दिसम्बर का महीना.आशीष मस्त हैं.ठंड से उनकी सिकुड़ गयी पोस्ट.पंकज बहुत दिन दुनिया हिलाने के बाद अब सारे घर के पर्दे बदल रहे हैं.
आजकल कुछअलग हटकर करने का मौसम है.सोचा मैं भी करूं.तो मन किया सब चिट्ठों में दिसंबर में जो छपा उसका लेखा-जोखा करा जाये.बैठे से बेगार भली.
इधर ब्लागजीन की खिचड़ी बहुत दिनों से पक रही है.लगता है कि जल्दी ही कुछ हो के रहेगा.
इस महीने तीन खूबसूरत फूल खिले-हिंदी ब्लाग उपवन में.रमणकौल काफी इधर-उधर घूमने के बाद आखिरकार आ गये मैदान में.रमन भी अपनी बात लेकर हाजिर हो गये.उधर सुदूर जापान से भी रंगीन चिट्ठा लेकर मत्सु आ गये.लोग साथ आते जा रहे हैं,काफिला बढ़ता जा रहा है.
नुक्ताचीनी पर ब्लागमेला तथा फिर अनुगूंज का आयोजन (अक्षरग्राम पर)हुआ.ब्लागमेला में भागेदारी बहुत कम रही.खासकर अंग्रेजी चिट्ठों की.जो थे भी वो छंट गये.व्यक्तिगत चिट्ठे की बात आयी.हालांकि मुझे लगता है कि आशीष की पोस्ट हां भाइयों में 'मैं' की शैली अपनायी गयी है.बाकी बात तो समाज की ही की गयी है.मैंने भी 'मैं'की शैली में ही लिखा था. लगता है कि आशीष ने 'मैं 'कुछ ज्यादा इस्तेमाल कर लिये.अनुंगूंज का मामला 'फुस्स'होता लग रहा है.एक तो दिये विषयों पर लिखना जटिल काम है .फिर जब लोग कम लिखें तो लगता है छोड़ो यार.कुछ कहानी की बात भी चली.एक तरफ अनुगूंज में दूसरी तरफ बुनो कहानी में.हमसे आशा की गयी है कि कहानी का समापन हम करेंगे.हम तैयार हैं.लाओ कहानी. करें अन्तिम क्रिया.
अनुगूंज में मेरापन्ना का जिक्र छूट गयाथा.मुझे लगता है कि कम्यूटर पर सीधे लिखने की यह अप्ररिहार्य सौगात है.कुछ न कुछ छूट ही जाता है.वैसे जब अक्षरग्राम पर चार दिन तक 'आ रहा है'का बोर्ड लगा रहा तो मुझे नये तरीके की जानकारी मिली. शीर्षक लगा दो. प्रकाशित कर दो फिर उसे पूरा कर लो.
देबाशीष ने ब्लागरोल से लोगो की बार-बार चिट्ठा अपडेट करने की समस्या हल कर दी.नितिन ने संक्षेप में आतंकवाद की समस्या से निजात पाने के उपाय बताये.देवाशीष ने कई हल सुझाने के बाद अपनी आशंका जाहिर की:-
कैंसर का ईलाज़ नीम हकीम कर रहे हैं और रोग बढ़ा जा रहा है। डर कि बात यह है कि कहीं सही इलाज के अभाव में यह कैंसर कश्मीर को ही निगल न ले।
महीने की दूसरी उल्लेखनीय घटना रही जीतेन्द्र का बउवा पुराण.अभी जीतेन्दर ब्लागमेला से बाहर होने के सदमे से उबरे नहीं थे कि अतुल ने उनके बउवापुराण को भांग की पकौड़ी के कुल का बता दिया.उनकी छठी इंद्रिय बोली थी तब जब पोस्ट बाहर नहीं हुयी थी. उन्होंने जीतेन्दर को बताया तब जब बहुत देर हो चुकी थी.अपने को मुंहफट बताने के लिये भी उनको पत्नी का सहारा लेना पड़ा.मुझे अनायास यशपाल का लेख बीबीजी कहती हैं मेरा चेहरा रोबीला है याद आया.
बहरहाल जीतेन्दर ने फिर अच्छे बच्चे के तरह तड़ से माफीमांग ली.शुक्रिया अदा किया काबिल दोस्त का.वैसे मुझे जीतेन्दर से बहुत नाराजगी है.एक दिन मैंने अवस्थी को फोन किया.पूरे 168 रुपये खर्चा हुये.इसमें से 80 रुपये की बातचीत के दौरान अवस्थी मेरापन्ना का गुणगान करते रहे.इसके अलावा जीतेन्दर की उत्पादन गति इतनी महान है कि अक्सर यह खतरा मिट जाता है किचिट्ठा विश्व पर मेरा पन्ना के अलावा कुछ और दिखेगा.
फिर कुछ दिन मूड उखड़ा रहा जीतेन्दर का.ब्लाग उत्पादन मशीन दूसरोंकी गजलें उगलती रहीं.अभी दो पोस्ट आयीं हैं .लालूजी वाली पोस्ट अगर लालूजी देख लें तो शायद बुला लें उन्हें अपना कामधाम देखने के लिये.मेरा पन्ना में टिप्पणी पता नहीं क्यों गायब हो जाती है.ई कैसा टिप्पणी इन्वेस्टमेंट मैनेजमेंट है भाई.दूसरी बात जो ये बिंदियां जो दो वाक्यों के बीच में रहती हैं वो लगता है कोई शाक एव्जारबर हैं रेल के दो डिब्बों (वाक्यों)के बीच में.कभी-कभी असहज लगता है.यह बात मैं खुद कह रहा हूं .मेरी पत्नी का इसमें कोई रोल नहीं है.
अवस्थी लिखने के बारे में अपने आलस्य से कोई समझौता नहीं करते.किसी हड़बड़ी में नहीं रहते.सौ सुनार की एक लोहार की .
कभी लेजर में बैठ के सोचो कितना ऐनसिएंट कल्चर है इंडिया का . लैंगुएज, कल्चर, रिलीजन डेवेलप होने में, इवाल्व होने में कितने थाउजेंड इयर्स लगते हैं.
हमारे वेदाज, पुरानाज, रामायना, माहाभारता जैसे स्क्रिप्चर्स देखिये, क्रिश्ना, रामा जैसे माइथालोजिकल हीरोज को देखिये, बुद्धिज्म, जैनिज्म, सिखिज्म जैसे रिलीजन्स के प्रपोनेन्ट्स कहाँ हुए? आफ कोर्स इंडिया में.
होली, दीवाली जैसे कितने कलरफुल फेस्टिवल्स हम सेलिब्रेट करते हैं. क्विजीन देखिये, नार्थ इंडिया से स्टार्ट कीजिये, डेकन होते हुए साउथ तक पहुँचिये, काउण्टलेस वेरायटीज. फाइन आर्ट्स ही देखिये क्लासिकल डांसेज. म्यूजिक, इंस्ट्रूमेंट्स - माइंड ब्लोइंग
नेशनल लैंगुएज को रिच बनाने के इनके यज्ञ में सबने अपनी आहुति डाली.मैं कई बार पढ़ चुका हूं.कइयों को पढ़ा चुका हूं.एक नरेश जी तो पढ़ते-पढ़ते इतना हंसे कि लोग समझे कोई हादसा हो गया.फिर उन्होंने टिप्पणी लिखना सीखा तथा टिप्पणी लिखी.अब समय हो गया है.केजी गुरु के आशीर्वाद से आशा है जल्द ही ठेलुहा पर नयी पोस्ट अवतरित होगी.आशा है देवाशीष(जी)भी इनका समुचित प्रयोग करंगें.
रोजनामचा में चार लेख आये.चोला बदलकर पहचान बचाने का अचूक मंत्र के बारे में ब्लागमेला में लिखा जा चुका है.प्रवासियों के पहचान के संकट पर अतुल का लेख बेहतरीन था.पर शीर्षक मुझे कुछ जमता नहीं.मुझे लगता है कि अगर हम ही अपनी अपने तुलना कुत्ते से करेंगे तो दूसरा अगर करता है तो क्या गलत करता है.भौं-भौं करने की इतनी क्या जरूरत है?हालांकि अवस्थी कह चुके हैं यह बात.इसके बाद पार्किंग की समस्या मजेदार अंदाज में लिखा अतुल ने.चौथा लेख अनुगूंज के लिये है.उधर एच ओ वी लेन में भी अमेरिकी प्रवास के रोचक किस्से जारी हैं.बहुत सिलसिलेवार अंदाजमें किस्से चल रहे हैं.वैसे मेरी अपेक्षा यह है कि हो सके तो दोनों देशो की सामाजिक स्थिति की तुलना करते रहेंगे अतुल ताकि जो इनकी आंखों से अमेरिका देख रहे हैं वे बिना टिकट अनुभव व जानकारी हासिल कर सकें.
पंकज भाई, ब्लागमंडल के जूरी ,बहुत दिन तक नाच-नाच के दुनिया हिलाते रहे.अब जब हिलना बंद हुआ तो टूटे पत्तेसे होते हुये जहाज के पंछी हो गये.वैसे जहाज के पंछी वाली बात आत्मालाप (अपने से बातचीत)है:-
मेरो मन अनत कहां सुख पावै,.
जैसे उड़ि जहाज को पंछी फिर जहाज पर आवै
पर यहां बात दो लोगों से हो रही है.इसके लिये सूरदास जी कहतेहैं:-
उधौ मोहि ब्रज बिसरत नहीं,
हंससुता(यमुना) की सुंदर कगरी (किनारा)अरु कुंजन की छांही.
बिसरत नाहीं में एक सुविधा भी है कि उड़ने की मेहनत से बचाव हो जायेगा.याद आने में कोई मेहनत थोड़ी लगती है.
मुझे समझ नहीं आता कि माननीय जूरी महाशय बार-बारनामांकन काहे मांग रहे हैं-इंडीब्लागी अवार्ड के लिये.भाई आपको जूरी बनाया गया है.आपको हिंदी के सारे चिट्ठाकारों के बारे में पता है .फिर यह 'बुलौवा नामांकन' का किसलिये आर्यपुत्र?ये बात कुछ हजम नहीं हुयी.स्वदेस फिल्म के लिये देवाशीष की टिप्पणी काबिलेगौर है:-
खेद की बात है कि यह फिल्म पुरस्कार पाने और ओवरसीज़ बाज़ार के लिए ही बनाइ गई, नाम भी रखा “स्वदेस” स्वदेश नहीं। हम लोग गोरी चमड़ी और गोरों की बनाई हर चीज़, जैसे आस्कर, के इतने कायल हैं और फिल्मफेयर जैसे पुराने घरेलू पुरस्कारों को जूती पर रखते हैं। लॉबिंग आस्कर के लिए भी कम नहीं होती, पर घरेलू पुरस्कारों पर अक्सर बेईमानी का आरोप लगता है।
पंकज को बधाई कि अनुगूंज के लिये सबसे सटीक बात वो रख पाये -बमार्फत शर्माजी.
यह महीनाअक्षरग्राम के पुनर्जन्म का रहा.फिर पंकज गायब हो गये कुछ दिन के लिये. इसके बाद हावी रहा मानसिक लुच्चापन काफी दिन तक अक्षरग्राम में.पता नहीं अभी तक पंकज आये कि उनका भूत ही कर रहा हैलिखा पढ़ी!अक्षरग्राम की पहुंच के जलवे दिखे.अतुल खोज रहे घर किरायेदार के लिये.पार्किंग लाट की तरह उन्होंने देवाशीष की गाड़ी निकलने का इंतजार नहीं किया.अपनी गाड़ी घुसा दी अनुगूंज की.ये कुछ ऐसा ही है कि बड़ी बिटिया का होने वाला पति परदेश से आ रहा हो .इंतजार के फेर में न पड़कर कई बेटियों का बाप उचित वर मिलने पर छोटी बेटी के हाथ पीले कर देता .कहीं हाथ में आया हुआ लड़का न निकल जाये.बड़ी कि तय तो होही गयी है.बस करने की बात है.हो जायेगी.
हिंदी के आदि चिट्ठाकार का नौ दो ग्यारह मुझे टेलीग्रामिया चिट्ठा लगता है.कम से कम शब्द.थोड़ा कहा बहुत समझना वाला अंदाज.नयी जानकारी देते रहने के लिहाज से यह सूचना चिट्ठा भी है.देवनागरी,आस्ट्रेलिया की जानकारी के बाद विजयठाकुर का हाथ मांग लिया.फिर प्रजाभारत,फोन सेवा,मराठी व महावीर शर्मा की कविताओं की जानकारी देने के बाद जुआ खेलने के तरीके बताये.गाना सुना,क्रिकेट खेला फिर परिचय सुदूर जापान में हिन्दी में लिखने वाले मत्शु का दिया.'एक दिन में एक शेर' का परिचय जिस शेर से हुआ वह बार-बार इसे देखने को बाध्य करता है:-
ये धुआँ कम हो तो पहचान हो मुमकिन, शायद
यूँ तो वो जलता हुआ, अपना ही घर लगता है
प्रेमचंद की कहानियों के बाद सुनामी तूफान तथा फिर स्वामीजी के हिंदी टूल की सूचना.कुल मिलाकर यह गूगलचिट्ठा है जो अपने आप जानकारियां देता रहता है
स्वामी जी हिन्दी ब्लाग की नवीनतम सनसनी हैं.हिंदी लिखने में इन्हें मजा आया तो बना डाला टूल.अब इसकी पड़ताल ज्ञानी लोगकरें.
रमता जोगी बहता पानी ,इनको कौन सके विरमाय.कुछ यही अंदाजरहता है रवि रतलामी के लेखन का.सामाजिक स्थितियों से जुड़े लेख.प्रमाण के लिये अखबार की कतरन तथा विषयानुरूप गज़ल.इतनी जल्दी विषय के अनुरूप गज़ल लिख लेना काबिले तारीफ काम है.तकनीकी जानकारी वाले लेख के साथ जब वे याहू कहकर उछलते हैं तो अंदाजा लगता है कि गांगुली ने कैसे नेटवेस्ट सीरीज में जीतने के बाद अपनी शर्ट उछाली होगी.नेताओं के भाषणप्रेम के बारे में कहना है रवि का:-
नेताओं का कोई काम भाषण के बगैर हो सकता है क्या? वे खांसते छींकते भी हैं तो भाषणों में. वे खाते पीते ओढ़ते बिछाते सब काम भाषणों में करते हैं. कोई उद्घाटन होगा, कोई समारोह होगा तो कार्यक्रम का प्रारंभ भाषणों से होगा और अंत भी भाषणों से होगा. संसद के भीतर और बाहर तमाम नेता भाषण देते नजर आते हैं, और उससे ज्यादा इस बात पर चिंतित रहते हैं कि उनकी बकवास को हर कोई ध्यान से सुने
आशीष ने अपने माध्यम से शिक्षा जगत का जायजा लिया.आई.आई.टी.से लेकर प्राइमरी शिक्षा और कोचिंग के संजाल की पड़ताल की:-
खुद की प्राथमिक शिक्षा के अनुभव से, छात्रों को देख कर और उनसे सुनकर ये लगता है कि हमारा समाज जिस तरह से बच्चों को पढ़ाता है ये जिस तरह से स्कूलों में बच्चों को तालीम दी जाती है उसमें कहीं न कहीं कुछ बहुत बड़ी कमी है। बच्चों पर बस्ते का इतना बड़ा बोझ है कि उनका बचपन बरबाद हो जाता है। जे ई ई और इसके जैसी तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं ने आज शैक्षिक व्यवस्था की रीढ़ तोड़ दी है क्योंकि उसमें स्कूल या विद्यालय के योगदान का कोई स्थान नहीं है और साथ ही साथ उसने बचपन से लेकर आजतक जो कुछ सीखा उसका कुछ खास मतलब नहीं है अगर वो बच्चा उन मात्र नौ घंटों के इम्तहान में अच्छा नहीं कर पाता है। साथ ही साथ इस चीज कि बहुत बड़ा महत्व है कि उसकी शिक्षा का माध्यम क्या रहा है? इस तरह की प्रतियोगी परीक्षाओं की वजह से आज विद्यालयों की खुद की ज़िम्मेदारी कुछ नहीं रह गयी है, और ऊपर से जो कोचिंग और ब्रिलियंट या अग्रवाल जैसे संस्थानों की बाढ़ आयी है उसने तो समस्या को और भी कुरूप कर दिया है। शिक्षा की आढ़ में कुछ पब्लिक व कान्वेंट स्कूल क्या पढ़ा रहे हैं ये किसी नहीं छुपा है। और इन कोचिंगों के माध्यम से आने वाले छात्रों में एक वैज्ञानिक या अच्छा इंजीनियर बनने की कितनी इच्छा होती है वो आप समझ सकते हैं। पहला लक्ष्य है नौकरी कैसे भी मिलना वरना समाज क्या कहेगा। दूसरी बात जो बच्चे आते हैं उनमें ज्यादातर मध्यम वर्ग या उच्च मध्यम वर्ग से ही आते हैं जिनका कि सपना ही होता है या तो अमेरिका जाना या भारत में ही अपना एक अमेरिका बनाना और यहां की गरीब जनता के ऊपर पैसे की राज करना जैसा कि अमेरिका भी कर रहा है। स्कूलों में बच्चों को जितना ध्यान अंग्रेज़ी सिखाने के ऊपर दिया जाता है अगर उतना ही ध्यान बच्चों की नैसर्गिक प्रतिभा को उजागर करने में लगाया जाये तो आज हमारे समाज में विचारकों, वैज्ञानिकों, कलाकारों इत्यादि की कमी नहीं होगी। साथ ही बच्चे भी इस बात से खुश रहेंगे कि कम से कम वे वो काम कर रहे हैं जिसमें कि उनकी दिलचस्पी है। इसमें स्कूल के साथ साथ समाज व मातापिता का भी योगदान है। मातापिता को भी बच्चों को उसी दिशा में प्रेरित करना चाहिये कि जिसमें उसका झुकाव हो व अनावश्यक तुलनाओं से बचना चाहिये। हम चाहें कितने भी आई आई टी या आई आई एम बना लें केलिन जब तक स्कूली शिक्षा का उद्धार नहीं होगा तब तक किसी का कोई मतलब नहीं है।
इनके शनीचरी चिट्ठे पर बनारस,जहाज अपहरण,अनुगूंज तथा ठंड के बारे में लिखा गया.अब तो धूप निकल रही है रोज.शनिवार भी आ रहा है.लिखो कुछ नया.
राम-राम करके देश परदेश की बात कह के रमण ने आतंकवादी समस्या पर अपने विचार रखे.अनुगूंज में आतंकवादियों के प्रति उदार नजरिये से रमणसहमत नहीं हैं.लोगों के विचारों से शायद उनकी प्रतिक्रया-- जाके पांव न फटी बिवाई,सो क्या जाने पीर पराई है.इंतजार है उनके लेख का.
अपनी झंट जिंदगी ले के शांति भंग की की रमन ने.पाप नगरी टहलाया .फिर कविता में पाखाना किया.वैसे इस बारे में रागदरबारी (श्रीलाल शुक्ल)में बताया है:-
आबादी लगभग पचास गज़ पीछे छूट गयी थीऔर वह वीरान इलाका शुरु हो गया था जहां आदमी कविता, रहज़नी और पाखाना तक कर सकता था .परिणामस्वरूप कई एक बच्चे ,कविता और रहज़नी में असमर्थ ,सड़क के दोनो किनारों पर बैठे हुये पाखाना कर रहे थे और एक-दूसरे पर ढेले फेक रहे थे.
तो ऐसी ही किसी सड़क से गुजरे होंगे रमन और कविता भी कर दी होगी.
कालीचरन से हमें भरोसा है कि स्वामीजी की भाषा में उनके यहां टिप्पणी करने वाला मौजूद है. बाजी के बारे में जो कहा वही हुआ.जीवन सफल से इस महीने की शुरुआत की.दुबई चलो की हांक लगाई.सूरमा भोपाली के निठल्लेपन को देखकर आलोक को जुड़वां भाई लगे कालीचरण .अभी इसकी पुष्टि होनी बाकी है.इंद्र की फरमाइस पर लिखा,कालीचरण-विभीषण संवाद मजेदार लगा.चपड़के नाती ने गणित की महिमा बताई.बकझक के बाद बाजी मारी.रविराज और कालीचरण दोनो का गुरुकुल एक(आई.आई.टी.खड़कपुर) हैं.
मुझे कालीचरन,रमन और मत्सु के लिखने का बेलौस अंदाज अच्छा लगता है.मत्सु का रंगीन चिट्ठा मनमोहक लगता है.
अरुण ने बहुत दिन बादकविता लिखी.पढ़कर लगा कि हम हर स्थितिमें दुखी रहने के साधन तलाश सकते हैं बस चाह होनी चाहिये.मुझे आज ही सुना गाना फिर याद आ रहा है:-
बड़ा लुत्फ था जब कुंवारे थे हम-तुम
सुनो जी बड़ा लुत्फ था.
तत्काल एक्प्रेस दनादन दौड़ रही है-बाबा नागार्जुन,अज्ञेय जैसी विभूतियों को साथ लेकर.शोध क्षात्रायें टेलीफुनियाती है तो ठाकुर जीतेन्द्र का नाम नहीं बताते.बहुत नाइंसाफी है.कवितायें विजय ठाकुर जम के लिखते हैं.लोगबाग हाथ भी मांग चुके हैं.कविता चाय हो या वाक्य या फिर सुनामी लहरें ,लगता है कि अच्छी अनुदित कवितायें हैं.अनुदित इसलिये कि कविता में प्रवाह की कमी लगती है.ऐसा शायद तत्सम शब्दों के प्रयोग के प्रति आग्रह के कारण हो.आगे और अच्छी कविताओं का इंतजार है.
शैलअंग्रेजी ब्लाग की साईट देखने निकले तो अइसा निकले कि अभी तक नहीं लौट पाये.मद्य प्रदेश में फंस गये लगता है
पीयूष ने काफी दिन की खामोशी के बाद बात शुरु की स्पाइडर मैन से.फिर सिगरेट मंदिर का पता दिया.आई.टी.सी.वाले दौड़ पड़े मंदिर को फिल्माने.त्रासदियों के वर्णन के बाद वे बताते हैं ;-
इन दिनों मामला बड़ा अजीब हो गया है। जिसे जो समझो, वो वह नहीं निकलता है । जिसे मॉडल समझो वो कॉल गर्ल निकलती है, जिसे धुरंधर टीम समझो वो फिसड्डी निकलती है, जिसे कहीं न गिनो वो ओलंपिक का राज्यवर्धन सिंह राठौर निकलता है और जिसे हिन्दुस्तानी पुलिस समझो वो चोर का बाप निकलती है.
राजेश पूरे ढाई माह करते रहे भावी जीवन की तैयारी.इस बीच कैसे-कैसे समयगुजारा बताते है कविता के माध्यम से:-
कैसे-कैसे समय गुजारे,
कैसे-कैसे दिन देखे ।
आधे जीते,आधे हारे,
आधी उमर उधार जिये।
आधे तेवर बेचैनी के देखे,
आधे दिखे बीमार के।
प्रश्न नहीं था,तो बस अपना,
चाहत, कभी, नहीं पूजे।
हमने, अपने प्रश्नों के उत्तर,
बस,राम-शलाका में ढूँढे।
कामना है कि राजन जब भी रामशलाका प्रश्नावली की शरण लें तो हर बार उनको पहली चौपाई मिले-
सुनु सिय सत्य असीस हमारी
पूजहिं मनकामना तुम्हारी.
फुरसतिया में कृपया बायें थूकिये मेरा कुछ साल पहले का लेख था.दूसरा लेख अनुगूंज के लिये लिखा गया.तीसरा आपबीती-जगबीती.
इतना लिखने के बाद कुछ और बचता नहीं इस साल.छूट गये चिट्ठों/पोस्टों के लिये भूल-चूक,लेनी-देनी.
नये साल की शुभकामनायें इस खूबसूरत कविता के माध्यम से.
नये साल की देहरी पर मुस्काता सा चाँद नया हो
नये मोतियों से खुशियों के, दीप्त सीप नैनों के तेरे.
हर भोर तेरी हो सिन्दूरी, हर साँझ ढले तेरे चित में
झंकार करे वीणा जैसी, हर पल के तेरे आँगन में.
जगमग रोशन तेरी रातें झिलमिल तारों की बारातों से
सूरज तेरा दमके बागों में और जाग उठे सारी कलियाँ.
रस-प्रेम लबालब से छलके तेरे सागर का पैमाना
तेरी लहरें छू लें मुझको सिक्त जरा हो मन अपना.
महकाये तुझको पुरवाई, पसरे खुशबू हर कोने में
वेणी के फूलों से अपने इक फूल बचाकर तुम रखना.
कोई फफोला उठे जो मन में, बदली काली आये कोई
टीस और बूँदें पलकों की, निर्द्वंद नाम मेरे कर देना.
सजा रहा हूँ इक गुलदस्ता नये साल की सुबह-सुबह मैं
तकती क्या हो, आओ कुछ गुल तुम भी भर लो न !!
--विजय ठाकुर
आज ही नए साल का रङ्गारङ्ग कार्यक्रम शुरू और समाप्त? बढ़िया है। चलिए हम भी होते हैं नौ दो ग्यारह।
ReplyDeleteशुक्ला जी,
ReplyDeleteनामांकन की बार बार हांक लगाने का मामला कुछ वैसा था कि चूहे को हल्दी की भेली मिल गई और वह अपने को पंसारी समझने लगा। बंधुवर वह हांक और लोग जो हिन्दी छोड़कर अन्य श्रेणियों के लिए नामांकन भेजना चाहते थे के लिए थी। काफी सफल रही पूरे तीन नामांकन आएं हैं।
आप की प्रविष्टि बड़ी पंसद आई मैं नहीं मेरी प्रिया भी खुलकर हंसी। अभी जरा फिसकिंग के लिए तैयार हो जाइए।
पंकज
अपने फुरसतिया जी, जब भी लिखते है, तोप का गोला छोड़ते है..
ReplyDeleteहम सभी को इनके चिट्ठे का इन्तजार रहता है.
बहुत अच्छा लिखे हो भइया, दूसरो के चिट्ठों के बारे मे लिखना बहुत मेहनत का काम होता है, और काफी महारत चाहिये होती है. मुझे खुशी है कि आप मेहनती और महारथी दोनो ही हो.
लगे रहो....
मान गये दोस्त, खींचने में आपका जबाब नहीं, बहुत सही लिखे हो!
ReplyDeleteहिन्दी चिट्ठाकारी के बगीचे के सारे फूलों कों एक ग़ुलदस्ते में डालने की आपकी पेशकश बहुत पसंद आई. आपने काफ़ी मेहनत और लगन से इस काम को बहुत ख़ूबसूरती से अंज़ाम दिया है. जरुर ये आपकी प्यार की मेहनत (labour of love) का नतीज़ा है.
ReplyDeleteइसी तरह से हिन्दी ब्लाग बिरादरी पर अपना प्यार बरसाते रहिये.
ब्लागजीन में आलोचक की पोस्ट के लिऐ मैं आपका नामांकन करता हूँ| भाई मान गये आपकी स्टाईल को| अब चाहे ब्लागर अवार्ड कोई भी ले जाये, हमें तो आपकी समीक्षा रूपी ईनाम मिल गया| वैसे भाईजान, जीतू भाई भी सच्चे मित्र हैं, हमारी कैसी भी आलोचना हो, दिल पे नही लेते| पर देख लीजीऐ आलोक अंकल की नौदो ग्यारह होने की फितरत अब भी नहीं गयी| खैर रही बात आपकी फोन काल की तो आपकी फोन काल का वार्तालाप भी प्रकाशित कर डालिऐ, जरूर मस्त होना चाहिऐ| पर भई आपको १८० की रकम तिड़ी होने का गम है मगर हमें गम है कभी आपसे बात नही हुई| उस दिन पंकज से पहली बार बात हुई तो यह जिक्र आया कि कम से कम यहाँ के वाशिंदो को तो एक बार गुफ्तगु करनी ही चाहिऐ| ईमेल से औपचारिकता बनी रहती है|
ReplyDeleteशुक्ला जी,
ReplyDeleteबहुत कठिन है डगर पनघट की.
दिल का हाल दिल कि ज़ुबां में बयां हो, मशक्कत कम नहीं!
और फिर आप-हम तो पनघट तक संग-ए-मरमर लगा देने पे उतारू हैं.
आपका ब्लॅग, आलोकजी के प्रयास, चिट्ठा विश्व, और बाकी कर्मठ सदस्यों के ब्लॅग्स से बहुत प्रेरणा मिलती है. अन्तर्यामी अर्धांगिनी नाराज़ थीं इतना समय कम्प्युटर पे काम करने पे - आपका ब्लॅग दिखा के छूटा हूं जैसे साईबर जमानत मिलि हो!