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मानस अनुक्रमणिका
By फ़ुरसतिया on June 14, 2008
दोस्तों की मदद से गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस नेट पर उपलब्ध कराई गयी है।
नेट पर जो लोग इसे देखते हैं वे समझते हैं कि हम लोग मानस मर्मज्ञ हैं। कुछ-कुछ जिज्ञासायें करते रहते हैं। एक सुझाव यह भी आया है कि मानस का सरल भाषा में अर्थ भी उपलब्ध कराया जाता तो अच्छा रहता।
पिछ्ले दिनों एक सवाल आया था उन्नाव के विष्णु पाण्डेयजी का। सवाल था-
इस तरह के सवाल के जबाब तो वही दे सकता है जिसको रामचरित मानस पूरी याद हो। या फ़िर ऐसी कोई किताब हो जिसमें ‘अकारादि क्रम’ में पूरा रामचरित मानस उपलब्ध हो।
ऐसी ही एक किताब के बारे में मुझे जानकारी मिली हमारे पड़ोस में निवास करने वाले डाक्टर लक्ष्मी शंकर त्रिपाठी जी। वे ठेलुहा के मामा हैं लिहाजा हमारे भी हुये। लेकिन हमारी श्रीमती जी उनको भाई साहब ही कहती हैं। हम कुछ नहीं कहते कहते हैं खाली नमस्ते कहते हैं।
इतवार को फ़िर सबेरे-सबेरे डा.त्रिपाठी के घर जा धमके। किताब के बारे पता किया और ले भी आये। मानस अनुक्रमणिका नाम की इस किताब में रामचरित मानस की सारी सामग्री अकारादि क्रम से संकलित है। मान लीजिये आपको देखना है कि मंगल भवन अमंगल हारी रामचरित मानस में किस कांड में है तो आप इस अनुकमणिका में देखें। एक दम वैसे ही जैसे शब्दकोश देखा जाता है। ‘म’ अक्षर देखते हुये ‘मंगल’ तक आइये। मंगल भवन अमंगल हारी आपको निम्न रूप में मिलेगी।
मंगल भवन अमंगल हारी। १-१११-४।
इसका मतलब है यह चौपाई पहले कांड (बालकाण्ड) के १११ वें दोहे के बाद चौथी लाइन में हैं।
अब अगर आपको देखना है कि चौपाई उलटि पलटि लंका सब जारी किधर है तो ‘उ’ देखिये और मामला इस तरह दिखेगा-
उलटि पलटि लंका सब जारी ।५-२५-८।
इसका मतलब यह चौपाई रामचरित मानस के पांचवें कांड (सुन्दरकांड) के पच्चीसवें दोहे के बाद आठवीं चौपाई है।
कभी-कभी ऐसा होता है कि आपको चौपाई की पहली अर्धाली नहीं याद आ रही है। दूसरी अर्धाली याद आ रही है। इसका भी उपाय है। आप इसके लिये अनुक्रमणिका के दूसरे खंड में जाइये। वहां देखेंगे तो मंगल भवन अमंगलहारी की दूसरी अर्धाली (द्रवउ सो दशरथ अजिर बिहारी) इस तरह मिलेगी।
द्रवउ सो दशरथ अजिर बिहारी।१-१११-४।
इसका मतलब है यह चौपाई पहले कांड (बालकाण्ड) के १११ वें दोहे के बाद चौथी लाइन में हैं।
दोहे के लिये आखिरी अंक शून्य ही रखा जाता है। जैसे निम्न दोहा देखें।
जाना राम प्रभाव तब पुलक प्रफ़ुल्लित गात।
जोरि पानि बोले बचन हृदय न प्रेमु समात॥
इसके लिये देखेंगे तो अनुक्रमणिका में इस तरह दिखेगा-
जाना राम प्रभाव तब।१-२८४-०।
इसका मतलब यह पहले कांड अर्थात बालकाण्ड के २८४ वें दोहे की पंक्ति है। जितने दोहे हैं उन सब के लिये आखिरी अंक शून्य है। श्लोक, छंद, सोरठा आदि भी इसी तरह संकलित हैं। श्लोक के लिये संदर्भ में श्लोक शब्द का प्रयोग किया गया है।
यह अनुकमणिका कलकत्ते के श्री बड़ाबाजार कुमार सभा पुस्तकालय द्वारा प्रकाशित है। इसका आधार गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ग्रंथ है। इसी में दी गयी जानकारी के अनुसार इसके पहले भी इस तरह के काम हुये हैं। शाहजहांपुर से संवत २०२७ में प्रकाशित ‘श्रीरामचरितमानस वर्णानुक्रमणिका’ (रचयिता: मोहिनी श्रीवास्तव) तथा सागर(म.प्र.) से संवत २०३९ में प्रकाशित मानस मुक्ता (संपादक मुरलीधर अग्रवाल) प्रकाशित हो चुके हैं। इस प्रकाशनों की प्रसार संख्या सीमित होने के कारण ये सर्वसुलभ नहीं हैं।
इस संकलक के हर पेज के लिये लोगों ने आर्थिक सहयोग प्रदान किया है। कुछ लोगों ने कई-कई पेज के लिये सहयोग दिया है।
अब हम सोच रहे हैं कि अगर जिस रूप में नेट पर रामचरित मानस है उसको अनुकमणिका के रूप में लाने का क्या जुगाड़ है?
माइक्रोसाफ़्ट वर्ड या एक्सेल में अगर इस तरह की चीजें होती हैं तो उनकी छंटाई तो हम कर लेते हैं लेकिन इसके आगे ! हम न जानते हैं। कुछ सुझाव /अनुरोध रामचरित मानस का भावार्थ देने के लिये भी आये हैं। यह बड़ा काम है। किया जा सकता है लेकिन कैसे? बतायें कम्प्यूटर जानकार!
आप भी शायद कुछ बता सकें।
अनुक्रमणिका के बारे में कुछ जानकारी:
किताब : मानस अनुक्रमणिका
प्रकाशक: श्री बड़ाबाजार कुमार सभा पुस्तकालय कलकत्ता
परामर्शदाता: आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री
संयोजक:कृष्ण स्वरूप दीक्षित
सम्पादक: डा.प्रेम शंकर त्रिपाठी
डा.उषा द्विवेदी
मुदक: छपते-छपते प्रकाशन प्रा.लि.
मूल्य: २५० रुपये।
इक गीत तुम्हारे मिलने का
इक गीत तुम्हारे खोने का
सड़कों-सड़कों, शहरों-शहरों
नदियों-नदियों, लहरों-लहरों
विश्वास किये जो टूट गये
कितने ही साथी छूट गये
पर्वत रोये-सागर रोये
नयनों ने भी मोती खोये
सौगन्ध गुंथी-सी अलकों में
गंगा-जमुना सी पलकों में
केवल दो स्वप्न बुने मैंने
इक स्वप्न तुम्हारे जगने का
इक स्वप्न तुम्हारे सोने का
बचपन-बचपन, यौवन-यौवन
बन्धन-बन्धन, क्रन्दन-क्रन्दन
नीला अम्बर,श्यामल मेघा
किसने धरती का मन देखा
सबकी अपनी मजबूरी है
चाहत के भाग्य लिखी दूरी
मरुथल-मरुथल,जीवन-जीवन
पतझर-पतझर, सावन-सावन
केवल दो रंग चुने मैंने
इक रंग तुम्हारे हंसने का
एक रंग तुम्हारे रोने का
केवल दो गीत लिखे मैंने
इक गीत तुम्हारे मिलने का
इक गीत तुम्हारे खोने का।
राजेन्द्र राजन
सहारनपुर
नेट पर जो लोग इसे देखते हैं वे समझते हैं कि हम लोग मानस मर्मज्ञ हैं। कुछ-कुछ जिज्ञासायें करते रहते हैं। एक सुझाव यह भी आया है कि मानस का सरल भाषा में अर्थ भी उपलब्ध कराया जाता तो अच्छा रहता।
पिछ्ले दिनों एक सवाल आया था उन्नाव के विष्णु पाण्डेयजी का। सवाल था-
जय श्री राम,
मैंने एक सोरठा पढ़ा है जो नीचे है। कृपा करके यह बतायें यह रामायण में कहां से लिया गया है तथा किससे संदर्भित है?
मंगल भवन ललाम, जासु नाम भव भय हरन।
द्रवहुं सो सीताराम, मंगलायतन जासु जस॥
आपके उत्तर की प्रतीक्षा में,
विण्णु पाण्डेय,
उन्नाव
इस तरह के सवाल के जबाब तो वही दे सकता है जिसको रामचरित मानस पूरी याद हो। या फ़िर ऐसी कोई किताब हो जिसमें ‘अकारादि क्रम’ में पूरा रामचरित मानस उपलब्ध हो।
ऐसी ही एक किताब के बारे में मुझे जानकारी मिली हमारे पड़ोस में निवास करने वाले डाक्टर लक्ष्मी शंकर त्रिपाठी जी। वे ठेलुहा के मामा हैं लिहाजा हमारे भी हुये। लेकिन हमारी श्रीमती जी उनको भाई साहब ही कहती हैं। हम कुछ नहीं कहते कहते हैं खाली नमस्ते कहते हैं।
इतवार को फ़िर सबेरे-सबेरे डा.त्रिपाठी के घर जा धमके। किताब के बारे पता किया और ले भी आये। मानस अनुक्रमणिका नाम की इस किताब में रामचरित मानस की सारी सामग्री अकारादि क्रम से संकलित है। मान लीजिये आपको देखना है कि मंगल भवन अमंगल हारी रामचरित मानस में किस कांड में है तो आप इस अनुकमणिका में देखें। एक दम वैसे ही जैसे शब्दकोश देखा जाता है। ‘म’ अक्षर देखते हुये ‘मंगल’ तक आइये। मंगल भवन अमंगल हारी आपको निम्न रूप में मिलेगी।
मंगल भवन अमंगल हारी। १-१११-४।
इसका मतलब है यह चौपाई पहले कांड (बालकाण्ड) के १११ वें दोहे के बाद चौथी लाइन में हैं।
अब अगर आपको देखना है कि चौपाई उलटि पलटि लंका सब जारी किधर है तो ‘उ’ देखिये और मामला इस तरह दिखेगा-
उलटि पलटि लंका सब जारी ।५-२५-८।
इसका मतलब यह चौपाई रामचरित मानस के पांचवें कांड (सुन्दरकांड) के पच्चीसवें दोहे के बाद आठवीं चौपाई है।
कभी-कभी ऐसा होता है कि आपको चौपाई की पहली अर्धाली नहीं याद आ रही है। दूसरी अर्धाली याद आ रही है। इसका भी उपाय है। आप इसके लिये अनुक्रमणिका के दूसरे खंड में जाइये। वहां देखेंगे तो मंगल भवन अमंगलहारी की दूसरी अर्धाली (द्रवउ सो दशरथ अजिर बिहारी) इस तरह मिलेगी।
द्रवउ सो दशरथ अजिर बिहारी।१-१११-४।
इसका मतलब है यह चौपाई पहले कांड (बालकाण्ड) के १११ वें दोहे के बाद चौथी लाइन में हैं।
दोहे के लिये आखिरी अंक शून्य ही रखा जाता है। जैसे निम्न दोहा देखें।
जाना राम प्रभाव तब पुलक प्रफ़ुल्लित गात।
जोरि पानि बोले बचन हृदय न प्रेमु समात॥
इसके लिये देखेंगे तो अनुक्रमणिका में इस तरह दिखेगा-
जाना राम प्रभाव तब।१-२८४-०।
इसका मतलब यह पहले कांड अर्थात बालकाण्ड के २८४ वें दोहे की पंक्ति है। जितने दोहे हैं उन सब के लिये आखिरी अंक शून्य है। श्लोक, छंद, सोरठा आदि भी इसी तरह संकलित हैं। श्लोक के लिये संदर्भ में श्लोक शब्द का प्रयोग किया गया है।
यह अनुकमणिका कलकत्ते के श्री बड़ाबाजार कुमार सभा पुस्तकालय द्वारा प्रकाशित है। इसका आधार गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ग्रंथ है। इसी में दी गयी जानकारी के अनुसार इसके पहले भी इस तरह के काम हुये हैं। शाहजहांपुर से संवत २०२७ में प्रकाशित ‘श्रीरामचरितमानस वर्णानुक्रमणिका’ (रचयिता: मोहिनी श्रीवास्तव) तथा सागर(म.प्र.) से संवत २०३९ में प्रकाशित मानस मुक्ता (संपादक मुरलीधर अग्रवाल) प्रकाशित हो चुके हैं। इस प्रकाशनों की प्रसार संख्या सीमित होने के कारण ये सर्वसुलभ नहीं हैं।
इस संकलक के हर पेज के लिये लोगों ने आर्थिक सहयोग प्रदान किया है। कुछ लोगों ने कई-कई पेज के लिये सहयोग दिया है।
अब हम सोच रहे हैं कि अगर जिस रूप में नेट पर रामचरित मानस है उसको अनुकमणिका के रूप में लाने का क्या जुगाड़ है?
माइक्रोसाफ़्ट वर्ड या एक्सेल में अगर इस तरह की चीजें होती हैं तो उनकी छंटाई तो हम कर लेते हैं लेकिन इसके आगे ! हम न जानते हैं। कुछ सुझाव /अनुरोध रामचरित मानस का भावार्थ देने के लिये भी आये हैं। यह बड़ा काम है। किया जा सकता है लेकिन कैसे? बतायें कम्प्यूटर जानकार!
आप भी शायद कुछ बता सकें।
अनुक्रमणिका के बारे में कुछ जानकारी:
किताब : मानस अनुक्रमणिका
प्रकाशक: श्री बड़ाबाजार कुमार सभा पुस्तकालय कलकत्ता
परामर्शदाता: आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री
संयोजक:कृष्ण स्वरूप दीक्षित
सम्पादक: डा.प्रेम शंकर त्रिपाठी
डा.उषा द्विवेदी
मुदक: छपते-छपते प्रकाशन प्रा.लि.
मूल्य: २५० रुपये।
मेरी पसन्द
केवल दो गीत लिखे मैंनेइक गीत तुम्हारे मिलने का
इक गीत तुम्हारे खोने का
सड़कों-सड़कों, शहरों-शहरों
नदियों-नदियों, लहरों-लहरों
विश्वास किये जो टूट गये
कितने ही साथी छूट गये
पर्वत रोये-सागर रोये
नयनों ने भी मोती खोये
सौगन्ध गुंथी-सी अलकों में
गंगा-जमुना सी पलकों में
केवल दो स्वप्न बुने मैंने
इक स्वप्न तुम्हारे जगने का
इक स्वप्न तुम्हारे सोने का
बचपन-बचपन, यौवन-यौवन
बन्धन-बन्धन, क्रन्दन-क्रन्दन
नीला अम्बर,श्यामल मेघा
किसने धरती का मन देखा
सबकी अपनी मजबूरी है
चाहत के भाग्य लिखी दूरी
मरुथल-मरुथल,जीवन-जीवन
पतझर-पतझर, सावन-सावन
केवल दो रंग चुने मैंने
इक रंग तुम्हारे हंसने का
एक रंग तुम्हारे रोने का
केवल दो गीत लिखे मैंने
इक गीत तुम्हारे मिलने का
इक गीत तुम्हारे खोने का।
राजेन्द्र राजन
सहारनपुर
आपको सच्चे मन से धन्यवाद!
इस लिन्क को देने का -
– लावण्या
जेहिके जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहिं मिलई न कछु संदेहू।