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मैं कृष्णबिहारी को नहीं जानता – गोविन्द उपाध्याय
By फ़ुरसतिया on June 25, 2008
[पिछली पोस्ट में कृष्ण बिहारी जी का इंटरव्यू
पोस्ट किया था। यह इंटरव्यू शब्दांजलि पत्रिका के लिये लिया था जो कि
अंतत: पत्रिकागति को प्राप्त हुई मतलब बंद हो गयी। बिहारीजी के बारे में
मुझे हमारे मित्र गोविन्द उपाध्याय ने बताया था। उन दिनों बिहारी जी की
आत्मकथा सागर के इस पार से नियमित रूप से अभिव्यक्ति
में प्रकाशित हो रही थी। उसको बांचने के लिये हम अभिवयक्त्ति नियमित देखने
लगे। अभिवयक्ति देखते -देखते ही मुझे एक दिन रविरतलामीजी का ब्लागिंग से
संबंधित यह लेख भी दिखा था और हम यहां टपक पड़े। तो कहा जा सकता है कि ब्लागिंग के बारे में परिचित कराने का अप्रत्यक्ष योगदान बिहारीजी का भी है।
बिहारी जी के बारे में यह लेख गोविन्द उपाध्याय जी ने लिखा है। गोविन्द उपाध्याय जी की बचपन की आपबीती आवारा जिंदगी के पन्ने आप चाहें तो यहां , यहां और यहां पढ़ सकते हैं। ]
रात को आठ बजे के करीब जब मैं वर्माजी के घर के लिये चला तो बारिश थम चुकी थी। झींगुरों और मेढकों के बीच चिल्लाने की प्रतियोगिता चल रही थी। मैं कुछ ही फासले पर रहने वाले वर्माजी के घर की चौखट पर खड़ा था।
वर्माजी फुलटास नशे में आंखे बंद किये चारपाई पर लेटे हूं-हां कर रहे थे। सामने कुर्सी पर बैठे एक दुबले पतले श्रीमानजी उन्हें कुछ समझाने का प्रयास कर रहे हैं। दरवाजे पर आहट पाकर उनकी निगाहें मेरी तरफ मुड़ी वर्मा जी ने उठने का असफल प्रयास किया और बोल पड़े,” बिहारी , यही गोविंद है।”
“मैं कृष्ण बिहारी…” और उन्होंने मेरा हाथ थाम लिया। इसके पहले भी कृष्णबिहारी कई बार मुझसे मिले थे। ‘परिमल’ के कवि सम्मेलनों में …,किसी वैवाहिक आयोजन में या फिर पान की दुकान में। लेकिन इस तरह की सुनियोजित ढंग से यह हमारी पहली मुलाकात थी। थोड़ी सी औपचारिकता के बाद हम दोनों ने स्वत: अपने रिश्ते तय कर लिये थे। मैं उनका गोविंद था और वे मेरे लिये बिहारी भाई हो गये। वर्माजी खर्राटें ले रहे थे और हम बातों में मशगूल थे।
बिहारी भाई की दैनिक जागरण में प्रेम कहानियों पर एक पूरी श्रंखला ही मैं पढ़ चुका था। बातों-बातों में पता चला कि वे इस समय धुआंधार लिख रहे हैं और जल्द ही उनकी कुछ कहानियां आने वाली हैं।
बिहारी भाई का जीवन इतना पारदर्शी रहा है कि वो जिस कालोनी में रहते हैं वहां का हर व्यक्ति जो उनके करीब था ,उनकी सारी गतिविधियों को जानता था। उन्होंने जवानी के दिनों में प्रेम किया,कभी छिपाया नहीं। सिगरेट पीना शुरू किया तो बीच चौराहे पर पी और शराब पी तो खुलेआम।आज यह सब सामान्य चीजें हों लेकिन तीस साल पहले यह बात कितनी वर्जित थीं यह सिर्फ सोचा ही जा सकता है।
विगत दस वर्षों में हमने साथ-साथ न जाने कितनी शामें बितायीं । मैं अपनी रूटीनी जिंदगी से ऊबा हुआ हमेशा जुलाई-अगस्त माहों में इन्तजार करता था कि कब अबूधाबी से बिहारी भाई आयेंगे और कब मैं घरेलू पालतू जिंदगी से अलग बिंदास ढंग से कुछ शामें बिता पाऊंगा। एक बार उन्हें यह पता चला कि मैं शराब ज्यादा पीने लगा हूं । फौरन वे बड़े भाई बन गये,”देखो गोविंद मैं यहां दो महीने के लिये आता हूं । मेरे पास सिर्फ एक ही काम होता है यार-दोस्तों से मिलना। लेकिन मेरा यह रूप अबूधाबी में नहीं चलेगा। वहां मैं अध्यापक हूं या फिर सिर्फ लिखता हूं। यदि मैं शराब पीने लगा तो यह दोनों ही चीजें सम्भव नहीं हैं।तुम पीने से ज्यादा लिखने के बारे में सोचो। कुछ भी लिखो पर नियम से कुछ न कुछ लिखो।
मैंने उनकी बात नहीं मानी और एक दिन वो मुझ पर बिफर गये,”मैं क्यों आता हूं तुम्हारे पास? मेरे तुम्हारे बीच लेखन ही तो था और अब तुमने न लिखने की कसम खा ली है।”मेरे न लिखने पर बिहारी भाई इतने परेशान रहते हैं कि शाम को जहां-जहां मैं जाता हूं वहां के लोगों से कह रखा है-”गोविंद आये तो पूछना क्या लिख रहा है?”मसलन वाइन शाप के मालिक संजय तिवारी। जब भी मैं शीशी लेने पहुंचा वह मुझसे जरूर पूछते,’गोविंदजी,क्या लिख रहे हैं?’
ऐसे में मेरे पास दो ही विकल्प बचे थे-”पीना छोड़ दूं या लिखना शुरू कर दूं।” फिलहाल मैंने पीना बंद कर दिया है।लिखने की जिद्द उनकी फिर भी जारी रही। यहां तक कि ‘दो औरतें’ कहानी संग्रह देते हुये उन्होंने उस पर लिखा,”उस गोविंद
को जिसे मैं लिखते हुये देखना चाहता हूं।”
मेरे कहानी संग्रह के लिये २००० से ही दबाव बनाये रखा, “नहीं लिख रहे तो अपनी कहानियों की पांडुलिपि ही तैयार करो । “मुझे उनकी जिद के आगे झुकना पड़ा। ‘पंखहीन’ नाम के कहानी संग्रह की पांडुलिपि तैयार हुई। मेरे साथ स्वयं गये दिल्ली। प्रकाशक को पांडुलिपि सौंपी। हंस,साहित्य अमृत और नया ज्ञानोदय में बता दिया कि अब गोविंदजी ने फिर से लिखना शुरू कर दिया है। नतीजतन मैंने कलम फिर से पकड़ ही ली।
मुझे याद आ रहा है बिहारी भाई शहर की एक लेखिका से बातचीत कर रहे थे। मैं भी पहुंच गया।लेखिका ने उनसे मेरा परिचय कराना चाहा। कृष्णबिहारी बोल पड़े,”मैं इसे जानता हूं।बहुत नालायक व आलसी किस्म का इंसान है यह पर मेरा छोटा भाई है।”लेखिका का मुंह किंचित आश्चर्य से खुला रह गया।१९९७ में अमरीक सिंह ‘दीप’ से मैं उन्हें मिलाने ले गया। उस समय ८४’के दंगों पर बिहारी जी की कहानी’एक सिरे से दूसरे सिरे तक’ मैंने पढ़ी थी। दीप जी से मैंने उसकी चर्चा भी की थी। कहानी ,कल के लिये पत्रिका के अप्रैल-जून १९९७ अंक में छपी थी। बिहारी भाई की कहानियों में वह एक ऐसी प्रामाणिक कहानी है जिसे वह ख्याति नहीं मिली जिसकी वह हकदार थी। दंगाइयों के बारे में लिखते हुये लेखक बिहारी के विचार:-
मानव जीवन के सहज यौन आकर्षण विचलन बिहारी जी बखूबी देख पाते हैं। प्रथम पुरुष की नायिका दो बच्चों की मां है फिर भी वह दूसरे पुरुष के आकर्षण से बच नहीं पाती-”निर्वसन हूं मैं। मेरा विशाल शरीर और विशालकाय हो उठा है..शरीर की उत्तप्त अवस्था है यह..मेरे विशालकाय शरीर को अपनी दीर्घकाया से आच्छादित स्वयं को किसी ऐसे लोक में पा रही हूं जहां आनन्द के सिवाय और कुछ भी नहीं है।आंख खुलने पर शर्म भी आयी और जब भुवन को पार्श्व में लेटे देखा तो ग्लानि हुई थी…छि..कहां जा रही हूं मैं।”
लेकिन ‘दो औरतें’ की नायिका रोजी के लिये देह ही सब कुछ है। देह से अलग वह कुछ सोच ही नहीं पाती-
अभी आधी दूर ही पहुंचे थे कि देखा तमाम पुलिस बीच सड़क पर वाहनों की चेकिंग कर रही है।सिपाही ने बिहारी भाई को रोका,कागज मांगे। बिहारी भाई बोले-कागज नहीं हैं।सिपाही ने गाड़ी किनारे लगाने को कहा। बिहारी अकड़ गये-गाड़ी क्यों लगाऊं ,तुम्हारा साहब कौन है?साहब भी आ गये। बिहारी भाई बोले-श्रीमान पीछे मेरे मित्र बैठे हैं। हम शराब पी रहे थे। कम पड़ गई ।लेने जा रहा हूं। मैं रहता हूं अबूधाबी में।आज ही आया हूं।गाड़ी मेरे छोटे भाई की है।मेरे पास न लाइसेंस है न गाड़ी के कागज।
पुलिस अधिकारी उनकी निडर बेबाकी पर हंस दिया ।बोला-जाइये।
बिहारी भाई की एक खासियत है। वह हर उम्र के लोगों के साथ इतनी सहजता से घुल-मिल जाते हैं कि उम्र का कोई फासला नहीं रहता।यदि वह मेरी ,महाविद्यालय में पढ़ने वाली ,बेटी के को एक घण्टे तक स्कूटी चलाने की बारिकियां बता सकते हैं तो अपने पांचवें में पढ़ने वाले भतीजे से गियर वाली साइकिल की बारीकियां पूरी उत्सुकता से सीखने का प्रयास करते हैं।किसी बुजुर्ग से उसके जमाने की याद ताजा कराते हुये बतिया सकते हैं तो निपट निरक्षर से गंवई भाषा में बात करते हुये भी देखे जा सकते हैं।
उनका व्यक्तित्व चमत्कारिक सा है जिसमें सच का सामना करने का भी गज़ब का साहस है।’पूरी हकीकत पूरा फ़साना’ कहानी संग्रह में बिहारीजी ने लिखा है:-
बिहारी भाई को गुस्साते हुये भी मैंने देखा है। वह फिर ऐसा होता है कि…मत पूछिये।खासतौर से उन सम्पादकों के प्रति जो लेखकों की संवेदना से शून्य हैं।मैं नहीं छपने वाला…मुझे नहीं भेजनी वहां रचना।
गुस्से का यह आलम है था कि न जाने कब क्या कर बैठें। नौकरी से समझौता न कर पाने के कारण कई बार जमी-जमाई नौकरी छोड़ दी। सिक्किम की नौकरी उन्हें बहुत मुश्किल से मिली एक लम्बे समय तक बेरोजगारी झेलने के बाद ।लेकिन जब छोड़ी तो एक पल भी नहीं लगा।
सिक्किम से जब नौकरी छोड़ के आये तो उनके साथ स्वर्ग की अप्सरा जैसी एक महिला थीं। मेरा उनसे परिचय था नहीं। काफी दिन मेरी जिज्ञासा अवचेतन में दबी रही।एक दिन पूछ ही लिया-भइया सिक्किम से एक बहुत सुन्दर महिला जो आई थी वो कौन थीं? बिहारी भाई हंस दिये।बोले- वह मुंहबोली बहन थी।उसका विवाह मैने ही कराया। फिर उन्होंने पूरा किस्सा सुनाया जो आज मुझे ठीक-ठीक याद नहीं।
बिहारी भाई हर बार मुझे एक नये शेड में मिलते हैं।पर कुछ ही देर में नया शेड जाना-पहचाना लगने लगता है-नहीं बिहारी भाई बिल्कुल नहीं बदले।बदले है तो सिर्फ वक्त के साथ उनकी खिचड़ी होती दाढ़ी जो अब सफेद बर्फ के रूये जैसी हो गई है जिसे बात करते-करते कब वो खुजाने लगें और आपके सामने अच्छा-खासा बैठा आदमी अपरिचित सा लगने लगता है। लगता ही नहीं कि यह वही कृष्णबिहारी हैं जो अभी कुछ देर पहले तमाम किस्से सुना रहे थे।
यकीन मानिये मेरी स्थिति भ्रम की होती है। यह पारदर्शी सा व्यक्ति लोगों के न जाने कितने रहस्य अपने अंदर समेटे है।जो हर किसी के सुख की कामना करता है क्या कोई कोई उसके अंदर झांककर देख पायेगा। कोई कुछ भी कहे मुझे यह कहने में झिझक नहीं होगी कि मैं कृष्णबिहारी को नहीं जानता।
गोविन्द उपाध्याय
बिहारी जी के बारे में यह लेख गोविन्द उपाध्याय जी ने लिखा है। गोविन्द उपाध्याय जी की बचपन की आपबीती आवारा जिंदगी के पन्ने आप चाहें तो यहां , यहां और यहां पढ़ सकते हैं। ]
मैं कृष्ण बिहारी को नहीं जानता- गोविन्द उपाध्याय
बात १९९५ के जुलाई माह की है। वर्षा अपने पूरे उफान पर थी । मौसम में एक रूमानियत भरा भीगापन था। ऐसे में मैं अपने आफिस की खिड़की से बाहर होती झमाझम बारिस को देखते अपनी बेबसी को कोस रहा था। मेरी दो टकियों की नौकरी मेरे लाखों के सावन पर भारी पड़ रही थी। अचानक स्व. श्याम नन्दन वर्मा (सत्यकथा लेखक एवं पत्रकार) मेरे पास आकर खड़े हो गये। मेरे कन्धे पर हाथ रखकर बोले, ‘क्या देख रहे हो? बारिश के भीगेपन को सूखे होंठों से निहारना बहुत बड़ा अपराध है। और तुम ठहरे कमजोर पार्टी। तो ऐसे ही फोकट में बरसात का मजा ले सकते हो। आज शाम घर आओ तुम्हें एक आदमी से मिलवाता हूं ,मजा आ जायेगा।’
बारिश के भीगेपन को सूखे होंठों से निहारना बहुत बड़ा अपराध है।
वर्माजी जिज्ञासा की पुड़िया सुंघाकर चले गये। मैं इंतजार के दलदल में फंसा रात का इंतजार करने लगा।रात को आठ बजे के करीब जब मैं वर्माजी के घर के लिये चला तो बारिश थम चुकी थी। झींगुरों और मेढकों के बीच चिल्लाने की प्रतियोगिता चल रही थी। मैं कुछ ही फासले पर रहने वाले वर्माजी के घर की चौखट पर खड़ा था।
वर्माजी फुलटास नशे में आंखे बंद किये चारपाई पर लेटे हूं-हां कर रहे थे। सामने कुर्सी पर बैठे एक दुबले पतले श्रीमानजी उन्हें कुछ समझाने का प्रयास कर रहे हैं। दरवाजे पर आहट पाकर उनकी निगाहें मेरी तरफ मुड़ी वर्मा जी ने उठने का असफल प्रयास किया और बोल पड़े,” बिहारी , यही गोविंद है।”
“मैं कृष्ण बिहारी…” और उन्होंने मेरा हाथ थाम लिया। इसके पहले भी कृष्णबिहारी कई बार मुझसे मिले थे। ‘परिमल’ के कवि सम्मेलनों में …,किसी वैवाहिक आयोजन में या फिर पान की दुकान में। लेकिन इस तरह की सुनियोजित ढंग से यह हमारी पहली मुलाकात थी। थोड़ी सी औपचारिकता के बाद हम दोनों ने स्वत: अपने रिश्ते तय कर लिये थे। मैं उनका गोविंद था और वे मेरे लिये बिहारी भाई हो गये। वर्माजी खर्राटें ले रहे थे और हम बातों में मशगूल थे।
बिहारी भाई की दैनिक जागरण में प्रेम कहानियों पर एक पूरी श्रंखला ही मैं पढ़ चुका था। बातों-बातों में पता चला कि वे इस समय धुआंधार लिख रहे हैं और जल्द ही उनकी कुछ कहानियां आने वाली हैं।
बिहारी
भाई का जीवन इतना पारदर्शी रहा है कि वो जिस कालोनी में रहते हैं वहां का
हर व्यक्ति जो उनके करीब था ,उनकी सारी गतिविधियों को जानता था।
दो-तीन दिन बाद ही वर्माजी मुझे ‘दो औरतें’ की पांडुलिपि मुझको दे गये।
मैंने कहानी को दो बार पढ़ा। इतनी ‘बोल्ड’ कहानी की मैं कल्पना नहीं कर रहा
था। मुझे कहानी अच्छी लगी,लेकिन सवाल यह था कि इसे छापेगा कौन? एक तो लंबी
कहानी दूसरी सेक्स जैसे वर्जित विषय पर इतनी बेबाकी से लिखा गया…। खैर
,मेरी आशंकाओं ने शीघ्र ही दम तोड़ दिया। कहानी ‘हंस’में छपी। खूब चर्चित
हुई और कृष्णबिहारी कहानी जगत के चर्चित नाम हो गये।बिहारी भाई का जीवन इतना पारदर्शी रहा है कि वो जिस कालोनी में रहते हैं वहां का हर व्यक्ति जो उनके करीब था ,उनकी सारी गतिविधियों को जानता था। उन्होंने जवानी के दिनों में प्रेम किया,कभी छिपाया नहीं। सिगरेट पीना शुरू किया तो बीच चौराहे पर पी और शराब पी तो खुलेआम।आज यह सब सामान्य चीजें हों लेकिन तीस साल पहले यह बात कितनी वर्जित थीं यह सिर्फ सोचा ही जा सकता है।
विगत दस वर्षों में हमने साथ-साथ न जाने कितनी शामें बितायीं । मैं अपनी रूटीनी जिंदगी से ऊबा हुआ हमेशा जुलाई-अगस्त माहों में इन्तजार करता था कि कब अबूधाबी से बिहारी भाई आयेंगे और कब मैं घरेलू पालतू जिंदगी से अलग बिंदास ढंग से कुछ शामें बिता पाऊंगा। एक बार उन्हें यह पता चला कि मैं शराब ज्यादा पीने लगा हूं । फौरन वे बड़े भाई बन गये,”देखो गोविंद मैं यहां दो महीने के लिये आता हूं । मेरे पास सिर्फ एक ही काम होता है यार-दोस्तों से मिलना। लेकिन मेरा यह रूप अबूधाबी में नहीं चलेगा। वहां मैं अध्यापक हूं या फिर सिर्फ लिखता हूं। यदि मैं शराब पीने लगा तो यह दोनों ही चीजें सम्भव नहीं हैं।तुम पीने से ज्यादा लिखने के बारे में सोचो। कुछ भी लिखो पर नियम से कुछ न कुछ लिखो।
मैंने उनकी बात नहीं मानी और एक दिन वो मुझ पर बिफर गये,”मैं क्यों आता हूं तुम्हारे पास? मेरे तुम्हारे बीच लेखन ही तो था और अब तुमने न लिखने की कसम खा ली है।”मेरे न लिखने पर बिहारी भाई इतने परेशान रहते हैं कि शाम को जहां-जहां मैं जाता हूं वहां के लोगों से कह रखा है-”गोविंद आये तो पूछना क्या लिख रहा है?”मसलन वाइन शाप के मालिक संजय तिवारी। जब भी मैं शीशी लेने पहुंचा वह मुझसे जरूर पूछते,’गोविंदजी,क्या लिख रहे हैं?’
ऐसे में मेरे पास दो ही विकल्प बचे थे-”पीना छोड़ दूं या लिखना शुरू कर दूं।” फिलहाल मैंने पीना बंद कर दिया है।लिखने की जिद्द उनकी फिर भी जारी रही। यहां तक कि ‘दो औरतें’ कहानी संग्रह देते हुये उन्होंने उस पर लिखा,”उस गोविंद
को जिसे मैं लिखते हुये देखना चाहता हूं।”
मेरे कहानी संग्रह के लिये २००० से ही दबाव बनाये रखा, “नहीं लिख रहे तो अपनी कहानियों की पांडुलिपि ही तैयार करो । “मुझे उनकी जिद के आगे झुकना पड़ा। ‘पंखहीन’ नाम के कहानी संग्रह की पांडुलिपि तैयार हुई। मेरे साथ स्वयं गये दिल्ली। प्रकाशक को पांडुलिपि सौंपी। हंस,साहित्य अमृत और नया ज्ञानोदय में बता दिया कि अब गोविंदजी ने फिर से लिखना शुरू कर दिया है। नतीजतन मैंने कलम फिर से पकड़ ही ली।
मुझे याद आ रहा है बिहारी भाई शहर की एक लेखिका से बातचीत कर रहे थे। मैं भी पहुंच गया।लेखिका ने उनसे मेरा परिचय कराना चाहा। कृष्णबिहारी बोल पड़े,”मैं इसे जानता हूं।बहुत नालायक व आलसी किस्म का इंसान है यह पर मेरा छोटा भाई है।”लेखिका का मुंह किंचित आश्चर्य से खुला रह गया।१९९७ में अमरीक सिंह ‘दीप’ से मैं उन्हें मिलाने ले गया। उस समय ८४’के दंगों पर बिहारी जी की कहानी’एक सिरे से दूसरे सिरे तक’ मैंने पढ़ी थी। दीप जी से मैंने उसकी चर्चा भी की थी। कहानी ,कल के लिये पत्रिका के अप्रैल-जून १९९७ अंक में छपी थी। बिहारी भाई की कहानियों में वह एक ऐसी प्रामाणिक कहानी है जिसे वह ख्याति नहीं मिली जिसकी वह हकदार थी। दंगाइयों के बारे में लिखते हुये लेखक बिहारी के विचार:-
“मजदूरों का शहर जल रहा था और शहरों के जलने की खबरें लपटों को हवा दे रही थीं।क्या हो गया है इस शहर को…,शहर के लोगों को…बिहारी भाई की बालमनोविज्ञान पर गहरी पकड़ है ।’वरुण का क्या होगा?’और’ निष्पाप चेहरा’ में इसकी बनगी मिलती है।
मानव जीवन के सहज यौन आकर्षण विचलन बिहारी जी बखूबी देख पाते हैं। प्रथम पुरुष की नायिका दो बच्चों की मां है फिर भी वह दूसरे पुरुष के आकर्षण से बच नहीं पाती-”निर्वसन हूं मैं। मेरा विशाल शरीर और विशालकाय हो उठा है..शरीर की उत्तप्त अवस्था है यह..मेरे विशालकाय शरीर को अपनी दीर्घकाया से आच्छादित स्वयं को किसी ऐसे लोक में पा रही हूं जहां आनन्द के सिवाय और कुछ भी नहीं है।आंख खुलने पर शर्म भी आयी और जब भुवन को पार्श्व में लेटे देखा तो ग्लानि हुई थी…छि..कहां जा रही हूं मैं।”
लेकिन ‘दो औरतें’ की नायिका रोजी के लिये देह ही सब कुछ है। देह से अलग वह कुछ सोच ही नहीं पाती-
“कौन पूच्छेगा साबजी…सबको तो कम्म उमर वाली छोकरी चाहिये।..मुझे देखो साब, मेरे लम्बे-लम्बे बाल,ये गोरे-गोरे सेब जैसे गाल,प्यारे-प्यारे हाथ..ये अंगुलियां,और ये देखो साब..मेरी छातियां..मेरी कमर जानते हो..पैले छब्बीस थी अब बत्तीस हो गई है।साबजी ,उम्मर भी तो कुछ चीज होये..।कहानियों के लेखक बिहारी भाई के दुबले पतले शरीर को देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि इस व्यक्ति में इतनी ऊर्जा भरी होगी।डेढ़ महीने की छुट्टी में भारत आने पर दिल्ली,कलकत्ता,लखनऊ, भोपाल जैसे शहरों को धांगना तथा छोटे-बड़े लेखक मित्रों से मिलना तो आम बात है।बहराइच में डा.जयनारायन हों या रीवां में दिनेश कुशवाहा ,रहते वे सदा सबके सम्पर्क में हैं।
बिहारी भाई की एक खासियत है। वह हर उम्र के लोगों के साथ इतनी सहजता से घुल-मिल जाते हैं कि उम्र का कोई फासला नहीं रहता।
बिहारी भाई को शराब बहुत प्रिय है। खुद तो पीते ही हैं,पिलाने में भी
कमजोर नहीं।’दीपजी’कहते हैं-’साल में एक दो बार ही तो पीता हूं लेकिन
बिहारी जी जब तक शहर में रहते हैं तो शायद ही कभी नागा हो पाता हो।’पीने
-पिलाने का एक किस्सा याद आ रहा है। एक शाम हम बदपरहेजी कर रहे थे।शराब चुक
गयी लेकिन चाहत बरकरार थी। रात के नौ बज रहे थे।हम दोनों मोटर साइकिल पर
चार किमी दूर संजयजी की दुकान के लिये चल दिये।अभी आधी दूर ही पहुंचे थे कि देखा तमाम पुलिस बीच सड़क पर वाहनों की चेकिंग कर रही है।सिपाही ने बिहारी भाई को रोका,कागज मांगे। बिहारी भाई बोले-कागज नहीं हैं।सिपाही ने गाड़ी किनारे लगाने को कहा। बिहारी अकड़ गये-गाड़ी क्यों लगाऊं ,तुम्हारा साहब कौन है?साहब भी आ गये। बिहारी भाई बोले-श्रीमान पीछे मेरे मित्र बैठे हैं। हम शराब पी रहे थे। कम पड़ गई ।लेने जा रहा हूं। मैं रहता हूं अबूधाबी में।आज ही आया हूं।गाड़ी मेरे छोटे भाई की है।मेरे पास न लाइसेंस है न गाड़ी के कागज।
पुलिस अधिकारी उनकी निडर बेबाकी पर हंस दिया ।बोला-जाइये।
बिहारी भाई की एक खासियत है। वह हर उम्र के लोगों के साथ इतनी सहजता से घुल-मिल जाते हैं कि उम्र का कोई फासला नहीं रहता।यदि वह मेरी ,महाविद्यालय में पढ़ने वाली ,बेटी के को एक घण्टे तक स्कूटी चलाने की बारिकियां बता सकते हैं तो अपने पांचवें में पढ़ने वाले भतीजे से गियर वाली साइकिल की बारीकियां पूरी उत्सुकता से सीखने का प्रयास करते हैं।किसी बुजुर्ग से उसके जमाने की याद ताजा कराते हुये बतिया सकते हैं तो निपट निरक्षर से गंवई भाषा में बात करते हुये भी देखे जा सकते हैं।
उनका व्यक्तित्व चमत्कारिक सा है जिसमें सच का सामना करने का भी गज़ब का साहस है।’पूरी हकीकत पूरा फ़साना’ कहानी संग्रह में बिहारीजी ने लिखा है:-
मेरा समय मुझे कल्पना की इजा़ज़त नहीं देता।मैं अपने समय को भरपूर जीता हूं।मेरे सुख-दु:ख-मेरे समय के सुख-दु:ख हैं।मेरी कहानियां मेरे समय की कहानियां हैं।इससे ज्यादा मैं इनके और अपने बारे में क्या कहूं।
बिहारी भाई को गुस्साते हुये भी मैंने देखा है। वह फिर ऐसा होता है कि…मत पूछिये।खासतौर से उन सम्पादकों के प्रति जो लेखकों की संवेदना से शून्य हैं।मैं नहीं छपने वाला…मुझे नहीं भेजनी वहां रचना।
गुस्से का यह आलम है था कि न जाने कब क्या कर बैठें। नौकरी से समझौता न कर पाने के कारण कई बार जमी-जमाई नौकरी छोड़ दी। सिक्किम की नौकरी उन्हें बहुत मुश्किल से मिली एक लम्बे समय तक बेरोजगारी झेलने के बाद ।लेकिन जब छोड़ी तो एक पल भी नहीं लगा।
सिक्किम से जब नौकरी छोड़ के आये तो उनके साथ स्वर्ग की अप्सरा जैसी एक महिला थीं। मेरा उनसे परिचय था नहीं। काफी दिन मेरी जिज्ञासा अवचेतन में दबी रही।एक दिन पूछ ही लिया-भइया सिक्किम से एक बहुत सुन्दर महिला जो आई थी वो कौन थीं? बिहारी भाई हंस दिये।बोले- वह मुंहबोली बहन थी।उसका विवाह मैने ही कराया। फिर उन्होंने पूरा किस्सा सुनाया जो आज मुझे ठीक-ठीक याद नहीं।
बिहारी
भाई बिल्कुल नहीं बदले।बदले है तो सिर्फ वक्त के साथ उनकी खिचड़ी होती
दाढ़ी जो अब सफेद बर्फ के रूये जैसी हो गई है जिसे बात करते-करते कब वो
खुजाने लगें और आपके सामने अच्छा-खासा बैठा आदमी अपरिचित सा लगने लगता है।
सचमुच कृष्णबिहारी छोटे से कैनवास पर बड़े से चित्र का नाम है जिसमें
इतने रंग हैं कि कोई पहचान नहीं पायेगा उन रंगों की गहराई को,उनकी
बारीकियों को।एक यायावर सी जिन्दगी जीने वाला व्यक्ति कैसे बीस सालों से एक
ही जगह टिका है यह मेरे लिये आश्चर्य का विषय है।बिहारी भाई हर बार मुझे एक नये शेड में मिलते हैं।पर कुछ ही देर में नया शेड जाना-पहचाना लगने लगता है-नहीं बिहारी भाई बिल्कुल नहीं बदले।बदले है तो सिर्फ वक्त के साथ उनकी खिचड़ी होती दाढ़ी जो अब सफेद बर्फ के रूये जैसी हो गई है जिसे बात करते-करते कब वो खुजाने लगें और आपके सामने अच्छा-खासा बैठा आदमी अपरिचित सा लगने लगता है। लगता ही नहीं कि यह वही कृष्णबिहारी हैं जो अभी कुछ देर पहले तमाम किस्से सुना रहे थे।
यकीन मानिये मेरी स्थिति भ्रम की होती है। यह पारदर्शी सा व्यक्ति लोगों के न जाने कितने रहस्य अपने अंदर समेटे है।जो हर किसी के सुख की कामना करता है क्या कोई कोई उसके अंदर झांककर देख पायेगा। कोई कुछ भी कहे मुझे यह कहने में झिझक नहीं होगी कि मैं कृष्णबिहारी को नहीं जानता।
गोविन्द उपाध्याय
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भैया कृष्ण बिहारी को तो बचपन से समझने की कोशिश कर रहे हैं! रोज गच्चा देते हैं। हमने तो फोटो भी लगा ली है ब्लॉग पर कि इसी बहाने कुछ समझ आयें!
ने बनायी बिहारी की शख़्सियत !