Friday, April 14, 2006

वीर रस में प्रेम पचीसी

http://web.archive.org/web/20140420024801/http://hindini.com/fursatiya/archives/122

वीर रस में प्रेम पचीसी

हमारे पिछली पोस्ट पर समीरजी ने टिप्पणी की :-
मजाक का लहज़ा, और इतनी गहराई के साथ अभिव्यक्ति, मान गये आपकी लेखनी का लोहा, कुछ तो उधार दे दो, अनूप भाई, ब्याज चाहे जो ले लो.
सच में हम पढ़कर बहुत शरमाये। लाल से हो गये। सच्चाई तो यह है कि हर लेख को पोस्ट करने के पहले तथा बाद तमाम कमियां नज़र आतीं हैं। लेकिन पोस्ट करने की हड़बड़ी तथा बाद में आलस्य के चलते किसी सुधार की कोई संभावना नहीं बन पाती।
अपनी हर पोस्ट लिखने के पहले (डर के मारे प्रार्थना करते हुये)मैं नंदनजी का शेर दोहराता हूं:-
मैं कोई बात तो कह लूं कभी करीने से
खुदारा मेरे मुकद्दर में वो हुनर कर दे।

जबसे रविरतलामीजी ने बताया कि हम सब लोग कूडा़ परोसते हैं तबसे यह डर ‘अउर’ बढ़ गया। हालांकि रविजी ने पिछली पोस्ट की एक लाइन की तारीफ की थी लेकिन वह हमारी नहीं थी लिहाजा हम उनकी तारीफ के गुनहगार नहीं हुये।
बहुत दिनों से ई-कविता तथा ब्लागजगत में कविता की खेती देखकर हमारे मन में भी कुछ कविता की फसलें कुलबुला रहीं थीं। यह सोचा भी था कि हिंदी ब्लाग जगत तथा ई-कविता की भावभूमि,विषय-वस्तु पर कुछ लेख लिखा जाय ।सोचा तो यह भी था कि ब्लागरों की मन:स्थिति का जायजा लिया जाय कि कौन सी ऐसी स्थितियां हैं कि ब्लागजगत में विद्रोह का परचम लहराने वाले साथी
यूँ तो सीधा खडा हुआ हूँ,
पर भीतर से डरा हुआ हूँ.

तुमको क्या बतलाऊँ यारो,
जिन्दा हूँ, पर मरा हुआ हूँ.

जैसी, निराशावादी मूड की, कवितायें लिख रहे हैं।
लेकिन फिर यह सोचकर कि शायद इतनी काबिलियत तथा कूवत नहीं है मुझमे मैंने अपने पांव वापस खींच लिये क्रीज में। यह भी सोचा कि किसी के विद्रोही तेवर का जायजा लेने का हमें क्या अधिकार है!
इसके अलावा दो लोगों की नकल करने का मुझे मन किया। एक तो लक्ष्मी गुप्त जी की कविता पढ़कर आल्हा लिखने का मन किया । दूसरे समीरलाल जी की कुंडलिया पढ़कर कुछ कुंडलियों पर हाथ साफ करने का मन किया।
बहरहाल,आज सोचा कि पहले पहली चीज पर ही हाथ साफ किया जाय। सो आल्हा छंद की ऐसी तैसी कर रहा हूं। बात लक्ष्मीजी के बहाने कह रहा हूं क्योंकि इस खुराफात की जड़ में उनका ही हाथ है। इसके अलावा बाकी सब काल्पनिक तथा मौजार्थ है। कुछ लगे तो लिखियेगा जरूर।
सुमिरन करके लक्ष्मीजी को सब मित्रन का ध्यान लगाय,
लिखौं कहानी प्रेम युद्ध की यारों पढ़ियो आंख दबाय।
पढ़िकै रगड़ा लक्ष्मीजी का भौजी गयीं सनाका खाय,
आंक तरेरी,मुंह बिचकाया नैनन लीन्ह कटारी काढ़।
इकतिस बरस लौं चूल्हा फूंका कबहूं देखा न दिन रात
जो-जो मागेव वहै खवाया तिस पर ऐसन भीतरघात।
हम तौ तरसेन तारीफन का मुंह ते बोल सुना ना कान
उनकी मठरी,पान,चाय का इतना विकट करेव गुनगान।
तुमहि पियारी उनकी मठरी उनका तुम्हें रचा है पान
हमरा चोला बहुत दुखी है सुन तो सैंया कान लगाय।
करैं बहाना लक्ष्मी भैया, भौजी एक दिहिन न कान,
उइ तौ हमरे परम मित्र हैं यहिते उनका किया बखान।
नमक हमैं उइ रहैं खवाइन यहिते भवा तारीफाचार
वर्ना तुम सम को बनवइया, तुम सम कउन इहां हुशियार।
सुनि हुशियारी अपने अंदर भौजी बोली फिर इठलाय,
हमतौ बोलिबे तबही तुमते जब तुम लिखौ प्रेम का भाव।
भइया अइठें वाहवाही में अपना सीना लिया फुलाय
लिखबे अइसा प्रेमकांड हम सबकी हवा, हवा हुइ जाय।
भौजी हंसिके मौज लिहिन तब अइसा हमें लगत न भाय,
तुम बस ताकत हौ चातक सा तुमते और किया न जाय।
भैया गर्जे ,क्या कहती हो ‘इलू ‘अस्त्र हम देब चलाय,
भौजी हंसी, कहते क्या हो,तुरत नमूना देव दिखाय।
बातन बातन बतझड़ हुइगै औ बातन मां बाढ़ि गय रार
बहुतै बातैं तुम मारत हो कहिके आज दिखाओ प्यार।
उचकि के बैठे लैपटाप पर बत्ती सारी लिहिन बुझाय,
मैसेंजर पर ‘बिजी’ लगाया,आंखिन ऐनक लीन लगाय।
सुमिरन करके मातु शारदे ,पानी भौजी से मंगवाय
खटखट-खटखट टीपन लागे उनसे कहूं रुका ना जाय।
सब कुछ हमका नहीं दिखाइन बहुतै थ्वारा दीन्ह दिखाय,
जो हम देखा आपहु द्याखौ अपनी आप बतावौ राय।
बड़े-बड़े मजनू हमने देखे,देखे बड़े-बड़े फरहाद
लैला देखीं लाखों हमने कइयों शीरी की है याद।
याद हमें है प्रेमयुद्ध की सुनलो भइया कान लगाय,
बात रसीली कुछ कहते हैं,जोगी-साधू सब भग जांय।
आंख मूंद कर हमने देखा कितना मचा हुआ घमसान
प्रेमयुद्ध में कितने खपिगे,कितनेन के निकल गये थे प्रान।
भवा मुकाबिला जब प्रेमिन का वर्णन कछू किया ना जाय,
फिर भी कोशिश हम करते हैं, मातु शारदे होव सहाय।
चुंबन के संग चुंबन भिरिगे औ नैनन ते नयन के तीर
सांसैं जूझी सांसन के संग चलने लगे अनंग के तीर।
नयन नदी में नयना डूबे,दिल सागर में उठिगा ज्वार
बररस की तब चली सिरोही,घायल का सुख कहा न जाय।
तारीफन के गोला छूटैं, झूठ की बमबारी दई कराय
न कोऊ हारा न कोऊ जीता,दोनों सीना रहे फुलाय।
इनकी बातैं इनपै छ्वाड़व अब कमरौ का सुनौ हवाल,
कोना-कोना चहकन लागा,सबके हाल भये बेहाल।
सर-सर,सर-सर पंखा चलता परदा फहर-फहर फहराय,
चदरा गुंथिगे चदरन के संग,तकिया तकियन का लिहिन दबाय।
चुरमुर, चुरमुर खटिया ब्वालै मच्छर ब्लागरन अस भन्नाय
दिव्य कहानी दिव्य प्रेम की जो कोई सुनै इसे तर जाय ।
आंक मूंद कै कान बंद कइ द्‌याखब सारा कारोबार
जहां पसीना गिरिहै इनका तंह दै देब रक्त की धार।
सुनिकै भनभन मच्छरजी की चूहन के भी लगि गय आग
तुरतै चुहियन का बुलवाइन अउर कबड्डी ख्यालन लाग।
किट-किट दांत बजि रहे ,पूछैं झण्डा अस फहराय
म्वाछैं फरकैं जीतू जैसी ,बदन पसीना रहे बहाय।
दबा-दबउल भीषण हुइगै फिर तौ हाल कहा न जाय,
गैस का गोला बम अस फूटा,खटमल गिरे तुरत गस खाय।
तब बजा नगाड़ा प्रेमयुद्ध का चारों ओर भवा गुलज़ार
खुशियां जीतीं धकापेल तब,मनहूसन की हुइगै हार।
हरा-हरा सब मौसम हुइगा,फिर तौ सबके लगिगै आग
अंग-अंग फरकैं,सब रंग बरसैं,लगे विधातौ ख्यालन फाग।
इहां की बातैं हियनै छ्वाड़व आगे लिखब मुनासिब नाय
बच्चा जो कोऊ पढ़ि ल्याहै तो हमका तुरत लेहै दौराय।
भैया बोले हंसि के ब्वालौ कैसा लिखा प्यार का हाल
अब तौ मानेव हमहूं है सरस्वती के सच्चे लाल।
भौजी बोलीं तुमसा बौढ़म हमें दिखा ना दूजा भाय,
हमतौ सोचा ‘इलू’ कहोगे ,आजौ तरस गये ये कान।
चलौ सुनावौ अब कुछ दुसरा, देवरन का भी कहौ हवाल
कइसे लफड़ा करत हैं लरिका नयी उमर का का है हाल?
भैया बोले मुस्का के तब नयी उमर की अजबै चाल
बीच सड़क पर कन्या डांटति छत पर कान करति है लाल।
डांटि-डांटि के सुनै पहाडा़, मुर्गौ कबहूं देय बनाय
सिर झटकावै,मुंह बिचकावै, कबहूं तनिक देय मुस्काय।
बाल हिलावै,ऐंठ दिखावै , नखरा ढेर देय बिखराय,
छत पर आवै ,मुंहौ फुलावै लेय मनौना सब करवाय।
इतनेव पर बस करै इशारा, इनका गूंगा देय बनाय
दिल धड़कावै,हवा सरकावै ,पैंटौ ढीली देय कराय।
कुछ दिन मौका देकर देखा ,प्रेमी पूरा बौड़म आय,
पकड़ के पहुंची रतलामै तब,अपना घर भी लिया बसाय।
भउजी की मुसकान देखि के भइया के भी बढ़ि गै भाव
बूढ़े देवर को छोडो़ अब सुन लो क्वारन के भी हाल।
ये है तुम्हरे बबुआ देवर चिरक्वारें और चिर बेताब
बने हिमालय से ठहरे हैं ,कन्या इनके लिये दोआब।
दूर भागतीं इनसे जाती ,लिये सागर से मिलने की ताब
जो टकराती सहम भागती ,जैसे बोझिल कोई किताब।
नखरे किसके चाहें उठाना ,वो धरता सैंडिल की नोक
जो मिलने की रखे तमन्ना, उसे दूर ये देते फेंक।
ये हैं धरती के सच्चे प्रतिनिधि तंबू पोल पर लिया लगाय,
कन्या रखी विपरीत पोल पर, गड़बड़ गति हो न जाय।
सुनिके देवर की अल्हड़ता भौजी मंद-मंद मुस्कांय,
भैया समझे तुरत इशारा सबको कीन्हा फौरन बाय।

17 responses to “वीर रस में प्रेम पचीसी”

  1. ई-स्वामी
    बसंत में श्रिंगार रस बरस रहा है! ये सीधे हाल-ओफ़-फ़ेम लेवेल एन्ट्री है! अपन तो मस्त मस्त! माहौल एकदम सेट है … गौर किया जाए मैं कितना समझदार हूं जो साईट भर पे इस मौसम में फूल बिखराए हूं!(जरा अपनी पीठ भी थपथपा लूं ;-) )
  2. राजीव
    प्रिय अनूप जी,
    आप के द्वारा posted (स्वरचित मानते हुए) आल्हा शैली की काव्य रचना, प्रेम युद्ध बहुत ही मौलिक और चुलबुलाती हुयी लगी। कदाचित ऐसी रचना आल्हा की चिर-परिचित लय में सस्वर प्रकशित होती (स्वर-ब्लॉग / podcast के द्वारा) तो आनन्द और ही होता! और हां, एक बात और – एक क्षेत्र विशेष में अधिक प्रचलित होने के कारण, यदि कुछ पाठक आल्हा लोक-शैली के प्रस्तुतीकरण एवं लय से परिचित नहीं हैं तो वे इस रचना का समुचित रसास्वादन नहीं कर पायेंगे, तो अनूप जी, यदि सम्भव हो, तो इस रचना को MP3 प्रारुप में भी प्रकशित करें, धन्यवाद!
  3. समीर लाल
    “इहां की बातैं हियनै छ्वाड़व आगे लिखब मुनासिब नाय
    बच्चा जो कोऊ पढ़ि ल्याहै तो हमका तुरत लेहै दौराय।”
    अरे अनूप भाई, इतना जोर का झटका..लेकिन भाई, हम तो आल्हा के सुर मे गाते गाते हिचकोले खाते चले जा रहे थे..कि एकाएक स्टोरी मे टर्न… :)
    वाह, बहुत खुब. आन्नद विभोरित समीर लाल की अनूप भाई को बधाई.
  4. नितिन
    अनूपजी,
    बहुत ही सुंदर लिखा है, बचपन के वो दिन याद आ गये जब बुंदेलखंड में आल्हा
    सुनने को मिलता था। राजीव जी ने सही कहा है यदि इस रचना को स्वरबध्द कर सकें
    तो बात ही क्या!!
  5. रवि
    अंततः आपने सिद्ध कर ही दिया कि पोस्टें कूड़ा नहीं हुआ करतीं…
    क्या हीरे – मोती – माणिक्य बिखेरे हैं आपने!
    मैं अपनी वे कूड़ा टिप्पणियाँ आधिकारिक रुप से वापस लेता हूँ .
  6. sanjay | joglikhi
    चिट्ठा जगत के ‘कुङे-करकट’ में आपके इन मोतीयों का आल्हा लोक-शैली कि लय से अपरिचित होने के कारण समुचित रसास्वादन नहीं कर पाया, इस बात का खेद रहेगा. वैसे आपके उम्मदा प्रयास के लिए बधाई.
  7. समीर लाल
    अनूप भाई,
    शर्मा शर्मी मे देखत है कैसन लाली लिये हैं गाल
    फ़िर भी कौनो कसर ना छोडी सबको करे आप बेहाल
    हमरी मांग पढिके उस पर धरे तुरत ही अपने कान
    आगन कि कथा जोडिके लगभग पूरा किया बखान
    तुमको कैसे धन्नबाद दे इसहि सोच मे बीती शाम
    शायद इससे नेता सिखें कुछ तो दें जनता पर ध्यान
    तुरत ना माने मांगें फ़िर भी कभी तो धर दें उनपे कान.
    समीर लाल
  8. जीतू
    अमा शुकुल आल्हा का मजा पढने से ज्यादा सुनने मे आता है, इसलिए आधी तारीफ़ ही करुंगा, बकिया आडियो वर्जन सुनाओ तब करेंगे।
    वैसे अब तुम्हारे हाथ कविताओं मे भी काफ़ी खुल गये है, तुम तो फ़्री स्टाइल पहलवान की तरह हो गये हो, चाहे WWF मे लड़वा दो या चाहो तो गाँव के दंगल में। लगे रहो…टकाटक।
  9. आशीष
    चलो मै बच गया इस बार :-)
  10. फ़ुरसतिया » कुछ इधर भी यार देखो
    [...] बहरहाल ये तो ऐसे ही कुछ ऊँची हांकने के लालच में लिख दिया। अगर ठीक समझे हों तो मिस़रा उठाइये नहीं तो हियां की बातें हियनै छ्‌वाडौ़ अबआगे का सुनौ हवाल। [...]
  11. फ़ुरसतिया » भैंस बियानी गढ़ महुबे में
    [...] लक्ष्मी नारायण जी की नकल करते हुये हमने जब कुछ तुकबंदियां कीं तो पता चला कि कुछ साथी आल्हा से परिचित नहीं हैं। वास्तव में आल्हा उत्तरभारत के गांवों में बहुतायत में प्रचलित है। जिनका संपर्क गांवों से कम रह पाया वे शायद इसके बारे में कम जानते हों। साथियों की जानकारी के लिये आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखित ‘हिंदी साहित्य का इतिहास ‘से आल्हा से संबंधित जानकारी यहां दी जा रही है:- ऐसा प्रसिद्ध है कि कालिंजर के राजा परमार के यहाँ जगनिक नाम के एक भाट थे,जिन्होंने महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों -आल्हा और ऊदल(उदयसिंह)- के वीरचरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था जो इतना सर्वप्रिय हुआ कि उसके वीरगीतों का प्रचार क्रमश: सारे उत्तरी भारत में विशेषत: उन सब प्रदेशों में जो कन्नौज साम्राज्य के अंतर्गत थे-हो गया। जगनिक के काव्य का कहीं पता नहीं है पर उसके आधार पर प्रचलित गीत हिंदी भाषाभाषी प्रांतों के गांव-गांव में सुनाई देते हैं। ये गीत ‘आल्हा’ के नाम से प्रसिद्ध हैं और बरसात में गाये जाते हैं। गावों में जाकर देखिये तो मेघगर्जन के बीच किसी अल्हैत के ढोल के गंभीर घोष के साथ यह हुंकार सुनाई देगी- [...]
  12. anitakumar
    वाह पढ़ कर ही इतना अच्छा लगा तो सुनने में कितना अच्छा लगेगा हम इसकी कल्पना कर सकते हैं। जैसा आप ने सही कहा हम जैसे लोग जिनका उत्तर प्रदेश के गावों से कोई संबध नहीं रहा तो आल्हा के बारे में हमारी जानकारी काफ़ी कम है। इसे पोडकास्ट कर सुनाए तो कुछ ज्यादा आनंद आये। आल्हा से संबधित और जानकारी भी दें (पोडकास्ट के साथ) तो हम जैसे जो उत्तर प्रदेश को कुछ कम जानते है उनकी भी जानकारी बड़े। आशा करती हूँ कि समीर जी का कहा कि आप फ़ौरन मांग पूरी करते है वो सच ही साबित होगा…:)
  13. अभय तिवारी
    आप धन्य हैँ महाराज!
  14. कौन कहता है बुढ़ापे में इश्क का सिलसिला नहीं होता
    [...] वीर रस में प्रेम पचीसी हमारे पिछली पोस्ट पर समीरजी ने टिप्पणी की :- [...]
  15. Anonymous
    हरी गोविन्द विश्वकर्मा ग्राम व पोस्ट बील्हापुर घोरहा भादर
  16. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] क्या थी? 3.मेरे जीवन में धर्म का महत्व 4.वीर रस में प्रेम पचीसी 5.मिस़रा उठाओ यार… 6.कुछ इधर भी यार देखो

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