http://web.archive.org/web/20110101200558/http://hindini.com/fursatiya/archives/100
देबाशीष चक्रबर्ती से बातचीत
कुछ दिन पहले शब्दांजलि में हमने साक्षात्कार की शुरुआत की थी। पहली बातचीत देबाशीष से की गई थी।आजकल देबाशीष अभी इंडीब्लागीस का
काम खत्म करके तमाम लोगों की तारीफ बुराई समेट रहे हैं। यह साक्षात्कार
जिन लोगों ने शब्दांजलि में नहीं पढ़ा उनके लिये खासतौर पर यहां पेश किया
जा रहा है-जस का तस।
[शब्दांजलि के इस अंक से हम अपने पाठकों के लिये खास स्तम्भ शुरु कर रहे हैं। यह खास स्तम्भ है हिंदी जगत की जानी-मानी हस्तियों से साक्षात्कार का । स्तम्भ की शुरुआत ऐसे शख्स से की जा रही है जिसे हिंदी ब्लाग जगत की तमाम गतिविधियों को शुरु करने तथा उनको जारी रखते हुये हिंदी चिट्ठाकारी को बुलंदियों तक पहुंचाने के लिये सतत प्रयत्नशील व्यक्ति के रूप में जाना जाता है । हिंदी ब्लाग नुक्ताचीनी तथा अंग्रेजी ब्लाग जेरोलर के लेखक देबाशीश चक्रबर्ती मेधावी ,मेहनती तथा हिंदी-अंग्रेजी भाषाओं पर जबरदस्त अधिकार रखते वाले व्यक्ति हैं। देबाशीष के बारे में उनके मित्र पंकज का मानना है- देबू 'गीक' टाइप शख्सियत है। जिनको नयापन आकर्षित करता है। चुनौतियां काम करने को उकसाती हैं। जहां चुनौती खत्म वहां रुचि समाप्त। देबू बेचैन रूह के परिंदे हैं जो हरदम कुछ नया,आकर्षक तथा उपयोगी करने को छटपटाते रहते हैं। हिंदी चिट्ठाकारी की लगभग सभी गतिविधियॊं वो चाहे अनुगूंज हो या बुनोकहानी.निरंतर हो या ब्लागनाद.ब्लागरोल हो या फिर चिट्ठाचर्चा सभी में देबाशीष का योगदान रहा है।इंडीब्लागर तथा चिट्ठा विश्व के तो ये पीर-बाबर्ची-भिस्ती-खर रहे हैं।
यही कारण है कि हिंदी ब्लाग जगत के जाने-माने लेखक रविरतलामी देबाशीष को हिंदी हिन्दी ब्लॉग जगत का पितृपुरूष मानते हैं ।
जब देबाशीष से साक्षात्कार के लिये अनुरोध किया गया तो तमाम व्यस्तताऒं के बावजूद तुरन्त तैयार हो गये। सारे सवालों के
जवाब ऐसे टाइप करके भेजे कि कहीं सुधार की गुंजाइस नहीं पायी गयी । इसी 'परफ़ेक्शनिस्ट अप्रोच के लिये देबाशीष जाने जाते हैं। आइये पढिये विविध विषयों पर देबाशीष चक्रवर्ती के विचार। शब्दांजलि के लिये देबाशीष से बातचीत की अनूप शुक्ला ने]
बचपन में किस रूप में जाने जाते रहे? पढ़ाकू, धीर-गंभीर या शरारती?
अनूप भाई,पहचान का पैमाना तो सापेक्ष ही होता है। जो नज़दीकी हैं, खास मित्र हैं, संबंधी हैं वे शायद मेरा मज़ाकिया और बातूनी स्वभाव जानते हैं, बाकी शायद धीर गंभीर और कुछ हद तक दंभी भी मानते हों, क्योंकि मूलतः मैं अंतर्मुखी हूँ और मित्रता करने में काफी समय लगता है। बाकी शरारतें तो बहुत कीं, मार भी खायी पर कह सकता हूँ कि शरारती शायद कम ही था।
जब दसवीं में म.प्र. में चौथा स्थान पाया तो कैसा लगा? इससे ज्यादा खुशी किसी उपलब्धि हासिल करने में हुई?
यह तो काफी पहले यानी १९८७ की बात है, स्कूली शिक्षा के दौरान मेधावी छात्र माना जाता रहा था शायद इसलिये बात का महत्व तब समझ नहीं आया, प्रदेश के मुख्यमंत्री का बधाई संदेश, अखबारों में चित्र परिचय से माता पिता ज्यादा गौरवान्वित होते रहे। हाँ ज्यादा खुशी २००० में हुई जब मैंने नौकरी छोड़ कर सी.डैक का कोर्स पूर्ण किया। विवाहित था। स्वयं के पैसे और कैरियर दांव पर लगा था और निर्णय स्वयं का ही था शायद इसलिये परिणाम ज्यादा मीठे लगे। साथियों और माता पिता व जीवनसाथी सभी की दाद भी मिली। काफी रिस्की काम था, बस मलाल यही रहा कि सूचना प्रौद्योगिकी की गाड़ी पकड़ने में ५ साल गंवा दिये।
हॉस्टल के अनुभव कैसे रहे? हॉस्टल के किन्ही दोस्तों से अभी भी संपर्क हैं?
वे चार साल तो स्मरणीय दिन हैं, पहली बार घर से बाहर रहा। जब डिग्री मिल जाने के बाद शहर छोड़ने का मौका आया तो लिपट कर खूब रोया भी यारों से। ‘ईग्रुप्स’ व ‘वेबसाईट्स’ के ज़रिये अब भी यदा कदा संपर्क बना रहता है। जो अपने ही शहर के हैं उनसे तो मेल मिलाप बना ही रहा। कुछ यहाँ पुणे में भी हैं। इतनी नौकरियाँ छोड़ने के बाद कई बार तो याद करना पड़ता है कि फलां परिचित का नाता कहाँ का है, कॉलेज का, कि पहले जॉब का कि सीडैक का या…।
कालेज में जो भित्ति पत्रिका(Wall Magzine) निकालते थे उसका विचार कैसे आया? उसकी आवृत्ति, भाषा, विषय क्या रहते थे आम तौर पर?
अपना प्रकाशन तो मैं हमेशा से चाहता था। तो मेरे एक खास मित्र के साथ यह विचार बना कि पत्रिका निकले, छपाई,’साइक्लोस्टाईलिंग’ का व्यय सहने की बात कॉलेज प्रशासन तुरंत टाल गया, सरकारी कॉलेज था तो सीमायें हमें भी मालूम थीं। तो सबसे सस्ता उपाय निकला कि इंजीनियरिंग की ड्राईंग शीट पर ही निकाला जाय, मित्र ने संभाला लेआउट और साज सज्जा का काम और हमने मोर्चा संभाला सामग्री का। पहला प्रयास था सो नाम रखा “द पायनियर“। अब तलाश की गई कैम्पस में ऐसे नोटिस बोर्ड की जिसमें शीशा साबुत हो, एक भी ऐसा बोर्ड मिला नहीं, अंतत: प्रिंसिपल साहब ने अपने आफिस के पास वाले बोर्ड के प्रयोग की अनुमति दी। बड़ा मज़ा आता था। भाषा, अंग्रेज़ी हिन्दी का मिश्रण होती थी। मेधावी छात्र-छात्राओं के साक्षात्कार, प्रोफेसरों के प्रोफाईल, कविताएँ, क्विज़, हास्य और विज्ञान से संबंधित विषय होते थे। काफी अंक निकले, कुछ तो मैंने सहेज कर रखे हैं अपने पास। फिर जब पढ़ाई का दबाव बढ़ा तो बंद भी कर देनी पड़ी। वैसे मेरे पिताजी अब भी मानते हैं कि इस ‘वॉल मैगेजीन’ की वजह से ही बी.ई. में मेरी आनर्स नहीं बनी।
तमाम ब्लागर दोस्त आपको दादा या चक्कू दादा भी कहते हैं। कभी दादा गीरी भी की क्या?
दादा तो बंगालियों के नाम के साथ अक्सर जुड़ जाया करता है। कुछ अब उम्र के तकाज़े से कह देते हैं। रही बात दादागिरी करने की तो भैया शादी के बाद तो दादागिरी करने की छोड़ो हर पति को बीवी की दादागिरी सहने की आदत डालनी पड़ती है।
कालेज से निकल के तमाम जगह नौकरी की। सबसे ज्यादा मनपसंद नौकरी कहां की रही?
नौकरी तो हर जगह की ठीक लगी, पर शायद मार्केटिंग का काम मेरे लिये या मैं इस कार्य के लिये उतना उपयुक्त नहीं था। अनुभव तो शॉप फ्लोर का भी लिया, प्रोडक्शन मैनेजमेंट का भी, विपणन का भी। पर आश्चर्य यह लगता है कि शुरुआती दिनों में कभी सूचना प्रोद्योगिकी में जाने की नहीं सूझी, हालांकि पाठ्यक्रम में पढ़ा पर कभी यह छुपा अनुराग सामने नहीं आ पाया। मेरी पहली नौकरी के दौरान एक कंप्यूटर संस्था ‘ईंवेंट्री मैनेजमेंट’ के लिये ‘फाक्सप्रो’ पर एक ‘कस्टम तंत्रांश’ बना रही थी, मैं ‘फंक्शनल’ जानकारी के लिये उनकी मदद करता था पर कई दफा में लॉजिक बनाने में भी सुझाव देता, एक दफा उनके संचालक महोदय सामने बैठे थे तो अनायास बोल पड़े, “बॉस आपको प्रोग्रामिंग में जाना चाहिये“। १९९५ में सीडैक के बंदे इंदौर आये थे, तब मैं वहीं से विद्युत सुरक्षा उपकरण के एक निर्माता एमडीएस स्विचगियर के लिये नियुक्त था। उन्होंने कहा कि पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिये हम “सी” का टेस्ट लेते हैं, मैं मुँह बना कर चला आया। फिर १९९९ में जाने क्या सूझी कि यही “सी” की एबीसी पढ़ी, अपनी ही जीवन संगिनी से, और आईटी का रुख किया, काश वे मुझसे चार साल पहले मिली होतीं।
अपनी पत्नी की काफी तारीफ की है आपने अपनी साइट में। यह पारिवारिक दबाव है या सच?
मैं अपने पूरे होशो हवास में खुदा को हाज़िर नाज़िर जान कर यह कहता हूँ कि मेरे जीवन को संवारने में मेरी श्रीमतीजी का भारी योगदान है (कितना भारी, यह मत पूछियेगा)। मिताली मेरी फ्रेंड फिलॉस्फर और गाईड रही है, हौसला मैं उन्हीं से पाता हूँ। इसके अलावा वे हमारी कुशल होममेकर तो हैं ही, वरना मेरा क्या होता।
आमतौर पर लोग मेल, सर्फिंग, चैटिंग से होते हुये ब्लाग तक आते हैं। आपका सफर कैसा रहा?
चैटिंग मुझे खास नहीं भाती। कार्यस्थलों पर ज्यादातर इसकी मनाही भी कारण रही इस मोहभंग का। मेरे जियोसिटीज़ पर कुछ जालस्थल थे जो अद्यतन रखता था, ईमेल के अकाउंट भी खूब बनाये पर टिकाऊ तो याहू का ही रहा। अमिताभ, जावा सर्टीफिकेशन, अपना होमपेज जैसे जालस्थल बनाते बनाते न जाने कब ब्लॉगर पर भी खाता खोल लिया पर शुरुवात रेडिफ ब्लॉग से की, फिर ब्लॉगर और फिर जेरोलर। अब लगता है कि ब्लॉगिंग न होता तो जाने कैसी होती ज़िंदगी।
काफी लोग अपनी ब्लागिंग की शुरुआत का श्रेय आपको देते हैं। कैसा लगता है यह सुनकर?
बड़ा ही अच्छा लगता है, आलोक का ब्लॉग देखकर मैंने पद्मजा का ब्लॉग बनवाया, वो तब वेबदुनिया में मेरी सहकर्मी थीं, नाम भी सुझाया, फिर रहा न गया तो खुद भी कूद पड़ा मैदान में। यूनीकोड के बारे में जानता तो था पर ब्लॉग में प्रयोग आलोक के जालस्थल से ही सीखा। फिर अतुल, जीतू, संजय, पंकज जैसे लोग आये। ये लोग तकनीकी रूप से काफी जानते थे तो काम आसान रहा पर तकनीक ही बाधा भी बनती है तो मदद ज़रूरी होती है। कई लोगों को यूनिकोड के प्रयोग को लेकर शंका होती है, कौन सा फाँट प्रयोग करूं, टाईप कैसे करूं…कई किसी फाँट के प्रयोग के इतने आदी हो जाते हैं कि यूनिकोड का प्रयोग जंचता नहीं, कुछ और ब्लॉगवेयर की सेटिंग इत्यादि से परेशान हो जाते हैं। मैं ज्यादातर ईमेल के ज़रिये उन्हें मदद और प्रोत्साहन देता रहा, सार्वजनिक फोरम और मेलिंग लिस्ट पर कई लोग पूछने से हिचकिचाते हैं। खुशी होती है जब वे धन्यवाद कहते हैं।
जिनको लिखना बताया नेट पर उनको रोज लिखते देख कैसा लगता है? गुरु गुड़ चेला शक्कर या कुछ और?
लिखना तो किसी को नहीं सिखाया, इतना योग्य भी नहीं मानता खुद को। सब गुणी हैं और अपने फ़न में माहिर, हर ब्लॉग का अपना अलग ज़ायका है। आज तक किसी को यह बताने की हिम्मत तो नहीं हुई कि भैया फलां लिखो या फलां न लिखो, बताने वाले हम हैं भी कौन, बस हाँ हिन्दी अंग्रेज़ी मिक्स करके लिखने वालों से गुज़ारिश ज़रूर की कि हो सके तो अलग ब्लॉग बना दो, कईयों ने कृतार्थ भी किया।
जो लोग नियमित लिखते हैं, विविध विषयों पर लिखते हैं, आशुकवि हैं, खूब पढ़ कर लिखते हैं, उनसे ईर्ष्या होती है, मैं टाईप करने के मामले में आलसी ठहरा, आफिस में होता नहीं, घर आकर मन कहता है कंप्यूटर का फेर छोड़।
हिंदी ब्लागिंग की अभी तक की लगभग हर गतिविधि में आपका योगदान रहा । सबसे ज्यादा खुशनुमा अनुभव क्या रहा?
मेरा सौभाग्य है कि मैं कई गतिविधियों से जुड़ा जो मैंने स्वयं या ब्लॉगबंधुओं के साथ शुरु कीं। चिट्ठा विश्व के निर्माण ने दिल को काफी सुकून दिया है और नया संस्करण वैसा ही बन पड़ा जैसा मैंने चाहा। इंडीब्लॉगीज़, अनुगूँज, बुनो कहानी, चिट्ठाकार समूह सब ही बढ़िया कार्य रहे पर निःसंदेह निरंतर मन को सबसे ज्यादा प्रिय रहा है और रहेगा।
किस अनुभव से कोफ्त होती है?
कोफ्त तो नहीं होती पर स्वभाववश मैं उकता जाता हूँ किसी भी एकरस से कार्य से, मेरे कई जालस्थल बरसों से अपडेट नहीं हुए, जिस काम में जब लग गया तो फिर रात-दिन वही सोचता रहता हूँ और जहाँ मन तृप्त हो गया या काम में आनंद मिलना खत्म हुआ कि लगता है बस अब अलग हो जाओ। जब काम में नित दिन चैलेंज मिलता है तो उत्साह बना रहता है।
निरंतर में मेहनत बहुत पड़ गयी आपको। समय का अभाव भी इसके प्रकाशन के स्थगन का कारण रहा । अभी भी क्या इसके प्रकाशन की संभावनायें बनी हैं? क्या न्यूनतम आवश्यक्तायें चाहिये?
यह सच है कि नौकरी के साथ मासिक पत्रिका निकालना, भले जाल पर ही सही, मुश्किल रहा। समयाभाव तो टीम के सभी सदस्यों को रहा ही। हम पेशेवर प्रकाशक या पत्रकार तो हैं नहीं सो ‘रिसोर्सेस’ का अभाव तो बना रहता ही है। मसलन, मेधा पाटकर का साक्षात्कार लेने में मुझे खासी परेशानी हुई, व्यक्तिगत मुलाकात कई दिनों टलने के बाद अंतत: फोन पर बात हुई पर रिकार्डिंग इतनी खराब हुई कि केवल ६० फीसदी ही छाप पाये। साक्षात्कारों के लिये कई नामचीन सीधे मना कर देते हैं, कई टालते रहते हैं तो कई जवाब ही नहीं देते। यदि आप फुलटाईम यह करें तो शायद काम आसान हो जाय। प्रकाशन की जिम्मेवारी भी महती है। एक अच्छी कॉपी बनाना, जालस्थल के अनुरूप साज सज्जा व प्रस्तुतीकरण में समय तो लगता है। अगर यह काम कोई और संभाल लेता तो भी शायद पत्रिका चलती रहती। सारा काम संपादक मंडल को स्वयं संभालना ही शायद भारी पड़ा।
हिन्दी में अच्छी मौलिक सामग्री का मिलना भी मुश्किल होता है। इसलिये हमारी ५० फीसदी निर्भरता अनुदित सामग्री पर होने लगी। जो हिन्दी में लिखते हैं, ज्यादातर साहित्य सामग्री ही दे पाते हैं, प्रकाशन की व्यग्रता भी रहती है, आपने छापने में एक महीना से ज़्यादा लगा दिया तो जनाब दूसरे ही दिन अपने ब्लॉग पर छाप देते हैं। ब्लॉग और पत्रिका का भेद समझना ज़रूरी है। जैसा व्यवहार आप किसी प्रिंट पत्रिका के साथ करते हैं वह वेब पत्रिका के साथ क्यों नहीं करते।पर जो बात मुझे और संपादक मंडल के भी कुछ सदस्यों को खलती रही वह है पाठक संख्या। मैं यह मानता हूँ कि निरंतर पर उल्लेखनीय संख्या में ब्लॉग नहीं करने वाले पाठक भी रजिस्टर हुए पर फिर भी पाठक से जिस संवाद की, निरंतर प्रतिक्रिया की अपेक्षा रही वह कभी भी पूरी नहीं हुई। मुझे आश्चर्य होता है कि किसी महिला ब्लॉगर के नितांत साधारण पोस्ट पर भी दर्जनों टिप्पणी कर सकने वाले पाठक क्या जल जीवन विशेषांकजैसे अंक को भी महत्वहीन मान कर कुछ कहना मुनासिब नहीं समझते। क्या हमें पाठक पाने के लिये अधनंगे चित्रों और पेज थ्री जैसी सामग्री छापनी पड़ेगी?
ब्लॉग के मुकाबले पत्रिका को किस रूप में देखते हैं?
ब्लॉग हो या पत्रिका या टीवी आजकल निर्माता व प्रकाशक इंटरेक्टिविटी को तरजीह देते हैं। पाठकों, दर्शकों की राय मिलती रहे तो प्रयास कैसा बन पड़ रहा है यह पता चलता रहता है इससे दिशा निर्धारण में मदद मिलती है। ब्लॉग तो बने ही बातचीत के तत्व को लिये, अगर कमेंट हटा दें तो ब्लॉग की आत्मा ही निकल जावे। ब्लॉग वे पार्टिसिपेटरी वेब के उदाहरण भी हैं। जब कई मस्तिष्क एक साथ काम करें, जब वृहद विचारों का विलय हो जाये तो, “भीड़ चतुर हो जाती है”। निरंतर को हमने इसी लिये ब्लॉगज़ीन का रूप दिया था, एक आनलाईन पत्रिका भी ब्लॉग भी। आवृत्ति तय है, स्तंभ तय हैं, कलेवर और दिशा तय है यह पत्रिका के गुण और हर लेख पर पाठक तुरंत वहीं राय ज़ाहिर कर सके, वार्तालाप हो सके, यह ब्लॉग का गुण।
पत्रिका की कुछ सीमायें होती हैं, कलेवर और संपादकीय नीति के अंतर्गत चलने की बाध्यता है, सदा सटीक और त्रुटिरहित रहने का अनुशासन पालन करना होता है, पर ब्लॉग में यह सारी हदें और मजबूरियाँ नहीं हैं, आप बेपरवाह हो कर लिख सकते हैं, हिज्जों और तथ्यों की गलतियाँ, अशुद्ध वर्तनी, बिंदास-अनसेंसर्ड-भाषा ब्लॉग में चलेंगी पर पत्रिका के जानकार पाठक नाक-भौं सिकोड़ेंगे। माध्यमों का अंतर है, शायद इसीलिये ब्लॉगरों का पत्रिका निकालने का प्रयास उतना सफल नहीं रहा।
चिट्ठाविश्व की कल्पना कैसे हुई?चिट्ठाविश्व की मेरी कल्पना में पहले पहल दो चीजें थीं ब्लॉग ऐग्रीगेटर और चिट्ठाकारों के परिचय। ऐग्रीगेटर का काम तो ब्लॉगडिग्गर की संयुक्त फीड ने आसान कर दिया। शुरुआत की २००३ में। फिर और चीजें जुड़ती गईं जैसे चिट्ठासूची, चिट्ठों के रिव्यू, ट्रिविया, अन्य भाषाओं के चिट्ठों से सुर्खियाँ आदि। लोगों ने रुचि दिखाई, आप जैसों ने योदगान दिया, तो जोश भी मिला और सुधार करने का। आज का चिट्ठाविश्व भारतीय भाषाओं के चिट्ठों की डाईरेक्टरी, ऐग्रीगेटर, चिट्ठाजगत की गतिविधियों का समाचार स्रोत, ब्लॉग आँकड़ों, ट्रिविया, टैगक्लाउड — जो हिन्दी ब्लॉगजगत में चल रहे विषयों का एक अनूठा चित्र प्रस्तुत करता है — जैसे अनेक प्रकल्पों का समागम स्थल है, अतिश्योक्ति नहीं होगी अगर इसे एक मिनी पोर्टल की संज्ञा दे दूँ। चिट्ठा चर्चा जैसे स्तंभों में आप की भागीदारी से यह और भी लोकप्रिय और मजबूत हुआ है।
हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की आज नेट पर क्या स्थिति है?
जाल पर चिट्ठों कि सही संख्या का पता लगा पाना टेड़ी खीर है। भारतीय भाषाओं में विशेषकर दक्षिण भारतीय भाषाओं में अपनी ही लिपि का ही प्रयोग कर जबरदस्त ब्लॉगिंग हो रही है। मैं बस उड़िया, पंजाबी जैसी कुछ भाषाओं के ही चिट्ठे नहीं खोज पाया अब तक। भारतीय भाषाओं में जालस्थलों की बात हो तो शायद स्थिति अलहदा हो, जो हैं ज्यादातर साहित्यिक पत्रिकायें हैं, या इक्का दुक्का पोर्टल। पर मेरे ख्याल से स्थिति काफी अच्छी है, बस “जानकारी की सटीक जानकारी होने” का ही अभाव है।
संभावनायें क्या हैं? सीमायें क्या हैं?
हमारे देश में हमने हर क्षेत्र में प्रगति अंग्रेज़ी का दामन पकड़ कर ही की है। हम विदेश में जाकर चीनी या जापानी कीबोर्ड पर काम करने को राजी रहते हैं पर अपने देश में हिन्दी कीबोर्ड की सोचना पिछड़ापन लगता है। मध्यप्रदेश जैसे हिन्दी बहुल प्रदेश में भी ऐसे कैफे खोज निकालना असंभव नहीं तो मुश्किल होगा जहाँ हिन्दी जालस्थल आसानी से देखे जा सकें। मुझे तो लगता है कि निज भाषा में कंप्यूटिंग का विचार कभी सरकारी योजनाओं में झलका ही नहीं। मैं सुनता आया हूँ कि लिनक्स के अवतरण से और सिंप्यूटर जैसे सस्ते माधयमों से कंप्यूटिंग का प्रसार होगा, ई गवर्नेंस परियोजनाओं से ग्रास रूट स्तर पर संचार क्रांति के फायदे महसूस किये जा सकेंगे, पर लगता है बातें कागजी ज्यादा हैं।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि कंप्यूटिंग के इस्तेमाल में शहरी और ग्रामीण स्तर पर काफी अमानताएं हैं। अव्वल तो यह कि गाँव देहात में जब बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएँ ही न हों तो कंप्यूटर, ईंटरनेट और ई-गवर्नेंस का ज़िक्र बेमानी हो जाता है, दूसरी बात यह कि जहाँ पहुँच है वहाँ इनका प्रयोग आसान और सटीक बनाना एक चुनौती है और जब तक ऐसे काम की ‘इकॉनामिक वायेबिलिटी’ न हो तो निजी क्षेत्र की कंपनियाँ इसमें हाथ डालेंगी नहीं, नतीजा सरकारी योजनाओं पर निर्भरता। और देश के नीति निर्धारक कैसे यह तय करते हैं कि क्या विकास योजनायें होंगी यह तो खैर लंबी बहस का विषय है। मैं तो इतना जानता हुँ कि अगर ईंटरनेट पर किसान को काम की जानकारी, मौसम का हाल, बीज-खाद के दाम और उपलब्धता, बाजार भाव सब पता चलने का तरीका मालूम चले तो वह कंप्यूटर का महत्व क्यों नहीं मानेगा। इसके बाद अगला कदम है जानकारी क्षेत्रीय भाषा में सुलभ कराना ताकि अंग्रेज़ी न जानना कंप्यूटर के प्रयोग में बाधक न बने। सब प्रशासकीय इच्छाशक्ति पर निर्भर होता है।
नेट पर हिंदी प्रसार की तात्कालिक जरूरत क्या हैं?
मुझे लगता है कि हिन्दी के प्रति रुचि बढ़ाने का एक बेहतर तरीका है कि हिन्दी साहित्य, अच्छे लेखकों की रचनाओं को मुफ्त मुहैया कराया जाय। स्कूल में अच्छी अंग्रेज़ी भाषा भी तो हमने उनके साहित्य से ही सीखी है। ज़माना ऐसा है कि हिन्दी साहित्य कोई खरीद के तो पढ़ नहीं रहा पर जाल पर मुफ्त में मिले तो शायद पढ़ें। जब अच्छा पढ़ेंगे तो अच्छा लिखेंगे भी। प्रयोग बढ़ा तो हिन्दी का प्रसार खुद ब खुद होगा।
जब हिंदी में ब्लागिंग शुरु हुयी थी तो बहुत कम लिखते थे लोग। अब लगभग रोज एक नया ब्लाग बन रहा है। १०० संख्या पार होने पर कैसा लगा?
बेहद खुशी का एहसास होता है कि लोगों के यूँ जुड़ते रहने से कारवां बनता गया, पर अभी तो यह आरंभिक दौर है, दक्षिण भारतीय ब्लॉगर ५०० का आंकड़ा पार कर गये हैं। हिन्दी चिट्ठाकारी के सैकड़ा पार करने पर यह कहना चाहूँगा कि संभवतः ऐसे बहुत होंगे जो इस पल की प्रतीक्षा कर रहे थे। जब हम रोजमर्रा की बातचीत हिन्दी में कर सकते हैं तो बातचीत के लहज़े में नेट पर हिंदी क्यों न हो, खुशकिस्मती से ब्लॉगिंग ने यह कर दिखाया है। चिट्ठाकारी में हिन्दी “हिन्दी दिवस” के समारोहों के उद्बोधनों सरीखी क्लिष्ट और अनोखी नहीं है। लेखन में नियमितता आने से हिन्दी के प्रयोग की हिचक भी दूर हो जाती है। हम हिन्दी में सोचना शुरु कर देते हैं। मैं हिन्दी बचाओ जैसे आंदोलनों में कभी भी विश्वास नहीं रखता । चंद निबंध, सुलेख या स्लोगन प्रतियोगिताओं से हिन्दी भला क्या लोकप्रिय होगी? प्रयोग से ही प्रसार बढ़ेगा और ब्लॉगिंग से हिन्दी ने यही डगर पकड़ी है ।
आपके ब्लॉग नुक्ताचीनी का अंदाज अक्सर धीर-गंभीर सा रहता है? क्या कारण है कि ब्लागिंग का खिलंदड़ापन अक्सर कम देखने को मिलता है?
आपका विचार सही है, मैं लिखते वक्त काफी ‘कांशियस’(सजग) हो जाता हूँ, लंबे पोस्ट तो लगभग हर बार पहले स्क्रैप बुक में लिखता हूँ फिर टाईप करता हूँ। लगता है यह लिखना सही होगा या नहीं। सच कहूँ तो उम्र के तकाज़े से लिखना चाहता हूँ। लिखने के बाद, यहाँ तक की पोस्ट करने के बाद भी कई दफा बदलाव करता रहता हूँ, जो पाठक फीड के माध्यम से मेरा ब्लॉग पढ़ते हैं वो इसका असर झेलते होंगे। तो इस सारी जोड़तोड़ में शायद हास्य का पुट खत्म हो जाता है। मेरी ब्लॉगिंग की एक कमी जो पाठक कहते भी रहते हैं कि मैं नियमित नहीं लिखता, इसका मूल तो आलस्य ही है, कई बार जब विषय दिमाग में खलल मचा रहे होते हैं अगर तभी कहीं नोट कर लूँ तो ध्यान रहे, पर ऐसा होता नहीँ और खयाल फुर्र हो जाते हैं, कई दफा लिखने में इतनी देर हो जाती है कि विषय ही बासी हो जाने की वजह से लिखना टालना पड़ता है।
मेरा मानना है कि अंग्रेजी के ज्यादातर ब्लागर अखबार से समाचार कापी करके अपने ‘एक्सपर्ट कमेंट’ मार देते हैं। क्या यह सच है?
इतने वर्षों में जितने ब्लॉग मैं पढ़ता हूँ उनमें यह बात तो सच है कि ज्यादातर सामयिक घटनाक्रम पर कमेंट्री करते हैं। चूंकि कई समाचार पत्रों के आनलाईन अंक ताज़ा तरीन खबरें लगातार प्रकाशित करते हैं तो कड़ी देना स्वाभाविक है। इस तरह से कई ब्लॉग, और इसमें लोकप्रिय ब्लॉग भी शामिल हैं, केवल लिंक ब्लॉग बन कर रह गये हैं। सच कहूं तो सामयिक धटनाक्रमों पर टिप्पणी और परिचर्चा जैसी जिव्हा के ब्लॉग पर होती थी वैसी भारतीय ब्लॉगजगत में न हुई और निकट भविष्य में इसके आसार भी नज़र नहीं आते।
वैसे यह व्यक्तिगत चयन की बात है। उद्धरण करें या नहीं, करें तो कितना करें, यह सब तय नहीं रहता और तय हो भी नहीं सकता। ध्यान देने की बात शायद यही है कि स्रोत का उल्लेख अवश्य करें और अपने लेख और उद्धरित सामग्री का भेद स्पष्ट रखें। यदि पूरा पोस्ट केवल उद्धरित सामग्री से ही पटी है तो मुझे नहीं लगता कि पाठकों में ऐसे ब्लॉग ज़्यादा दिन रुचि बनाए रख पायेंगे।
जो ब्लाग हिंदी में लिखे जा रहे हैं वे अंग्रेजी के ब्लाग के मुकाबले कहां ठहरते हैं? गुणवत्ता तथा विषय सामग्री में?
यदि लोग नाराज न हों तो पूरी विनम्रता के साथ यही कहूँगा कि अभी दिल्ली दूर है। हिन्दी के पचास फीसदी ब्लॉग तो कविता और कहानियों के ब्लॉग से अटे पड़े हैं। मेरा साहित्य से कोई बैर नहीं और यह लेखक की अपनी रुचि की बात भी है कि वह क्या प्रकाशित करें पर मुझे लगता है कि ब्लॉग का एक मुख्य तत्व है इसकी अप्रत्याशितता। और ब्लॉग की विषय वस्तु अगर विविध है तो आप का पाठकवर्ग निश्चित ही विशाल होगा। यही कारण है कि ब्लॉग में श्रेणियों कि सुविधा दी गई। अगर कोई नहीं जानें कि कल मैं किस विषय पर लिखूंगा तो जिज्ञासा बनी रहे शायद। मुझे इस लिहाज़ से सुनील दीपक का चिट्ठा बड़ा अच्छा लगता है। इसके ठीक उलट टॉपिकल (विषय केंद्रित)ब्लॉग का भी अपना आकर्षण होता है, यदि आप किसी खास विषय पर महारत या रुचि रखते है तो लोग विषय की खोज करते वक्त शायद आपको ज़ेहन में रखें। हिन्दी ब्लॉगजगत में ज्ञान विज्ञान जैसे चिट्ठों को छोड़ दें तो टॉपिकल ब्लॉग की खासी कमी है, खेल, अर्थनीति जैसे विषयों पर यदा-कदा ही लिखा जाता है। १०० में से शायद ५ या दस लोग ही ब्लॉग नियमित अपडेट करते हैं।
इंडीब्लॉगीज़ शुरु करने का विचार कैसे आया? बहुत दिन तक आपके ब्लागर दोस्त भी नहीं जानते थे कि यह कौन करता है।
इंडीब्लॉगीज़ शुरु तो ब्लॉगीज़ की तर्ज़ पर ही की थी। भारतीय ब्लॉगमंडल तब काफी छोटा था पर मुझे लगता था कि हर कोई सीमित दायरे में ही पढ़ पाता होगा। कई दफा ऐसा हुआ कि किसी ब्लॉग पर गया और उसके ब्लॉगरोल पर नज़र डाली तो एक भी जाना पहचाना नाम नहीं मिला, तब एहसास होता कि जैसे-जैसे ब्लॉगमंडल विस्तार पा रहा है हम कई अच्छे ब्लॉग पढ़ ही नहीं पाते, समय की कमी तो अलग बात है, उनके बारे में हम जानते तक नहीं। मैंने अपना नाम गुप्त इसलिये रखा क्योंकि मुझे लगा कि लोग समझेंगे कि मैं इससे कुछ लाभ पाना चाहता हूँ, पर मेरी सोच शायद गलत थी। मेरा नाम सामने न आने का बहाना लेकर कई लोग ,जानबूझकर,उलजलूल टिप्पणी करने लगे। निर्णयों की निष्पक्षता पर आपत्ति करने लगे। जब मैंने २००४ के आयोजन के लिये ‘ज्यूरी मेम्बरों’ का समूह बनाया तो उनकी राय से मुझे यह लगा कि लोग आयोजन को ज़्यादा निष्पक्ष मानेंगे यदि मैं अपना नाम ज़ाहिर कर दूं। यह बात सही है कि यह करने के बाद कुछ अपवादों को छोड़ कर सभी का सहयोग बढ़ा और हमने काफी इनाम भी बाँटे- प्रायोजकों की बदौलत। खुशी होती है यह जानकर कि यह अवार्ड भारतीय ब्लॉगारों के अवार्ड के रूप में बाहर भी जाना जाता है।
हिंदी अंग्रेजी के किन ब्लागर को पसंद करते हैं किस लिये?
हिन्दी लेखकों में अनूप आप का लेखन तो मुझे शुरू से ही भाता है पर आपसे पहले से मैं मुरीद रहा हूँ अतुल का जिनका लाईफ इन एचओवी लेन बड़ा पसंद है। इनके अलावा जीतू और पंकज का बिंदास लेखन, सुनील दीपक, ईस्वामी भी पसंद हैं। पर हाँ हिन्दी के सभी चिट्ठे पढ़ता जरूर हूँ। अंग्रेज़ी के तो काफी ब्लॉग पढ़ता हूँ, किसी एक को चुनना मुश्किल है।
यह देखा गया है कि जब भी आपने साक्षात्कार की सोची तो अपने क्षेत्र के दिग्गज को ही चुना। क्या इस सोच की नींव बेबदुनिया में पड़ी?
शायद आप मेरे जालस्थल पर दी कड़ियों की बात कर रहे हैं। दरअसल मैं इंदौर में लगभग एक साल तक फ्री प्रेस जर्नल नामक एक अखबार के सूचना प्रोद्यिगिकी पर आधारित आधे पृष्ठ का साप्ताहिक सप्लीमेंट निकालता था। ये सारे साक्षात्कार इंदौर स्थित आईटी कंपनियों के संचालकों के हैं। वैसे संपादक के तौर पर साक्षात्कार के लिये व्यक्ति का चुनाव करते समय हमेशा मेरा उद्देश्य यही रहा कि पत्रिका को इनके नाम से नाम मिले। दूसरा ,जैसा मैने कहा, हर बार उत्साहवर्धक नतीजे नहीं मिलते जैसे निरंतर के जल-जीवन विशेषांक के लिये बार-बार करने पर भी राजेन्द्रसिंह और वंदना शिव के जवाब नहीं मिल पाये। वेबदुनिया की टीम से मेरा इतना संपर्क नहीं रहा तो उसके असर के बारे में तो नहीं कह सकता पर जाहिरा तौर पर कौन नहीं चाहता जानी-मानी हस्तियों को अपने मंच पर लाना।
भाजपा वालों पर अक्सर बरसते रहते हैं। क्या कारण है?
धर्म-संप्रदाय-जाति की राजनीति से मुझे नफरत है, चाहे दल कोई भी हो।
सईदन बी के अलावा रोजमर्रा के जीवन के दूसरे पात्र के बारे में नहीं लिखा। क्यों?
कहानियाँ तो और भी लिखीं हैं पर हर बार कुछ संदेश देने के लिये ही लिखीं। कुछ छपीं भी हैं, कोशिश करूंगा कि इन्हें जाल पर भी प्रकाशित करूं ।
अगर आपको अपना रोल माडल चुनना हो तो देश में किस व्यक्ति की तरह बनना चाहेंगे आप?
मेरा कोई रोल माडल तो नहीं है पर हां कुछ पसंदीदा व्यक्ति जरूर हैं- जैसे अमिताभ बच्चन। उनके अभिनय से ज्यादा मैं इस बात का कायल रहा कि उन्होंने अपनी गरिमा को बनाये रखा । सारे जीवन मीडिया उनके पीछे लगा रहा लेकिन उन्होंने मीडिया को उसकी औकात में ही रहने दिया। साथ ही गर्दिश से किस तरह संघर्ष करके ऊपर उठा जा सकता है इसका भी उदाहरण प्रस्तुत किया।ये अमिताभ ही हैं जो कौन बनेगा करोड़पति के प्रति वचन निभाने दुबारा टीवी पर लौटे वर्ना जिस बुलंदी पर वे हैं उनको कोई दरकार नहीं इसकी। अपनी कम्पनी को दुबारा सही हालत में लाने के लिये हर संभव उपाय किये,आलोचना की परवाह नहीं की । आर्नोल्ड सेवर्जनेगर का भी प्रशंसक हूं। सालों तक बाडी बिल्डिंग के क्षेत्र में एकक्षत्र राज्य करने और उससे सन्यास लेने के बाद दुबारा मि.यूनीवर्स बन कर दिखा दिया। बाबा आम्टे और अन्ना हजारे जैसे लोगों को मैं काफ़ी सम्मान देता हूं क्योंकि मुझे लगता है कि समाज सेवा ,भ्रष्टाचार का खात्मा जैसे वाक्यों का इन्होंने सिर्फ़ बोलने में ही इस्तेमाल नहीं किया ,कार्यरूप में उदाहरण रखा। जो कहा,कर के दिखाया । शायद इन सबकी संघर्ष करने की मनोवृत्ति (Fighing Attitude) से प्रभावित हूं। इनकी संघर्षशीलता बहुत आकर्षित करती है मुझे।
देश के सामने मुख्य समस्या तथा उसका निदान क्या मानते हैं आप?
निसंदेह भ्रष्टाचार सबसे बडी़ समस्या है और इसकी एक मुख्य वजह है कि हम देशभक्त नहीं हैं। हर व्यक्ति कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में चोरी कर रहा है । ये भ्रष्टाचार इस तरह से हमारे लहू में समा गया है कि भ्रष्ट आचरण ही सही आचरण लगता है। यात्री को लगता है कि बिना पैसे दिये रिजर्वेशन नहीं देगा टीटी । टीटी सोचता है कि पैसे लिये बगैर रिजर्वेशन दे दूं तो जाने ये क्या सोचेगा? हमारे देश में अपना मतलब साधने के लिये हर चीजे की गुटबंदी होती है पर विडम्बना है कि
देश सुधार के लिये कोई गुट नहीं है ।
शब्दांजली एक गैरतकनीकी महिला का एकल प्रयास है। इस रूप में इस पत्रिका को कैसे देखते हैं। क्या सुधार तुरंत अपेक्षित हैं?क्या आगे आने वाले समय में?
बड़ा ही सुंदर प्रयास है यह सारिका का। निरंतर के बाद तो सोचता हूँ कि जाने कैसे अकेले ही संभाल लेती हैं वे माह दर माह प्रकाशन का भार। मेरे ख्याल से पत्रिका का उद्देश्य सामने रख कर यूं ही प्रकाशन करती रहें। पत्रिका अगर यह विविधता लिये हो तो हर तरह के पाठक को कुछ न कुछ ज़रूर मिलेगा यहाँ। प्रचार पर भी ध्यान दें। शब्दांजलि के निरंतर निखरने और लोकप्रिय होने के लिये मेरी मंगलकामनायें।
[शब्दांजलि के इस अंक से हम अपने पाठकों के लिये खास स्तम्भ शुरु कर रहे हैं। यह खास स्तम्भ है हिंदी जगत की जानी-मानी हस्तियों से साक्षात्कार का । स्तम्भ की शुरुआत ऐसे शख्स से की जा रही है जिसे हिंदी ब्लाग जगत की तमाम गतिविधियों को शुरु करने तथा उनको जारी रखते हुये हिंदी चिट्ठाकारी को बुलंदियों तक पहुंचाने के लिये सतत प्रयत्नशील व्यक्ति के रूप में जाना जाता है । हिंदी ब्लाग नुक्ताचीनी तथा अंग्रेजी ब्लाग जेरोलर के लेखक देबाशीश चक्रबर्ती मेधावी ,मेहनती तथा हिंदी-अंग्रेजी भाषाओं पर जबरदस्त अधिकार रखते वाले व्यक्ति हैं। देबाशीष के बारे में उनके मित्र पंकज का मानना है- देबू 'गीक' टाइप शख्सियत है। जिनको नयापन आकर्षित करता है। चुनौतियां काम करने को उकसाती हैं। जहां चुनौती खत्म वहां रुचि समाप्त। देबू बेचैन रूह के परिंदे हैं जो हरदम कुछ नया,आकर्षक तथा उपयोगी करने को छटपटाते रहते हैं। हिंदी चिट्ठाकारी की लगभग सभी गतिविधियॊं वो चाहे अनुगूंज हो या बुनोकहानी.निरंतर हो या ब्लागनाद.ब्लागरोल हो या फिर चिट्ठाचर्चा सभी में देबाशीष का योगदान रहा है।इंडीब्लागर तथा चिट्ठा विश्व के तो ये पीर-बाबर्ची-भिस्ती-खर रहे हैं।
यही कारण है कि हिंदी ब्लाग जगत के जाने-माने लेखक रविरतलामी देबाशीष को हिंदी हिन्दी ब्लॉग जगत का पितृपुरूष मानते हैं ।
जब देबाशीष से साक्षात्कार के लिये अनुरोध किया गया तो तमाम व्यस्तताऒं के बावजूद तुरन्त तैयार हो गये। सारे सवालों के
जवाब ऐसे टाइप करके भेजे कि कहीं सुधार की गुंजाइस नहीं पायी गयी । इसी 'परफ़ेक्शनिस्ट अप्रोच के लिये देबाशीष जाने जाते हैं। आइये पढिये विविध विषयों पर देबाशीष चक्रवर्ती के विचार। शब्दांजलि के लिये देबाशीष से बातचीत की अनूप शुक्ला ने]
बचपन में किस रूप में जाने जाते रहे? पढ़ाकू, धीर-गंभीर या शरारती?
अनूप भाई,पहचान का पैमाना तो सापेक्ष ही होता है। जो नज़दीकी हैं, खास मित्र हैं, संबंधी हैं वे शायद मेरा मज़ाकिया और बातूनी स्वभाव जानते हैं, बाकी शायद धीर गंभीर और कुछ हद तक दंभी भी मानते हों, क्योंकि मूलतः मैं अंतर्मुखी हूँ और मित्रता करने में काफी समय लगता है। बाकी शरारतें तो बहुत कीं, मार भी खायी पर कह सकता हूँ कि शरारती शायद कम ही था।
जब दसवीं में म.प्र. में चौथा स्थान पाया तो कैसा लगा? इससे ज्यादा खुशी किसी उपलब्धि हासिल करने में हुई?
यह तो काफी पहले यानी १९८७ की बात है, स्कूली शिक्षा के दौरान मेधावी छात्र माना जाता रहा था शायद इसलिये बात का महत्व तब समझ नहीं आया, प्रदेश के मुख्यमंत्री का बधाई संदेश, अखबारों में चित्र परिचय से माता पिता ज्यादा गौरवान्वित होते रहे। हाँ ज्यादा खुशी २००० में हुई जब मैंने नौकरी छोड़ कर सी.डैक का कोर्स पूर्ण किया। विवाहित था। स्वयं के पैसे और कैरियर दांव पर लगा था और निर्णय स्वयं का ही था शायद इसलिये परिणाम ज्यादा मीठे लगे। साथियों और माता पिता व जीवनसाथी सभी की दाद भी मिली। काफी रिस्की काम था, बस मलाल यही रहा कि सूचना प्रौद्योगिकी की गाड़ी पकड़ने में ५ साल गंवा दिये।
हॉस्टल के अनुभव कैसे रहे? हॉस्टल के किन्ही दोस्तों से अभी भी संपर्क हैं?
वे चार साल तो स्मरणीय दिन हैं, पहली बार घर से बाहर रहा। जब डिग्री मिल जाने के बाद शहर छोड़ने का मौका आया तो लिपट कर खूब रोया भी यारों से। ‘ईग्रुप्स’ व ‘वेबसाईट्स’ के ज़रिये अब भी यदा कदा संपर्क बना रहता है। जो अपने ही शहर के हैं उनसे तो मेल मिलाप बना ही रहा। कुछ यहाँ पुणे में भी हैं। इतनी नौकरियाँ छोड़ने के बाद कई बार तो याद करना पड़ता है कि फलां परिचित का नाता कहाँ का है, कॉलेज का, कि पहले जॉब का कि सीडैक का या…।
कालेज में जो भित्ति पत्रिका(Wall Magzine) निकालते थे उसका विचार कैसे आया? उसकी आवृत्ति, भाषा, विषय क्या रहते थे आम तौर पर?
अपना प्रकाशन तो मैं हमेशा से चाहता था। तो मेरे एक खास मित्र के साथ यह विचार बना कि पत्रिका निकले, छपाई,’साइक्लोस्टाईलिंग’ का व्यय सहने की बात कॉलेज प्रशासन तुरंत टाल गया, सरकारी कॉलेज था तो सीमायें हमें भी मालूम थीं। तो सबसे सस्ता उपाय निकला कि इंजीनियरिंग की ड्राईंग शीट पर ही निकाला जाय, मित्र ने संभाला लेआउट और साज सज्जा का काम और हमने मोर्चा संभाला सामग्री का। पहला प्रयास था सो नाम रखा “द पायनियर“। अब तलाश की गई कैम्पस में ऐसे नोटिस बोर्ड की जिसमें शीशा साबुत हो, एक भी ऐसा बोर्ड मिला नहीं, अंतत: प्रिंसिपल साहब ने अपने आफिस के पास वाले बोर्ड के प्रयोग की अनुमति दी। बड़ा मज़ा आता था। भाषा, अंग्रेज़ी हिन्दी का मिश्रण होती थी। मेधावी छात्र-छात्राओं के साक्षात्कार, प्रोफेसरों के प्रोफाईल, कविताएँ, क्विज़, हास्य और विज्ञान से संबंधित विषय होते थे। काफी अंक निकले, कुछ तो मैंने सहेज कर रखे हैं अपने पास। फिर जब पढ़ाई का दबाव बढ़ा तो बंद भी कर देनी पड़ी। वैसे मेरे पिताजी अब भी मानते हैं कि इस ‘वॉल मैगेजीन’ की वजह से ही बी.ई. में मेरी आनर्स नहीं बनी।
तमाम ब्लागर दोस्त आपको दादा या चक्कू दादा भी कहते हैं। कभी दादा गीरी भी की क्या?
दादा तो बंगालियों के नाम के साथ अक्सर जुड़ जाया करता है। कुछ अब उम्र के तकाज़े से कह देते हैं। रही बात दादागिरी करने की तो भैया शादी के बाद तो दादागिरी करने की छोड़ो हर पति को बीवी की दादागिरी सहने की आदत डालनी पड़ती है।
कालेज से निकल के तमाम जगह नौकरी की। सबसे ज्यादा मनपसंद नौकरी कहां की रही?
नौकरी तो हर जगह की ठीक लगी, पर शायद मार्केटिंग का काम मेरे लिये या मैं इस कार्य के लिये उतना उपयुक्त नहीं था। अनुभव तो शॉप फ्लोर का भी लिया, प्रोडक्शन मैनेजमेंट का भी, विपणन का भी। पर आश्चर्य यह लगता है कि शुरुआती दिनों में कभी सूचना प्रोद्योगिकी में जाने की नहीं सूझी, हालांकि पाठ्यक्रम में पढ़ा पर कभी यह छुपा अनुराग सामने नहीं आ पाया। मेरी पहली नौकरी के दौरान एक कंप्यूटर संस्था ‘ईंवेंट्री मैनेजमेंट’ के लिये ‘फाक्सप्रो’ पर एक ‘कस्टम तंत्रांश’ बना रही थी, मैं ‘फंक्शनल’ जानकारी के लिये उनकी मदद करता था पर कई दफा में लॉजिक बनाने में भी सुझाव देता, एक दफा उनके संचालक महोदय सामने बैठे थे तो अनायास बोल पड़े, “बॉस आपको प्रोग्रामिंग में जाना चाहिये“। १९९५ में सीडैक के बंदे इंदौर आये थे, तब मैं वहीं से विद्युत सुरक्षा उपकरण के एक निर्माता एमडीएस स्विचगियर के लिये नियुक्त था। उन्होंने कहा कि पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिये हम “सी” का टेस्ट लेते हैं, मैं मुँह बना कर चला आया। फिर १९९९ में जाने क्या सूझी कि यही “सी” की एबीसी पढ़ी, अपनी ही जीवन संगिनी से, और आईटी का रुख किया, काश वे मुझसे चार साल पहले मिली होतीं।
अपनी पत्नी की काफी तारीफ की है आपने अपनी साइट में। यह पारिवारिक दबाव है या सच?
मैं अपने पूरे होशो हवास में खुदा को हाज़िर नाज़िर जान कर यह कहता हूँ कि मेरे जीवन को संवारने में मेरी श्रीमतीजी का भारी योगदान है (कितना भारी, यह मत पूछियेगा)। मिताली मेरी फ्रेंड फिलॉस्फर और गाईड रही है, हौसला मैं उन्हीं से पाता हूँ। इसके अलावा वे हमारी कुशल होममेकर तो हैं ही, वरना मेरा क्या होता।
आमतौर पर लोग मेल, सर्फिंग, चैटिंग से होते हुये ब्लाग तक आते हैं। आपका सफर कैसा रहा?
चैटिंग मुझे खास नहीं भाती। कार्यस्थलों पर ज्यादातर इसकी मनाही भी कारण रही इस मोहभंग का। मेरे जियोसिटीज़ पर कुछ जालस्थल थे जो अद्यतन रखता था, ईमेल के अकाउंट भी खूब बनाये पर टिकाऊ तो याहू का ही रहा। अमिताभ, जावा सर्टीफिकेशन, अपना होमपेज जैसे जालस्थल बनाते बनाते न जाने कब ब्लॉगर पर भी खाता खोल लिया पर शुरुवात रेडिफ ब्लॉग से की, फिर ब्लॉगर और फिर जेरोलर। अब लगता है कि ब्लॉगिंग न होता तो जाने कैसी होती ज़िंदगी।
काफी लोग अपनी ब्लागिंग की शुरुआत का श्रेय आपको देते हैं। कैसा लगता है यह सुनकर?
बड़ा ही अच्छा लगता है, आलोक का ब्लॉग देखकर मैंने पद्मजा का ब्लॉग बनवाया, वो तब वेबदुनिया में मेरी सहकर्मी थीं, नाम भी सुझाया, फिर रहा न गया तो खुद भी कूद पड़ा मैदान में। यूनीकोड के बारे में जानता तो था पर ब्लॉग में प्रयोग आलोक के जालस्थल से ही सीखा। फिर अतुल, जीतू, संजय, पंकज जैसे लोग आये। ये लोग तकनीकी रूप से काफी जानते थे तो काम आसान रहा पर तकनीक ही बाधा भी बनती है तो मदद ज़रूरी होती है। कई लोगों को यूनिकोड के प्रयोग को लेकर शंका होती है, कौन सा फाँट प्रयोग करूं, टाईप कैसे करूं…कई किसी फाँट के प्रयोग के इतने आदी हो जाते हैं कि यूनिकोड का प्रयोग जंचता नहीं, कुछ और ब्लॉगवेयर की सेटिंग इत्यादि से परेशान हो जाते हैं। मैं ज्यादातर ईमेल के ज़रिये उन्हें मदद और प्रोत्साहन देता रहा, सार्वजनिक फोरम और मेलिंग लिस्ट पर कई लोग पूछने से हिचकिचाते हैं। खुशी होती है जब वे धन्यवाद कहते हैं।
जिनको लिखना बताया नेट पर उनको रोज लिखते देख कैसा लगता है? गुरु गुड़ चेला शक्कर या कुछ और?
लिखना तो किसी को नहीं सिखाया, इतना योग्य भी नहीं मानता खुद को। सब गुणी हैं और अपने फ़न में माहिर, हर ब्लॉग का अपना अलग ज़ायका है। आज तक किसी को यह बताने की हिम्मत तो नहीं हुई कि भैया फलां लिखो या फलां न लिखो, बताने वाले हम हैं भी कौन, बस हाँ हिन्दी अंग्रेज़ी मिक्स करके लिखने वालों से गुज़ारिश ज़रूर की कि हो सके तो अलग ब्लॉग बना दो, कईयों ने कृतार्थ भी किया।
जो लोग नियमित लिखते हैं, विविध विषयों पर लिखते हैं, आशुकवि हैं, खूब पढ़ कर लिखते हैं, उनसे ईर्ष्या होती है, मैं टाईप करने के मामले में आलसी ठहरा, आफिस में होता नहीं, घर आकर मन कहता है कंप्यूटर का फेर छोड़।
हिंदी ब्लागिंग की अभी तक की लगभग हर गतिविधि में आपका योगदान रहा । सबसे ज्यादा खुशनुमा अनुभव क्या रहा?
मेरा सौभाग्य है कि मैं कई गतिविधियों से जुड़ा जो मैंने स्वयं या ब्लॉगबंधुओं के साथ शुरु कीं। चिट्ठा विश्व के निर्माण ने दिल को काफी सुकून दिया है और नया संस्करण वैसा ही बन पड़ा जैसा मैंने चाहा। इंडीब्लॉगीज़, अनुगूँज, बुनो कहानी, चिट्ठाकार समूह सब ही बढ़िया कार्य रहे पर निःसंदेह निरंतर मन को सबसे ज्यादा प्रिय रहा है और रहेगा।
किस अनुभव से कोफ्त होती है?
कोफ्त तो नहीं होती पर स्वभाववश मैं उकता जाता हूँ किसी भी एकरस से कार्य से, मेरे कई जालस्थल बरसों से अपडेट नहीं हुए, जिस काम में जब लग गया तो फिर रात-दिन वही सोचता रहता हूँ और जहाँ मन तृप्त हो गया या काम में आनंद मिलना खत्म हुआ कि लगता है बस अब अलग हो जाओ। जब काम में नित दिन चैलेंज मिलता है तो उत्साह बना रहता है।
निरंतर में मेहनत बहुत पड़ गयी आपको। समय का अभाव भी इसके प्रकाशन के स्थगन का कारण रहा । अभी भी क्या इसके प्रकाशन की संभावनायें बनी हैं? क्या न्यूनतम आवश्यक्तायें चाहिये?
यह सच है कि नौकरी के साथ मासिक पत्रिका निकालना, भले जाल पर ही सही, मुश्किल रहा। समयाभाव तो टीम के सभी सदस्यों को रहा ही। हम पेशेवर प्रकाशक या पत्रकार तो हैं नहीं सो ‘रिसोर्सेस’ का अभाव तो बना रहता ही है। मसलन, मेधा पाटकर का साक्षात्कार लेने में मुझे खासी परेशानी हुई, व्यक्तिगत मुलाकात कई दिनों टलने के बाद अंतत: फोन पर बात हुई पर रिकार्डिंग इतनी खराब हुई कि केवल ६० फीसदी ही छाप पाये। साक्षात्कारों के लिये कई नामचीन सीधे मना कर देते हैं, कई टालते रहते हैं तो कई जवाब ही नहीं देते। यदि आप फुलटाईम यह करें तो शायद काम आसान हो जाय। प्रकाशन की जिम्मेवारी भी महती है। एक अच्छी कॉपी बनाना, जालस्थल के अनुरूप साज सज्जा व प्रस्तुतीकरण में समय तो लगता है। अगर यह काम कोई और संभाल लेता तो भी शायद पत्रिका चलती रहती। सारा काम संपादक मंडल को स्वयं संभालना ही शायद भारी पड़ा।
हिन्दी में अच्छी मौलिक सामग्री का मिलना भी मुश्किल होता है। इसलिये हमारी ५० फीसदी निर्भरता अनुदित सामग्री पर होने लगी। जो हिन्दी में लिखते हैं, ज्यादातर साहित्य सामग्री ही दे पाते हैं, प्रकाशन की व्यग्रता भी रहती है, आपने छापने में एक महीना से ज़्यादा लगा दिया तो जनाब दूसरे ही दिन अपने ब्लॉग पर छाप देते हैं। ब्लॉग और पत्रिका का भेद समझना ज़रूरी है। जैसा व्यवहार आप किसी प्रिंट पत्रिका के साथ करते हैं वह वेब पत्रिका के साथ क्यों नहीं करते।पर जो बात मुझे और संपादक मंडल के भी कुछ सदस्यों को खलती रही वह है पाठक संख्या। मैं यह मानता हूँ कि निरंतर पर उल्लेखनीय संख्या में ब्लॉग नहीं करने वाले पाठक भी रजिस्टर हुए पर फिर भी पाठक से जिस संवाद की, निरंतर प्रतिक्रिया की अपेक्षा रही वह कभी भी पूरी नहीं हुई। मुझे आश्चर्य होता है कि किसी महिला ब्लॉगर के नितांत साधारण पोस्ट पर भी दर्जनों टिप्पणी कर सकने वाले पाठक क्या जल जीवन विशेषांकजैसे अंक को भी महत्वहीन मान कर कुछ कहना मुनासिब नहीं समझते। क्या हमें पाठक पाने के लिये अधनंगे चित्रों और पेज थ्री जैसी सामग्री छापनी पड़ेगी?
ब्लॉग के मुकाबले पत्रिका को किस रूप में देखते हैं?
ब्लॉग हो या पत्रिका या टीवी आजकल निर्माता व प्रकाशक इंटरेक्टिविटी को तरजीह देते हैं। पाठकों, दर्शकों की राय मिलती रहे तो प्रयास कैसा बन पड़ रहा है यह पता चलता रहता है इससे दिशा निर्धारण में मदद मिलती है। ब्लॉग तो बने ही बातचीत के तत्व को लिये, अगर कमेंट हटा दें तो ब्लॉग की आत्मा ही निकल जावे। ब्लॉग वे पार्टिसिपेटरी वेब के उदाहरण भी हैं। जब कई मस्तिष्क एक साथ काम करें, जब वृहद विचारों का विलय हो जाये तो, “भीड़ चतुर हो जाती है”। निरंतर को हमने इसी लिये ब्लॉगज़ीन का रूप दिया था, एक आनलाईन पत्रिका भी ब्लॉग भी। आवृत्ति तय है, स्तंभ तय हैं, कलेवर और दिशा तय है यह पत्रिका के गुण और हर लेख पर पाठक तुरंत वहीं राय ज़ाहिर कर सके, वार्तालाप हो सके, यह ब्लॉग का गुण।
पत्रिका की कुछ सीमायें होती हैं, कलेवर और संपादकीय नीति के अंतर्गत चलने की बाध्यता है, सदा सटीक और त्रुटिरहित रहने का अनुशासन पालन करना होता है, पर ब्लॉग में यह सारी हदें और मजबूरियाँ नहीं हैं, आप बेपरवाह हो कर लिख सकते हैं, हिज्जों और तथ्यों की गलतियाँ, अशुद्ध वर्तनी, बिंदास-अनसेंसर्ड-भाषा ब्लॉग में चलेंगी पर पत्रिका के जानकार पाठक नाक-भौं सिकोड़ेंगे। माध्यमों का अंतर है, शायद इसीलिये ब्लॉगरों का पत्रिका निकालने का प्रयास उतना सफल नहीं रहा।
चिट्ठाविश्व की कल्पना कैसे हुई?चिट्ठाविश्व की मेरी कल्पना में पहले पहल दो चीजें थीं ब्लॉग ऐग्रीगेटर और चिट्ठाकारों के परिचय। ऐग्रीगेटर का काम तो ब्लॉगडिग्गर की संयुक्त फीड ने आसान कर दिया। शुरुआत की २००३ में। फिर और चीजें जुड़ती गईं जैसे चिट्ठासूची, चिट्ठों के रिव्यू, ट्रिविया, अन्य भाषाओं के चिट्ठों से सुर्खियाँ आदि। लोगों ने रुचि दिखाई, आप जैसों ने योदगान दिया, तो जोश भी मिला और सुधार करने का। आज का चिट्ठाविश्व भारतीय भाषाओं के चिट्ठों की डाईरेक्टरी, ऐग्रीगेटर, चिट्ठाजगत की गतिविधियों का समाचार स्रोत, ब्लॉग आँकड़ों, ट्रिविया, टैगक्लाउड — जो हिन्दी ब्लॉगजगत में चल रहे विषयों का एक अनूठा चित्र प्रस्तुत करता है — जैसे अनेक प्रकल्पों का समागम स्थल है, अतिश्योक्ति नहीं होगी अगर इसे एक मिनी पोर्टल की संज्ञा दे दूँ। चिट्ठा चर्चा जैसे स्तंभों में आप की भागीदारी से यह और भी लोकप्रिय और मजबूत हुआ है।
हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की आज नेट पर क्या स्थिति है?
जाल पर चिट्ठों कि सही संख्या का पता लगा पाना टेड़ी खीर है। भारतीय भाषाओं में विशेषकर दक्षिण भारतीय भाषाओं में अपनी ही लिपि का ही प्रयोग कर जबरदस्त ब्लॉगिंग हो रही है। मैं बस उड़िया, पंजाबी जैसी कुछ भाषाओं के ही चिट्ठे नहीं खोज पाया अब तक। भारतीय भाषाओं में जालस्थलों की बात हो तो शायद स्थिति अलहदा हो, जो हैं ज्यादातर साहित्यिक पत्रिकायें हैं, या इक्का दुक्का पोर्टल। पर मेरे ख्याल से स्थिति काफी अच्छी है, बस “जानकारी की सटीक जानकारी होने” का ही अभाव है।
संभावनायें क्या हैं? सीमायें क्या हैं?
हमारे देश में हमने हर क्षेत्र में प्रगति अंग्रेज़ी का दामन पकड़ कर ही की है। हम विदेश में जाकर चीनी या जापानी कीबोर्ड पर काम करने को राजी रहते हैं पर अपने देश में हिन्दी कीबोर्ड की सोचना पिछड़ापन लगता है। मध्यप्रदेश जैसे हिन्दी बहुल प्रदेश में भी ऐसे कैफे खोज निकालना असंभव नहीं तो मुश्किल होगा जहाँ हिन्दी जालस्थल आसानी से देखे जा सकें। मुझे तो लगता है कि निज भाषा में कंप्यूटिंग का विचार कभी सरकारी योजनाओं में झलका ही नहीं। मैं सुनता आया हूँ कि लिनक्स के अवतरण से और सिंप्यूटर जैसे सस्ते माधयमों से कंप्यूटिंग का प्रसार होगा, ई गवर्नेंस परियोजनाओं से ग्रास रूट स्तर पर संचार क्रांति के फायदे महसूस किये जा सकेंगे, पर लगता है बातें कागजी ज्यादा हैं।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि कंप्यूटिंग के इस्तेमाल में शहरी और ग्रामीण स्तर पर काफी अमानताएं हैं। अव्वल तो यह कि गाँव देहात में जब बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएँ ही न हों तो कंप्यूटर, ईंटरनेट और ई-गवर्नेंस का ज़िक्र बेमानी हो जाता है, दूसरी बात यह कि जहाँ पहुँच है वहाँ इनका प्रयोग आसान और सटीक बनाना एक चुनौती है और जब तक ऐसे काम की ‘इकॉनामिक वायेबिलिटी’ न हो तो निजी क्षेत्र की कंपनियाँ इसमें हाथ डालेंगी नहीं, नतीजा सरकारी योजनाओं पर निर्भरता। और देश के नीति निर्धारक कैसे यह तय करते हैं कि क्या विकास योजनायें होंगी यह तो खैर लंबी बहस का विषय है। मैं तो इतना जानता हुँ कि अगर ईंटरनेट पर किसान को काम की जानकारी, मौसम का हाल, बीज-खाद के दाम और उपलब्धता, बाजार भाव सब पता चलने का तरीका मालूम चले तो वह कंप्यूटर का महत्व क्यों नहीं मानेगा। इसके बाद अगला कदम है जानकारी क्षेत्रीय भाषा में सुलभ कराना ताकि अंग्रेज़ी न जानना कंप्यूटर के प्रयोग में बाधक न बने। सब प्रशासकीय इच्छाशक्ति पर निर्भर होता है।
नेट पर हिंदी प्रसार की तात्कालिक जरूरत क्या हैं?
मुझे लगता है कि हिन्दी के प्रति रुचि बढ़ाने का एक बेहतर तरीका है कि हिन्दी साहित्य, अच्छे लेखकों की रचनाओं को मुफ्त मुहैया कराया जाय। स्कूल में अच्छी अंग्रेज़ी भाषा भी तो हमने उनके साहित्य से ही सीखी है। ज़माना ऐसा है कि हिन्दी साहित्य कोई खरीद के तो पढ़ नहीं रहा पर जाल पर मुफ्त में मिले तो शायद पढ़ें। जब अच्छा पढ़ेंगे तो अच्छा लिखेंगे भी। प्रयोग बढ़ा तो हिन्दी का प्रसार खुद ब खुद होगा।
जब हिंदी में ब्लागिंग शुरु हुयी थी तो बहुत कम लिखते थे लोग। अब लगभग रोज एक नया ब्लाग बन रहा है। १०० संख्या पार होने पर कैसा लगा?
बेहद खुशी का एहसास होता है कि लोगों के यूँ जुड़ते रहने से कारवां बनता गया, पर अभी तो यह आरंभिक दौर है, दक्षिण भारतीय ब्लॉगर ५०० का आंकड़ा पार कर गये हैं। हिन्दी चिट्ठाकारी के सैकड़ा पार करने पर यह कहना चाहूँगा कि संभवतः ऐसे बहुत होंगे जो इस पल की प्रतीक्षा कर रहे थे। जब हम रोजमर्रा की बातचीत हिन्दी में कर सकते हैं तो बातचीत के लहज़े में नेट पर हिंदी क्यों न हो, खुशकिस्मती से ब्लॉगिंग ने यह कर दिखाया है। चिट्ठाकारी में हिन्दी “हिन्दी दिवस” के समारोहों के उद्बोधनों सरीखी क्लिष्ट और अनोखी नहीं है। लेखन में नियमितता आने से हिन्दी के प्रयोग की हिचक भी दूर हो जाती है। हम हिन्दी में सोचना शुरु कर देते हैं। मैं हिन्दी बचाओ जैसे आंदोलनों में कभी भी विश्वास नहीं रखता । चंद निबंध, सुलेख या स्लोगन प्रतियोगिताओं से हिन्दी भला क्या लोकप्रिय होगी? प्रयोग से ही प्रसार बढ़ेगा और ब्लॉगिंग से हिन्दी ने यही डगर पकड़ी है ।
आपके ब्लॉग नुक्ताचीनी का अंदाज अक्सर धीर-गंभीर सा रहता है? क्या कारण है कि ब्लागिंग का खिलंदड़ापन अक्सर कम देखने को मिलता है?
आपका विचार सही है, मैं लिखते वक्त काफी ‘कांशियस’(सजग) हो जाता हूँ, लंबे पोस्ट तो लगभग हर बार पहले स्क्रैप बुक में लिखता हूँ फिर टाईप करता हूँ। लगता है यह लिखना सही होगा या नहीं। सच कहूँ तो उम्र के तकाज़े से लिखना चाहता हूँ। लिखने के बाद, यहाँ तक की पोस्ट करने के बाद भी कई दफा बदलाव करता रहता हूँ, जो पाठक फीड के माध्यम से मेरा ब्लॉग पढ़ते हैं वो इसका असर झेलते होंगे। तो इस सारी जोड़तोड़ में शायद हास्य का पुट खत्म हो जाता है। मेरी ब्लॉगिंग की एक कमी जो पाठक कहते भी रहते हैं कि मैं नियमित नहीं लिखता, इसका मूल तो आलस्य ही है, कई बार जब विषय दिमाग में खलल मचा रहे होते हैं अगर तभी कहीं नोट कर लूँ तो ध्यान रहे, पर ऐसा होता नहीँ और खयाल फुर्र हो जाते हैं, कई दफा लिखने में इतनी देर हो जाती है कि विषय ही बासी हो जाने की वजह से लिखना टालना पड़ता है।
मेरा मानना है कि अंग्रेजी के ज्यादातर ब्लागर अखबार से समाचार कापी करके अपने ‘एक्सपर्ट कमेंट’ मार देते हैं। क्या यह सच है?
इतने वर्षों में जितने ब्लॉग मैं पढ़ता हूँ उनमें यह बात तो सच है कि ज्यादातर सामयिक घटनाक्रम पर कमेंट्री करते हैं। चूंकि कई समाचार पत्रों के आनलाईन अंक ताज़ा तरीन खबरें लगातार प्रकाशित करते हैं तो कड़ी देना स्वाभाविक है। इस तरह से कई ब्लॉग, और इसमें लोकप्रिय ब्लॉग भी शामिल हैं, केवल लिंक ब्लॉग बन कर रह गये हैं। सच कहूं तो सामयिक धटनाक्रमों पर टिप्पणी और परिचर्चा जैसी जिव्हा के ब्लॉग पर होती थी वैसी भारतीय ब्लॉगजगत में न हुई और निकट भविष्य में इसके आसार भी नज़र नहीं आते।
वैसे यह व्यक्तिगत चयन की बात है। उद्धरण करें या नहीं, करें तो कितना करें, यह सब तय नहीं रहता और तय हो भी नहीं सकता। ध्यान देने की बात शायद यही है कि स्रोत का उल्लेख अवश्य करें और अपने लेख और उद्धरित सामग्री का भेद स्पष्ट रखें। यदि पूरा पोस्ट केवल उद्धरित सामग्री से ही पटी है तो मुझे नहीं लगता कि पाठकों में ऐसे ब्लॉग ज़्यादा दिन रुचि बनाए रख पायेंगे।
जो ब्लाग हिंदी में लिखे जा रहे हैं वे अंग्रेजी के ब्लाग के मुकाबले कहां ठहरते हैं? गुणवत्ता तथा विषय सामग्री में?
यदि लोग नाराज न हों तो पूरी विनम्रता के साथ यही कहूँगा कि अभी दिल्ली दूर है। हिन्दी के पचास फीसदी ब्लॉग तो कविता और कहानियों के ब्लॉग से अटे पड़े हैं। मेरा साहित्य से कोई बैर नहीं और यह लेखक की अपनी रुचि की बात भी है कि वह क्या प्रकाशित करें पर मुझे लगता है कि ब्लॉग का एक मुख्य तत्व है इसकी अप्रत्याशितता। और ब्लॉग की विषय वस्तु अगर विविध है तो आप का पाठकवर्ग निश्चित ही विशाल होगा। यही कारण है कि ब्लॉग में श्रेणियों कि सुविधा दी गई। अगर कोई नहीं जानें कि कल मैं किस विषय पर लिखूंगा तो जिज्ञासा बनी रहे शायद। मुझे इस लिहाज़ से सुनील दीपक का चिट्ठा बड़ा अच्छा लगता है। इसके ठीक उलट टॉपिकल (विषय केंद्रित)ब्लॉग का भी अपना आकर्षण होता है, यदि आप किसी खास विषय पर महारत या रुचि रखते है तो लोग विषय की खोज करते वक्त शायद आपको ज़ेहन में रखें। हिन्दी ब्लॉगजगत में ज्ञान विज्ञान जैसे चिट्ठों को छोड़ दें तो टॉपिकल ब्लॉग की खासी कमी है, खेल, अर्थनीति जैसे विषयों पर यदा-कदा ही लिखा जाता है। १०० में से शायद ५ या दस लोग ही ब्लॉग नियमित अपडेट करते हैं।
इंडीब्लॉगीज़ शुरु करने का विचार कैसे आया? बहुत दिन तक आपके ब्लागर दोस्त भी नहीं जानते थे कि यह कौन करता है।
इंडीब्लॉगीज़ शुरु तो ब्लॉगीज़ की तर्ज़ पर ही की थी। भारतीय ब्लॉगमंडल तब काफी छोटा था पर मुझे लगता था कि हर कोई सीमित दायरे में ही पढ़ पाता होगा। कई दफा ऐसा हुआ कि किसी ब्लॉग पर गया और उसके ब्लॉगरोल पर नज़र डाली तो एक भी जाना पहचाना नाम नहीं मिला, तब एहसास होता कि जैसे-जैसे ब्लॉगमंडल विस्तार पा रहा है हम कई अच्छे ब्लॉग पढ़ ही नहीं पाते, समय की कमी तो अलग बात है, उनके बारे में हम जानते तक नहीं। मैंने अपना नाम गुप्त इसलिये रखा क्योंकि मुझे लगा कि लोग समझेंगे कि मैं इससे कुछ लाभ पाना चाहता हूँ, पर मेरी सोच शायद गलत थी। मेरा नाम सामने न आने का बहाना लेकर कई लोग ,जानबूझकर,उलजलूल टिप्पणी करने लगे। निर्णयों की निष्पक्षता पर आपत्ति करने लगे। जब मैंने २००४ के आयोजन के लिये ‘ज्यूरी मेम्बरों’ का समूह बनाया तो उनकी राय से मुझे यह लगा कि लोग आयोजन को ज़्यादा निष्पक्ष मानेंगे यदि मैं अपना नाम ज़ाहिर कर दूं। यह बात सही है कि यह करने के बाद कुछ अपवादों को छोड़ कर सभी का सहयोग बढ़ा और हमने काफी इनाम भी बाँटे- प्रायोजकों की बदौलत। खुशी होती है यह जानकर कि यह अवार्ड भारतीय ब्लॉगारों के अवार्ड के रूप में बाहर भी जाना जाता है।
हिंदी अंग्रेजी के किन ब्लागर को पसंद करते हैं किस लिये?
हिन्दी लेखकों में अनूप आप का लेखन तो मुझे शुरू से ही भाता है पर आपसे पहले से मैं मुरीद रहा हूँ अतुल का जिनका लाईफ इन एचओवी लेन बड़ा पसंद है। इनके अलावा जीतू और पंकज का बिंदास लेखन, सुनील दीपक, ईस्वामी भी पसंद हैं। पर हाँ हिन्दी के सभी चिट्ठे पढ़ता जरूर हूँ। अंग्रेज़ी के तो काफी ब्लॉग पढ़ता हूँ, किसी एक को चुनना मुश्किल है।
यह देखा गया है कि जब भी आपने साक्षात्कार की सोची तो अपने क्षेत्र के दिग्गज को ही चुना। क्या इस सोच की नींव बेबदुनिया में पड़ी?
शायद आप मेरे जालस्थल पर दी कड़ियों की बात कर रहे हैं। दरअसल मैं इंदौर में लगभग एक साल तक फ्री प्रेस जर्नल नामक एक अखबार के सूचना प्रोद्यिगिकी पर आधारित आधे पृष्ठ का साप्ताहिक सप्लीमेंट निकालता था। ये सारे साक्षात्कार इंदौर स्थित आईटी कंपनियों के संचालकों के हैं। वैसे संपादक के तौर पर साक्षात्कार के लिये व्यक्ति का चुनाव करते समय हमेशा मेरा उद्देश्य यही रहा कि पत्रिका को इनके नाम से नाम मिले। दूसरा ,जैसा मैने कहा, हर बार उत्साहवर्धक नतीजे नहीं मिलते जैसे निरंतर के जल-जीवन विशेषांक के लिये बार-बार करने पर भी राजेन्द्रसिंह और वंदना शिव के जवाब नहीं मिल पाये। वेबदुनिया की टीम से मेरा इतना संपर्क नहीं रहा तो उसके असर के बारे में तो नहीं कह सकता पर जाहिरा तौर पर कौन नहीं चाहता जानी-मानी हस्तियों को अपने मंच पर लाना।
भाजपा वालों पर अक्सर बरसते रहते हैं। क्या कारण है?
धर्म-संप्रदाय-जाति की राजनीति से मुझे नफरत है, चाहे दल कोई भी हो।
सईदन बी के अलावा रोजमर्रा के जीवन के दूसरे पात्र के बारे में नहीं लिखा। क्यों?
कहानियाँ तो और भी लिखीं हैं पर हर बार कुछ संदेश देने के लिये ही लिखीं। कुछ छपीं भी हैं, कोशिश करूंगा कि इन्हें जाल पर भी प्रकाशित करूं ।
अगर आपको अपना रोल माडल चुनना हो तो देश में किस व्यक्ति की तरह बनना चाहेंगे आप?
मेरा कोई रोल माडल तो नहीं है पर हां कुछ पसंदीदा व्यक्ति जरूर हैं- जैसे अमिताभ बच्चन। उनके अभिनय से ज्यादा मैं इस बात का कायल रहा कि उन्होंने अपनी गरिमा को बनाये रखा । सारे जीवन मीडिया उनके पीछे लगा रहा लेकिन उन्होंने मीडिया को उसकी औकात में ही रहने दिया। साथ ही गर्दिश से किस तरह संघर्ष करके ऊपर उठा जा सकता है इसका भी उदाहरण प्रस्तुत किया।ये अमिताभ ही हैं जो कौन बनेगा करोड़पति के प्रति वचन निभाने दुबारा टीवी पर लौटे वर्ना जिस बुलंदी पर वे हैं उनको कोई दरकार नहीं इसकी। अपनी कम्पनी को दुबारा सही हालत में लाने के लिये हर संभव उपाय किये,आलोचना की परवाह नहीं की । आर्नोल्ड सेवर्जनेगर का भी प्रशंसक हूं। सालों तक बाडी बिल्डिंग के क्षेत्र में एकक्षत्र राज्य करने और उससे सन्यास लेने के बाद दुबारा मि.यूनीवर्स बन कर दिखा दिया। बाबा आम्टे और अन्ना हजारे जैसे लोगों को मैं काफ़ी सम्मान देता हूं क्योंकि मुझे लगता है कि समाज सेवा ,भ्रष्टाचार का खात्मा जैसे वाक्यों का इन्होंने सिर्फ़ बोलने में ही इस्तेमाल नहीं किया ,कार्यरूप में उदाहरण रखा। जो कहा,कर के दिखाया । शायद इन सबकी संघर्ष करने की मनोवृत्ति (Fighing Attitude) से प्रभावित हूं। इनकी संघर्षशीलता बहुत आकर्षित करती है मुझे।
देश के सामने मुख्य समस्या तथा उसका निदान क्या मानते हैं आप?
निसंदेह भ्रष्टाचार सबसे बडी़ समस्या है और इसकी एक मुख्य वजह है कि हम देशभक्त नहीं हैं। हर व्यक्ति कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में चोरी कर रहा है । ये भ्रष्टाचार इस तरह से हमारे लहू में समा गया है कि भ्रष्ट आचरण ही सही आचरण लगता है। यात्री को लगता है कि बिना पैसे दिये रिजर्वेशन नहीं देगा टीटी । टीटी सोचता है कि पैसे लिये बगैर रिजर्वेशन दे दूं तो जाने ये क्या सोचेगा? हमारे देश में अपना मतलब साधने के लिये हर चीजे की गुटबंदी होती है पर विडम्बना है कि
देश सुधार के लिये कोई गुट नहीं है ।
शब्दांजली एक गैरतकनीकी महिला का एकल प्रयास है। इस रूप में इस पत्रिका को कैसे देखते हैं। क्या सुधार तुरंत अपेक्षित हैं?क्या आगे आने वाले समय में?
बड़ा ही सुंदर प्रयास है यह सारिका का। निरंतर के बाद तो सोचता हूँ कि जाने कैसे अकेले ही संभाल लेती हैं वे माह दर माह प्रकाशन का भार। मेरे ख्याल से पत्रिका का उद्देश्य सामने रख कर यूं ही प्रकाशन करती रहें। पत्रिका अगर यह विविधता लिये हो तो हर तरह के पाठक को कुछ न कुछ ज़रूर मिलेगा यहाँ। प्रचार पर भी ध्यान दें। शब्दांजलि के निरंतर निखरने और लोकप्रिय होने के लिये मेरी मंगलकामनायें।
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