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यह कवि अपराजेय निराला
By फ़ुरसतिया on January 24, 2007
[निरालाजी के बारे में पोस्ट किये मेरे पिछले लेख पर साथियों
की प्रतिक्रियाओं को देखते हुये निरालाजी के बारे में और जानकारी देने का
मन किया। यहां मैं उनके जीवन के उन पक्षों की जानकारी देने का प्रयास करना
चाहता हूं जिनसे उनके मानसिक संतुलन खोते जाने के कारणों के संकेत मिलते
हैं। यहां मैं फिर से स्पष्ट कर देना चाहता हूं उसमें से मेरा कुछ भी लिखा
हुआ नहीं है। अधिकांश सामग्री स्व. डा. रामविलास शर्मा जी के द्वारा लिखित 'निराला की साहित्य साधना' से
ली गयी है। यह किताब अद्भुत है। अगर रामविलाश शर्माजी ने यह किताब न लिखी न
होती तो शायद निरालाजी के बारे में आज सम्यक जानकारी न मिलती। शायद अपने
जीवन में घटी घटनाऒं के अतिरंजित वर्णन से निरालाजी एक अबूझ पहेली बनकर रह
जाते। मेरा योगदान केवल इस पुस्तक में से जो ज्यादा जरूरी लगा उसे पोस्ट
करने तक है इससे अधिक कुछ नहीं]
निराला ने बीस साल की उमर होते-होते अपनी पत्नी, भाई और तमाम परिवारी जनों को खो दिया था। पत्नी के जीवित रहते उन्होंने उनकी कद्र न की। उनके बालों को लेकर उन पर ताने कसे। गोस्त खाने के पीछे गढ़ाकोला में अपने साथ रहना दूभर कर दिया। अपने निठल्लेपन के कारण एन्ट्रेन्स परीक्षा न पास कर पाये। इससे अपने साथ उन्हें भी अपमानित कराकर घर से निकले। पर वह कितनी उदार थीं! कभी पति या ससुर के रूखे व्यवहार की शिकायत न की। मात्र अठारह की उम्र में संसार छोड़कर चलीं गयीं। कैसा सुन्दर कंठ, कैसा म्रदुल स्वभाव,कैसा सात्विक सौन्दर्य! निराला ने देखा कि उनके हृदय में पत्नी के प्रति अगाध प्यार है। यह प्यार अब तक क्यों नहीं दिखाई दिया था? किस मोह ने उनकी आंखों पर पर्दा डाल दिया था? क्या मृत्यु ही यह पर्दा उठा सकती थी कि वह मनोहरा देवी की वास्तविक छवि देखें?
निराला गढ़ाकोला से डलमऊ गये। गंगा के किनारे रात-रात भर व श्मशाम में घूमा करते जहां मनोहरा देवी की चिता जली थी। दिन में वह अवधूत टीले पर बैठ जाते और गंगा में बहती लाशें देखते रहते। पत्नी और भाई के निधन के बाद मौत का अब ऐसा कोई दृश्य न था जिससे उनको भय होता। जीवन में जो सबसे वीभत्स और भयानक है, उसे भर आंखों देखना वे सीख गये थे।
अपने बच्चों को सास के पास छोड़कर वे काम में जुट गये। साधना पथ पर अपने को समर्पित कर दिया।
निरालाजी की आर्थिक स्थिति कभी ऐसी नहीं रही कि आराम की जिंदगी जी सकें। कष्टों में जीवन चल रहा था।
इसी बीच अपनी पुत्री सरोज के विवाह की चिंता भी उन्हे सता रही थी। सरोज अपनी नानी के साथ रह रही थी। अपने एक मित्र को उन्होंने सरोज के लिये लड़का देखने के लिये लिखा। उनके मित्र दयाशंकर बाजपेयी ने अपने दोस्त शिवशेखर द्विवेदी से सरोज के विवाह के लिये पहले हामी भरी फिर द्विवेदीजी सूचित किया। इस बारे में द्विवेदीजी लिखते हैं:-
सरोज की शादी के ड़ेढ़ साल बाद गौना हुआ। बाद में वे बीमार हो गयीं। साल भर बीमार रहीं। पता चला बायां फेफड़ा छलनी हो गया है। वैद्यों ने कहा उसे गंगा धारा में रखना चाहिये। निराला को पैसों की सख्त जरूरत थी। लेकिन कुछ इंतजाम न हो पा रहा था। प्रकाशक अपने अर्थभाव का रोना रो रहे थे। बाद में सरोज की मौत हो गयी। इस घटना के बारे में डा. रामविलास शर्मा लिखते हैं:-
सरोज की मौत ने निराला के सारे जीवन की सार्थकता और निर्थकता का प्रश्न विकट रूप में उनके सामने रख दिया। जियें तो किसके लिये। अब तक जीकर जो कुछ झेलते रहे उसका क्या फल मिला? महिषादल में नौकरी करते रहते तो बेटी की यह दुर्दशा नहीं होती। सब-कुछ छोड़ा साहित्य के लिये लेकिन साहित्य सेवा के लिये हमेशा पेट के लाले रहे।आलोचना सुनने से मालूम होता है कि हिंदी में लिखकर निराला ने भारी अपराध किया है। नेकनामी कम बदनामी ज्यादा मिली।
इसी मन:स्थित में रहे होंगे निराला जब उन्होंने राम की शक्ति पूजा में लिखा-धिक जीवन जो पाता ही आया विरोध,
धिक साधन, जिसके लिये किया सदा ही शोध।
निराला ने आंसू नहीं गिराये। उनक दुख उनके अन्तस में कहीं जम गया। अब वह पहले वाले निराला नही रह गये, अब वह पहले जैसे कभी नहीं हो सकते थे।
खून में किसी ने जहर घोल दिया है और वह जल रहे हैं। निराला ने मन की सारी ताकत बटोरकर अपने को दुख से अलग किया। खुद से अलग किया। खुद को देखा-दुखी, उदास, जर्जर। और अपना यह रूप देखकर उनका मन सजग हुआ। अन्तस में जमे हुये दुख को निराला ने सहेजना शुरू किया, उसे निहारते-समेटते निराला अनजाने ही उसे मूर्त रूप देने लगे। उन्होंने कविता लिखी- सरोज स्मृति|
सरोज स्मृति में निरालाजी ने अपनी पुत्री के तमाम चित्र खींचते हुये अपने बारे में भी लिखा है। उनकी अपनी कथा है यह। उन्हें जब याद आया कि कुंडली में लिखे भाग्य अंक को मिटाने का फैसला लिया था, दूसरा विवाह नहीं करेंगे यह तै किया था ,तब अपने पुरुषार्थ पर गर्व हुआ और उन्होंने लिखा-
खंडित करने को भाग्य अंक,
देखा भविष्य के प्रति अशंक।
दुनियादारी में असफल रहे पिता का दर्द व्यक्त किया-
सम्पादकों के हाल बयान किये-
ब्राह्मणों को कोसा :-
पर जैसे-जैसे कविता के अंतिम चरण की ऒर पहुंचे, उनका धैर्य टूट गया, प्रकाश देखने वाले कवि का सपना चूर हो गया-
मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल,
युग वर्ष बाद जब हुयी विकल।
पर इसके बाद क्या हुआ ,निराला में कहने की सामर्थ्य न रही। वाक्य विश्रंखल हो गया-
निराला ने हिन्दी को, हिन्दी-साहित्य सेवा को, अपने को शाप दिया-
जब निरालाजी ने रामविलासजी को कविता पढ़ाई उसके बारे में उन्होंने लिखा-कविता पढ़कर मैंने चुपचाप उसे एक तरफ़ रख दिया। उनकी तरफ़ देखने का साहस मुझमें न था। उन्होंने नहीं पूछा-कैसी है? मैंने नहीं कहा-सुन्दर है।
उन दिनों की निराला की मन:स्थिति के बारे में बताते हुये रामविलासजी ने लिखा- वह आलोचकों के लिये कहते-जिसे देखो, वही निराला को देखकर टिल-टिलाता है।
निराला मानो जीते हुये मृत्यु का अनुभव कर रहे थे। प्रसाद की पंक्तियां वह बड़े दर्द से पढ़ते मानो वह सब प्रत्यक्ष देख रहे हों जो प्रसाद ने देखा था, जो साधारण
लोगों की आंखों से ओझल था-
निराला के मन में व्यथा के केन्द्र कौन थे, वे कब सक्रिय हो उठते हैं, यह सब रहस्य था। अपने दुख की बातें सुनाकर दूसरों को दुखी करना उनके स्वभाव में न था। पर वह किस तरह की पंक्तियां गुनगुनाते हैं, उनके स्वर से, उनकी आखों से मैं समझने लगा था कि इन्हें घोर मानसिक कष्ट है।
वे धीरे-धीरे दुखी आवाज में गालिब का शेर गुनगुनाते:
धीरे-धीरे निराला के मन में विषाद भरता चला गया। उनके परम प्रिय मित्र बलभद्र दीक्षित’पढ़ीस’ का देहावसान हुआ। उन्होंने अपने आदर्शों के अनुसार सरकारी नौकरी छोड़कर जनता के बीच रहकर उसे शिक्षित करने, उसी की तरह खेतों में काम करने और गांव में रहते हुये साहित्य लिखने का निश्चय किया। पढी़सजी ने कुलीन ब्राह्मणों की रूढ़ियां तोड़कर हल की मुठिया पकड़ी। अछूत बालकों को घर पढ़ाने लगे। उनके दुबले-पतले मुख पर परिश्रम की थकान दिखने लगी पर आंखों में नई चमक आयी, वाणी में नया ओज आया। बलभद्र प्रसाद दीक्षित के देहावसान पर निराला ने लिखा:-
बाद में इलाहाबाद में रहते हुये निराला और फिराक में दोस्ती हो गयी। निराला फिराक के यहां जाते, कभी बहस करते, धमकाते- इस तरह लिखोगे तो अभी सर के बल खड़ा करेंगे।
निराला के अर्थाभाव चल रहे थे तो उनको सहयोग करने वाले भी आगे आ रहे थे। जबलपुर की हितकारिणी संस्था ने निराला को आमंत्रित किया। सुभद्राकुमारी चौहान ने उन्हें देने के लिये तीन सौ रुपये की निधि एकत्रित की। निराला ने विद्यार्थियों से कुछ भी लेने से इन्कार कर दिया। लोगों के आग्रह करने पर राह-खर्च के लिये सौ रुपये रख लिये। दो सौ कांग्रेस को दे देने को कहा। जब उन्हें बताया गया कि कांग्रेस की रकम सरकार जब्त कर लेती है तब उन्होंने दो सौ रुपये जबलपुर के साहित्य संघ को दे दिये।
निराला के एक परम भक्त उन्हें कवि-सम्मेलन में बुलाने आये। सब बातें हो गयीं। भक्त लेखक भी थे, निराला उन्हें मित्रवत मानते थे। संकोचवश पेशगी रुपया न मांग सके। जाड़े के दिन थे। निराला के पास गरम कपड़ों, रजाई-बिस्तर वगैरह की कोई उचित व्यवस्था न थी। भक्त के जाने पर वह बोले- द्याखौ सारे का, कहत है हुआं यहु द्याव, वहु द्याब। हुआं तक जाई कैसे? न गद्दा, न रजाई, न जूता न जड़ावर।मेरी पसन्द
धीरे-धीरे निराला की हालत खराब होती गयी। लेकिन निराला का मन हारकर भी न हारा था, थके हुये मन में हास्य और व्यंग्य का स्रोत सूख न पाया था। परिवेश से जो कुछ कुछ देखते-सुनते थे, उससे विवेकवाला तार जोड़कर वह अब भी हंसते थे।
निराला दारागंज (इलाहाबाद) की गली में घुटनों तक लुंगी बांधे टहलते हुये, अक्सर अपने से बातें करते हुये देखे जाते थे। अब वह आवेश में जोर से कम बातें करते थे, धीरे-धीरे बुदबुदाते ज्यादा थे। वे लोगों से अक्सर अंग्रेजी में बात करने लगे थे। रेणुजी ने पूछा-आप हिंदी में क्यों नहीं बोलते? इस पर क्रुद्ध होकर उन्होंने कहा- No, I hate the language like hell. रेणुजी ने उनकी तुलसीदास कविता की प्रशंसा की। निराला ने कहा- No, it is nothing but trash. रेणुजी और उनके साथियों को मठा पिलाया; स्वयं पानी पीकर रह गये।
वह हिंदी को , कवि निराला के व्यक्तित्व को अस्वीकार कर रहे थे। अपने लिये नित नये-नये नाम चुनते। कलम से अपना नाम लिखने पर आपत्ति करते। इसी सिलसिले में वे अपने जन्म के बारे में कथायें गढ़ रहे थे।
इसी तरह के ध्यान में एक दिन वह बच्चन के यहां पहुंच गये। वहां सुमित्रानन्दन पन्त को देखकर उन्होंने कहा था- मैं निराला नहीं हूं, मैं हूं तुत्तन खां का बेटा मुत्तनखां। मैंने गामा, जेविस्को और टैगोर सबको चित्त किया है। आओ।
कभी-कभी लोग उनका दर्शन करने उनको खोजते-खोजते दारागंज की उनकी गली में आ जाते। निराला कहते- निराला यहां नहीं रहते। जिन निराला को ढूंढते हो, वह कब के मर गये।
निराला का एक मन हिंदी-भाषियॊं से विद्रोह करता था, अपनी हिंदी जातीयता, अपना कवि का व्यक्तित्व अमान्य करता था वहीं उनका दूसरा मन हिंदी से प्रेम करता था, हिंदी लिखने-पढ़ने-बोलनेवालों को अपना परम आत्मीय मानता था। वह अब भी गीत लिखे जा रहे थे।
निराला का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। सुमित्रानन्दन पन्त उनको देखने गये। निराला ने प्रसन्न होकर कहा-
…और एक दिन वह समय भी आ गया। निराला की हालत खराब होती गयी। किडनी ने काम करना बन्द कर दिया, नेत्रों की ज्योति जाती रही। तेरह अक्टूबर की शाम से पन्द्रह अक्टूबर सन ६१ के सबेरे तक जलोदर और हार्निया से पीड़ित शरीर में मृत्यु-यंत्रणा झेलने और अनेक बार मित्रों और डाक्टरों को स्वास्थ्य के आभास से प्रसन्न करने के बाद निराला ने अपनी जीवन लीला समाप्त की।
उनकी मृत्यु के कुछ दिन बाद सरस्वती के संपादकीय स्तम्भ में श्रीनारायण चतुर्वेदी ने लिखा-
तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण:
तनये, ली कर दृक्पात तरुण
जनक से जन्म की विदा अरुण!
गीते मेरी, तज रूप-नाम
वर लिया अमर शाश्वत विराम
पूरे कर शुचितर सपर्याय
जीवन के अष्टादशाध्याय,
चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण
कह-”पित:, पूर्ण आलोक वरण
करती हूं मै, यह नहीं मरण,
‘सरोज’ का ज्योति:शरण-तरण”-
अशब्द अधरों का,सुना, भाष,
मैं कवि हूं,पाया है प्रकाश
मैंने कुछ अहरह रह निर्भर
ज्योतिस्तरणा के चरणों पर।
जीवित-कविते,शत-शर-जर्जर
छोड़कर पिता को पृथ्वी पर
तू गयी स्वर्ग, क्या यह विचार-
“जब पिता करेंगे मार्ग पार
यह, अक्षम अति,तब मैं सक्षम,
तारूंगी कर गह दुस्तर तम?”
कहता तेरा प्रयाण सविनय,-
कोई न अन्य था भावोदय।
श्रावण-नभ का स्तब्धान्धकार
शुक्ला प्रथमा कर गयी पार!
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित कर न सका!
जाना तो अर्थागमोपाय
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ समर।
शुचिते,पहनाकर चीनांशुक
रख सका न तुझे अत: दधिमुख।
क्षीण का न छीना कभी अन्न,
मैं लख सका न वे दृग विपन्न:
अपने आंसुओं अत: बिम्बित
देखे हैं अपने ही मुख-चित।
सोचा है नत हो बार-बार-
“यह हिंदी का स्नेहोपहार,
यह नहीं हार मेरी भास्वर
वह रत्नहार-लोकोत्तर वर।”
अन्यथा, जहां है भाव शुद्ध
साहित्य, कला- कौशल -प्रबुद्ध,
हैं दिये हुये मेरे प्रमाण
कुछ वहां,प्राप्ति को समाधान,-
पार्श्व में अन्य रख कुशल हस्त
गद्य में पद्य में समाभ्यस्त-
देखें वे; हंसते हुये प्रवर
जो रहे देखते सदा समर,
एक साथ जब शत घात घूर्ण
आते थे मुझ पर तले तूर्ण,
देखता रहा मैं खड़ा अपल
वह शर-क्षेप वह रण-कौशल।
व्यक्त हो चुका चीत्कारोत्कल
क्रुद्द युद्ध का रुद्ध-कण्ठ फल।
और भी फलित होगी वह छवि,
जागे जीवन जीवन का रवि,
लेकर कर कल तूलिका कला,
देखो क्या रंग भरती विमला,
वांछित उस किस लांक्षित छवि पर
फेरती स्नेह की कूची भर!
अस्तु मैं उपार्जन को अक्षम
कर नहीं सका पोषण उत्तम
कुछ दिन को, जब तू रही साथ
अपने गौरव से झुका माथ,
पुत्री भी, पिता गेह में स्थिर,
छोड़ने के प्रथम जीर्ण अजिर।
आंसुऒं सजल दृष्टि की छलक
पूरी न हुई जो रही कलक
प्राणों की प्राणों में दबकर
कहती लघु-लघु उसांस में भर:
समझता हुआ मैं रहा देख
हटती भी पथ पर दृष्टि टेक।
तू सवा साल की जब कोमल,
पहचान रही ज्ञान में चपल,
मां का मुख, हो चुम्बित क्षण-क्षण,
भरती जीवन में नव जीवन,
वह चरित पूर्ण कर गयी चली,
तू नानी की गोद जा पली।
सब किये वहीं कौतुक विनोद
उस घर निशि-वासर भरे मोद;
खायी भाई की मार विकल
रोयी, उत्पल-दल-दृग छलछल;
चुमकारा फिर उसने निहार,
फिर गंगा तट सैकत विहार
करने को लेकर साथ चला,
तू गहकर हाथ चली चपला;
आंसुओं धुला मुख हासोच्छल,
लखती प्रसार वह ऊर्मि धवल।
तब भी मैं इसी तरह समस्त
कवि जीवन में व्यर्थ भी व्यस्त
लिखता अबाध गति मुक्त छन्द,
पर सम्पादकगण निरानन्द
वापस कर देते पढ़ सत्वर
रो एक-पंक्ति-दो में उत्तर।
लौटी रचना लेकर उदास
ताकता रहा मैं दिशाकाश
बैठा प्रान्तर में दीर्घ प्रहर
व्यतीत करता था गुन-गुन कर
सम्पादक के गुण; यथाभ्यास
पास की नोचता हुआ घास
अज्ञात फ़ेकता इधर-उधर
भाव की चढ़ी पूजा उन पर।
याद है, दिवस की प्रथम धूप
थी पड़ी हुई तुझ पर सुरूप,
खेलती हुई तू परी चपल,
मैं दूरस्थित प्रवास से चल
दो वर्ष बाद, होकर उत्सुक
देखने के लिए अपने मुख
था गया हुआ, बैठा बाहर
आंगन में फ़ाटक के भीतर
मोढ़े पर, ले कुण्डली हाथ
अपने जीवन की दीर्घ गाथ।
पढ़ लिखे हुए शुभ दो विवाह
हंसता था, मन में बढ़ी चाह
खण्डित करने को भाग्य-अंक,
देखा भविष्य के प्रति अशंक।
इससे पहले आत्मीय स्वजन
सस्नेह कह चुके थे, जीवन
सुखमय होगा, विवाह कर लो
जो पढ़ी-लिखी हो-सुन्दर हो।
आये ऎसे अनेक परिणय,
पर विदा किया मैने सविनय
सबको, जो अड़े प्रार्थना भर
नयनों में, पाने को उत्तर
अनुकूल, उन्हें जब कहा निडर-
“मैं हूं मंगली”,मुड़े सुनकर।
इस बार एक आया विवाह
जो किसी तरह भी हतोत्साह
होने को न था, पड़ी अड़चन,
आया मन में भर आकर्षण
उन नयनों का, सासु ने कहा-
“वे बड़े भले जन है, भय्या,
एन्ट्रेंन्स पास है लड़की वह,
बोले मुझसे, ‘छब्बिस ही तो
वर की है उम्र, ठीक ही है,
लड़की भी अट्ठारह की है।
फ़िर हाथ जोड़ने लगे, कहा-
‘वे नहीं कर रहे ब्याह, अहा,
हैं सुधरे हुए बड़े सज्जन !
अच्छे कवि, अच्छे विद्दज्जन!
है बड़े नाम उनके! शिक्षित
लड़की भी रूपवती; समुचित
आपको यही होगा कि कहें
हर तरह उन्हें; वर सुखी रहें।’
आयेंगे कल।” दृष्टि थी शिथिल,
आयी पुतली तू खिल-खिल-खिल
हंसती, मैं हुआ पुन: चेतन
सोचता हुआ विवाह-बन्धन।
कुण्डली दिखा बोला-”ए-लो”
आयी तू, दिया, कहा, “खेलो!”
कर स्नान-शेष, उन्मुक्त-केश
सासुजी रहस्य – स्मित सुवेश
आयी करने को बातचीत
जो कल होनेवाली, अजीज,
संकेत किये मैंने अखिन्न
जिस ओर कुण्डली छिन्न-भन्न;
देखने लगीं वे विस्मय भर
तू बैठी सच्चित टुकड़ों पर।
धीरे-धीरे फ़िर बढ़ा चरण,
बाल्य की केलियों का प्रांगण
कर पार, कुंज-तारूण्य सुधर
आयी, लावण्य-भार थर-थर
कांपा कोमलता पर सस्वर
ज्यों मालकौश नव वीणा पर :
नैश स्वप्न ज्यों तू मन्द-मन्द
फ़ूटी ऊषा जागरण-छन्द,
कांपी भर निज आलोक-भार,
कांपी वन, कांपा दिक प्रसार।
परिचय-परिचय पर खिला सकल-
नभ, पृथ्वी,द्रुम,कलि, किसलय-दल।
क्या दृष्टि! अतल की सिक्त-धर
ज्यों भोगावती उठी अपार,
उमड़ता ऊर्ध्व को कल सलील
जल टलमल करता नील-नील,
पर बंधा देह के दिव्य बांध,
छलकता दृगों से साध-साध।
फूटा कैसा प्रिय कण्ठ-स्वर
मां की मधुरिमा व्यंज्जना भर
हर पिता-कण्ठ की दृप्त धार
उत्कलित रागिनी की बहार!
बन जन्मसिद्ध गायिका, तन्वि,
मेरे स्वर की रागिनी वहिन
साकार हुई दृष्टि में सुधर,
समझा मैं क्या संस्कार प्रखर।
शिक्षा के बिना बना वह स्वर
है, सुना न अब तक पृथ्वी पर!
जाना बस, पिक-बालिका प्रथम
पल अन्य नीड़ में जब सक्षम
होती उड़ने को, अपना स्वर
भर करती ध्वनित मौन प्रान्तर।
तू खिंची दृष्टि में मेरी छवि,।
जागा उर में तेरा प्रिय कवि,
उन्मनन-गुज्ज सज हिला कुंज
तरू-पल्लव कलि-दल पुंज-पुंज
बह चली एक अज्ञात बात
चूमती केश-मृदु नवल गात,
देखती सकल निष्पलक-नयन
तू, समझा मैं तेरा जीवन।
सासु ने कहा लख एक दिवस:-
“भैया अब नहीं हमारा बस,
पालना-पोसना रहा काम,
देना ‘सरोज’ को धन्य-धाम,
शुचि वर के कर, कुलीन लखकर,
है काम तुम्हारा धर्मोतर;
अब कुछ दिन इसे साथ लेकर
अपने घर रहो, ढूंढ़कर वर
जो योग्य तुम्हारे, करो ब्याह
होगें सहाय हम सहोत्साह।
सुनकर, गुनकर चुपचाप रहा,
कुछ भी न कहा,-न अहो, न अहा;
ले चला साथ मैं तुझे, कनक
ज्यों भिक्षुक लेकर, स्वर्ण-झनक
अपने जीवन की, प्रभा विमल
ले आया निज गृह-छाया-तल।
सोचा मन में हत वार वार-
“ये कान्यकुब्ज-कुल-कुलाड्गार;
खाकर पत्तल में करें छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषय-बेलि में विष ही फ़ल,
यह दग्ध मरूस्थल-नहीं सुजल।”
फ़िर सोचा-”मेरे पूर्वजगण
गुजरे जिस राह, वही शोभन
होगा मुझको, यह लोक-रीति
कर दूं पूरी, गो नहीं भीति
कुछ मुझे तोड़ते गत विचार;
पर पूर्ण रूप प्राचीन भार
ढोते मैं हूं अछम; निश्चय
आयेगी मुझमें नहीं विनय
उतनी जो रेखा करे पार
सौहार्द-बन्ध की, निराधार।
वे जो जमुना के-से कछार
पद फ़टे बिवाई के, उधार
खाये के मुख ज्यों, पिये तेल
चमरौधे जूते से सकेल
निकले, जी लेते, घोर-गन्ध,
उन चरणों को मैं यथा अन्ध,
कल घ्राण-प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूं, ऎसी नहीं शक्ति।
ऎसे शिव से गिरिजा-विवाह
करने की मुझको नहीं चाह।”
फ़िर आयी याद-मुझे सज्जन
है मिला प्रथम ही विद्धज्जन
नवयुवक एक, सत्साहित्यिक,
कुल कान्यकुब्ज, यह नैमित्तिक
होगा कोई इंगित अदृश्य,
मेरे हित है हित यही स्पृश्य
अभिनन्दनीय। बंध गया भाव,
खुल गया ह्रदय का स्नेह-स्राव,
खत लिखा, बुला भेजा तत्क्षण,
युवक भी मिला प्रफ़ुल्ल,चेतन।
बोला मैं-”मैं हूं रिक्त-हस्त
इस समय, विवेचन में समस्त-
जो कुछ है मेरा अपना धन
पूर्वज से मिला, करूं अर्पण
यदि महाजनों को, तो विवाह
कर सकता हूं, पर नहीं चाह
मेरी ऎसी, दहेज देकर
मैं मूर्ख बनूं, यह नहीं सुधर,
बारात बुलाकर मिथ्या व्यय
मैं करूं, नही ऎसा सुसमय।
तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम
मैं सामाजिक योग के प्रथम,
लग्न के; पढूंगा स्वयं मन्त्र
यदि पण्डितजी होंगे स्वतन्त्र।
जो कुछ मेरे, वह कन्या का,
निश्चय समझो, कुल धन्या का।”
आये पण्डितजी, प्रजावर्ग,
आमन्त्रित साहित्यिक, ससर्ग
देखा विवाह आमूल नवल,
तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल।
देखती मुझे तू, हंसी मन्द,
होठों में बिजली फ़ंसी, स्पन्द
उर में भर झूली छबि सुन्दर,
प्रिय की अशब्द श्रंगार-मुखर
तू खुली एक-उच्छ्वास-संग,
विश्वास-स्तब्ध बंध अंग-अंग,
नत नयनो से आलोक उतर
कांपा अधरों पर थर-थर-थर।
देखा मैंने, वह मूर्ति-धीति
मेरे वसन्त प्रथम गीति-
श्रंगार, रहा जो निराकार
रस कविता में उच्छ्वसित-धार
गाया स्वर्गीया-प्रिय-संग-
भरता प्राणों में राग-रंग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदलकर बना मही।
हो गया ब्याह, आत्मीय स्वजन
कोई थे नहीं, न आमन्त्रण
था भेजा गया, विवाह-राग
भर रहा न घर निशि-दिवस जाग;
प्रिय मौन एक संगीत भरा
नव जीवन के स्वर पर उतरा।
मां की कुल शिक्षा मैने दी,
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में-”वह शकुन्तला,
पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।”
कुछ दिन रह गृह तू फ़िर समोद,
बैठी नानी की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यों अपार;
वे ही सुख-दुख में रहे न्यस्त;
तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त;
वह लता वहीं की, जहां कली
तू खिली, स्नेह से हिली, पली,
अन्त भी उसी गोद में शरण
ली मूंद दृग वर महामरण!
मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल,
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दु:ख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूं आज, जो नही कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मो का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!
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निराला ने बीस साल की उमर होते-होते अपनी पत्नी, भाई और तमाम परिवारी जनों को खो दिया था। पत्नी के जीवित रहते उन्होंने उनकी कद्र न की। उनके बालों को लेकर उन पर ताने कसे। गोस्त खाने के पीछे गढ़ाकोला में अपने साथ रहना दूभर कर दिया। अपने निठल्लेपन के कारण एन्ट्रेन्स परीक्षा न पास कर पाये। इससे अपने साथ उन्हें भी अपमानित कराकर घर से निकले। पर वह कितनी उदार थीं! कभी पति या ससुर के रूखे व्यवहार की शिकायत न की। मात्र अठारह की उम्र में संसार छोड़कर चलीं गयीं। कैसा सुन्दर कंठ, कैसा म्रदुल स्वभाव,कैसा सात्विक सौन्दर्य! निराला ने देखा कि उनके हृदय में पत्नी के प्रति अगाध प्यार है। यह प्यार अब तक क्यों नहीं दिखाई दिया था? किस मोह ने उनकी आंखों पर पर्दा डाल दिया था? क्या मृत्यु ही यह पर्दा उठा सकती थी कि वह मनोहरा देवी की वास्तविक छवि देखें?
निराला गढ़ाकोला से डलमऊ गये। गंगा के किनारे रात-रात भर व श्मशाम में घूमा करते जहां मनोहरा देवी की चिता जली थी। दिन में वह अवधूत टीले पर बैठ जाते और गंगा में बहती लाशें देखते रहते। पत्नी और भाई के निधन के बाद मौत का अब ऐसा कोई दृश्य न था जिससे उनको भय होता। जीवन में जो सबसे वीभत्स और भयानक है, उसे भर आंखों देखना वे सीख गये थे।
अपने बच्चों को सास के पास छोड़कर वे काम में जुट गये। साधना पथ पर अपने को समर्पित कर दिया।
निरालाजी की आर्थिक स्थिति कभी ऐसी नहीं रही कि आराम की जिंदगी जी सकें। कष्टों में जीवन चल रहा था।
इसी बीच अपनी पुत्री सरोज के विवाह की चिंता भी उन्हे सता रही थी। सरोज अपनी नानी के साथ रह रही थी। अपने एक मित्र को उन्होंने सरोज के लिये लड़का देखने के लिये लिखा। उनके मित्र दयाशंकर बाजपेयी ने अपने दोस्त शिवशेखर द्विवेदी से सरोज के विवाह के लिये पहले हामी भरी फिर द्विवेदीजी सूचित किया। इस बारे में द्विवेदीजी लिखते हैं:-
उनकी (निरालाजी) कामना थी कि सरोज का विवाह पास-पडो़स के किसी कुलीन घर में हो जाये। दो एक जगह उन्होंने चर्चा भी की। तब उन्होंने हमारे लिये श्री दयाशंकर बाजपेयी को लिखा। बाजपेयीजी ने हमें कुछ बताने से पहले ही स्वीकृति भेज दी। फिर हमें बताया। इसके तीन माह बाद हमें गड़ाकोला जाने का समाचार मिला। हम बहुत ही श्रद्धा करते थे। हम गये और वहां जाकर देखा, कुछ भी पास नहीं है। सिर्फ नब्बे रुपये हमारे पास थे। यही धन हमारी शादी में सहायक था। बिना किसी आडम्बर के उन्होंने जैसा चाहा,वैसा हमने किया। पुरोहित को मनोनुकूल देने में असमर्थ थे। इसीलिये वे (निराला) खुद पुरोहित थे। माली का काम भगवान वेदव्यास और महाकवि तुलसीदास ने किया-गीता रामायण ही मौर्य-मौरी थे।
सरोज की शादी के ड़ेढ़ साल बाद गौना हुआ। बाद में वे बीमार हो गयीं। साल भर बीमार रहीं। पता चला बायां फेफड़ा छलनी हो गया है। वैद्यों ने कहा उसे गंगा धारा में रखना चाहिये। निराला को पैसों की सख्त जरूरत थी। लेकिन कुछ इंतजाम न हो पा रहा था। प्रकाशक अपने अर्थभाव का रोना रो रहे थे। बाद में सरोज की मौत हो गयी। इस घटना के बारे में डा. रामविलास शर्मा लिखते हैं:-
गर्मी बीत चुकी थी। वर्षा का आरम्भ था।
डाकिये ने आवाज दी-पंडितजी।
वह खुद ही नीचे गये।
लौटते हुये जीने से ही बोले-डाक्टर सरोज इस नो मोर।
मैं हत्बुद्धि- सा बैठा रहा। वह कार्ड लिये कमरे में आये। मैंने एक बार उनके चेहरे की तरफ़ देखा, दुख के मारे जैसे स्याह हो गया हो।
उन्होंने एक आंसू न गिराया, एक शब्द भी न कहा। कुछ देर कमरे में चक्कर लगाते रहे। फिर कुर्ता पहना,छड़ी उठाई और घर से बाहर निकल गये।
सरोज की मौत ने निराला के सारे जीवन की सार्थकता और निर्थकता का प्रश्न विकट रूप में उनके सामने रख दिया। जियें तो किसके लिये। अब तक जीकर जो कुछ झेलते रहे उसका क्या फल मिला? महिषादल में नौकरी करते रहते तो बेटी की यह दुर्दशा नहीं होती। सब-कुछ छोड़ा साहित्य के लिये लेकिन साहित्य सेवा के लिये हमेशा पेट के लाले रहे।आलोचना सुनने से मालूम होता है कि हिंदी में लिखकर निराला ने भारी अपराध किया है। नेकनामी कम बदनामी ज्यादा मिली।
इसी मन:स्थित में रहे होंगे निराला जब उन्होंने राम की शक्ति पूजा में लिखा-धिक जीवन जो पाता ही आया विरोध,
धिक साधन, जिसके लिये किया सदा ही शोध।
निराला ने आंसू नहीं गिराये। उनक दुख उनके अन्तस में कहीं जम गया। अब वह पहले वाले निराला नही रह गये, अब वह पहले जैसे कभी नहीं हो सकते थे।
खून में किसी ने जहर घोल दिया है और वह जल रहे हैं। निराला ने मन की सारी ताकत बटोरकर अपने को दुख से अलग किया। खुद से अलग किया। खुद को देखा-दुखी, उदास, जर्जर। और अपना यह रूप देखकर उनका मन सजग हुआ। अन्तस में जमे हुये दुख को निराला ने सहेजना शुरू किया, उसे निहारते-समेटते निराला अनजाने ही उसे मूर्त रूप देने लगे। उन्होंने कविता लिखी- सरोज स्मृति|
सरोज स्मृति में निरालाजी ने अपनी पुत्री के तमाम चित्र खींचते हुये अपने बारे में भी लिखा है। उनकी अपनी कथा है यह। उन्हें जब याद आया कि कुंडली में लिखे भाग्य अंक को मिटाने का फैसला लिया था, दूसरा विवाह नहीं करेंगे यह तै किया था ,तब अपने पुरुषार्थ पर गर्व हुआ और उन्होंने लिखा-
खंडित करने को भाग्य अंक,
देखा भविष्य के प्रति अशंक।
दुनियादारी में असफल रहे पिता का दर्द व्यक्त किया-
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित कर न सका!
जाना तो अर्थागमोपाय
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ समर।
सम्पादकों के हाल बयान किये-
कवि जीवन में व्यर्थ भी व्यस्त
लिखता अबाध गति मुक्त छन्द,
पर सम्पादकगण निरानन्द
वापस कर देते पढ़ सत्वर
रो एक-पंक्ति-दो में उत्तर।
ब्राह्मणों को कोसा :-
ये कान्यकुब्ज-कुल-कुलाड्गार;परेशानी के बावजूद अपात्र से अपनी कन्या का वरण न करने की बात याद की-
खाकर पत्तल में करें छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषय-बेलि में विष ही फ़ल,
यह दग्ध मरूस्थल-नहीं सुजल।
कल घ्राण-प्राण से रहित व्यक्तिइस कविता का सबसे उल्लेखनीय पक्ष कवि पिता के द्वारा अपनी पुत्री का सौन्दर्य वर्णन करना लगता है। प्रेमिका, प्रेयसी के सौन्दर्य वर्णन के विपरीत यहां कवि होने के अलावा पिता की मर्यादा की चुनौती थी। निरालाजी ने लिखा-
हो पूजूं, ऎसी नहीं शक्ति।
ऎसे शिव से गिरिजा-विवाह
करने की मुझको नहीं चाह।
बाल्य की केलियों का प्रांगणयुवा पुत्री के लिये लिखी ये लाइने मैंने पहली बार तीस वर्ष पढ़ीं थीं और आज भी याद करता हूं-
कर पार, कुंज-तारूण्य सुधर
आयी, लावण्य-भार थर-थर
कांपा कोमलता पर सस्वर
ज्यों मालकौश नव वीणा पर :
नैश स्वप्न ज्यों तू मन्द-मन्द
फ़ूटी ऊषा जागरण-छन्द,
कांपी भर निज आलोक-भार,
कांपी वन, कांपा दिक प्रसार।
परिचय-परिचय पर खिला सकल-
नभ, पृथ्वी,द्रुम,कलि, किसलय-दल।
उर में भर झूली छबि सुन्दर,
प्रिय की अशब्द श्रंगार-मुखर
तू खुली एक-उच्छ्वास-संग,
विश्वास-स्तब्ध बंध अंग-अंग,
नत नयनो से आलोक उतर
कांपा अधरों पर थर-थर-थर।
पर जैसे-जैसे कविता के अंतिम चरण की ऒर पहुंचे, उनका धैर्य टूट गया, प्रकाश देखने वाले कवि का सपना चूर हो गया-
मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल,
युग वर्ष बाद जब हुयी विकल।
पर इसके बाद क्या हुआ ,निराला में कहने की सामर्थ्य न रही। वाक्य विश्रंखल हो गया-
दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूं आज जो कही नहीं।
निराला ने हिन्दी को, हिन्दी-साहित्य सेवा को, अपने को शाप दिया-
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मो का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!
जब निरालाजी ने रामविलासजी को कविता पढ़ाई उसके बारे में उन्होंने लिखा-कविता पढ़कर मैंने चुपचाप उसे एक तरफ़ रख दिया। उनकी तरफ़ देखने का साहस मुझमें न था। उन्होंने नहीं पूछा-कैसी है? मैंने नहीं कहा-सुन्दर है।
उन दिनों की निराला की मन:स्थिति के बारे में बताते हुये रामविलासजी ने लिखा- वह आलोचकों के लिये कहते-जिसे देखो, वही निराला को देखकर टिल-टिलाता है।
निराला मानो जीते हुये मृत्यु का अनुभव कर रहे थे। प्रसाद की पंक्तियां वह बड़े दर्द से पढ़ते मानो वह सब प्रत्यक्ष देख रहे हों जो प्रसाद ने देखा था, जो साधारण
लोगों की आंखों से ओझल था-
चढ़कर मेरे जीवन रथ-पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर
मैंने निज दुर्बल पदबल पर
उससे हारी होड़ लगाई।
आह वेदना मिली विदाई।
निराला के मन में व्यथा के केन्द्र कौन थे, वे कब सक्रिय हो उठते हैं, यह सब रहस्य था। अपने दुख की बातें सुनाकर दूसरों को दुखी करना उनके स्वभाव में न था। पर वह किस तरह की पंक्तियां गुनगुनाते हैं, उनके स्वर से, उनकी आखों से मैं समझने लगा था कि इन्हें घोर मानसिक कष्ट है।
वे धीरे-धीरे दुखी आवाज में गालिब का शेर गुनगुनाते:
रहिये अब ऐसी जगह चलकर जहां कोई न हो,
हम-सुखन कोई न हो और हम जबां कोई न हो।
बेदरो दीवार-सा इक घर बनाना चाहिये,
कोई हमसाया न हो और पासबां कोई न हो।
पड़िये गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार,
कोई अगर मर जाये तो नौहख्वां कोई न हो।
धीरे-धीरे निराला के मन में विषाद भरता चला गया। उनके परम प्रिय मित्र बलभद्र दीक्षित’पढ़ीस’ का देहावसान हुआ। उन्होंने अपने आदर्शों के अनुसार सरकारी नौकरी छोड़कर जनता के बीच रहकर उसे शिक्षित करने, उसी की तरह खेतों में काम करने और गांव में रहते हुये साहित्य लिखने का निश्चय किया। पढी़सजी ने कुलीन ब्राह्मणों की रूढ़ियां तोड़कर हल की मुठिया पकड़ी। अछूत बालकों को घर पढ़ाने लगे। उनके दुबले-पतले मुख पर परिश्रम की थकान दिखने लगी पर आंखों में नई चमक आयी, वाणी में नया ओज आया। बलभद्र प्रसाद दीक्षित के देहावसान पर निराला ने लिखा:-
दीक्षित के लिये बहुत सोचता हूं, मगर वह नस मेरी कट चुकी है जिसमें स्नेह सार्थक है। अपने आप दिन-रात जलन होती है। किसी से अपनी तरफ़ से प्राय: नहीं मिलता। मिल नहीं सकता। कोई आता है तो थोड़ी सी बातचीत। आनेवाला ऊब जाता है। मुझे भी बातचीत अच्छी नहीं लगती।कभी रात भर नींद नहीं आती। तम्बाकू छूटती नहीं। खोपड़ी भन्नाई रहती है। चित्रकूट में एक दफा बीमारी के समय छोड़ दिया था खाना, फिर आदत पड़ गयी।
बाद में इलाहाबाद में रहते हुये निराला और फिराक में दोस्ती हो गयी। निराला फिराक के यहां जाते, कभी बहस करते, धमकाते- इस तरह लिखोगे तो अभी सर के बल खड़ा करेंगे।
निराला के अर्थाभाव चल रहे थे तो उनको सहयोग करने वाले भी आगे आ रहे थे। जबलपुर की हितकारिणी संस्था ने निराला को आमंत्रित किया। सुभद्राकुमारी चौहान ने उन्हें देने के लिये तीन सौ रुपये की निधि एकत्रित की। निराला ने विद्यार्थियों से कुछ भी लेने से इन्कार कर दिया। लोगों के आग्रह करने पर राह-खर्च के लिये सौ रुपये रख लिये। दो सौ कांग्रेस को दे देने को कहा। जब उन्हें बताया गया कि कांग्रेस की रकम सरकार जब्त कर लेती है तब उन्होंने दो सौ रुपये जबलपुर के साहित्य संघ को दे दिये।
निराला के एक परम भक्त उन्हें कवि-सम्मेलन में बुलाने आये। सब बातें हो गयीं। भक्त लेखक भी थे, निराला उन्हें मित्रवत मानते थे। संकोचवश पेशगी रुपया न मांग सके। जाड़े के दिन थे। निराला के पास गरम कपड़ों, रजाई-बिस्तर वगैरह की कोई उचित व्यवस्था न थी। भक्त के जाने पर वह बोले- द्याखौ सारे का, कहत है हुआं यहु द्याव, वहु द्याब। हुआं तक जाई कैसे? न गद्दा, न रजाई, न जूता न जड़ावर।मेरी पसन्द
धीरे-धीरे निराला की हालत खराब होती गयी। लेकिन निराला का मन हारकर भी न हारा था, थके हुये मन में हास्य और व्यंग्य का स्रोत सूख न पाया था। परिवेश से जो कुछ कुछ देखते-सुनते थे, उससे विवेकवाला तार जोड़कर वह अब भी हंसते थे।
निराला दारागंज (इलाहाबाद) की गली में घुटनों तक लुंगी बांधे टहलते हुये, अक्सर अपने से बातें करते हुये देखे जाते थे। अब वह आवेश में जोर से कम बातें करते थे, धीरे-धीरे बुदबुदाते ज्यादा थे। वे लोगों से अक्सर अंग्रेजी में बात करने लगे थे। रेणुजी ने पूछा-आप हिंदी में क्यों नहीं बोलते? इस पर क्रुद्ध होकर उन्होंने कहा- No, I hate the language like hell. रेणुजी ने उनकी तुलसीदास कविता की प्रशंसा की। निराला ने कहा- No, it is nothing but trash. रेणुजी और उनके साथियों को मठा पिलाया; स्वयं पानी पीकर रह गये।
वह हिंदी को , कवि निराला के व्यक्तित्व को अस्वीकार कर रहे थे। अपने लिये नित नये-नये नाम चुनते। कलम से अपना नाम लिखने पर आपत्ति करते। इसी सिलसिले में वे अपने जन्म के बारे में कथायें गढ़ रहे थे।
इसी तरह के ध्यान में एक दिन वह बच्चन के यहां पहुंच गये। वहां सुमित्रानन्दन पन्त को देखकर उन्होंने कहा था- मैं निराला नहीं हूं, मैं हूं तुत्तन खां का बेटा मुत्तनखां। मैंने गामा, जेविस्को और टैगोर सबको चित्त किया है। आओ।
कभी-कभी लोग उनका दर्शन करने उनको खोजते-खोजते दारागंज की उनकी गली में आ जाते। निराला कहते- निराला यहां नहीं रहते। जिन निराला को ढूंढते हो, वह कब के मर गये।
निराला का एक मन हिंदी-भाषियॊं से विद्रोह करता था, अपनी हिंदी जातीयता, अपना कवि का व्यक्तित्व अमान्य करता था वहीं उनका दूसरा मन हिंदी से प्रेम करता था, हिंदी लिखने-पढ़ने-बोलनेवालों को अपना परम आत्मीय मानता था। वह अब भी गीत लिखे जा रहे थे।
निराला का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। सुमित्रानन्दन पन्त उनको देखने गये। निराला ने प्रसन्न होकर कहा-
हम रहें न रहें
तुम सलामत रहो हजार बरस।
…और एक दिन वह समय भी आ गया। निराला की हालत खराब होती गयी। किडनी ने काम करना बन्द कर दिया, नेत्रों की ज्योति जाती रही। तेरह अक्टूबर की शाम से पन्द्रह अक्टूबर सन ६१ के सबेरे तक जलोदर और हार्निया से पीड़ित शरीर में मृत्यु-यंत्रणा झेलने और अनेक बार मित्रों और डाक्टरों को स्वास्थ्य के आभास से प्रसन्न करने के बाद निराला ने अपनी जीवन लीला समाप्त की।
उनकी मृत्यु के कुछ दिन बाद सरस्वती के संपादकीय स्तम्भ में श्रीनारायण चतुर्वेदी ने लिखा-
निरालाजी अब नहीं हैं। भारतेन्दु ने अपने बारे में लिखा था, प्यारे हरिचन्द्र की कहानी रह जायेगी। सो अब निरालाजी की कहानी भर रह गयी है। अवश्य ही उनका भौतिक शरीर नहीं रहा,किन्तु जब तक हिन्दी भाषा है, जब तक काव्य के शुद्ध पारखी हैं, जब तक दलित,पतित और पीड़ित मानव हैं और जब तक दलित,पतित और पीडि़त मानव हैं और जब तक उनके कष्टों को वाणी देने की या वकील की आवश्यकता है, तब तक निरालाजी का यश:शरीर अमर है, तब तक उनकी वाणी जीवित है। हिन्दी के तो वे गौरव थे। उनके समान तेजस्वी, मेधावी,मौलिक और ऊंची उड़ान लेने वाला कवि तथा ‘शब्दों का बादशाह’ यदा-कदा ही जन्म लेता है।मेरी पसन्द
सरोज स्मृति
ऊनविंश पर जो प्रथम चरणतेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण:
तनये, ली कर दृक्पात तरुण
जनक से जन्म की विदा अरुण!
गीते मेरी, तज रूप-नाम
वर लिया अमर शाश्वत विराम
पूरे कर शुचितर सपर्याय
जीवन के अष्टादशाध्याय,
चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण
कह-”पित:, पूर्ण आलोक वरण
करती हूं मै, यह नहीं मरण,
‘सरोज’ का ज्योति:शरण-तरण”-
अशब्द अधरों का,सुना, भाष,
मैं कवि हूं,पाया है प्रकाश
मैंने कुछ अहरह रह निर्भर
ज्योतिस्तरणा के चरणों पर।
जीवित-कविते,शत-शर-जर्जर
छोड़कर पिता को पृथ्वी पर
तू गयी स्वर्ग, क्या यह विचार-
“जब पिता करेंगे मार्ग पार
यह, अक्षम अति,तब मैं सक्षम,
तारूंगी कर गह दुस्तर तम?”
कहता तेरा प्रयाण सविनय,-
कोई न अन्य था भावोदय।
श्रावण-नभ का स्तब्धान्धकार
शुक्ला प्रथमा कर गयी पार!
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित कर न सका!
जाना तो अर्थागमोपाय
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ समर।
शुचिते,पहनाकर चीनांशुक
रख सका न तुझे अत: दधिमुख।
क्षीण का न छीना कभी अन्न,
मैं लख सका न वे दृग विपन्न:
अपने आंसुओं अत: बिम्बित
देखे हैं अपने ही मुख-चित।
सोचा है नत हो बार-बार-
“यह हिंदी का स्नेहोपहार,
यह नहीं हार मेरी भास्वर
वह रत्नहार-लोकोत्तर वर।”
अन्यथा, जहां है भाव शुद्ध
साहित्य, कला- कौशल -प्रबुद्ध,
हैं दिये हुये मेरे प्रमाण
कुछ वहां,प्राप्ति को समाधान,-
पार्श्व में अन्य रख कुशल हस्त
गद्य में पद्य में समाभ्यस्त-
देखें वे; हंसते हुये प्रवर
जो रहे देखते सदा समर,
एक साथ जब शत घात घूर्ण
आते थे मुझ पर तले तूर्ण,
देखता रहा मैं खड़ा अपल
वह शर-क्षेप वह रण-कौशल।
व्यक्त हो चुका चीत्कारोत्कल
क्रुद्द युद्ध का रुद्ध-कण्ठ फल।
और भी फलित होगी वह छवि,
जागे जीवन जीवन का रवि,
लेकर कर कल तूलिका कला,
देखो क्या रंग भरती विमला,
वांछित उस किस लांक्षित छवि पर
फेरती स्नेह की कूची भर!
अस्तु मैं उपार्जन को अक्षम
कर नहीं सका पोषण उत्तम
कुछ दिन को, जब तू रही साथ
अपने गौरव से झुका माथ,
पुत्री भी, पिता गेह में स्थिर,
छोड़ने के प्रथम जीर्ण अजिर।
आंसुऒं सजल दृष्टि की छलक
पूरी न हुई जो रही कलक
प्राणों की प्राणों में दबकर
कहती लघु-लघु उसांस में भर:
समझता हुआ मैं रहा देख
हटती भी पथ पर दृष्टि टेक।
तू सवा साल की जब कोमल,
पहचान रही ज्ञान में चपल,
मां का मुख, हो चुम्बित क्षण-क्षण,
भरती जीवन में नव जीवन,
वह चरित पूर्ण कर गयी चली,
तू नानी की गोद जा पली।
सब किये वहीं कौतुक विनोद
उस घर निशि-वासर भरे मोद;
खायी भाई की मार विकल
रोयी, उत्पल-दल-दृग छलछल;
चुमकारा फिर उसने निहार,
फिर गंगा तट सैकत विहार
करने को लेकर साथ चला,
तू गहकर हाथ चली चपला;
आंसुओं धुला मुख हासोच्छल,
लखती प्रसार वह ऊर्मि धवल।
तब भी मैं इसी तरह समस्त
कवि जीवन में व्यर्थ भी व्यस्त
लिखता अबाध गति मुक्त छन्द,
पर सम्पादकगण निरानन्द
वापस कर देते पढ़ सत्वर
रो एक-पंक्ति-दो में उत्तर।
लौटी रचना लेकर उदास
ताकता रहा मैं दिशाकाश
बैठा प्रान्तर में दीर्घ प्रहर
व्यतीत करता था गुन-गुन कर
सम्पादक के गुण; यथाभ्यास
पास की नोचता हुआ घास
अज्ञात फ़ेकता इधर-उधर
भाव की चढ़ी पूजा उन पर।
याद है, दिवस की प्रथम धूप
थी पड़ी हुई तुझ पर सुरूप,
खेलती हुई तू परी चपल,
मैं दूरस्थित प्रवास से चल
दो वर्ष बाद, होकर उत्सुक
देखने के लिए अपने मुख
था गया हुआ, बैठा बाहर
आंगन में फ़ाटक के भीतर
मोढ़े पर, ले कुण्डली हाथ
अपने जीवन की दीर्घ गाथ।
पढ़ लिखे हुए शुभ दो विवाह
हंसता था, मन में बढ़ी चाह
खण्डित करने को भाग्य-अंक,
देखा भविष्य के प्रति अशंक।
इससे पहले आत्मीय स्वजन
सस्नेह कह चुके थे, जीवन
सुखमय होगा, विवाह कर लो
जो पढ़ी-लिखी हो-सुन्दर हो।
आये ऎसे अनेक परिणय,
पर विदा किया मैने सविनय
सबको, जो अड़े प्रार्थना भर
नयनों में, पाने को उत्तर
अनुकूल, उन्हें जब कहा निडर-
“मैं हूं मंगली”,मुड़े सुनकर।
इस बार एक आया विवाह
जो किसी तरह भी हतोत्साह
होने को न था, पड़ी अड़चन,
आया मन में भर आकर्षण
उन नयनों का, सासु ने कहा-
“वे बड़े भले जन है, भय्या,
एन्ट्रेंन्स पास है लड़की वह,
बोले मुझसे, ‘छब्बिस ही तो
वर की है उम्र, ठीक ही है,
लड़की भी अट्ठारह की है।
फ़िर हाथ जोड़ने लगे, कहा-
‘वे नहीं कर रहे ब्याह, अहा,
हैं सुधरे हुए बड़े सज्जन !
अच्छे कवि, अच्छे विद्दज्जन!
है बड़े नाम उनके! शिक्षित
लड़की भी रूपवती; समुचित
आपको यही होगा कि कहें
हर तरह उन्हें; वर सुखी रहें।’
आयेंगे कल।” दृष्टि थी शिथिल,
आयी पुतली तू खिल-खिल-खिल
हंसती, मैं हुआ पुन: चेतन
सोचता हुआ विवाह-बन्धन।
कुण्डली दिखा बोला-”ए-लो”
आयी तू, दिया, कहा, “खेलो!”
कर स्नान-शेष, उन्मुक्त-केश
सासुजी रहस्य – स्मित सुवेश
आयी करने को बातचीत
जो कल होनेवाली, अजीज,
संकेत किये मैंने अखिन्न
जिस ओर कुण्डली छिन्न-भन्न;
देखने लगीं वे विस्मय भर
तू बैठी सच्चित टुकड़ों पर।
धीरे-धीरे फ़िर बढ़ा चरण,
बाल्य की केलियों का प्रांगण
कर पार, कुंज-तारूण्य सुधर
आयी, लावण्य-भार थर-थर
कांपा कोमलता पर सस्वर
ज्यों मालकौश नव वीणा पर :
नैश स्वप्न ज्यों तू मन्द-मन्द
फ़ूटी ऊषा जागरण-छन्द,
कांपी भर निज आलोक-भार,
कांपी वन, कांपा दिक प्रसार।
परिचय-परिचय पर खिला सकल-
नभ, पृथ्वी,द्रुम,कलि, किसलय-दल।
क्या दृष्टि! अतल की सिक्त-धर
ज्यों भोगावती उठी अपार,
उमड़ता ऊर्ध्व को कल सलील
जल टलमल करता नील-नील,
पर बंधा देह के दिव्य बांध,
छलकता दृगों से साध-साध।
फूटा कैसा प्रिय कण्ठ-स्वर
मां की मधुरिमा व्यंज्जना भर
हर पिता-कण्ठ की दृप्त धार
उत्कलित रागिनी की बहार!
बन जन्मसिद्ध गायिका, तन्वि,
मेरे स्वर की रागिनी वहिन
साकार हुई दृष्टि में सुधर,
समझा मैं क्या संस्कार प्रखर।
शिक्षा के बिना बना वह स्वर
है, सुना न अब तक पृथ्वी पर!
जाना बस, पिक-बालिका प्रथम
पल अन्य नीड़ में जब सक्षम
होती उड़ने को, अपना स्वर
भर करती ध्वनित मौन प्रान्तर।
तू खिंची दृष्टि में मेरी छवि,।
जागा उर में तेरा प्रिय कवि,
उन्मनन-गुज्ज सज हिला कुंज
तरू-पल्लव कलि-दल पुंज-पुंज
बह चली एक अज्ञात बात
चूमती केश-मृदु नवल गात,
देखती सकल निष्पलक-नयन
तू, समझा मैं तेरा जीवन।
सासु ने कहा लख एक दिवस:-
“भैया अब नहीं हमारा बस,
पालना-पोसना रहा काम,
देना ‘सरोज’ को धन्य-धाम,
शुचि वर के कर, कुलीन लखकर,
है काम तुम्हारा धर्मोतर;
अब कुछ दिन इसे साथ लेकर
अपने घर रहो, ढूंढ़कर वर
जो योग्य तुम्हारे, करो ब्याह
होगें सहाय हम सहोत्साह।
सुनकर, गुनकर चुपचाप रहा,
कुछ भी न कहा,-न अहो, न अहा;
ले चला साथ मैं तुझे, कनक
ज्यों भिक्षुक लेकर, स्वर्ण-झनक
अपने जीवन की, प्रभा विमल
ले आया निज गृह-छाया-तल।
सोचा मन में हत वार वार-
“ये कान्यकुब्ज-कुल-कुलाड्गार;
खाकर पत्तल में करें छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषय-बेलि में विष ही फ़ल,
यह दग्ध मरूस्थल-नहीं सुजल।”
फ़िर सोचा-”मेरे पूर्वजगण
गुजरे जिस राह, वही शोभन
होगा मुझको, यह लोक-रीति
कर दूं पूरी, गो नहीं भीति
कुछ मुझे तोड़ते गत विचार;
पर पूर्ण रूप प्राचीन भार
ढोते मैं हूं अछम; निश्चय
आयेगी मुझमें नहीं विनय
उतनी जो रेखा करे पार
सौहार्द-बन्ध की, निराधार।
वे जो जमुना के-से कछार
पद फ़टे बिवाई के, उधार
खाये के मुख ज्यों, पिये तेल
चमरौधे जूते से सकेल
निकले, जी लेते, घोर-गन्ध,
उन चरणों को मैं यथा अन्ध,
कल घ्राण-प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूं, ऎसी नहीं शक्ति।
ऎसे शिव से गिरिजा-विवाह
करने की मुझको नहीं चाह।”
फ़िर आयी याद-मुझे सज्जन
है मिला प्रथम ही विद्धज्जन
नवयुवक एक, सत्साहित्यिक,
कुल कान्यकुब्ज, यह नैमित्तिक
होगा कोई इंगित अदृश्य,
मेरे हित है हित यही स्पृश्य
अभिनन्दनीय। बंध गया भाव,
खुल गया ह्रदय का स्नेह-स्राव,
खत लिखा, बुला भेजा तत्क्षण,
युवक भी मिला प्रफ़ुल्ल,चेतन।
बोला मैं-”मैं हूं रिक्त-हस्त
इस समय, विवेचन में समस्त-
जो कुछ है मेरा अपना धन
पूर्वज से मिला, करूं अर्पण
यदि महाजनों को, तो विवाह
कर सकता हूं, पर नहीं चाह
मेरी ऎसी, दहेज देकर
मैं मूर्ख बनूं, यह नहीं सुधर,
बारात बुलाकर मिथ्या व्यय
मैं करूं, नही ऎसा सुसमय।
तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम
मैं सामाजिक योग के प्रथम,
लग्न के; पढूंगा स्वयं मन्त्र
यदि पण्डितजी होंगे स्वतन्त्र।
जो कुछ मेरे, वह कन्या का,
निश्चय समझो, कुल धन्या का।”
आये पण्डितजी, प्रजावर्ग,
आमन्त्रित साहित्यिक, ससर्ग
देखा विवाह आमूल नवल,
तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल।
देखती मुझे तू, हंसी मन्द,
होठों में बिजली फ़ंसी, स्पन्द
उर में भर झूली छबि सुन्दर,
प्रिय की अशब्द श्रंगार-मुखर
तू खुली एक-उच्छ्वास-संग,
विश्वास-स्तब्ध बंध अंग-अंग,
नत नयनो से आलोक उतर
कांपा अधरों पर थर-थर-थर।
देखा मैंने, वह मूर्ति-धीति
मेरे वसन्त प्रथम गीति-
श्रंगार, रहा जो निराकार
रस कविता में उच्छ्वसित-धार
गाया स्वर्गीया-प्रिय-संग-
भरता प्राणों में राग-रंग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदलकर बना मही।
हो गया ब्याह, आत्मीय स्वजन
कोई थे नहीं, न आमन्त्रण
था भेजा गया, विवाह-राग
भर रहा न घर निशि-दिवस जाग;
प्रिय मौन एक संगीत भरा
नव जीवन के स्वर पर उतरा।
मां की कुल शिक्षा मैने दी,
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में-”वह शकुन्तला,
पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।”
कुछ दिन रह गृह तू फ़िर समोद,
बैठी नानी की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यों अपार;
वे ही सुख-दुख में रहे न्यस्त;
तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त;
वह लता वहीं की, जहां कली
तू खिली, स्नेह से हिली, पली,
अन्त भी उसी गोद में शरण
ली मूंद दृग वर महामरण!
मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल,
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दु:ख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूं आज, जो नही कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मो का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!
-
सूर्यकान्त त्रिपाठी’निराला’
रचनाकाल:९ अक्टूबर, १९३५
Posted in इनसे मिलिये, संस्मरण | 17 Responses
उनकी काव्य साधना और साहित्य के बारे में लिख पाना दुष्कर है. आपने बहुत अच्छा लेख प्रस्तुत किया है.
वीणा वादिनि
वर दे, वीणावादिनि वर दे।
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव भारत में भर दे।
काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।
नव गति नव लय ताल छंद नव
नवल कंठ नव जलद मन्द्र रव
नव नभ के नव विहग वृंद को,
नव पर नव स्वर दे।
एक बात पहले भी पूछी थी आज फिर लिख रहा हूँ हिन्दी के ज्यादातर साहित्यकार -कवियों की जिन्दगी इस तरह अभावों में क्यों गुजरी थी?