बडी आफत है.सबरे अनुगूंजिये कहते हैं अतीत के बारे में लिखो.कोई कहता है प्यार के बारे में लिखो,कोई कहता है चमत्कार के बारे में लिखो.अब नींद खुली अवस्थी की बोले- बचपन के यार के बारे में लिखो.अतीत गरीब की लुगाई हो गया,सब छेड रहे हैं.
यह भी कहा गया बचपन के यार के बारे में लिखो.तो बचपना कब तक माना जाये?कुछ लोगों का बचपना बुढापे के साथ जवान होता है.हम अपना बचपना कहां तक माने ?कुछ साफ नहीं है.सब गोलमाल है. हमने पूंछा पत्नी से बचपना कहां तक लिया जाये.बोली तुम भविष्य की बात अभी से कैसे लिखोगे–का कौनो ज्योतिषी हो?हमने पूंछा क्या मतलब? बोली बचपने का स्कोप तो हमेशा रहता है.तुम उमर वाला बचपना लेव.काहे से कि दिमाग के बचपने के लिये तो तमाम टेस्ट कराने पडेंगे.उमर १६ साल तक ले लेव काहे से कि उसके बाद मामला किशोरावस्था की सीमा रेखा लांघ जाता है.
बहरहाल,गये हम अतीत के तलघर में.झाड़-पोंछकर इकट्ठा की कुछ यादें.वही यहां छितरा रहे हैं.
शरद अग्रवाल हमारे सबसे पुराने दोस्त हैं.हम कक्षा एक से पांच तक साथ पढ़े.शरद और हमें रामचरितमानस की चौपाई याद करने का चस्का शायद एक साथ लगा.गुरुजी,क्लास में अन्ताक्षरी कराते.हम लोग एक तरफ रहते , पूरी क्लास एक तरफ.फिर भी हम कभी हारे नहीं. गुरुजी रोज हमें दोपहर के बाद कबड्डी खिलाते.हम लोग एक तरफ रहते.मैं लोगों को अपने पाले में पकडने में माहिर था.शरद को दूसरे पाले में लोगों को छूकर जिन्दा वापस लौट आने में महारत थी.पता नहीं कितनी सांसे लेता रहता वह.देर तक कबड्डी-कबड्डी बोलता रहता धीरे-धीरे.बहुत कम ही होता ऐसा कि हम हारे हों.
आज जब बताया कि शरद अब प्यार,चमत्कार के बाद बचपन के यार पर लिखना है कुछ बताओ.तो बोले –अनूप भाई, मेरा पहला प्यार तो तुम हो.हम शरमा गये.’यू नाटी’ तक न बोल पाये.इसी क्रम में पता चला कि शरद के बेटे का जन्मदिन २२ मार्च को है.बोले- आना.हम बोले बेटा तो बाद में पहले शादी तो रेगुलराइज कराओ.बोले –आओ.यह संयोग है कि एक ही शहर में रहने,तथा अक्सर मुलाकात के बावजूद मैं अपने बचपन के यार की पत्नी का अभी तक दीदार नहीं कर पाया.
स्कूल पांच तक ही था.गुरुजी की सलाह पर हम भर्ती हुये जी.आई.सी.में– क्लास ६ में.हम रहते थे गांधीनगर में.पैदल जाते स्कूल.साथ में जाते संतोष बाजपेयी.संतोष रहते थे रामबाग में.प्रभात शिशु सदन के पास.मैं उसकी गली में नीचे से आवाज लगाता.फिर साथ-साथ जाते.
स्कूल में हम खूब खेलते. पूरी क्लास के साथ स्कूल के मैदान में गुल्ली डंडा , क्रिकेट खेलते.दिन भर खेलते.बस्ते का विकेट बनाते.चन्दा करके बाल खरीदते.गुल्ली डंडा सस्ते में आ जाता.कबड्डी वगैरह भी खेलते.संतोष थोडा तेज स्वभाव के थे.लड जाते गुस्सा आने पर.एक बार किसी बात पर हम लोगों की बोलचाल बंद हो गयी.हमारे साथ आना-जाना बदस्तूर जारी रहा.खाली बोलते नहीं.करीब एक महीने बाद संतोष की मम्मी ने मुझे ऊपर बुलाया.पूछा-क्या बात है तुम लोग बोलते नहीं.तुरंत बोलचाल शुरु हो गयी.आज जब पूंछा कि याद है किस बात पर बोलचाल बंद हुयी थी तो बोले यह तो नहीं याद है किस बात पर पर हम लोग बहुत दिन तक नहीं बोले थे.
वहीं मिले अजय सिंह.हम आगे पीछे बैठते इम्तहान में.अजय की अंगरेजी बढिया थी.मेरी कमजोर.हम क्लास ६ में अंग्रेजी से पहली बार मिले.हम बाकी विषयों में सहायक होते.
राजीव मिश्रा भी घर के पास ही रहते थे.हम सब साथ-साथ जाते.राजीव की हिंदी .अंगरेजी की राइटिंग बहुत अच्छी थी.राजीव बोलने में भी माहिर था.अभी पिछले हफ्ते बहुत दिन बाद मुलाकत हुयी.
बहुत सारे नाम याद आते जा रहे हैं.मुन्ना का घर वहीं स्कूल में था.उसके पिताजी वहीं स्कूल के अहाते में रहते(आज भी)उसका घर हमारे लिये 'ट्रान्जिट एकमोडेशन' जैसा था.वहीं हम सारा सामान रखते खेल का.
मैं जब भर्ती हुआ था स्कूल में तो मेरी पोजीशन शायद सबसे नीचे थी.बाद में मैंने मेहनत की.दोस्त मुझे बहुत सहयोग करते जब मैं निकला हाईस्कूल करके तो मेरी पहली पोजीशन थी स्कूल में.
हाईस्कूल के बाद मैने दाखिला लिया बी.एन.एस.डी. में.सेक्शन एफ-1.इस सेक्शन में दाखिले के लिये हाई स्कूल में कम कम 75% नंबर चाहिये होते थे.जितने बढिया अध्यापक मैंने इन दो सालों में देखे उतने जिन्दगी में कभी एक साथ सब मिलाकर नहीं देख पाया.ना पहले ना बाद में.सारे अध्यापक धुरंधर.लडके पढाकू.मैं अपने किसी दोस्त को नहीं जानता जो आगे-पीछे इंजीनीयर ना हो गया हो.मुझे लगता है कि दुनिया में अगर किसी एक क्लास से सबसे ज्यादा इन्जीनियर कहां से बने जैसी कोई स्टडी हो तो निश्चित तौर पर बी.एन.एस.डी.के सेक्शन एफ-1 का नंबर पहले कुछ स्थानों में होगा.
मुझे याद आ रहा है मेरे क्लास का एक वाकया.केमिस्ट्री की प्रैक्टिकल क्लास चल रही थी.सुनील कुशवाहा एक लडकाशर्ट ,पैंट में नहीं खोंसे था.अध्यापक ने कहा शर्ट अन्दर करो.उसने कहा -सर ,आदत नहीं है.गुरुजी ने एक कन्टाप मारा.कहा बहुत हीरो बनते हो.कितने नंबर थे हाईस्कूल में? वह बोला–384/500.गुरुजी बोले –इन्टर में 300 भी नहीं आयेगें.बालक उवाच–सर लिख लीजिये,400 से ज्यादा आयेंगे.गुरुजी ने फिर एक कन्टाप मारा –कहा जवान लडाते हुये.जब रिजल्ट निकला तो उसके 407 नंबर थे.मेरिट में सातवीं पोजीशन.
वहीं हमारी मुलाकात हुयी बाजपेयीजी से .गुरुजी अंग्रेजी पढाते थे.खोजते थे कि किन बच्चों के नंबर फिजिक्स, केमिस्ट्री, गणित में अच्छे आये हैं.अंग्रेजी पढाने के लिये निशुल्क बुलाते.एक महीना पढाते .कहते मैं तुम्हें लिखने को दूंगा तुम लिख के लाना.मैं जांचूंगा.इस एक घंटे के उनके साथ के दौरान वे हमको इतना उत्साहित कर देते कि हमे लगता कि हम किसी से कम नहीं हैं.बाजपेयी जी हम लोगों को मानसपुत्र कहते.उनके उत्साहित करने का परिणाम हुआ कि उस साल हमारे क्लास में दस में से तीन पोजीशन आयीं इंटर में.यह उनका दिया हुआ उत्साह है कि आज भी लगता है दुनिया में ऐसा कोई काम नहीं है जो कोई दूसरा कर सकता है और मैं नही कर सकता. यह विषयान्तर हो गया.इस बारे में फिर कभी विस्तार से.
वहां मेरे सबसे बढिया दोस्तों मे रहे लक्ष्मी बाजपेयी, रविप्रकाश तथा अखिल वैश्य.लक्ष्मी तथा रवि मेरे घर के आसपास रहते.अखिल दूर रहता था.लक्ष्मी,रवि तो मिलते रहते हैं.अखिल का पता नहीं.कहीं किसी शहर में अमेरिका के बैठा होगा किसी कम्पयूटर के सामने.
बहुत सारे दोस्त याद आ रहे हैं.बहुत याद आयेंगे.उनकी बारे में फिर कभी विस्तार से.दोस्तों को याद करने पर एक मजेदार वाकया याद आया.एक बार किसी दोस्त ने मुझसे कहा.मैं तुमको बहुत याद करता हूं.मैने कहा–याद करते हो तो कोई अहसान तो नहीं करते.याद करना तुम्हारी मजबूरी है .मैं भी याद करता हूं तो कोई प्लान बनाकर थोडी याद करता हूं.अपनी अभी तक की जिन्दगी के सबसे बेहतरीन समय को अगर मैं चुनूं तो पाता हूं कि ऐसे बेहतरीन लम्हे सबसे ज्यादा मुझे मेरे दोस्तों के बीच मिले हैं.दोस्त की दौलत मेरे लिये वह ताकत रही हमेशा कि मैं अपने आपको शहंशाह समझता रहा हमेशा.आज भी मैं कभी-कभी मजाक में कहता हूं –दुनिया के हर शहर में मेरे आदमी फैले हैं.यह पोस्ट मैंने बहुत अनिच्छा के साथ लिखनी शुरु की थी–यह सोचकर कि अवस्थी का आमंत्रण —जरूरी है लिखना.अब लगा रहा है कि बहुत कुछ लिखा जाना रहा गया जो मैं स्थगित करता रहा.दोस्ती के बारे में लिखा है किसी नें:-
बात -बात में रातें की हैं
रात-रात भर बातें की हैं .
यह सिलसिला अंतहीन है.विस्तार से फिर कभी.फिलहाल इतना ही.
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बचपन की यादें ताजा हो गईं आपका लेख पढ़कर .. लेख अच्छा है .
ReplyDeleteभइये, तुम्हारा ब्लाग पढकर तो मानो बचपन इन्टरनैट पर उतर आया, वो क्या दिन थे यार!
ReplyDeleteना किसी बात की चिन्ता ना फिक्र, बस मन की मर्जी चलती थी. वो गोपाल टाकीज मे नयी फिल्म के पोस्टर देखने हो या फिर सिन्धी हलवाई के गुलाब जामुन खाने के लिये पैसे इकट्ठे करना, कभी नही भूल सकते हम कि कैसे मास्टर श्यामसुन्दर ने हमारी पिटाई की थी.कसूर सिर्फ इतना था कि हम दीवाल पर पेन्सिल से लिख रहे थे.मै बचपन मे कक्षा ३ तक आलमचन्द विद्या मन्दिर मे पढता था, जो लेनिन पार्क के पास, जैन मन्दिर के ठीक बगल मे है, अरे यार, बहुत मजा आता था, काफी सारी कथा तो लिख चुका हूँ, थोड़ी बहुत बाद मे लिखूंगा.
आजकल समयाभाव के कारण कमेन्टस ज्यादा नही लिख पा रहा हूँ, आशा है तुम समझोगे,मेरी प्रोबलम, वैसे ब्लाग तो कई कई बार पढता हूँ.
आनन्द आया पढ़कर...
ReplyDeleteBahut din baad aaj fir padha.. :)
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