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सूरज निकला-चिड़ियां बोलीं
साल बीत गया। नया लग गया। चार दिन निपट गये। चार बार सूरज निकल
चुका। डूब भी गया। हमारे ब्लाग पर चिड़ियां बोल रहीं हैं। कलियों ने भी
आंखें खोल लीं हैं। जाड़ा इतना नहीं पड़ रहा है ठिठुरन हो। तमाम स्वेटर
भारतीय प्रतिभाओं की तरह संदूक में बंद हैं। उनको समुचित अवसर नहीं मिल रहे
हैं। कुछ खास स्वेटरों को आम पर तरजीह दी जा रही है। ये भी कोई बात हुई
भला!
पिछले साल अप्रैल में जब यहां हिंदिनीपर दुकान खुली थी तो काफी दिन इसकी छत पर मोर चहकता रहा यहां। अभी कलम चमक रही है। स्वामीजी पता नहीं कब कलम का सर कलम कर दें-कोई भरोसा है भला सांडप्रेमी स्वामीजी का!
पिछले साल के आखिरी दिन हड़बड़ व्यस्तता में बीते। २४ दिसम्बर को इलाहाबाद में हमारे कालेज के पुराने छात्रों का सम्मेलन होना था। वहां से बुलौआ आया। हमने जितने लोगों के फोन नम्बर पता थे सबको टटोला -चलोगे कालेज! सबने मेरे विश्वास की रक्षा की- मजबूरी आवाज में लपेट कर जता दी।
अंत में साथ दिया ब्लागर बंधु राजेश ने। राजाबाबू कुछ साल इंडोनेशिया में गन्ना पेर कर वापस देशसेवा के लिये भारत लौट आये हैं। डाल का गिरा पत्ता पेड़ से फिर से जुड़ गया। २३ तारीख को वे दिल्ली में थे।नोयडा में नौकरी का जुगाड़ करके बनारस वापस लौट रहे थे।हमारे आवाहन पर इलाहाबाद रुकने के लिये राजी हो गये। तय हुआ कि रात की ट्रेन जिससे राजेश दिल्ली से लौट रहे हैं में ही हम कानपुर से बैठ लेंगें।
जब मैं स्टेशन पहुंचे पता चला ट्रेन एक घंटा लेट थी। ठंडी हो चली हवाओं के माध्यम से हमें यह भी पता चला कि हम कोट-पैंट-टाई तो चकाचक लेकर आये हैं लेकिन स्वेटर के समर्थन से वंचित थे। लापरवाह यायावर ट्रेन के आने पर सीधे राजेश के पहले से ही फैले कंबल में दुबक गया। राजेश का दूसरा स्वेटर निकलवा के पहना गया तथा गुनगुने हो चुके माहौल में ब्लागर मीट शुरू हो गई।
देबाशीष के लहजे में कहें तो यह दुनिया की अपने तरह की पहली थी-चलती ट्रेन में ब्लागर मीट।अगर कोई ब्लागर मीट पहले किसी ने की हो ट्रेन में तो हम कह सकते हैं शिवगंगा एक्सप्रेस में (आधी रात के बाद ) दुनिया की पहली हिंदी ब्लागर मीट। इतना कसरत करने पर भी अगर हम दुनिया में पहले न हो पाये तो हम कैंसिल कर देंगे इसे।
सबेरा अभी हुआ नहीं था कि हम इलाहाबाद पहुंच गये। स्टेशन पर उतरकर फोटो सेशन हुआ। चाय-पान किया गया। आटो से पहुंचे कालेज गेस्ट हाउस तथा सो गये। सबेरे चाय-पान-नाश्ता होते-होते तमाम लोगों से अबे-तबे हुआ। उसकी लंबी कहानी है लिहाजा फिर कभी। यह जरूर हुआ कि बोलने का एक मौका मिला तो और माइक एक बार पकड़ा तो तभी छोड़ा जब कुछ बचा नहीं कहने को। यह नाराजगी भी जाहिर करने से नहीं चूके हम कि हमारे त्रिभुज पर नोटिश बोर्ड काहे लगवा दिया,पुरुषत्व का प्रतीक पेड़ कट गया तथा मेस में दीवार खड़ी कर दी। कहा तो हमने यह भी कि हमारे बच्चों पर अनुशासन का डंडा इतना न चलाया जाये कि वे बेचारे जूनियरों से डरने लगें। शाम को हुये सांस्कृतिक कार्यक्रम में…मजा ही कुछ और है की तर्ज पर वहीं के हिसाब से तुकबंदी झेलाने से भी हम नहीं चूके।रात को ही हम वापस लौट आये।
सबेरे जब हमें उठे तो पता चला कि इतवार २५ तारीख को क्रिकेट मैच खेला जायेगा। हम छुट्टी होने बावजूद अपने कि उठा के ले गये मैदान। दो टीमें ऐसे ही छांटो-बीनो वाले अंदाज में बन गईं। हमारी टीम ने टास हारकर पहले पद्दी करने का फैसला किया। मैच २० ओवर का था। तय यह हुआ कि एक खिलाड़ी दोबार अधिकतम चार ओवर बल्ला भांजेगा या फिर दो बार आउट होकर वापस चला जायेगा। हमने एक ओवर भी फेंका। पहली ही बाल में कंधा उतर गया। फिर भी हमने पूरा ओवर फेंका तथा गेंद विकेट तक पहुंचाई। हमारी विरोधी टीम ११५ रन बना पाई।
हमारी टीम ने धीमी मगर ठोस शुरुआत की। चार ओवर बाद ओपनर वापस आ गये। हम गये अपने साथी को लेकर। हमसे आशायें थीं लोगों को। हमने भी निराश नहीं किया।चार ओवर के दौरान केवल दो बार आउट होकर १३ गेंदों तीन झन्नाटेदार चौकों के साथ उन्नीस रन बनाये। मतलब हमारा स्ट्राइक रेट रहा १४६ । रहता है किसी वनडाउन बल्लेबाल का इतना औसत? वो तो कहो हम जाना नहीं चाहते किसी टीम में वर्ना बेचारे द्रविड़ की भी सीट डोलने लगती। अब यह क्या बतायें कि हमारी टीम में और भी धुंआधार बल्लेबाज थे।लिहाजा १५-१६ ओवर में रन बराबर हो गये। इसके बार स्कोर बुक बंद कर दी गई। हमारा छोटा पुत्तर, जो हमारी तरफ से फील्डिंग कर रहा था,बैटिंन मिलने से कुछ मायूस सा था। फिर उसे अलग से खिलाया गया।
बच्चों के बाद महिला मंडल भी मैदान में आ गया। खेलने के लिये। महिलायें खेल में कम फोटो खिंचाने में ज्यादा ‘इंटरेस्टेड’ थीं। हमने भी अपने कैमरे के सेल खत्म होने तक फोटो खींचे। हम फोटो खींच रहे थे,वे हमें खींच रहीं थीं-भाई साहब,जरा हमारा भी खींचिये न! हमारी श्रीमती जी ने भी फोटो खिंचाया। बालिंग-बैटिंग करते हुये।
साल के आखिरी दिन हम थे लखनऊ में। ३१ को श्रीलाल शुक्ल जी का जन्मदिन था। सुबह तद्भव संपादक अखिलेश से मिले। शाम को श्रीलालजी से मिले। एक दिन पहले उनके ८० वें जन्मदिन के अवसर पर दिल्ली में अमृत महोत्सव मनाया गया था। उसी के किस्से चल रहे थे। अभिनन्दन ग्रन्थ में मेरा भी लेख है। तमाम फोटो हैं। संस्मरणात्मक लेख अधिकतर प्रसंशात्मक हैं। श्रीलाल जी अपने खास अंदाज में कह रहे थे- ये जो लेखों में कुछ तारीफ हो गयी मुझे लगता नहीं कि उसके लिये मुझे अपराधबोध महसूस करना चाहिये।
मैंने वहां पर श्रीलालजी को उनका शब्दांजलि में छपा साक्षात्कार दिखाया तो उन्होंने दूसरे लोगों को भी दिखाने को कहा। लोग वहां आते-जाते जा रहे थे।श्रीलाल जी ने केक काटा।खाया गया।लोग सुरा पान भी कर रहे थे। मुझ जैसे खालिस देसी के लिये काफी बनवानी पड़ी। तमाम संस्मरण सुने वहां। कैमरा मेरा बच्चा ले गया था। उसका न होना बहुत खला।जब मैं आने लगा तो खाना बाकी लोगों की तरह खाना खाकर ही आने दिया गया।
कानपुर लौटते समय हम अपना निर्माणाधीन घर देखने गये। जलवायुबिहार में एअर फोर्स नवल हाउसिंग सोसाइटी वाले ये घर बना रहे हैं। शायद साल के अंत तक घर मिल जायें। लखनऊ एयरपोर्ट से चार किमी की दूरी पर इन घरों का सबसे अच्छा हिस्सा हमें टेरेस लगा जहां बैठकर घंटों ब्लागिंग तथा नावेलिंग की जा सकती है।
साल की शुरुआत ब्लाग जगत में ठंडी सी है। लोग बहुत कम लिख रहे हैं। आशा है मामला जोर पकड़ेगा। मुझे भी हर सोमवार लिखनी थी अपनी यायावरी पर पोस्ट लेकिन हो नहीं पाया इस बार। व्यस्तता,आलस्य,अगले हफ्ते के गठबंधन ने मामला पटरा कर दिया।
आज ही देबू की पोस्ट से पता चला कि इंडीब्लागीस के चुनाव के लिये प्राथमिक चरण के चुनाव संपन्न हो गये। इस चुनाव में मेरी रुचि कौतूहल की बनी हुई है। हम ब्लागिस्तानी के लेख हिंदी तथा अन्य भाषाओं में भी हों ऐसा मेरा मत था। लेकिन बाद में यह देखकर कुछ आश्चर्य भी हुआ कि अंग्रेजी के लेख भी नहीं छपे। शायद ये लेख ‘फिलर’ की तरह थे। बहरहाल,यह देखकर किंचित आश्चर्य हुआ कि निर्णायकों ने मेरा पन्ना को नहीं चुना उससे ज्यादा आश्चर्य यह देखकर हुआ कि रवि रतलामी को लाइफ टाईम अचीवर के लायक नहीं समझा गया। अगर टैगिंग-फैगिंग का लफड़ा हो (पंकज ने कमेंट रूप में रविरतलामी का नाम दिया था) तो नहीं कह सकता लेकिन यदि रवि रतलामी का नाम माननीय सदस्यों ने वोटिंग के बाद खारिज किया तो उनकी जानकारी के स्तर समझ पर शक करने का मन करता है।
मुझे लगता है कि बिना शोर-शराबे के नेट पर हिंदी लेखन,ब्लागिंग में रवि रतलामी का जितना मात्रात्मक योगदान रहा है शायद ही किसी का उतना रहा है।मैंने खुद ब्लागिंग रविरतलामी का लेख पढ़कर शुरू की। उनका योगदान किसी पुरुस्कार का मोहताज नहीं है। यह भी सही है कि निर्णायक अपने स्वतंत्र मत रखने के अधिकारी होते हैं उसी तरह जैसे कि मेरा मत यह बन रहा है कि निर्णायकों तथा आंख मूंदकर वोटिंग करने वाले लोगों में कोई खास अंतर नहीं ।
मेरा ब्लाग लेखन लोगों को कितना पसन्द आता है पता नहीं लेकिन ऐसा लगता है कि लोगों की मौज -मजे की अपेक्षायें कुछ ज्यादा हैं। लेकिन उसका माहौल कुछ कम सा लगता है। अकेले जीतू के कंधे पर बंदूक कब तक रखी जाये। एक वही हैं जोहमेशा छिड़ने को तैयार रहते हैं। बहरहाल आगे देखा जायेगा मामला।
साल शुरू हो ही गया तो शुभकामनायें भी अदल-बदल लीं जाये। सबका जीवन चहकता-महकता रहे। कुंवारे-बेचारे दुधारे बनें। विवाहित सुखी रहें। महिलाओं के पति उनका ख्याल रखें। महिलायें उनपर निगाह रखने में सफल हो सकें। बच्चे दोनों के अवगुणों से बचे रहें। फलें-फूलें।फूल से महकते -चहकते रहें।खिलखिलाहट का राज बना रहे। मायूसी का नाश हो। हिंदी ब्लागर दिन-दूने रात चौगुने बढ़ें। ब्लागरों को टिप्पणियां मिलती रहें। न लिखने वालों को खुदा झिड़कियां बख्से। आमीन!
ख्वाब दिखे,हम प्रतिपल-प्रति दिन-रात चले ,
कहने को सत्ता मिली,किन्तु ,
रहने को कारावास मिले ।
सौरभ सुमनों के लिए ,कई बरसों
तक की, हमने बाट तकी,
जब इनको भी, मुरझाते,कुचले जाते देखा,
फिर जाती यह भी आस रही ।
कुछ बात नहीं हम कह पाये,
कुछ बात नहीं हम सह पाये,
कुछ दर्द रह गए सीने में,
कुछ बात रह गयी जीने में।
गंधर्वों के उत्सव में भी,हम,
शामिल थे ,एक पुजारी से,
कुछ मन्त्र पढे , कुछ भूल गये,
भावी जीवन की तैयारी में ।
-राजेश कुमार सिंह
पिछले साल अप्रैल में जब यहां हिंदिनीपर दुकान खुली थी तो काफी दिन इसकी छत पर मोर चहकता रहा यहां। अभी कलम चमक रही है। स्वामीजी पता नहीं कब कलम का सर कलम कर दें-कोई भरोसा है भला सांडप्रेमी स्वामीजी का!
पिछले साल के आखिरी दिन हड़बड़ व्यस्तता में बीते। २४ दिसम्बर को इलाहाबाद में हमारे कालेज के पुराने छात्रों का सम्मेलन होना था। वहां से बुलौआ आया। हमने जितने लोगों के फोन नम्बर पता थे सबको टटोला -चलोगे कालेज! सबने मेरे विश्वास की रक्षा की- मजबूरी आवाज में लपेट कर जता दी।
अंत में साथ दिया ब्लागर बंधु राजेश ने। राजाबाबू कुछ साल इंडोनेशिया में गन्ना पेर कर वापस देशसेवा के लिये भारत लौट आये हैं। डाल का गिरा पत्ता पेड़ से फिर से जुड़ गया। २३ तारीख को वे दिल्ली में थे।नोयडा में नौकरी का जुगाड़ करके बनारस वापस लौट रहे थे।हमारे आवाहन पर इलाहाबाद रुकने के लिये राजी हो गये। तय हुआ कि रात की ट्रेन जिससे राजेश दिल्ली से लौट रहे हैं में ही हम कानपुर से बैठ लेंगें।
जब मैं स्टेशन पहुंचे पता चला ट्रेन एक घंटा लेट थी। ठंडी हो चली हवाओं के माध्यम से हमें यह भी पता चला कि हम कोट-पैंट-टाई तो चकाचक लेकर आये हैं लेकिन स्वेटर के समर्थन से वंचित थे। लापरवाह यायावर ट्रेन के आने पर सीधे राजेश के पहले से ही फैले कंबल में दुबक गया। राजेश का दूसरा स्वेटर निकलवा के पहना गया तथा गुनगुने हो चुके माहौल में ब्लागर मीट शुरू हो गई।
देबाशीष के लहजे में कहें तो यह दुनिया की अपने तरह की पहली थी-चलती ट्रेन में ब्लागर मीट।अगर कोई ब्लागर मीट पहले किसी ने की हो ट्रेन में तो हम कह सकते हैं शिवगंगा एक्सप्रेस में (आधी रात के बाद ) दुनिया की पहली हिंदी ब्लागर मीट। इतना कसरत करने पर भी अगर हम दुनिया में पहले न हो पाये तो हम कैंसिल कर देंगे इसे।
सबेरा अभी हुआ नहीं था कि हम इलाहाबाद पहुंच गये। स्टेशन पर उतरकर फोटो सेशन हुआ। चाय-पान किया गया। आटो से पहुंचे कालेज गेस्ट हाउस तथा सो गये। सबेरे चाय-पान-नाश्ता होते-होते तमाम लोगों से अबे-तबे हुआ। उसकी लंबी कहानी है लिहाजा फिर कभी। यह जरूर हुआ कि बोलने का एक मौका मिला तो और माइक एक बार पकड़ा तो तभी छोड़ा जब कुछ बचा नहीं कहने को। यह नाराजगी भी जाहिर करने से नहीं चूके हम कि हमारे त्रिभुज पर नोटिश बोर्ड काहे लगवा दिया,पुरुषत्व का प्रतीक पेड़ कट गया तथा मेस में दीवार खड़ी कर दी। कहा तो हमने यह भी कि हमारे बच्चों पर अनुशासन का डंडा इतना न चलाया जाये कि वे बेचारे जूनियरों से डरने लगें। शाम को हुये सांस्कृतिक कार्यक्रम में…मजा ही कुछ और है की तर्ज पर वहीं के हिसाब से तुकबंदी झेलाने से भी हम नहीं चूके।रात को ही हम वापस लौट आये।
सबेरे जब हमें उठे तो पता चला कि इतवार २५ तारीख को क्रिकेट मैच खेला जायेगा। हम छुट्टी होने बावजूद अपने कि उठा के ले गये मैदान। दो टीमें ऐसे ही छांटो-बीनो वाले अंदाज में बन गईं। हमारी टीम ने टास हारकर पहले पद्दी करने का फैसला किया। मैच २० ओवर का था। तय यह हुआ कि एक खिलाड़ी दोबार अधिकतम चार ओवर बल्ला भांजेगा या फिर दो बार आउट होकर वापस चला जायेगा। हमने एक ओवर भी फेंका। पहली ही बाल में कंधा उतर गया। फिर भी हमने पूरा ओवर फेंका तथा गेंद विकेट तक पहुंचाई। हमारी विरोधी टीम ११५ रन बना पाई।
हमारी टीम ने धीमी मगर ठोस शुरुआत की। चार ओवर बाद ओपनर वापस आ गये। हम गये अपने साथी को लेकर। हमसे आशायें थीं लोगों को। हमने भी निराश नहीं किया।चार ओवर के दौरान केवल दो बार आउट होकर १३ गेंदों तीन झन्नाटेदार चौकों के साथ उन्नीस रन बनाये। मतलब हमारा स्ट्राइक रेट रहा १४६ । रहता है किसी वनडाउन बल्लेबाल का इतना औसत? वो तो कहो हम जाना नहीं चाहते किसी टीम में वर्ना बेचारे द्रविड़ की भी सीट डोलने लगती। अब यह क्या बतायें कि हमारी टीम में और भी धुंआधार बल्लेबाज थे।लिहाजा १५-१६ ओवर में रन बराबर हो गये। इसके बार स्कोर बुक बंद कर दी गई। हमारा छोटा पुत्तर, जो हमारी तरफ से फील्डिंग कर रहा था,बैटिंन मिलने से कुछ मायूस सा था। फिर उसे अलग से खिलाया गया।
बच्चों के बाद महिला मंडल भी मैदान में आ गया। खेलने के लिये। महिलायें खेल में कम फोटो खिंचाने में ज्यादा ‘इंटरेस्टेड’ थीं। हमने भी अपने कैमरे के सेल खत्म होने तक फोटो खींचे। हम फोटो खींच रहे थे,वे हमें खींच रहीं थीं-भाई साहब,जरा हमारा भी खींचिये न! हमारी श्रीमती जी ने भी फोटो खिंचाया। बालिंग-बैटिंग करते हुये।
साल के आखिरी दिन हम थे लखनऊ में। ३१ को श्रीलाल शुक्ल जी का जन्मदिन था। सुबह तद्भव संपादक अखिलेश से मिले। शाम को श्रीलालजी से मिले। एक दिन पहले उनके ८० वें जन्मदिन के अवसर पर दिल्ली में अमृत महोत्सव मनाया गया था। उसी के किस्से चल रहे थे। अभिनन्दन ग्रन्थ में मेरा भी लेख है। तमाम फोटो हैं। संस्मरणात्मक लेख अधिकतर प्रसंशात्मक हैं। श्रीलाल जी अपने खास अंदाज में कह रहे थे- ये जो लेखों में कुछ तारीफ हो गयी मुझे लगता नहीं कि उसके लिये मुझे अपराधबोध महसूस करना चाहिये।
मैंने वहां पर श्रीलालजी को उनका शब्दांजलि में छपा साक्षात्कार दिखाया तो उन्होंने दूसरे लोगों को भी दिखाने को कहा। लोग वहां आते-जाते जा रहे थे।श्रीलाल जी ने केक काटा।खाया गया।लोग सुरा पान भी कर रहे थे। मुझ जैसे खालिस देसी के लिये काफी बनवानी पड़ी। तमाम संस्मरण सुने वहां। कैमरा मेरा बच्चा ले गया था। उसका न होना बहुत खला।जब मैं आने लगा तो खाना बाकी लोगों की तरह खाना खाकर ही आने दिया गया।
कानपुर लौटते समय हम अपना निर्माणाधीन घर देखने गये। जलवायुबिहार में एअर फोर्स नवल हाउसिंग सोसाइटी वाले ये घर बना रहे हैं। शायद साल के अंत तक घर मिल जायें। लखनऊ एयरपोर्ट से चार किमी की दूरी पर इन घरों का सबसे अच्छा हिस्सा हमें टेरेस लगा जहां बैठकर घंटों ब्लागिंग तथा नावेलिंग की जा सकती है।
साल की शुरुआत ब्लाग जगत में ठंडी सी है। लोग बहुत कम लिख रहे हैं। आशा है मामला जोर पकड़ेगा। मुझे भी हर सोमवार लिखनी थी अपनी यायावरी पर पोस्ट लेकिन हो नहीं पाया इस बार। व्यस्तता,आलस्य,अगले हफ्ते के गठबंधन ने मामला पटरा कर दिया।
आज ही देबू की पोस्ट से पता चला कि इंडीब्लागीस के चुनाव के लिये प्राथमिक चरण के चुनाव संपन्न हो गये। इस चुनाव में मेरी रुचि कौतूहल की बनी हुई है। हम ब्लागिस्तानी के लेख हिंदी तथा अन्य भाषाओं में भी हों ऐसा मेरा मत था। लेकिन बाद में यह देखकर कुछ आश्चर्य भी हुआ कि अंग्रेजी के लेख भी नहीं छपे। शायद ये लेख ‘फिलर’ की तरह थे। बहरहाल,यह देखकर किंचित आश्चर्य हुआ कि निर्णायकों ने मेरा पन्ना को नहीं चुना उससे ज्यादा आश्चर्य यह देखकर हुआ कि रवि रतलामी को लाइफ टाईम अचीवर के लायक नहीं समझा गया। अगर टैगिंग-फैगिंग का लफड़ा हो (पंकज ने कमेंट रूप में रविरतलामी का नाम दिया था) तो नहीं कह सकता लेकिन यदि रवि रतलामी का नाम माननीय सदस्यों ने वोटिंग के बाद खारिज किया तो उनकी जानकारी के स्तर समझ पर शक करने का मन करता है।
मुझे लगता है कि बिना शोर-शराबे के नेट पर हिंदी लेखन,ब्लागिंग में रवि रतलामी का जितना मात्रात्मक योगदान रहा है शायद ही किसी का उतना रहा है।मैंने खुद ब्लागिंग रविरतलामी का लेख पढ़कर शुरू की। उनका योगदान किसी पुरुस्कार का मोहताज नहीं है। यह भी सही है कि निर्णायक अपने स्वतंत्र मत रखने के अधिकारी होते हैं उसी तरह जैसे कि मेरा मत यह बन रहा है कि निर्णायकों तथा आंख मूंदकर वोटिंग करने वाले लोगों में कोई खास अंतर नहीं ।
मेरा ब्लाग लेखन लोगों को कितना पसन्द आता है पता नहीं लेकिन ऐसा लगता है कि लोगों की मौज -मजे की अपेक्षायें कुछ ज्यादा हैं। लेकिन उसका माहौल कुछ कम सा लगता है। अकेले जीतू के कंधे पर बंदूक कब तक रखी जाये। एक वही हैं जोहमेशा छिड़ने को तैयार रहते हैं। बहरहाल आगे देखा जायेगा मामला।
साल शुरू हो ही गया तो शुभकामनायें भी अदल-बदल लीं जाये। सबका जीवन चहकता-महकता रहे। कुंवारे-बेचारे दुधारे बनें। विवाहित सुखी रहें। महिलाओं के पति उनका ख्याल रखें। महिलायें उनपर निगाह रखने में सफल हो सकें। बच्चे दोनों के अवगुणों से बचे रहें। फलें-फूलें।फूल से महकते -चहकते रहें।खिलखिलाहट का राज बना रहे। मायूसी का नाश हो। हिंदी ब्लागर दिन-दूने रात चौगुने बढ़ें। ब्लागरों को टिप्पणियां मिलती रहें। न लिखने वालों को खुदा झिड़कियां बख्से। आमीन!
मेरी पसंद
जब-जब आँखों में,सिंहासन के,ख्वाब दिखे,हम प्रतिपल-प्रति दिन-रात चले ,
कहने को सत्ता मिली,किन्तु ,
रहने को कारावास मिले ।
सौरभ सुमनों के लिए ,कई बरसों
तक की, हमने बाट तकी,
जब इनको भी, मुरझाते,कुचले जाते देखा,
फिर जाती यह भी आस रही ।
कुछ बात नहीं हम कह पाये,
कुछ बात नहीं हम सह पाये,
कुछ दर्द रह गए सीने में,
कुछ बात रह गयी जीने में।
गंधर्वों के उत्सव में भी,हम,
शामिल थे ,एक पुजारी से,
कुछ मन्त्र पढे , कुछ भूल गये,
भावी जीवन की तैयारी में ।
-राजेश कुमार सिंह
Posted in बस यूं ही | 15 Responses
प्रत्यक्षा
मुझे पूरा विश्वास है कि पाठको का प्यार,दुलार,स्नेह और विश्वास मेरा पन्ना मे बना रहेगा, यही मेरी सबसे बड़ी कामयाबी होगी।
इलाहाबाद के रेलवे स्टेशन पर २४ दिसम्बर की भीगी ठंढ़ में, ली गयी फोटो देखने की इच्छा तो बहुत पहले से जोर मार रही थी।लेकिन, अब लखनऊ के मकान की फोटो देखने के बाद, तो गृहप्रवेश में शामिल होने की इच्छा ज्यादा जोर पकड़ ली है। लगता है, अब “लखनऊ दूर नहीं”।
“अल्युमनी एसोसिएशन” के आयोजन में पदाधिकारियों के चयन प्रकरण में, अपने चयनित होने की खबर आप दबा ले गये हैं। सो, हम उजागर किये दे रहे हैं। हिन्दी में तकनीकी भाषाऒं की शिक्षा का मसला, हम उस मंच पर लाना चाहते थे, जिस मंच से, बोलते हुए, आप , फोटो में दिख रहे हैं / दिखाये गये हैं। पर, आशा है, अनुरोध है और विश्वास है कि अपने एक साल के इस कार्यकाल में आप इस दिशा में, कालेज के लोगों का ध्यान आकृष्ट करने में जरूर सफल होंगे। और, अगर इस बीच कुछ सार्थक शुरुआत भी हो सके, तो क्या कहना !
-राजेश
इस आईडेंटिटी क्राइसिस पर एक लेख लिखने की बनती है कि नही?
हमेशा की तरह बहुत बढ़िया लिखा है। श्रीलाल शुक्ल मेरे फेवरिट लेखक हैं। उनका पूरा वाङ्गमय मेरे पास है। वे ८० वर्ष के हुये और स्वस्थ एवं सानन्द हैं, यह जानकर प्रसन्नता हुई। आपका बेनेदिक्शन बहुत अच्छा लगा। एक बचपन का सुना वचन उसमें जोड़ रहा हैं: “जैसे घूरेव के दिन बहुरत हैं,वैसेइ सबै के दिन बहुरैं।”
आपकी पसन्द भी बहुत सुन्दर लगी।
लक्ष्मीनारायण