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मिस़रा उठाओ यार…
By फ़ुरसतिया on April 21, 2006
दो दिन पहले अनूप भार्गव जी
मिल गये नेट पर। पता चला कि २३ जुलाई को न्यूयार्क में होने वाले कवि
सम्मेलन की तैयारी कर रहे हैं। तैयारी में कोई कमी न रह जाय इसलिये
पत्नीश्री को भारत भेज दिया है।(समाचार लिखने तक पता चला कि जब कुछ नहीं
बना तो सहायता के लिये वापस भी बुला लिया।) हमने सोचा कि अनूपजी को कुछ
टिप्स दे दिये जायें। सो हम बतियाते रहे कि
अइसा करना ,वइसा करना। ये सुनते रहे । लेकिन जब पता चला कि ये जनाब तो सात
साल से ही कविता का दामन थामे हुये हैं तब लगा कि जैसे हम न्यूटन को गति के
नियम समझा रहे हों।
कवि तथा कवि सम्मेलनों से मैं काफी समय से जुड़ा रहा हूं। इस दौरान लटके-झटके,अदायें देखने को मिलीं। यूं तो हर कवि की अदायें जुदा होतीं हैं लेकिन कुल मिलाकर लगभग सारे कवि की तमाम अदायें लगभग मिलती जुलती हैं। खासकर मंच से पढ़ते समय। नये कवि अपने पूर्वजों से सीखता रहता है कुछ अपना जोड़ता रहता है।
किसी भी कवि के लिये शुरुआत बहुत अहम होती है। अगर शुरुआत अच्छी हो गयी तो बहुत खुशनुमा माहौल में सफर गुजरता है वर्ना कवि तथा श्रोता दोनों सफर करते हैं। विरले ही कवि होते हैं जो खराब शुरूआत के बाद सफर को खुशनुमा माहौल में तब्दील कर लें।
अच्छी शुरूआत के फार्मूले होते हैं। कविगण अपनी क्षमता के अनुसार उनका उपयोग करते हैं। ज्यादातर कविगण शुरुआत के लिये कुछ बहुत छोटी परिचयनुमा कवितायें पढ़ते हैं जिससे श्रोताओं का ध्यान उनकी तरफ आकर्षित हो जाये। हमारे कानपुर के कवि प्रमोद तिवारी शुरुआत बहुत दिलकश अंदाज में गाते हुये करते हैं:-
-कविता पढ़ रहा हूं आपका आशीर्वाद चाहूंगा।
-आपसे जुड़ने का प्रयास कर रहा हूं ।
-अगर कोई पंक्ति आपके दिल को छुये तो इजहार जरूर कीजियेगा।
-अगर लगे कि मैंने आपकी बात रखी है तो इसका प्रमाण जरूर दीजियेगा।
-तालियों से हमारी हौसला आफजाई जरूर करियेगा।
कुछ लोग बहाने से तालियां बजवाते हैं। एक कवि बोले – अभी मुझसे पहले जो कविता पढ़ी गयी वैसी कवितायें बहुत कम सुनने को मिलती हैं। आप एक बार फिर से इनके लिये तालियां बजायें।
जैसे-जैसे कवि अनुभवी,प्रसिद्ध होता जाता है वैसे-वैसे वह श्रोताओं के मूड को समझता जाता है। फिर श्रोताओं को अपने अंदाज में काबू रखना आ जाता है।सबसे अच्छा तरीका कवियों के पास होता है कि जिस शहर में कविता पढ़ रहे हों वहां की तारीफ़ कर दो, वहां के महापुरुषों के लिये माथा नवा दो तथा वहां के कवियों की तारीफ के कसीदे काढ़ दो। आधा काम हो गया।फिर स्थानीय कवियों के चेले-चपाटी हुल्लड़ मचाने से परहेज करेंगे या हुल्लड़ की तेजी कम होगी।
हर कवि का अपना अंदाज़ सा बन जाता है। प्रसिद्ध शायर राहत इंदौरी एक बार शाहजहांपुर में पढ़ने के लिये खड़े हुये। उनसे पहले प्रसिद्ध गीतकार विष्णु सक्सेना श्रोताओं की तालियां बटोर चुके थे। जब कोई कवि बहुत तारीफ पा चुका हो तो अगले कवि की चुनौती होती है कि श्रोताओं को पहले के आकर्षण से मुक्त करके अपने से जोड़े। राहत इंदौरी बोले- अभी ये लड़का बहुत पढ़ रहा था। बहुत उम्दा। मेरे लिये बहुत आसान है कि जिस जमीन को इसने छोड़ा वहीं से अपनी बात शुरू कर दूं। लेकिन किसी दूसरे की जमीन पर खेती करना मुझे पसंद नहीं । इसलिये जो माहौल इसने बनाया है पहले तो मैं इसे बिगाड़ूंगा,फिर अपनी जमीन बनाऊंगा तब अपने शेर पढ़ूंगा।आप लोग ध्यान से सुनियेगा क्योंकि मैं अपने शेर दोहराता नहीं हूं।
अब अगर पचास साल की उमर के किसी जमे हुये कवि को राहत इंदौरी अपने खास मलंगो वाले अंदाज में लड़का बताकर राहत इंदौरी पढ़ना शुरू करेंगे तो पहले का हवापानी तो हवा हो ही जायेगा।
डा.नसीम निकहत ऐसी शायरा हैं जिनको देखते हुये सुनने का मजा ही कुछ और है।उनकी एक खास गजल है:-
नसीम निकहत भी बोलीं -हजरात ऐसा लग रहा है कि आप लोग कुछ ज्यादा थके हुये हैं। मैं पिछली तीन रातों से लगातार जग रहा हूं आज भी सो नहीं पायीं। लेकिन जैसा मेराज साहब ने कहा आप लोग देख ज्यादा रहे हैं सुन कम रहें हैं। इधर देख रहे हैं उधर देख रहे हैं न जाने किधर देख रहे हैं क्या देख रहे हैं।
मेराज साहब बोले ये वजाहत भी कर दीजिये कि आप तीन रातों से मुसलसल तीन रातों से मुशायरों में जग रहीं हैं वर्ना लोग न जाने क्या समझेंगे।
नसीम निकहत फिर इठलाती हुई बोलीं-इतने थके हुये लोग हमें अच्छे नहीं लगते।
मंच पर अध्यक्षता कर रहे कवि दादा राजबहादुर ‘विकल’ बोले ये शाहजहांपुर के श्रोता हैं ,थके हैं नहीं सिर्फ मालूम पड़ रहे हैं।
नसीम निकहत ने एक और गज़ल पेश की थी:-
जब देश नवनिर्माण में जुटा था तब कुछ कवि पश्चिम से आयातित दुख की मरघटी कवितायें लिख रहे थे। अपनी मरणधर्मा कवितायें जमाने के लिये मैंने कवियों को घंटों आइने के सामने बाल बिगाड़ते ,अपने को लुटा-पिटा बनाते देखा है।वे निराशा की मार्केटिंग कर रहे थे।
परसाई जी ने शिवमंगल सिंह के बारे में लिखा है:- “शिवमंगल सिंह’सुमन’ कविता पढ़ते समय अपनी आंखे नचाते हुये पूरे शरीर का उपयोग करते हुये कविता पढ़ते थे। एक बार कवि गोष्ठी के पहले सुमन जी बोले -मैं कविता पढ़ नहीं पाऊँगा मेरी आंख में तकलीफ है। मैं बोला(परसाई जी) आप कविता पढ़ देना ,आंखें मैं मटका दूंगा।”
समय के साथ कवि सम्मेलनों में सुधी श्रोता कम होते गये हैं। कवि भी चुटकुले सुनाकर श्रोताओं का सस्ता मनोरंजन करके तालियां बटोरने लगे हैं। ज्यादातर चुटकुले स्त्रीपुरुष संबंधों तथा राजनीति से संबंधित होते हैं। तात्कालिकता जिसका मुख्य मुद्दा होता है। कवि श्रोता को सर्वोपरि मानकर उसका मनोरंजन करना अपना धर्म मानने लगा है।
इन सबसे अलग गीतऋषि के रूप में जाने जाने वाले स्व.रमानाथ अवस्थी जी डूबकर कविता पढ़ते थे। लगता है कि पूजा कर रहे हों। जब उन्होंने मंच यात्रा शुरू की थी तो उनके रागात्मकत गीतों की धूम थी:-
वहां उन्होंने पढ़ा था:-
लोग बताते हैं कि एक बार निराला जी कहीं कविता पढ़ रहे थे । बीच में बिजली चली गयी। माइक की आवाज बंद। लेकिन निराला जी बिना रुके अपनी कविता राम की शक्तिपूजा पढ़ते रहे। जनता भी मौन होकर सुनती रही। निराला जी अपनी अपनी कविता पूरी सुनाई। आज की बात होती लोग हल्ला मचाने लगते । कवि बैठ जाता।
ऐसा ही एक वाकया शाहजहांपुर में हुआ। स्व.वली असी ने शेर पढ़ने शुरू किये। एकदम सफेद बाल, सूफियाने अंदाज वाले वली असी बेहद आकर्षक लगते थे। किसी मनचले सुनने वाले ने कुछ बेहूदगी कर दी।कुछ बोला जो कि साफ सुनाई नहीं पड़ा लेकिन यह लग रहा था कि हूटिंग जैसा कुछ है। वली असी तो कुछ नहीं बोले लेकिन मंच पर बैठे नंदनजी को बुरा लगा। वे लगभग झपटकर माइक पर आये। डांटकर बोले ये किसने बद्तमीजी की? कौन बोला? वहां सन्नाटा था। फिर वो बोले जब वली असी जैसा शायर पढ़ रहा हो तो ये आपका भी इम्तहान होता है कि आप कितना जुड़ पाते हैं उससे। मुशायरे में आये हैं तो सुनने की तमीज भी साथ में होनी चाहिये:-
वसीम बरेलवी जब शेर पढ़ना शुरू करते हैं तो शुरूआत नये शेरों से करते हैं। वे बरेली से आते थे। शाहजहांपुर के श्रोताओं से उनका अनौपचारिक संबंध है। उनके कुछ पसंदीदा शेर जो मुझे याद आ रहे हैं:-
हम समझे कि हमारे आयोजक साथी अरविंद मिश्र कहीं गिर गये हैं जिनको उठाने के लिये वसीम साहब कह रहे हैं। लेकिन जब देखा कि मिसिरजी तो हमारे साथ बैठे तालियां पीट रहे हैं तो समझ में आया कि शायर दाद मांग रहा है। मिसरा उठाने के लिये कह रहा है मतलब शायर ‘वाह-वाह’ मांग रहा है।
मिसरा उठाने का मतलब है कि मिसरा/शेर को दोहराया जाय। वाह-वाह क्या बात है,जरा फिर से पढ़ दीजिये,मजा़ आ गया जैसे जुमले उछालना होता है।
मेरी पसंद में इस बार अनूप भार्गव की गज़ल दे रहा हूं।यह गज़ल २३ अप्रैल को न्यूयार्क में होने वाले कवि सम्मेलन की परिचय पुस्तिका में शामिल है। कवि सम्मेलन में शानदार सफलता की शुभकामनाओं के साथ!
आप भी क्या गजब हैं। इतना पढ़ने के बाद भी चुप हैं। कवि क्या सोचेगा?
मिस़रा उठाओ यार!
मेरी पसंद
परिधि के उस पार देखो
इक नया विस्तार देखो ।
तूलिकायें हाथ में हैं
चित्र का आकार देखो ।
रूढियां, सीमा नहीं हैं
इक नया संसार देखो
यूं न थक के हार मानो
जिन्दगी उपहार देखो ।
उंगलियाँ जब भी उठाओ
स्वयं का व्यवहार देखो
मंजिलें जब खोखली हों
तुम नया आधार देखो ।
हाँ, मुझे पूरा यकीं है
स्वप्न को साकार देखो ।
-अनूप भार्गव
कवि तथा कवि सम्मेलनों से मैं काफी समय से जुड़ा रहा हूं। इस दौरान लटके-झटके,अदायें देखने को मिलीं। यूं तो हर कवि की अदायें जुदा होतीं हैं लेकिन कुल मिलाकर लगभग सारे कवि की तमाम अदायें लगभग मिलती जुलती हैं। खासकर मंच से पढ़ते समय। नये कवि अपने पूर्वजों से सीखता रहता है कुछ अपना जोड़ता रहता है।
किसी भी कवि के लिये शुरुआत बहुत अहम होती है। अगर शुरुआत अच्छी हो गयी तो बहुत खुशनुमा माहौल में सफर गुजरता है वर्ना कवि तथा श्रोता दोनों सफर करते हैं। विरले ही कवि होते हैं जो खराब शुरूआत के बाद सफर को खुशनुमा माहौल में तब्दील कर लें।
अच्छी शुरूआत के फार्मूले होते हैं। कविगण अपनी क्षमता के अनुसार उनका उपयोग करते हैं। ज्यादातर कविगण शुरुआत के लिये कुछ बहुत छोटी परिचयनुमा कवितायें पढ़ते हैं जिससे श्रोताओं का ध्यान उनकी तरफ आकर्षित हो जाये। हमारे कानपुर के कवि प्रमोद तिवारी शुरुआत बहुत दिलकश अंदाज में गाते हुये करते हैं:-
सच है गाते गाते हम भी थोड़ा सा मशहूर हुए,स्व.कवि बलबीर सिंह ‘रंग’ चार लाइन की कविता पढ़ते थे जिसमें बताया गया है कि सितारों में यह बहस चल रही है कि रंग जैसे लोग इतने कम क्यों हैं। कविता की आखिरी लाइन है:-
लेकिन इसके पहले पल-पल,तिल-तिल चकनाचूर हुए।
चाहे दर्द जमाने का हो चाहे हो अपने दिल का,
हमने तब-तब कलम उठाई जब-जब हम मजबूर हुए।
धरा पर ‘रंग’ जैसे लोग अब पाये नहीं जाते।किसी भी कवि सम्मेलन की सफलता-असफलता का मापदंड श्रोताओं की प्रतिक्रिया होती है। श्रोता अगर खुश ,समझो कवि हिट। श्रोता बादशाह होता है कवि सम्मेलन का। श्रोता को पटाने के लिये कवि,शायर भी अपने-अपने अंदाज में कोशिश करते रहते हैं।ज्यादातर लोग कहते हैं अगर कविता पसंद आये तो प्रतिक्रिया जरूर कीजियेगा।तमाम डायलाग जो बोले जाते हैं वे कुछ इस तरह के होते हैं:-
-कविता पढ़ रहा हूं आपका आशीर्वाद चाहूंगा।
-आपसे जुड़ने का प्रयास कर रहा हूं ।
-अगर कोई पंक्ति आपके दिल को छुये तो इजहार जरूर कीजियेगा।
-अगर लगे कि मैंने आपकी बात रखी है तो इसका प्रमाण जरूर दीजियेगा।
-तालियों से हमारी हौसला आफजाई जरूर करियेगा।
कुछ लोग बहाने से तालियां बजवाते हैं। एक कवि बोले – अभी मुझसे पहले जो कविता पढ़ी गयी वैसी कवितायें बहुत कम सुनने को मिलती हैं। आप एक बार फिर से इनके लिये तालियां बजायें।
जैसे-जैसे कवि अनुभवी,प्रसिद्ध होता जाता है वैसे-वैसे वह श्रोताओं के मूड को समझता जाता है। फिर श्रोताओं को अपने अंदाज में काबू रखना आ जाता है।सबसे अच्छा तरीका कवियों के पास होता है कि जिस शहर में कविता पढ़ रहे हों वहां की तारीफ़ कर दो, वहां के महापुरुषों के लिये माथा नवा दो तथा वहां के कवियों की तारीफ के कसीदे काढ़ दो। आधा काम हो गया।फिर स्थानीय कवियों के चेले-चपाटी हुल्लड़ मचाने से परहेज करेंगे या हुल्लड़ की तेजी कम होगी।
हर कवि का अपना अंदाज़ सा बन जाता है। प्रसिद्ध शायर राहत इंदौरी एक बार शाहजहांपुर में पढ़ने के लिये खड़े हुये। उनसे पहले प्रसिद्ध गीतकार विष्णु सक्सेना श्रोताओं की तालियां बटोर चुके थे। जब कोई कवि बहुत तारीफ पा चुका हो तो अगले कवि की चुनौती होती है कि श्रोताओं को पहले के आकर्षण से मुक्त करके अपने से जोड़े। राहत इंदौरी बोले- अभी ये लड़का बहुत पढ़ रहा था। बहुत उम्दा। मेरे लिये बहुत आसान है कि जिस जमीन को इसने छोड़ा वहीं से अपनी बात शुरू कर दूं। लेकिन किसी दूसरे की जमीन पर खेती करना मुझे पसंद नहीं । इसलिये जो माहौल इसने बनाया है पहले तो मैं इसे बिगाड़ूंगा,फिर अपनी जमीन बनाऊंगा तब अपने शेर पढ़ूंगा।आप लोग ध्यान से सुनियेगा क्योंकि मैं अपने शेर दोहराता नहीं हूं।
अब अगर पचास साल की उमर के किसी जमे हुये कवि को राहत इंदौरी अपने खास मलंगो वाले अंदाज में लड़का बताकर राहत इंदौरी पढ़ना शुरू करेंगे तो पहले का हवापानी तो हवा हो ही जायेगा।
डा.नसीम निकहत ऐसी शायरा हैं जिनको देखते हुये सुनने का मजा ही कुछ और है।उनकी एक खास गजल है:-
मिलना है तो आ जीत ले मैदान में हमकोपढ़ने के दरमियान नोकझोंक ,हाजिरजवाबी का मुजाहिरा करते रहने का उनका खास अंदाज है।एक बार जब वो पढ़ रहीं थीं तो तालियां कुछ कम बज रहीं थीं। संचालक मेराज फैजाबादी बोले- मैं पिछले वर्षों में देखता था कि आप लोग एकाध गजल में देखने का काम खतम करके सुनने का काम शुरू कर देते थे। इस बार मैं देख रहा हूं कि अभी आप पहले ही काम से फारिग नहीं हो पाये हैं।
हम अपने कबीले से बगावत नहीं करते
तूफान से लड़ने का सलीका है जरूरी
हम डूबने वालों की हिमायत नहीं करते।
पलकों पे सितारे है न शबनम न जुगनू
इस तरह तो दुश्मन को भी रुखशत नहीं करते।
नसीम निकहत भी बोलीं -हजरात ऐसा लग रहा है कि आप लोग कुछ ज्यादा थके हुये हैं। मैं पिछली तीन रातों से लगातार जग रहा हूं आज भी सो नहीं पायीं। लेकिन जैसा मेराज साहब ने कहा आप लोग देख ज्यादा रहे हैं सुन कम रहें हैं। इधर देख रहे हैं उधर देख रहे हैं न जाने किधर देख रहे हैं क्या देख रहे हैं।
मेराज साहब बोले ये वजाहत भी कर दीजिये कि आप तीन रातों से मुसलसल तीन रातों से मुशायरों में जग रहीं हैं वर्ना लोग न जाने क्या समझेंगे।
नसीम निकहत फिर इठलाती हुई बोलीं-इतने थके हुये लोग हमें अच्छे नहीं लगते।
मंच पर अध्यक्षता कर रहे कवि दादा राजबहादुर ‘विकल’ बोले ये शाहजहांपुर के श्रोता हैं ,थके हैं नहीं सिर्फ मालूम पड़ रहे हैं।
नसीम निकहत ने एक और गज़ल पेश की थी:-
इतना पास आके फिर ये झिझकना कैसाकुछ कवि अपनी कविताओं के कारण जितने पसंद किये जाते हैं ,उनका अंदाजे बयां भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है। परसाई जी ने अपने संस्मरणों में लिखा है -
साथ निकले हैं तो फिर राह में थकना कैसा?
मेरे आंगन को भी खुशबू का कोई झोंका दे
सूने जंगल में ये फूलों का महकना कैसा?
रौशनी दी है तो सूरज की तरह दे मुझको
जुगनुओं की तरह थोड़ा सा चमकना कैसा?
मेरी पलकें मेरा आंचल मेरा तकिया छू लो
आंसुओं इस तरह आंखो में खटकना कैसा?
जब देश नवनिर्माण में जुटा था तब कुछ कवि पश्चिम से आयातित दुख की मरघटी कवितायें लिख रहे थे। अपनी मरणधर्मा कवितायें जमाने के लिये मैंने कवियों को घंटों आइने के सामने बाल बिगाड़ते ,अपने को लुटा-पिटा बनाते देखा है।वे निराशा की मार्केटिंग कर रहे थे।
परसाई जी ने शिवमंगल सिंह के बारे में लिखा है:- “शिवमंगल सिंह’सुमन’ कविता पढ़ते समय अपनी आंखे नचाते हुये पूरे शरीर का उपयोग करते हुये कविता पढ़ते थे। एक बार कवि गोष्ठी के पहले सुमन जी बोले -मैं कविता पढ़ नहीं पाऊँगा मेरी आंख में तकलीफ है। मैं बोला(परसाई जी) आप कविता पढ़ देना ,आंखें मैं मटका दूंगा।”
समय के साथ कवि सम्मेलनों में सुधी श्रोता कम होते गये हैं। कवि भी चुटकुले सुनाकर श्रोताओं का सस्ता मनोरंजन करके तालियां बटोरने लगे हैं। ज्यादातर चुटकुले स्त्रीपुरुष संबंधों तथा राजनीति से संबंधित होते हैं। तात्कालिकता जिसका मुख्य मुद्दा होता है। कवि श्रोता को सर्वोपरि मानकर उसका मनोरंजन करना अपना धर्म मानने लगा है।
इन सबसे अलग गीतऋषि के रूप में जाने जाने वाले स्व.रमानाथ अवस्थी जी डूबकर कविता पढ़ते थे। लगता है कि पूजा कर रहे हों। जब उन्होंने मंच यात्रा शुरू की थी तो उनके रागात्मकत गीतों की धूम थी:-
सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रातबाद के दिनों में रमानाथजी सूफियों वाले अंदाज में पढ़ते थे:-
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात ।
आज आप हैं हम हैं लेकिनवे किसी से तालियों की अपेक्षा नहीं करते थे।शाहजहांपुर के कवि सम्मेलन की याद है मुझे जिसमें वे कह रहे थे -‘आप अपने हाथों को बिल्कुल कष्ट न दें। गले पर बिल्कुल जोर न डालें। आप सिर्फ सुनें। कविता से जुड़ेंगे तो मुझे अच्छा लगेगा।’
कल कहां होंगे कह नहीं सकते
जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।
वहां उन्होंने पढ़ा था:-
वक्त मुश्किल है कुछ सरल बनियेलेकिन कुछ कवि होते हैं जो श्रोताओं को अधिकार पूर्वक डांट भी देते हैं। श्रोता भी कवि की हनक के अनुसार व्यवहार करते हैं।
प्यास पथरा गयी तरल बनिये
जिसको पीने से कृष्ण मिलता है
आप मीरा का वह गरल बनिये।
लोग बताते हैं कि एक बार निराला जी कहीं कविता पढ़ रहे थे । बीच में बिजली चली गयी। माइक की आवाज बंद। लेकिन निराला जी बिना रुके अपनी कविता राम की शक्तिपूजा पढ़ते रहे। जनता भी मौन होकर सुनती रही। निराला जी अपनी अपनी कविता पूरी सुनाई। आज की बात होती लोग हल्ला मचाने लगते । कवि बैठ जाता।
ऐसा ही एक वाकया शाहजहांपुर में हुआ। स्व.वली असी ने शेर पढ़ने शुरू किये। एकदम सफेद बाल, सूफियाने अंदाज वाले वली असी बेहद आकर्षक लगते थे। किसी मनचले सुनने वाले ने कुछ बेहूदगी कर दी।कुछ बोला जो कि साफ सुनाई नहीं पड़ा लेकिन यह लग रहा था कि हूटिंग जैसा कुछ है। वली असी तो कुछ नहीं बोले लेकिन मंच पर बैठे नंदनजी को बुरा लगा। वे लगभग झपटकर माइक पर आये। डांटकर बोले ये किसने बद्तमीजी की? कौन बोला? वहां सन्नाटा था। फिर वो बोले जब वली असी जैसा शायर पढ़ रहा हो तो ये आपका भी इम्तहान होता है कि आप कितना जुड़ पाते हैं उससे। मुशायरे में आये हैं तो सुनने की तमीज भी साथ में होनी चाहिये:-
कश्ती का जिम्मेदार फक़त नाखुदा(मल्लाह) नहीं,वैसे मुझे लगता है कि किसी भी सामूहिक आयोजन की सफलता में यह सलीके वाली बात लागू होती है चाहे कवि सम्मेलन हो मुशायरा हो या फिर ईकविता या निरंतर का प्रकाशन।
कश्ती में बैठने का सलीका भी होना चाहिये।
वसीम बरेलवी जब शेर पढ़ना शुरू करते हैं तो शुरूआत नये शेरों से करते हैं। वे बरेली से आते थे। शाहजहांपुर के श्रोताओं से उनका अनौपचारिक संबंध है। उनके कुछ पसंदीदा शेर जो मुझे याद आ रहे हैं:-
मुहब्बत में बुरी नजर से कुछ भी सोचा नहीं जाताकुछ शेर पढ़ने के बाद फिर वे तरन्नुम में पढ़ना शुरू करते हैं। जब पहली बार वो पढ़ने आये तो कुछ शेर पढ़ने के बाद बोले-मिसरा उठाओ यार!
कहा जाता है उसे बेबफा,बेबफा समझा नहीं जाता।
थके हारे परिंदे जब बसेरे के लिये लौटें
सलीका मंद शाखों का लचक जाना जरूरी है।
हम समझे कि हमारे आयोजक साथी अरविंद मिश्र कहीं गिर गये हैं जिनको उठाने के लिये वसीम साहब कह रहे हैं। लेकिन जब देखा कि मिसिरजी तो हमारे साथ बैठे तालियां पीट रहे हैं तो समझ में आया कि शायर दाद मांग रहा है। मिसरा उठाने के लिये कह रहा है मतलब शायर ‘वाह-वाह’ मांग रहा है।
मिसरा उठाने का मतलब है कि मिसरा/शेर को दोहराया जाय। वाह-वाह क्या बात है,जरा फिर से पढ़ दीजिये,मजा़ आ गया जैसे जुमले उछालना होता है।
मेरी पसंद में इस बार अनूप भार्गव की गज़ल दे रहा हूं।यह गज़ल २३ अप्रैल को न्यूयार्क में होने वाले कवि सम्मेलन की परिचय पुस्तिका में शामिल है। कवि सम्मेलन में शानदार सफलता की शुभकामनाओं के साथ!
आप भी क्या गजब हैं। इतना पढ़ने के बाद भी चुप हैं। कवि क्या सोचेगा?
मिस़रा उठाओ यार!
मेरी पसंद
परिधि के उस पार देखो
इक नया विस्तार देखो ।
तूलिकायें हाथ में हैं
चित्र का आकार देखो ।
रूढियां, सीमा नहीं हैं
इक नया संसार देखो
यूं न थक के हार मानो
जिन्दगी उपहार देखो ।
उंगलियाँ जब भी उठाओ
स्वयं का व्यवहार देखो
मंजिलें जब खोखली हों
तुम नया आधार देखो ।
हाँ, मुझे पूरा यकीं है
स्वप्न को साकार देखो ।
-अनूप भार्गव
Posted in कविता, बस यूं ही | 13 Responses
और ये कामना करते हुये कि कवि सम्मेलन में अनूप जी को ढेर सारी तालियाँ मिले
गजल तो कुछ खास समझ नहीं आई, कही कहीं तो छत के भी उपर से गई, पर लेख बडा अच्छा लगा.
आप यूँ ही लिखते रहो, हम यूँ ही मिसरा उठाते रहेंगे.
अमां शुकुल ये धीर गम्भीर लेख लिखते समय तुम खाते क्या हो ये बताओ। लेख तो बहुत अच्छा लिखा है, कंही कंही बाउन्सर भी है, हैलमेट का इन्तजाम करके ही लेख को पढा जाए। बकिया चकाचक!
ये बताया जाए, ठलुवा आजकल कहाँ पाए जाते है, पिछले ठिकाने पर चहकना बन्द कर दिया है उन्होने, आजकल मौनव्रत धारण कर रखे है, दिख्खॆ है, जरा खोजक यंत्र से पता तो करना।
सीन था की गालिब की फ़ारसी/उर्दू शायरी उनके पहले मुशायरे मे जनता के सिर पर से जा रही है सब एक दूसरे का मूह देख रहे हैं की बन्दा कह क्या रहा है. गालिब कहते हैं “जनाब मिसरा तो उठाईये” उनके एक समकालीन कवि जवाब देते हैं “बहुत भारी है” “उठ नही रहा” .. फ़िर बाद मे गालिब जरा जनता को पल्ले पडे ऐसे शेर कहते हैं.
लेख शानदार है!
सोचा न था कि कोई हमसे मिस़रा उठवायेगा,
उँह धकियाके सरे आम तारीफ़ हथियायेगा,
पर पढ़ा जो लेखन आपका तो जुबां फिसल गई,
संभले न थे कि मौन से ‘वाह-वाह’ निकल गई।
समीर लाल
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..इंतजार वाला दर्शन……..दर्शन वाला इंतजार