Tuesday, March 28, 2006

मैं और मेरी जम्हाई

http://web.archive.org/web/20110101201217/http://hindini.com/fursatiya/archives/115

मैं और मेरी जम्हाई

मैं और मेरी जम्हुआई
अक्सर बातें करते हैं।
सोते रहे थे रात भर
क्यों खर्राटे भरते हो।
कुछ ऐसी सी ही पैरोडियां तबसे फुदक रहीं हैं जबसे टीवी पर लाफ्टर चैलेंज द्वितीय में एक डाक्टर का कार्यक्रम देखा जिसमें वे कहते हैं-
मैं और मेरी तन्हाई,
अक्सर बातें करते हैं
नौकर नहीं है परसों से
 पति वही है बरसों से।
लेकिन हमारी ये फुदकती पैरोडियां आगे नहीं बढ़ पायीं । आलस्य ने उनके पर कतर के गर्दन मरोड़ दी(गोया पैरोडियां बर्ड-फ्लू वायरस युक्त मुर्गियां हों ) और हम खडे़-खड़े गुबार देखते रहे।
गुबार देखते रहे’ का कापीराइट गोपालदास’नीरज‘ जी के पास है। वे जिंदगी भर कारवां गुजर जाने के बाद का गुबार देखते रहे।अब जाकर उनको कारवां का साथ नसीब हुआ है।उन्हें उ.प्र. सरकार ने मंत्रीपद की सारी सुविधायें प्रदान की हैं।
राज्य,राजनीति से अलग कुछ मामलों में उ.प्र.के मुख्यमंत्री मुलायमसिंहजी का अंदाज एकदम आश्रयदाता राजाओं जैसा रहता है। उनको जो जंच जाता है वे कर डालते हैं।नीरज लोकप्रिय कवि हैं। वे नीरज को पसंद करते हैं,नीरज उनको। सो तड़ से उनको लालबत्ती दे दी।
इसके पहले भी कई मौंको पर वे त्वरित उदारता दिखा चुके हैं। पिछले वर्ष जब उप्र साहित्य अकादमी के पुरस्कार बंट रहे थे तो कुछ इनाम पांच-दस हजार रुपये के थे । मुलायमसिंहजी बोले ये भी कोई इनाम होते हैं? तुरन्त पांच-दस हजार रुपये के इनामों को एक लाख दो लाख में तब्दील कर दिया। कवि-साहित्यकार गदगद!
 बहरहाल, हम बात कर रहे थे मैं और मेरी तन्हाई की। तन्हाई तो अब हमारे लिये वैसी हो गई है जैसे अमेरिका के लिये ओसामा बिन लादेन, मिल के ही नहीं देता।
 आजकल हम हर जगह घिरे रहते हैं। घर में घरवालों से,आफिस में बवालों से,नींद में सवालों से।
तन्हाई हमारे लिये अमेरिका का ग्रीनकार्ड हो गयी है- मिलना मुश्किल है।
 कुछ लोग भीड़ में भी तन्हा रह लेते हैं जैसाकि गीतकार भारत भ्रमर कहते हैं:-
भीड़ का अकेलापन जब बहुत खलने लगा
 दर्द की धूनी रमाकर प्राण जोगी हो गये
जोग ही संजोग का शायद कभी कारण बने
 इसलिये हम रूप के मारे वियोगी बन गये।
कभी-कभी मैं सोचता हूं कि काहे को मैं तन्हाई की बाट जोह रहा हूं। संयोग की स्थितियां होने पर वियोग के लिये तड़पना पागलपन ही तो है। लेकिन हमें लगता है कि इस पागलपन में हम अकेले नहीं हैं। पूरा कारवां इसी अदा से गुजर रहा है।
जगजीतसिंह-चित्रा सिंह ने एक गजल गाई है जिसमें प्रेमी-प्रेमिका मिलन का सार्थक उपयोग करने के बजाय भविष्य में बिछड़ने की स्थितियों के लिये तैयारी कर रहा है:-
मिलकर जुदा हुये तो न सोया करेंगे हम
एक दूसरे की याद में रोया करेंगे हम।
बिछड़ने की हालत में चूंकि प्रेमी की याद में करवटें बदलने का रिवाज है और हर जोड़े को नींद में करवटें लेने की आदत नहीं होती लिहाजा यह तय किया गया कि अगर बिछुड़ गये तो सोयेंगे ही नहीं। जब सोयेंगे ही नहीं तो करवट-बदल अनुष्ठान आसानी से पूरा हो सकेगा। यह भी हो सकता है कि कोशिश के बावजूद झपकी लग जाये ,नींद आ जाये तो उसका भी जुगाड़ है- एक दूसरे की याद में रोया करेंगे। जब रोयेंगे तो एकाध आंसू निकलेंगे ही ।वही आंसू पानी के छींटे बनकर नींद को भगा देगी,जैसे कभी-कभी आतंकवादियों को देखकर पुलिस भाग खड़ी होती है।
ये प्रायोजित सुबुक-सुबुकपन प्रेम का आदर्श तत्व सा बन गया है। जो जितना रोने की स्थितियों से गुजर सकता है उसके प्रेम का झंडा उतना ही ऊंचा तथा देर तक फहराता रहता है।
हमें लगता है इसी रोने-धोने से बचने के लिये भारत में शादी के पहले प्यार की प्रथा नहीं है। एक व्यक्ति-एक पद के सिद्धांत का अनुसरण करते हुये ,जिससे शादी की उसी से प्यार करने लगे। जिंदगी भर प्यार करते रहे,करते रहे,करते रहे- जब तक प्यार या प्रेमी-प्रेमिका में से एक खतम नहीं हो गया।
प्यार का एक नया आयाम हास्यकवि सुरेन्द्र शर्मा ने मुछ दिन पहले एक कवि सम्मेलन में बताया।उन्होंने बताया कि हर एक की जिंदगी में प्यार का कोटा निश्चित रहता है। ज्यादा प्यार करोगे ,जल्दी खतम होगा। बचा-बचाकर करोगे तो देर तक बचेगा। चलेगा।
भारत में लोग इजहारे-मुहब्बत में काफी बचत से काम लेते हैं लिहाजा प्यार की फिजूल खर्ची बच जाती है। मान लो अगर धोखे में किसी से ज्यादा प्यार खर्च हो गया तो विपरीत परिस्थितियों से नुकसान की भरपाई का प्रयास किया जाता है।
तमाम लोग तो प्यार में फिजूलखर्ची के कारण हुये नुकसान की भरपाई के
लिये मारपीट का सहारा लेने तक को मजबूर होते हैं।
अमेरिका जैसे विकसित देश में और तमाम चीजों की तरह लोग प्रेम के मामले में बहुत खर्चीले होते हैं। कभी-कभी तो अपनी पूरी जिंदगी भर के प्यार का कोटा साल भर में हिल्ले लगा देते हैं।फिर दूसरी जगह लाइन लगाते है। प्यार उनके लिये कंचन मृग बना रहता है।वे तन्हा ही रहते हैं।
यह तन्हाई का अहसास बीजमंत्र बनकर तमाम कविताओं में छितरा जाता है जैसे नेहरूजी की हड्डियों की राख पूरे भारत भर में नदियों,पर्वतों में बिखरा दी गयी थी। नतीजतन लोग अपने साथी को बावरे बने खोजते रहते हैं। कोई सपने में,कोई इंद्रधनुष में कोई कहीं-कोई कहीं । आधुनिकता की हफड़-दपड़ में भी बहुतों को बावरेपन का पुरातन आसन ही पसंद आता है तथा वे अपने प्रिय को चातक के आसन में खोजते हैं। अनुभवी लोग लोग-टिकाऊ पसंद।
हम और कुछ भी बहुत कुछ गड्ड-मड्ड खुलासा करना चाहते हैं। लेकिन नींद है कि जम्हाईयों की फौज भेज रही है लिहाजा हम जम्हुआई से फिर से बतियाने जा रहे हैं। वहीं से नींद के पास चले जायेंगे।तब तक आप अपनी कहानी कहिये:-
 मैं और मेरी जम्हाई
 अक्सर बातें करते हैं,
मुंह खुला-खुला रह जाता है
चेहरे पर बारह बजते हैं।

जब जम्हाई विदा ले लेती है
निदिया रानी की बन आती है
वो मदमाती सी आती हैं
संग खर्राटा प्रियतम लाती हैं।

खर्राटों के कोलाहल में
सासों की नानी मरती है,
सहमी-सहमी सी चलती हैं,
भीगी बिल्ली बन जाती हैं।

कुछ हल्ले-गुल्ला कर लेने पर
खर्राटे का भी बाजा बजता
वो सांसों से मिल जाता है
इक नया राग सरगम बजता।


इस राग-ताग,सरगम-हल्ले में
सब समय सरक सा जाता है
फिर नयी सुबह खिल जाती है
सूरज भी नया-नया खिलता।

कलियां खिलती हैं फूलों में
पंखुडियां धरती पर चू जाती हैं
फिर कुछ अलसाया सा लगता है
जम्हुआई का डंका बजता है।

मैं और मेरी जम्हुआई
फिर गुपचुप-गुपचुप करते हैं,
जो सुन पायें वे मस्त हुये
बाकी औंघाया करते हैं।
 

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

One response to “मैं और मेरी जम्हाई”

  1. फ़ुरसतिया » छत पर कुछ चहलकदमी
    [...] जम्हुआने के बाद हमारी नींद लग गयी। आज जब उठे तो प्रत्यक्षाजी की छत देखी। इनकी छत देखकर मुझे भी लगा कि हम भी कुछ अपनी छत देखें। सो हम भी कविता के जीने चढ़कर आ गये अपनी छत पर। अब हम प्रत्यक्षाजी जैसे काबिल छतबाज तो हम हैं नहीं लेकिन जैसे कि रविरतलामी जी ने कहा था कि नये कवियों को फुरसतिया जैसे लोगों की आलोचना की परवाह किये बिना कविता करना जारी रखना चाहिये तो उसी प्रोत्साहन की बल्ली लगाकर हम कविताप्रदेश में घुसपैठ की कोशिश कर रहे हैं । हमारा पूरा जोर मौज मजे पर है लेकिन फिर भी अगर किसी को कविता का कोई सबूत मिल जाय तो दोष हमें न देकर रतलामी जी को दिया जाय।दोष देने के लिये ‘सेविंग क्रीम वाला’ आधुनिकतम तरीका अपनाया जा सकता है। १. मेरी छत तुम्हारी छत से सटी खड़ी है- किसी परेड में सावधान खड़े जवान की तरह। छत से नीचे जाते ‘रेन वाटर पाइप’ एक दूसरे को दूर से ताकते हैं – सामांतर रेखाओं की तरह जिनका मिलन नामुमकिन सा है। छत का पानी अलग होकर पाइपों  से गुजरता है- अलगाव की तड़प से पाइपों को सिहराता हुआ। थरथराते पाइप पानी को आवेग के साथ मिलते देखते हैं सामने के नाले में संगम सा बनाते हुये। [...]

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