पिछलीपोस्ट लिखते समय लगा कि अगली पोस्ट में तफसील से लिखेंगे.पर सब हवा हो गया .इसीलिये संतजन कहते हैं कि आज का काम कल पर नहीं छोडना चाहिये.पर अब क्या करें छूट गया सो छूट गया.
यादें समेटते हुयी याद आयी एक और ठोस मादा पात्र.हमारे स्कूल से घर के रास्ते में बकरमंडी की ढाल उतर के थाना बजरिया के पास एक सुरसा की मूर्ति थी.मुंह खोले बडी नाक वाली.स्कूल से लौटते समय हम भाग के मूर्ति की नाक में उंगली करते.जो पहले करता वह खुश होता कि यह बेवकूफी उसने पहले कर ली.पर इसे तो कोई प्यार नहीं मानेगा इसलिये छोड़ा जाये इसे.
हमारे एक दोस्त हैं.स्वभाव से प्रेमीजीव .उनके बारे में हम अक्सर कहते कि दो अंकों की उमर वाली कोई भी मादा उनके लिये आकर्षण का कारण बन सकती है.दोनो की उमर के बीच का फासला जितना कम होगा और सम्बंधो(रिश्ते) में जितनी दूरी होगी यह संबंध उतना ही प्रगाढ होगा.कई किस्से चलन में थे उनके,जिनका प्रचार वे खुद करते.पर उनके बारे में फिर कभी.
तो हमारे साथ यह संयोग रहा कि किसी से इतना नहीं लटपटा पाये कभी कि किसी का चेहरा हमारी नींद में खलल डाल पाये या किसी की आंख का आंसू हमें परेशान करे तथा हम कहने के लिये मजबूर हों:-
सुनो ,
अब जब भी कहीं
कोई झील डबडबाती है
मुझे,
तुम्हारी आंख मे
ठिठके हुये बेचैन
समंदर की याद आती है.
आज जब मैं सोचता हूं कि ऐसा क्या कारण रहा कि बिना प्यार की गली में घुसे जिन्दगी के राजमार्ग पर चलने लगे.बकौल जीतेन्द्र बिना प्यार किये ये जिन्दगी तो अकारथ हो गयी .कौन है इस अपराध का दोषी.शायद संबंधों का अतिक्रमण न कर पर पाने की कमजोरी इसका कारण रही हो.मोहल्ला स्तर पर सारे संबंध यथासंभव घरेलू रूप लिये रहते हैं.हम उनको निबाहते रहे.जैसे थे वैसे .कभी अतिक्रमण करने की बात नहीं सोची.लगे रहे किताबी पढाई में.जिंदगी की पढाई को अनदेखा करके . कुछ लोगों के लिये संबंधों का रूप बदलना ब्लागस्पाट का टेम्पलेट बदलना जितना सरल होता है .पर हम इस मामले में हमेशा ठस रहे.मोहल्ले के बाद कालेज में भी हम बिना लुटे बचे रहे.
इस तरह हम अपनी जवानी का जहाज बिना किसी चुगदपने की भंवर में फंसाये ठाठ से ,यात्रा ही मंजिल है का बोर्ड मस्तूल से चिपकाये ,समयसागर के सीने पर ठाठे मार रहे थे कि पहुंचे उस किनारे पर जहां हमारा जहाज तब से अब तक लंगर डाले है.मेरी पहली मुलाकात अपनी होने वाली पत्नी से 10-15 मिनट की थी.उतनी ही देर में हम यह सोचने को बाध्य हुये जब शादी करनी ही है तो इससे बेहतर साथी न मिलेगा.दूर-दूर तक शादी की योजना न होने के बावजूद मैने शादी करने का निर्णय ले लिया.यह अपनी जिन्दगी के बारे में लिया मेरा पहला और अन्तिम निर्णय था,और हम आज तक अपने इस एकमात्र निर्णय पर फिदा हैं.---रपट पडे तो हर गंगा.
कहते हैं कि जीवनसाथी और मोबाइल में यही समानता है कि लोग सोचते हैं --अगर कुछ दिन और इन्तजार कर लेते तो बेहतर माडल मिल जाता.पर अपने मामले में मैं इसे अपवाद मानता हूं.
मेरे शादी के निर्णय के बाद कुछ दिन मेरे घर वाले लटकाये रहे मामला.न हां ,न ना.ये कनौजिया लटके-झटके होते हैं.शादी की बात के लिये लड़की वाला जाता है तो लड़के वाले कहते हैं---अभी कहां अभी तो हमें लडकी(शायद जिसने स्कूल जाना हाल में ही शुरु किया हो )ब्याहनी है.हमें एहसास था इस बात का.सो हम वीर रस का संचार करते हुये आदर्शवाद की शरण में चले गये.दाग दिया डायलाग भावी पत्नीजी से---हमारे घर वाले थोड़ा नखरा करेंगे पर मान जायेंगे.पर जिस दिन तुम्हे लगे कि और इन्तजार नहीं कर सकती तो बता देना मैं उसी दिन शादी कर लूंगा.हमें लगा कि महानता का मौका बस आने ही वाला है.पर हाय री किस्मत.घर वालों ने मुझे धोखा दिया.उनके इन्तजार की मिंयाद खतम होने से पहले ही अपनी नखरे की पारी घोषित कर दी.हम क्रान्तिकारी पति बनने से वंचित होकर एक अदद पति बन कर रह गये.
आदर्शवादी उठान तथा पतिवादी पतन के बीच के दौर में हमने समय का सदुपयोग किया और वही किया जो प्रतीक्षारत पति करते हैं .कुछ बेहद खूबसूरत पत्र लिखे.जो बाद में प्रेम पत्र के नाम से बदनाम हुये.इतनी कोमल भावनायें हैं उनकी कि बाहरी हवा-पानी से बचा के सहेज के रखा है उन्हें.डर लगता है दुबारा पढ़ते हुये--कहीं भावुकता का दौरा ना पड जाये.
उन्हीं किन्हीं दिनों किसी दिन सबेरे-सबेरे एक कविता लिखी जिसके बारे में हम कहते हैं पत्नी से कि तुम्हारे लिये लिखी है.
इतने संक्षिप्त घटनाक्रम के बाद हम शादीगति को प्राप्त हुये.दिगदिगान्तर में हल्ला हो गया कि इन्होंने तो प्रेमविवाह किया है. कुछ दिन तो हम बहुत खुश रहे कि यार ये तो बड़ा बढ़िया है.एक के साथ एक मुफ्त वाले अंदाज में शादी के साथ प्रेम फालतू में.
पर कुछ दिन बाद हमें शंका हुयी कुछ बातों से.हमने अपने कुछ दोस्तों से राय ली .पूछा--क्या यही प्यार है. लोगों ने अलग-अलग राय दी.हम कन्फूजिया गये.फिर हमारे एक बहुपाठी दोस्त ने सलाह दी कि तुम किसी के बहकावे में न आओ.ये किताबें ले जाओ.दाम्पत्य जीवन विशषांक की .इनमें लिटमस टेस्ट दिये हैं यह जानने के लिये कि आप अपने जीवन साथी को कितना प्यार करते हैं.इनको हल करके पता कर लो असलियत.हमने उन वस्तुनिष्ठ सवालों को पूरी ईमानदारी से हल किया तो पाया कि बहुत तो नहीं पर पास होने लायक प्यार करते हम अपनी पत्नी को.कुछ सलाह भी दी गयीं थीं प्यार बढ़ाने के लिये.
अब चूंकि परचे आउट थे सो हम दुबारा सवाल हल किये.मेहनत का फल मिला .हमारा प्यार घंटे भर में ही दोगुना हो गया.फिर मैंने सोचा देखें हमारी पत्नी हमें कितना चाहती है.उसकी तरफ से परचा हल किया.हमें झटका लगा.पता चला वह हमें बहुत कम चाहती है.बहुत बुरा लगा मुझे .ये क्या मजाक है?खैर पानी पीकर फिर सवाल हल किये उसकी तरफ से.नंबर और कम हो गये थे.फिर तो भइया न पूंछो.हमने भी अपने पहले वाले नंबर मिटाकर तिबारा सवाल हल किये.नंबर पत्नी के नंबर से भी कम ले आये.जाओ हम भी नहीं करते प्यार.
वैसे भी कोई कैसे उस शख्स को प्यार कर सकता है जिसके चलते उसकी दुकान चौपट हो गयी हो.शादी के पहले घर में मेरी बहुत पूंछ थी.हर बात में लोग राय लेते थे.शादी के हादसे के बाद मैं नेपथ्य में चला गया.मेरे जिगरी दोस्त तक तभी तक मेरा साथ देते जब तक मेरी राय पत्नी की राय एक होती.राय अलग होते ही बहुमत मेरे खिलाफ हो जाता .मै यही मान के खुश होता कि बहुमत बेवकूफों का है.पर खुशफहमी कितने दिन खुश रख सकती है.
रुचि,स्वभाव तथा पसंद में हमारे में 36 का आंकड़ा है.वो सुरुचि संपन्नता के लिये जानी जाती हैं मैं अपने अलमस्त स्वभाव के लिये.मुझे कोई भी काम निपटा देना पसंद है .उसको मनमाफिक न होने पर पूरे किये को खारिज करके नये सिरे से करने का जुनून.मुझे हर एक की खिंचाई का शौक है .बीबीजी अपने दुश्मन से भी इतने अदब से बात करती हैं कि बेचारा अदब की मौत मर जाये.
जब-जब मुझसे जल्दी घर आने को कहा जाता है,देर हो जाती है.जब किसी काम की आशा की जाती है ,कभी आशानुसार काम नहीं करता.जब कोई आशा नहीं करता मैं काम कर देता हूं.झटका तब लगता है जब सुनाया जाता है-हमें पता था तुम ऐसा ही करोगे.
जब बीबी गुस्साती है हम चुप रहते हैं(और कर भी क्या सकते हैं)जब मेरा गुस्सा करने का मन करता तो वह हंसने लगती है.परस्पर तालमेल के अभाव में हम आजतक कोई झगड़ा दूसरे दिन तक नहीं ले जा पाये.
एक औसत पति की तरह मुझे भी पत्नी से डरने की सुविधा हासिल है .हम कोई कम डरपोंक थोड़ी हैं.पर यह डर उसके गुस्से नाराजगीसे नहीं उसकी चुप्पी से है.ऐसे में हम लगा देते हैं 'अंसार कंबरी' की कविता:-
क्या नहीं कर सकूंगा तुम्हारे लिये,
शर्त ये है कि तुम कुछ कहो तो सही.
पढ़ सको तो मेरे मन की भाषा पढ़ो,
मौन रहने से अच्छा है झुंझला पड़ो
ये 36 के आंकड़े बताते हैं कि हमारे घर में ई.आर.पी.तकनीक बहुत पहले से लागू से है.किसी स्वभाव,गुण,रुचि की डुप्लीकेटिंग नहीं.
पर दुनिया में भलाई का जमाना नहीं.कुछ लोगों ने अफवाह उड़ा दी कि हम लोग बड़े खुश मिजाज है.लोगों के लिये हमारा घर तनाव मुक्ति केन्द्र बना रहा(जाहिर है मेरे लिये तनाव केन्द्र)शाहजहांपुर में.
ऐसे में व्यक्ति विकल्प खोजता है.मैंने भी कोशिश की.टुकड़ों-टुकड़ों मे तमाम महिलाओं में तमाम गुण चीजें देखीं जो मुझे लगातार आकर्षित करते रहे.पर टुकड़े,टुकड़े ही रहे. उन टुकड़ों को जोड़कर कोई मुकम्मल कोलाज ऐसा नहीं बन पाया आज तक जो मेरी बीबी की जगह ले सके.विकल्पहीनता की स्थिति में खींच रहे हैं गाडी- इश्क का हुक्का गुड़गुड़ाते हुये.
पत्नी आजकल बाहर रहती हैं.हफ्ते में मुलाकात होती है.चिन्ता का दिखावा बढ़ गया है हमारा.दिन में कई बार फोन करने के बाद अक्सर गुनगुनाते हैं:-
फिर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना,
चित्र उभरे कई किंतु गुम हो गये
मैं जहां था वहां तुम ही तुम हो गये
लौट आने की कोशिश बहुत की मगर
याद से हो गाया आमना-सामना.
साथ ही सैंकड़ो बार सुन चुके गीत का कैसेट सुन लेता हूं:-
ये पीला वासन्तिया चांद,
संघर्षों में है जिया चांद,
चंदा ने कभी राते पी लीं,
रातों ने कभी पी लिया चांद.
x x x x x x x x x x x x
राजा का जन्म हुआ था तो
उसकी माता ने चांद कहा
इक भिखमंगे की मां ने भी
अपने बेटे को चांद कहा
दुनिया भर की माताओं से
आशीषें लेकर जिया चांद
ये पीला वासन्तिया चांद,
संघर्षों में है जिया चांद.
पहली बार यह गीत संभावित पत्नी से तब सुना था जब हमारे क्रान्तिकारी पति बनने की संभावनायें बरकरार थीं, महानता से सिर्फ चंद दिन दूर थे हम.आज सारी संभावनायें खत्म हो चुकी हैं पर गीत की कशिश जस की तस बरकरार है.
मेरी पसंद
बांधो न नाव इस ठांव बन्धु!
पूछेगा सारा गांव , बन्धु !
यह घाट वही,जिस पर हंसकर,
वह कभी नहाती थी धंसकर,
आंखें रह जाती थीं फंसकर,
कंपते थे दोनो पांव, बन्धु!
वह हंसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी ,सहती थी
देती थी सबको दांव बन्धु !
बांधो न नाव इस ठांव बन्धु!
पूछेगा सारा गांव , बन्धु !
--सूर्यकांत त्रिपाठी'निराला'
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"टुकड़ों-टुकड़ों मे तमाम महिलाओं में तमाम गुण चीजें देखीं जो मुझे
ReplyDeleteलगातार आकर्षित करते रहे.पर टुकड़े,टुकड़े ही रहे. उन टुकड़ों को जोड़कर कोई मुकम्मल कोलाज ऐसा नहीं बन पाया आज तक जो मेरी बीबी की जगह ले सके.विकल्पहीनता की स्थिति में खींच रहे हैं गाडी- इश्क का हुक्का गुड़गुड़ाते हुये."
जय हो गुरुदेव! जय हो!! बोलबाले हैं प्रभु आपके, क्या अंदाज़ है. छा गए.
मेरी भी आभा इसमें है...
ReplyDeleteतबहिं हम कहे कि हर कुछ दिनो मे सुरसा की मूर्ति का मुँह लगातार चौड़ा क्यों हुए जा रहा था, आप ही अंगुली किये जा रहे थे. वैसे ये मूर्ति पेट्रोल पम्प के पास ब्रह्मनगर पर ही थी ना?
ReplyDeleteआप विचारे से क्रान्तिकारी थे, लेकिन शादी के मामले मे ना बन सके, उसका अफसोस रहेगा.
मेरे ख्याल से इस लेख को लिखने के पहले इसके ड्राफ्ट पर आपने लिखित अनुमति ले ली होगी.
ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत काम आये.
बहुत ही सुन्दर लेख लिखे हो बाबू.....बीबी को खुद पढाकर सुनाओगे तो चाय पकौड़े के साथ हलवे का भी इन्तजाम हो जायेगा.
सुंदर, अति सुंदर|
ReplyDeleteस्वामीजी बडी पैनी नजर है आपकी.पिछली पोस्ट का सबसे कमजोर वाक्य पकडा अब जिसके लिये लिखा वह सबसे ज्यादा अच्छा लगा मुझे भी.मिर्ची सेठ जरा खुलासा करें अपनी बात का.हम तो 'आभा' का श्लेष अलंकार के हिसाब से अपने मन से कयाश लगा रहे हैं.जीतू बाबू,हम ड्राफ्ट अप्रूव नहीं कराते किसी से(करायेंगे तो कुछ भी न पोस्ट कर पायेंगे)कभी-कभी पोस्ट करने के बाद पढा देते हैं.यह भी लेख सुना दिया गया--तीन/चार किस्तों में.अतुल से शुक्रिया के अलावा क्या कहें
ReplyDeleteशुकुल, बहुत सही रहा ये वाला. एकदम वो मारा!
ReplyDeleteचांद वाली कविता किसकी है, तनिक पूरी पोस्ट की जाय.
मीटिंग महिमा से लेकर अब तक मामला बहुत टनाटन चल रहा है. हमें लगता है कि भोगे हुए यथार्थ में ज्यादा मौज आती है.
जितेन्दर, इसीलिये मिर्जा से लेकर सारे कनपुरिया किस्से चकाचक रहे.
शुक्ला जी, इतना बढ़िया वर्णन पढ़ के मज़ा आ गया। आपके हुनर की जिनती दाद दी जाये वो कम है।
ReplyDeleteYah padh kar aisa laga kash main bhi kuchh likh sakataa.waise by the way main isme kahan huin?
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा वर्णन लिखा है आपने। मैने अपनी पत्नी को इस लेख की कड़ी भेज दी है।
ReplyDeleteबहुत उम्दा !
ReplyDeleteबीबीजी अपने दुश्मन से भी इतने अदब से बात करती हैं कि बेचारा अदब की मौत मर जाये--
पर्चे हल कर के प्यारी का मापन सही मज़ेदार किस्सा है ।
आप्के विनोदी स्वभावऔर लेखनी का चुटीलापन भा गया ।
जब लिखते है तभी सिक्सर लगाते है ।
धन्य है ं:)
अनूप जी आप की प्रेम गाथा क वर्णन बहुत ही रोचक है( प्रेम गाथाएं अक्सर रोचक ही होती हैं) पर मय गीतों के इसमे चार चाँद लग गये। भगवान करे आप की पत्नी जैसी गुणी पत्नी सबको मिले। वैसे (हल्के में) एक बात बताइए, क्या आप की सभी पोस्ट आप की पत्नी मोडरेट करती हैं? तब ये पत्नि महिमा गान जरुरी है। आप का लेख बहुत बैलेसड है, बधाई, बहुत सुन्दर है।
ReplyDeleteसुनो ,
ReplyDeleteअब जब भी कहीं
कोई झील डबडबाती है
मुझे,
तुम्हारी आंख मे
ठिठके हुये बेचैन
समंदर की याद आती है.
"wowwww what a wonderful love story ha ha ha ha haha hahaha"
प्रेम की एक अनूठी कथा और पढ़कर सोच रहा हूँ कि ये वाक्य ऐसी हर कथा चिर-सत्य तो नहीं-"एक औसत पति की तरह मुझे भी पत्नी से डरने की सुविधा हासिल है"?
ReplyDeleteइस "वासंतिया चांद" को पढ़कर एक अजीब सी हूक उठी...अब धुन सुनने को मन बेचैन हो उठा है। वैसे किसकी लिखी है, कुछ पता चल जाये अगर...
रमेश यादव जी की
DeleteRamesh yadav ji
Deletekoi bata sakta h, peela basantiya book puri padhne k liye kaha se mil sakti h
Deleteसुनो ,
ReplyDeleteअब जब भी कहीं
कोई झील डबडबाती है
मुझे,
तुम्हारी आंख मे
ठिठके हुये बेचैन
समंदर की याद आती है.
अभिव्यक्ति का यह रूप; आप तो समुन्दर खँगाले हुए प्रेमी हैं।
पहले आपकी कविता का यह टुकडा ---
ReplyDelete'' अपनी हर धङकन पर
मुझे सिहरन सी होती है
कि कहीं इससे चौंककर
तुम ,
फूल से नीचे न ढुलक जाओ. ''
---------- हर सात्विक - प्रेम में यह भावना आती ही है .. लेकिन यह रचना ही तो
अमर कर देती है .. इससे ! .. चिंता से चिंता ही उबार देती है .. कविता में अनुभव
की सघनता है , सौन्दर्य है , ठीक गुलाब की पंखुरी पर राखी ओस की बूँद जैसा !
.
@ आदर्शवादी उठान तथा पतिवादी..............दुबारा पढ़ते हुये--कहीं
भावुकता का दौरा ना पड जाये.
---------- उन क्षणों के साक्षी है वे पात्र जिसके मोल उन क्षणों में जिए
व्यक्ति ही समझ सकते हैं .. यकीन मानिए वे भावुकता के दौरे नहीं लायेंगे..
वे हर पाठ में वैसे ही समृद्ध करेंगे जैसे कोई खूबसूरत कविता हर पाठ के बाद
समृद्ध करती है पाठक को ..
.
वैसे जिस स्थिति में आप थे वहाँ आपके क्रांतिकारी बनने के पूरे चांस थे ..
पर घर वाले पर्याप्त समझदार थे और होते भी हैं ''कान्यकुब्ज कुल कुलांगार'' !
हाँ सरजूपारीन तो अभी कई मामले में लकीर-जीवी बने हुए हैं !
.
वाकई भाव विह्वल करने वाला लेख है .. पढ़कर अच्छा लग रहा है ... और हाँ
केदार नाथ अग्रवाल की प्रेम-कवितायेँ तो आपने पढी ही होंगी .. उनकी याद आती रही आपको
पढ़ते हुए ..
..................... सुन्दर !!!
कुछ फुरसत से किया होता प्रेम। दस पन्द्रह मिनट में ही प्रेम व शादी दोनों का निर्णय हो गया। आप धन्य हैं।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
peela basantiya chand , book kaha se aur kaise mil sakti h.
ReplyDeletekoi sahayta kare.