंवो लोगों के रोल माडल बनते हैं.हमारा विजय अभियान आगे बढता है.

सवाल:आपकी राह में सबसे बडा अवरोध क्या है भ्रष्टाचार के उत्थान की राह में?
जवाब: जनता .अक्सर जनता नासमझी में यह समझने लगती कि हम कोई गलत काम कर रहे हैं.हालांकि आज तस्वीर उतनी बुरी नहीं जितनी आज से बीस साल पहले थी.आज लोग इसे सहज रूप में लेते हैं.यह अपने आप में उपलब्धि है.

सवाल: क्या आपको लगता है कि आप अपने जीवन काल में भ्रष्टाचार के शिखर तक देश को पहुंचा पायेंगे?
जवाब:उम्मीद पर दुनिया कायम है.मेरा रोम-रोम समर्पित है भ्रष्टाचार के उत्थान के लिये.मुझे पूरी आशा कि हम जल्द ही तमाम बाधाओं को पार करके मंजिल तक पहुंचेंगे.

अभी कार्यशाला चल ही रही थी कि शोर सुनायी दिया.आम जनता जूते,चप्पल,झाङू-पंजा आदि परंपरागत हथियारों से लैस भ्रष्टाचारियों की तरफ आक्रोश पूर्ण मुद्रा में बढी आ रही थी.कार्यशाला का तंबू उखङ चुका था.बंबू बाकी था.हमने शंका समाधान करने वाले महानुभाव की प्रतिक्रिया जानने के लिये उनकी तरफ देखा पर तब तक देर हो चुकी थी. वो महानुभाव जनता का नेतृत्व संभाल चुके थे.'मारो ससुरे भ्रष्टाचारियों 'को
चिल्लाते हुये भ्रष्टाचारियों को पीटने में जुट गये थे.

हल्ले से मेरी नींद टूट गयी.मुझे लगा शिखर बहुत दूर नहीं है.

मेरी पसंद

आधा जीवन जब बीत गया
वनवासी सा गाते रोते,
अब पता चला इस दुनिया में,
सोने के हिरन नहीं होते.

संबध सभी ने तोङ लिये,
चिंता ने कभी नहीं तोङे,
सब हाथ जोङ कर चले गये,
पीङा ने हाथ नहीं जोङे.

सूनी घाटी में अपनी ही
प्रतिध्वनियों ने यों छला हमें,
हम समझ गये पाषाणों में,
वाणी,मन,नयन नहीं होते.

मंदिर-मंदिर भटके लेकर
खंडित विश्वासों के टुकङे,
उसने ही हाथ जलाये-जिस
प्रतिमा के चरण युगल पकङे.

जग जो कहना चाहे कहले
अविरल द्रग जल धारा बह ले,
पर जले हुये इन हाथों से
हमसे अब हवन नहीं होते.
--कन्हैयालाल बाजपेयी

3 comments:

  1. Anonymous3:16 PM

    ज़रा हमको भी बतायें कि ये हिन्दी का ब्लोग आपने कैसे शुरू किया, हम भी इच्छुक है। पहले कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली और समझ में नहीं आया कि गलती कहां हुयी। मेरा ईमेल है ashish_13@yahoo.com

    धन्यवाद
    आशीष गर्ग

    ReplyDelete
  2. अति उत्तम. परंतु पी.सी. के monitor पर लम्बे लेखों को पढ़ना थोड़ा असुविधाजनक हो जाता है. लम्बी रचनाओं को कई भागों में बाँटने का प्रयत्न करिये - मात्र एक सुझाव.

    अतुल

    ReplyDelete
  3. Anonymous12:05 PM

    hi anup,
    i dont know how to type in hindi here on this keyboard. i have been transferred to chandrapur from jalgaon as wildlife dfo however the mobile number remains the same. ek baat meri samaj mein nahi aayee ki tu itna bada bhrastachari kaise ho gaya. mai to tere bare mein badi acchi rai rakhta tha. anyway der aaye durust aaye. bhrastachar ki mahima apprampaar hai.yeh baat tumhari samaj mein thhodi der se aayee iska dukh hai. bhagawaan tumhe ek mahaan bhrastachari banaye. tum bhrastchar ki naveentam oonchaaiyon ko chuo aisy bhagwaan se prathana hai.
    yours
    maheep

    ReplyDelete