Tuesday, December 14, 2004

आतंक से मुख्यधारा की राह क्या हो?

Akshargram Anugunj

आतंक से मुख्यधारा की राह क्या हो?मतलब भूलभुलैया से राजपथ का रास्ता किधर को होकर जाये?मैं इस निर्णय प्रकिया के बारे में चूंकि कुछ नहीं जानता लिहाजा अधिक आत्मविश्वास से अपनी राय जाहिर कर सकता हूं.वैसे भी अज्ञानी का आत्मविश्वास तगड़ा होता है.

कुछ और लिखने के पहले दो घटनाक्रमों पर गौर करें:-

1.मेरा छोटा बच्चा अनन्य स्कूल से आकर स्कूल ड्रेस में ही खेलने लगता है(जाहिर बात है क्रिकेट ही खेलेगा इसके अलावा खेल क्या सकता है).मेरी माताजी उससे कहती हैं -बेटा ,ड्रेस बदल लो तब खेलो.कई बार कहने पर वह लगभग झुंझलाकर बोला--बदल लेंगे.आप बार-बार टोंक क्यों रही हो? आप 6.30 घंटे स्कूल में पढ़ के आओ तब पता चले कितना थक जाते हैं .आप तो दिन भर घर में रहती हो.आपको तो पता नहीं कितना थक जाते हैं स्कूल में.

2.अक्सर शाम को उत्पादन समीक्षा बैठक में मेरे एक मित्र को उसके अधिकारी ने बताया (जैसा वो अक्सर बताते हैं)ये काम ऐसे नहीं वैसे करना चाहिये.अपनी सौम्यता और विनम्रता के लिये जाने वाले मेरे मित्र के मुंह से अचानक निकला --सर,यहां बैठ के ज्ञान मत दीजिये.कल शाप में आइयेगा तब वहीं बताइयेगा.यहां बैठ के तो मैं भी पचासो तरीके बता सकता हूं.

ये वाकये यह बताने के लिये कि जब हम दूर बैठ किसी समस्या के बारे में राय जाहिर करते हैं तो अक्सर समस्या से सीधे प्रभावित व्यक्ति को वह सुझाव अफलातूनी लगते हैं.मेरे सुझाव भी ऐसे ही साबित हो सकते हैं.


पहली बात तो आतंकवादियों को प्रशिक्षित करके उनका उपयोग आतंकवादियों के सफाये में करने को लेकर.जैसा कहा गया कि कुछ लोगों ने टेरीटेरियल आर्मी की प्रवेश परीक्षा पास कर ली. बहस उठी कि क्या यह मुनासिब है कि पूर्व आतंकवादियों को सामरिक रूप से महत्वपूर्ण पद सोंपे जाएँ या नहीं.तो भइये मेरा तो यह मानना है कि कतई न लिया जाये. क्योंकि यह कुछ इसी तरह है जैसे अपराध की दुनिया में झंडा फहराने केबाद लोगों को देशसेवा का बुखार चढ़ता है.और जनता उनसे अभिशप्त होती है सेवा कराने के लिये.इस तरह लोगों को सेना में भर्ती से एक नया रास्ता खुल जायेगा बेरोजगारों के लिये.वे कहेंगे--यार कुछ काम तो मिला नहीं .सोच रहा हूं कुछ दिन आतंकवाद करके सरेंडर करूं.फिर टेरीटेरियल आर्मी ट्राय करूं.उधर मेरे अंकल के फ्रेंड हैं .वो सब मैनेज कर देंगे.

किसी व्यक्ति की काबिलियत एक पहलू है .किसी अपराध की सजा दूसरा पहलू .दोनो में घालमेल नहीं होना चाहिये.नहीं लो लोग कहेंगे अरे भाई हम अपराध किये हैं मानते हैं पर हमारी काबिलियत भी तो देखो. काबिलियत के हिसाब से तो हमको सजा मिलनी ही नहीं चाहिये.पहले भी हुआ है ऐसा.स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की पेंशन पाने वालों में बहुत सारे लुटियाचोर भी थे .किसी अपराध में पकड़े गये .प्रमाणपत्र जेल का ले आये और दरख्रास्त दे दी .स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पेशन पाकर मौज की.जबकि बहुत से लोग जो सही में बलिदानी थे उन्होंने यह माना यह तो हमारा कर्तव्य था.इसके लिये पेंशन कैसी ?

अब सवाल यह उठता है कि आतंकवाद से मुख्यधारा से रास्ता क्या हो.तो रास्ता तो वही है जो कानून सम्मत है. हां ,हमारा रवैया मानवीय होना चाहिये.सजा में अपराध और परिस्थिति के अनुसार विचार किया जा सकता है. भूतपूर्व आतंकवादियों के पुनर्वास के लिये रोजगार के अवसर उपलब्ध कराये जायें.उनकी क्षमता का सम्मानजनक उपयोग किया जाये.बदले की भावना से कोई कार्रवाई न की जाये.न्याय में देर न हो.उनके साथ यथासंभव अच्छा व्यवहार किया जाये.ऐसी स्थिति न आये कि वे सोचें इससे अच्छे तो तभी थे जब आतंकवादी थे.

अपराध , दंड और पुरस्कार के बारे में जयशंकर प्रसाद की कहानी 'पुरस्कार' आज भीसमीचीन है.कोशल राज्य की कन्या मधूलिका शत्रु देश, मगध, के राजकुमार अरूण के प्रेम के वशीभूत होकर महाराज से सामरिक महत्व की जमीन मांग लेती है.वह जमीन किले की पास की होती थी जहां से आसानी से किले में प्रवेशपाया जा सकताथा.
अरुण उसे कोशल पर कब्जा करने की अपनी योजना के बारे में बताता है.वह कहता है कि कोशल पर कब्जा करने के बाद वह मधूलिका को अपनी रानी बनायेगा.मधूलिका भविष्य की मधुर कल्पनाओं में खो जाती है.फिर उसे याद आता है कि वह राजभक्त सिंहमित्र की कन्या है जिसकी वीरता का सम्मान कोशल नरेश भी करते हैं.यह सोचकर वह व्याकुल हो उठती है कि वह शत्रु देश के राजकुमार के प्रेम में अंधी होकर अपने देश को विदेशी के अधिकार में देने सहायक हो रही है.कर्तव्य बोध जाग्रत होने पर वह अपने शत्रु देश के राजकुमार के अभियान की सूचना अपने राजा को दे देती है. अरुण पकड़ा जाता है. प्रजाजनों की राय से अरुण को प्राणदंड की सजा तय की जाती है.इसके बाद मधूलिका बुलाई गई.वह पगली सी आकर खड़ी हो गई.कोशल नरेश ने पूछा-मधूलिका, तुझे जो पुरस्कार लेना हो,मांग.वह चुप रही.राजा ने कहा --मेरी निज की जितनी खेती है,मैं सब तुझे देता हूं.मधूलिका ने एक बार बंदी अरुण को देखा.कहा-मुझे कुछ न चाहिये. अरुण हंस पड़ा. राजा ने कहा--नहीं,मैं तुझे अवश्य दूंगा.मांग ले.तो मुझे भी प्राणदंड मिले.कहती हुई वह बंदी अरुण के जा खड़ी हुई.

यह कहानी एक आदर्श की बात कहती है.इसमें देश की सेवा के लिय किसी प्रतिदान की अपेक्षा नहीं है.देश के लिये अपने प्रेमी को बंदी बनवाने के बाद मधूलिका को प्रेमी के प्रति अपने कर्तव्य का बोध होता है तब वह पुरस्कार में अपने लिये भी प्राणदंड मांगती है.

पूर्व आतंकवादियों को मुख्यधारा में लाने के उपाय खोजते समय यह देखने की जरूरत है कि कहीं हम इतने उदार न बन जायें कि लोग सोंचे --यार काश हम भी पूर्व आतंकवादी होते.ये पूर्व आतंकवादी बहके हुये लोग रहे हैं कभी.तब अपनी जान हथेली पर लेकर आतंक की दुनिया में कूदे होंगे जब मौत उसका एकमात्र अंजाम रहा होगा. अब जब इनको सामरिक महत्व के पद सौंपे जायेंगे तब वे नहीं बहकेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं.कुछ लोग होंगे जो वास्तव में अपवाद होंगे और कभी नहीं बहकेंगे.पर कुछ लोग अपवाद ही हो सकते हैं और अपवाद का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता.

आतंकवाद के कारण बहुस्तरीय होते हैं.हर समाज के लिये अलग कारण.इसका कोई गणितीय समाधान नहीं हो सकता.समाज,समस्या,साधन,परिस्थिति के अनुसार इसका हल तय किया जा सकता है.पर सबसे जरूरी चीज है समाधान में शामिल भागीदारों के इरादों में ईमानदारी.समस्या को हल करने के इरादों में ईमानदारी व परस्पर विश्वास होगा तो सब हल निकल आयेंगे.

मेरी पसंद

एक बैरागी आया
उसने कान में मंत्र फूंका
तुम कमजोर हो
मेरे साथ आओ
मैं तुम्हें ताकत दूंगा.

दूसरा बैरागी आया
उसने कान में मंत्र फूंका
तुम पिछड़े हो
तुम मेरे साथ आओ
मैं तुम्हें शिखर पर ले जाऊँगा.

तीसरा बैरागी आया
उसने कान में मंत्र फूंका
तुम संख्या में कम हो
तुम मेरे साथ आओ
मैं तुम्हारी तरफ से बोलूंगा

आखिरकार सब बैरागी रागी बन गये
और तुम्हारा आँगन अखाड़ा बन गया.

----विनोद दास


3 comments:

  1. सही लिखा है बन्धु, मान गये आपकी कलम को।

    ReplyDelete
  2. अनूप जी करारा लेख है ।

    ReplyDelete
  3. अनूपजी,
    आपकी शैली मे हास्य का पुट और व्यंग की चुभन साथ साथ महसूस की जा सकती है, बहुत अच्छा लेख है, इतने कठिन विषय पर ,सामान्य बोलचाल की भाषा मे लिखा गया... यह प्रभावी लेख सराहनीय है.

    ReplyDelete