http://web.archive.org/web/20140331063319/http://hindini.com/fursatiya/archives/527
[करीब चार साल पहले जब मैंने रविरतलामी का अभिव्यक्ति पत्रिका में ब्लाग के बारे में लेख पढ़ा तो अनायास अपना ब्लाग शुरू करने के लिये कसमसा उठा। जैसे तैसे अपना ब्लाग रजिस्टर करा और लिखने के लिये छटपटाने लगा। की-बोर्ड कहीं मिल के नहीं दे रहा था। खोजते-खोजते फ़िर देबू के पुराने ब्लाग पर छहरी का लिंक देखा तो वहां से टाइपिंग करके अपनी पहली पोस्ट लिखी। इसके बाद तो फ़िर ऐसा शुरू हुये कि बस अभी तक जारी हैं। देबाशीष के साथ हमारी अनगिनत यादें जुड़ीं हैं।
देबाशीष को हिंदी ब्लाग जगत की तमाम गतिविधियों को शुरु करने तथा उनको जारी रखते हुये हिंदी चिट्ठाकारी को बुलंदियों तक पहुंचाने के लिये सतत प्रयत्नशील व्यक्ति के रूप में जाना जाता है । हिंदी ब्लाग नुक्ताचीनी तथा अंग्रेजी ब्लाग नलप्वाईंटर के लेखक देबाशीश चक्रबर्ती मेधावी ,मेहनती तथा हिंदी-अंग्रेजी भाषाओं पर जबरदस्त अधिकार रखते वाले व्यक्ति हैं। देबाशीष के बारे में पंकज नरुला का मानना है- देबू 'गीक' टाइप शख्सियत है। जिनको नयापन आकर्षित करता है। चुनौतियां काम करने को उकसाती हैं। जहां चुनौती खत्म वहां रुचि समाप्त। देबू बेचैन रूह के परिंदे हैं जो हरदम कुछ नया,आकर्षक तथा उपयोगी करने को छटपटाते रहते हैं। हिंदी चिट्ठाकारी की लगभग सभी गतिविधियॊं वो चाहे अनुगूंज हो या बुनोकहानी।निरंतर हो या ब्लागनाद।ब्लागरोल हो या फिर चिट्ठाचर्चा सभी में देबाशीष का योगदान रहा है।इंडीब्लागर तथा चिट्ठा विश्व के तो ये पीर-बाबर्ची-भिस्ती-खर रहे हैं।
यही कारण है कि हिंदी ब्लाग जगत के जाने-माने लेखक रविरतलामी देबाशीष को हिंदी हिन्दी ब्लॉग जगत का पितृपुरूष मानते हैं ।
नयी से नयी चीजों के बारे में ब्लाग जगत को जानकारी मुहैया कराने वाले देबू के मुंह से यह सुनकर ताज्जुब सा कि बंदा खुद अभी तक लिखने के लिये छहरी की बोर्ड का प्रयोग करता है। कमेंट में टाइप-कट-पेस्ट करता है और लेखन में अभी भी कागज/कलम की संगत छूटी नहीं है।
आज देबू का जन्मदिन है। इस बहाने उनसे बात करने और उनसे ब्लाग जगत के कुछ सवालों का अच्छा मौका था। सो हमने उनको पकड़ा और सवाल किये।
जन्मदिन के इस मौके पर देबाशीष को अनेकानेक शुभ कामनायें देते हुये मैं कामना करता हूं कि उनके मनचाहे सारे काम वे पूरे कर सकें।]
देबाशीष दोस्तों की नजर में
सवाल: नवम्बर माह में तुम्हारे चिट्ठा लेखन के पांच साल हो जायेंगे! कैसी यादें रहीं इस सफ़र की?
जबाब:ब्लॉगिंग तो मज़ेदार अनुभव रहा है क्योंकि इससे काफी समान राय वाले मित्र मिले। कितना ही कुछ सीखा और काफी परिपक्वता भी हासिल हुई। पॉडभारती और निरंतर इसी सफ़र के दौरान बनें तो असर तो काफी रहा इस विधा का।
सवाल: इंडीब्लागीज भारतीय ब्लाग जगत की एक प्रक्रिया है। उसके कर्णधार आप हैं! क्या कारण रहे कि इंडीब्लागीज इस बार आयोजित नहीं हो पाया?
जबाब:इंडीब्लॉगीज़ को मैं इस साल जिस पैमाने पर आयोजित करना चाह रहा था वो संभव न हो सका। इस आयोजन का एक मुख्य हिस्सा पीआर और मार्केटिंग है। पहली चीज़ में मैं कमज़ोर हूं और इंटरनेट के उत्पाद के विपणन का मुझे कोई अनुभव नहीं। इन दोनों के बिना इसे भव्यता से आयोजित करना, तगड़े स्पांसरों का साथ पाना बेहद मुश्किल है। एक और पक्ष है चिट्ठों का सही आंकलन का कोई कारगर तरीका अब तक नहीं मिल पाया, पिछले आयोजनों से सीखे सबक के आधार पर जो मैं करना चाहता था उसमें समय, श्रम व पैसे इन सभी की ज़रूरत है। समय और पैसा ये दोनों ही चीजें मेरा पास मन मुताबिक नहीं है। अनमने ढंग से करने से बेहतर लगा कि २००७ का आयोजन स्थगित कर दिया जाय। अगर स्थितियाँ अनूकूल रहीं तो शायद इसमें पुनः प्राण फूंका जा सके।
सवाल: देबाशीष एक ऐसा तोता लगता है जिसकी जान निरंतर पत्रिका के तोते में बसती है। क्या वजह इस भीषण लगाव की?
जबाब:इस लगाव का कारण शायद पत्रकारिता का कीड़ा ही है। स्कूल के दिनों से संपादक के नाम पत्र लिख कर शुरुवात की, स्कूल व कालेज की पत्रिकाओं के संपादक मंडल में रहा और दिशाहीनता का यह हाल था कि बीई करने के उपरांत नईदुनिया भोपाल में नौकरी के लिये पहुंच गया। मदन मोहन जोशी जी संपादक थे, विवेक “मृदुल” के सानिध्य में फीचर विभाग में लगा दिये गये। २० दिन बाद पता लगा कि तनख्वाह ५०० रुपये माहवार मिलेगी। जोशी जी बोले पहले पहल जनरल बोगी में लटक कर सफर शुरु करना ही होता है। तो मेरी सारी ख़ामखयाली यहीं खत्म हो गई। दरख्वास्त की कि जाने दिया जाय, मुझे २० दिनों में लिखे व अनुवादित लेखों का मेहनताना दे दिया गया। मज़े की बात थी कि ये रकम १५०० से ज्यादा निकली।
विषय पर लौटा जाय… तो अपनी पत्रिका निकालने का जब मौका मिला और साथ देने वाले गुणी लोग भी मिले गये तो काम कठिन न लगा। मुझे यह विश्वास रहा है कि निरंतर की विषयवस्तु वाली हिन्दी जाल पत्रिका की ज़रूरत है और इसे निरंतर निकलना चाहिये, यही कारण है कि इसमें पुनः जान डाली गई। मैं इस बात से भी वाकिफ हूं कि बिना किसी मॉनीटाईज़ेशन मॉडल के पत्रिका की गुणवत्ता व अविरल प्रकाशन सुनिश्चित करना मुश्किल है। इस बाबत काम चल रहा है। विज्ञापन मिलने शुरु हो रहे हैं, डॉ अमर जैसे अनेक इस बाबत सहयोग देने के लिये आगे आये हैं। निरंतर के आगामी अंकों में आमुख कथा के लेखकों को मानदेय देने की शुरुवात की गई है, उम्मीद है इससे हमें गुणी व पेशेवर लेखक का साथ मिलेगा। निरंतर व पॉडभारती में सामग्री का विनिमय संभव है, पॉडभारती जिस विषय पर संक्षिप्त पॉडकास्ट बनायें उसका ट्रांस्क्रिप्ट व विस्तारित रूप निरंतर पर जंचेगा। ऐसी कई व्यावहारिक योजनायें हैं इस पत्रिका को जारी रखने हेतु। अब पत्रिका के मुख्य संपादक तो आप ही हैं तो आपको भी रुचि बनाये रखनी होगी।
सवाल: निरंतर के नियमित प्रकाशन में दिक्कतें क्या हैं?
जबाब:जिस तरह के विषयों पर हम लेख प्रकाशित करते हैं, इनके लिये अच्छे लेखों व लेखकों का टोटा है। Hindiblogs.org पर शामिल चिट्ठों के आधार पर कह सकता हूँ कि सबसे बड़ा तबका कविताई चिट्ठों का है, दूसरा नंबर निजी चिट्ठों का आता है। निरंतर पर साहित्यिक रचनायें हम कम ही छापते हैं, छापना चाहते हैं। इस हेतु अभिव्यक्ति, कृत्या, अनुभूति जैसी बेहतरीन जाल पत्रिकायें मौजूद ही हैं। पर हम साहित्य से मुंह नहीं मोड़ रहे, प्रत्यक्षा ने निरंतर पर अनोखी इंटरेक्टिव कहानी “लाल परी” लिखी जहाँ पाठकों ने कहानी का रुख तय किया। पर हम मुख्यतः समाचार विचार, समसामयिक, सामाजिक विषयों पर विश्लेषण, विवेचन, बहस, तकनीकी लेख व ट्यूटोरियल, साक्षात्कार, पुस्तक व उत्पाद समीक्षा, ब्लॉगमंडल के उद्भव जैसे मुद्दों पर लेख छापना चाहते हैं। निरंतर के पूर्व अंको में हमने हिन्दी ब्लॉग के रचना संसार, जिसमें वर्डप्रेस पर आधारित अपनी तरह का विशेषांक भी शामिल रहा, से लेकर, शिक्षा व इसमें सूचना प्रोद्योगिकी का प्रयोग, जल संकट, विस्थापन, जैसे अनेक मुद्दों पर लेख छापे हैं। मेधा पाटकर से लेकर डॉ सुगाता मित्र के साक्षात्कार और अतानु दे, प्रो यशपाल जैसे लेखकों के लेख यहाँ छपे हैं। पर ये बड़े नाम अपवाद हैं, निरंतर मूलतः ब्लॉगरों द्वारा निकाली जाने वाली पत्रिका है, हम लोग पेशेवर लेखक नहीं हैं पर हम पेशेवराना रवैये से प्रिंट मीडिया की गुणवत्ता से लोहा लेने का साहस लेकर चले थे। हमने केरल के एक गुमनाम छात्र का साक्षात्कार भी छापा जिसने कागज़ को हार्डडिस्क जैसे इस्तेमाल करने की तकनीक खोजी और एक पत्रकार की पुस्तक का भी ज़िक्र किया जिसने बाँधों से विस्थापन का दर्द उजागर किया। अनियमितता का एक मुख्य कारण समय की कमी और प्रकाशन में केवल मेरे शामिल होने की भी है, इस person dependency को तभी हटाया जा सकेगा जब निरंतर से कमाई होने लगे और प्रकाशन के लिये हम किसी की पेशेवर सेवा ले सकें।
सवाल: अगर ब्लागर साथी आपको सहयोग करने का मन बनायें तो किस तरह का सहयोग चाहिये?
जबाब:जैसा मैंने लिखा, आर्थिक सहयोग के अलावा ज़रूरत होगी कि वे लेखक जिन्हें उपरोक्त विषयों में original तथा formal लेखन में रुचि हो, वे हमसे जुड़ें। निरंतर में हम कोलेबोरेटिव लेखन के मुरीद हैं, जब कई लोग मिल कर लेख तैयार करते हैं तो उसमें अनेक पक्ष सामने आ पाते हैं। निरंतर मित्र नामक एक गूगल पत्र समूह है जिसमें इस समय तकरीबन १०० सदस्य हैं, दुर्भाग्य से जब भी हम विषय सुझा कर लेख आमंत्रित करते हैं तो एक भी लेखक सामने नहीं आते। कविता, कहानी के अलावा रचनायें मांगना तो अपराध बन जाता है। मैं जानता हूं कि पेशेवर लेखक हमसे तभी जुड़ेंगे जब उन्हें लाभ मिले, वह लाभ जो उन्हें मुख्यधारा के मीडिया के लिये लिख कर मिलता है। पर पेशेवर लेखकों के बनिस्बत मैं चिट्ठाकारों से लिखवाना चाहूंगा, किसी एक पेशेवर लेखक के लेख की तुलना में तीन चार चिट्ठाकारों द्वारा कोलेबोरेटिव तरीके से लिखा लेख कहीं बेहतर होगा, यह मेरा यकीन है। और मेरा प्रयास यही है चिट्ठाकारों को भी लेखन के लिये वह लाभ मिले। बस उन्हें यह मानसिकता छोड़नी होगी कि वे इस तरह का लेखन अपनी ब्लॉग पोस्ट की तरह ही कर पायेंगे। ब्लॉग पोस्ट और formal लेखन में काफी अंतर है, हालांकि कई चिट्ठाकार ब्लॉग पोस्ट पर भी उतनी ही मेहनत करते हैं। साथ ही किसी माध्यम के लिये exclusively लिखने का मन भी बनाना होगा क्योंकि ऐसे जाल आधारित माध्यम कम ही होंगे जो चाहेंगे कि आप अपना वही लेख पहले हर मुनासिब जाल पत्रिका में छपवायें और फिर अपने ब्लॉग पर भी ठेल दें। यह मनःस्थिति प्रिंट माध्यम के लिये लिखने वाले अधिकाँश लेखकों की होती है।
सवाल: हिंदी ब्लागजगत में तमाम विवादों, लफ़ड़ों, झगड़ों के गवाह रहे तुम! कुछ में पार्टी भी रहे! इस सब को किस नजर से देखते हैं?
जबाब:बर्तन साथ रहेंगे तो खड़केंगे ही। पुराने चिट्ठाकारों से जो भिड़ंत हुई उसके बाद काफी हद तक उन्हें समझने का मौका मिला, इससे उनसे मित्रता बढ़ी ही है। और खुद मुझमें भी परिपक्वता आई है। तो अपने ने हर ऐरे गैरे की पोस्ट पर जवाबी पोस्ट लिखने की आदत से निजात पाई। आत्ममंथन किया तो पाया कि खामख्वाह तू-तू, मैं-मैं तो समय जाया हो रहा है और जो चीज़ें इंटरनेट पर लुभाती हैं उन पर ध्यान ही नहीं जा रहा। ब्लॉग लिखने का टेंशन भी छोड़ दिया, जब मन आता है लिखता हूँ, बेमतलब टिप्पणी करने और टिप्पणी पाने का कायल तो मैं कभी भी नहीं रहा। यही कारण है की अब महीनों ब्लाग अपडेट नहीं होता और इसका कोई गिला भी नहीं। और भी ग़म हैं ज़माने में ब्लॉगिंग के सिवा!
सवाल: हिंदी ब्लागजगत की कौन सी चीजें आकर्षित करती हैं तुमको?
जबाब:
जबाब:
जबाब:सहमति तो आम ही रही है। तब समूह छोटा था और सामुदायिक प्रकल्प भी बने। पंकज नरूला के अक्षरग्राम बैनर तले काफी कुछ पनपा, निरंतर पत्रिका भी वहीं जन्मीं। अब सामुदायिक प्रकल्प हैं कहाँ? जो कुछ हैं, (मसलन जीतू, रमण, रवि, संजय के साथ लाँचपैड पर वर्डप्रेस का स्थानीयकरण) वहाँ छुटपुट काम जारी है।
सवाल: लिखना कम क्यों हो गया?
जबाब:इसका मुख्य कारण है टायपिंग की कम गति और आलस, पर दूसरे अन्य कारण भी हैं जिनका ज़िक्र कर आपका समय नहीं नष्ट करुंगा। और फ़िर मेरे न लिखने से किसे क्या फर्क पड़ता है?
सवाल:अमेरिका के अनुभव कैसे रहे? क्या आकर्षित किया और किस चीज से मन उचटा!
जबाब:बहुत ही बढ़िया अनुभव रहा, इसलिये भी कि शानदार शहर न्यूयॉर्क का प्रवास था और वह भी वहाँ के सबसे खुशगवार मौसम में। ग्लोबलाईज़ेशन के दौर में आज जहाँ भारत में वो सब मयस्सर है जो अमरीका में मिलता है, पर सही मायनों में दोनों समाजों में तुलना करना जायज न होगा। कहा ही गया “द ईस्ट इज़ ईस्ट एंड द वेस्ट इज़ वेस्ट“, हाँ यह हो सकता है कि कभी भविष्य में “द ट्वेंस मे मीट“। अच्छा लगता है जब फिल्मों या टीवी कार्यक्रमों में न्यूयॉर्क, वाशिंगटन दिखते हैं।
सवाल: तुम्हारी एक खासियत है कि तुम जो करते हो उसे परेफ़ेक्शन के साथ करना चाहते हो। जबकि ब्लागिंग , जो आमतौर पर “जो मन में आया सो कह दिया” टाइप का माध्यम है! इन दोनों में तालमेल कैसे बैठता है!
जबाब:तारीफ के लिये शुक्रिया! इसीलिये तो नियमित ब्लॉग लिखने में परेशानी होती है और निरंतर का काम लुभाता है। विषय कौंधते रहते हैं दिमाग में, पर कई बार लगता है, खास मसौदा नहीं है लिखने का, चार लाईना पोस्ट क्या लिखें। कई दफा लिखते लिखते विषय बासी हो जाता है या कोई और कवर कर लेता है। तालमेल तो बैठ ही नहीं पाया।
सवाल: तुम्हारी पैदाइश बनारस की है। बनारस एक अलमस्त शहर है। दुनिया को अपने ठेंगे पर रखकर ठहाका लगाने वाला शहर! जबकि देबाशीष की इमेज एक गम्भीर से आदमी की है। ऐसा कैसे हुआ?
जबाब:गंभीर तो नहीं हूं, हाँ थोड़ा एकांतप्रिय और अंतर्मुखी होने का कारण शायद यह आभास जाता हो। बनारस में मेरा जन्म ही हुआ है, परवरिश तो भोपाल की है तो वो तेवर तो शायद दिख जाते होंगे
सवाल: देबाशीष की शुरुआती तमन्ना एक सरकारी नौकरी करते हुये आराम की जिंदगी बिताते हुये अपने मनपसंद् काम करने की थी। अब जब लोगों में सरकारी नौकरियों का आकर्षण कम हो रहा है तब भी क्या अब भी यह ख्वाहिश कभी-कभी होती है!
जबाब:यह तो शायद आम ख्वाहिश भी होगी। मेरे पिता भेल, भोपाल में कार्यरत थे, उन्हें हमेशा सवेरे साढ़े छ बजे आफिस जाते और चार बजे लौटते देखा। दोपहर को वे अक्सर खाना खाने भी घर आ जाते। खूब समय मिलता था उनका हमें। भेल टाउनशिप मिनी भारत जैसा है। तो जाने अनजाने इस तरह के जीवन की आदत हो जाती है और उसी में बने रहने की लालसा भी रहती है। यही कारण है कि शुरुवाती चार साल भोपाल में छोटी मोटी नौकरी कर काटे, यार दोस्त थे, माता पिता के साथ रहने से वे भी खुश थे, सब कुछ मस्त था। तो करियर बनाने की आकांक्षा देर से बनी और तब से गाड़ी पाँच छ साल लेट चल रही है। खैर देर आयद दुरस्त आयद! तर्क यही होगा कि “मैं देर करता नहीं, देर हो जाती है“। लीजिये फिर बात तो घुमा कर कहाँ ले गया। तो नहीं, सरकारी नौकरी की ख्वाहिश तो अब नहीं बची।
सवाल: ब्लागजगत में काफ़ी पहले ही लोगों ने पितामह जैसी उपाधि से नवाज दिया। काफ़ी आदर दिया! कैसा लगता है बाली उमर में पितामह कहलाना?
जबाब:अगर किसी ने सम्मान से कहा तो शुक्रिया, मैं कृतार्थ हुआ। अगर मजाक भर के लिये कहा तो भैया तुम जानो तुम्हारा काम जाने। पितामह होने के नाते ब्लॉगमंडल से कौन से पेंशन मिलने वाली है। बाकी उमर बाली तो नहीं रही, अंकल तो लोगबाग मुझे पाँच साल पहले से पुकारने लगे थे, सो पितामह भी चलेगा, बस चरणस्पर्श से परहेज है।
सवाल: धीर गंभीर होते हुये भी ऐसे कौन से तत्व हैं तुम्हारे व्यक्तित्व में जो कि नेट पर बेफ़िजूल के आरोपों के लम्बे-लम्बे जबाब देने के लिये उकसाता है!
जबाब:वो भी एक दौर था, जब अपना पक्ष रखने के लिये मैंने कुछ जवाबी पोस्ट लिखे। पोस्ट हटाना सही काम नहीं इसलिये ये अब भी ब्लॉग पर हैं। मुझे अब तक समझ नहीं आया कि ऐसा क्या कारण था कि वे लोग इतना चिढ़े पर कारण रहे होंगे और उन बातों पर पुनः जाकर कोई लाभ नहीं। मेरी नीति हमेशा से “विथ मेलिस टुवार्ड्स वन एंड आल” की रही, अगर कोई बात गलत लगे तो मैं व्यक्ति का कद देख कर टिप्पणी नहीं करता। वैचारिक मतभेद समझ में आते हैं, और ऐसी बहसों से मुझे कभी परहेज़ भी नहीं रहा। दूजे, जहाँ मैंने गलत लिखा और उसका एहसास हुआ तो बिना शर्त माफी भी मांगी। खैर! मुझे कई हितेषियों ने सुझाव दिया और मैंने उस पर अमल कर ऐसे उकसावों पर बहकना बंद कर दिया। यह भी लगता है लोग मेरे काम को सराहते भी हैं, तो मुझे नहीं लगा कि व्यक्तिगत आग्रह अब रहा हो। परिपक्व वे भी हुये होंगे इन दिनों में, तो मेरे ख्याल से दोनों पक्षों को निरर्थक बहस में समय जाया करने के बेतुकेपन का एहसास भलीभांति हुआ है, कम से कम मुझे तो।
सवाल: इंडीब्लागीस भारतीय ब्लागजगत का सबसे महत्वपूर्ण आयोजन है/था। इसके सूत्रधार तुम रहे। लेकिन कम से कम हिंदी ब्लागजगत में दूसरे इंडीब्लागीस के आयोजन के अंत तक किसी को हवा नहीं थी कि कौन है इसका कर्ता-धर्ता। जब आज जरा-जरा से काम के लिये शाबासी लेने का जमाना है तब इत्ते दिनों तक इस बात को छिपाये रहना कैसे संभव हो सका?
जबाब:हिन्दी ही नहीं अंग्रेजी ब्लॉगजगत में भी हवा नहीं थी, जब मैंने यह शुरु किया तब मैं अपनी ओर ध्यान आकर्षित नहीं करना चाहता था। उसी समय अंग्रेज़ी ब्लॉग जगत में अनुगूँज की तर्ज पर आयोजन ब्लॉग मेला का मज़ाक उड़ाते हुये किसी ने पैरोडी के रूप में “ब्लॉग केला” शुरु की जिसमें सबका मज़ाक उड़ाया जाता। तो माहौल थोड़ा नाकारात्मक था, ऐसे में इंडीब्लागीज़ सबको पसंद आया। पर जैसा कि हर अवार्ड में होता है, लोगबाग जो मन आये अनाप शनाप लिखने लगे तो मुझे अंततः नाम जाहिर करना पड़ा। और इसके बाद यह निंदा बिल्कुल ठहर गई, और लोग आयोजक के रुप में जानने, सराहने लगे।
सवाल: ब्लागिंग में लोग लिखते-लिखते अचानक अपना लेखन स्थगित करने की घोषणा कर देते हैं। फ़िर मान-मनौव्वल के बाद लिखने लगते हैं। ऐसा पहले भी तमाम लोग कर चुके हैं! अभी तुरंत समीरलालजी ने ये किया! ब्लागिंग की इस प्रवृत्ति के क्या कारण हैं?
जबाब: एनी पब्लिसिटी इज़ गुड पब्लिसिटी समीर जी तो पीआर में पीएचडी हैं।
सवाल: हिंदी और अंग्रेजी के कौन से ब्लाग हैं जिनको तुम अपनी नजर में आदर्श ब्लागिंग के नमूने मानते हो?
जबाब:अंग्रेज़ी में तो अनेक हैं, हिन्दी में सुनील दीपक मेरे सबसे प्रिय चिट्ठाकार हैं। आप, प्रमोद सिंह, अभय, अनामदास, रवीश, अविनाश, ईस्वामी, समीरलाल, विनय, विनीत कुमार, रवि भैया हर बार अच्छा लिखते हैं। पुराने चिट्ठाकारों में जब भी समय मिले सभी को पढ़ता हूं, तरुण, बेंगानी बंधु, जीतू, रमण जब भी, जो भी वे लिखें। और भी अनेक ब्लॉग पसंद हैं सबका नाम लिखना तो मुश्किल है।
सवाल: तुम्हारा हिंदी ब्लागिंग और अंग्रेजी ब्लागिंग से भी संबंध हैं। दोनों के मिजाज में क्या खास अंतर है?
जबाब:अभी तो अंग्रेज़ी में मुख्यतः तकनीकी चिट्ठे ही पढ़ पाता हूं पर जहाँ तक याद है सम सामयिक विषयों पर चर्चायें अच्छी रहती हैं। तकनीकी लेख भी उम्दा होते हैं।
सवाल: अपनी ब्लागिंग से तुम कित्ता संतुष्ट हो?
जबाब:संतुष्टि तो कम है। जितना सोचता हूं उसका १० फीसदी भी कागज पर उतार नहीं पाता। मन होता है कि काश मोब्लॉगिंग तथा स्पीच टु टेक्सट जैसे माध्यमों का इस्तेमाल कर पाता। मन में कई बार ट्विटरी विचार उठते हैं पर उनको ब्लॉग पर डालना खलता है। पर मैं विचार कर रहा हूँ कि अब यह करूं।
सवाल: और अपनी जिंदगी से? क्या मुकाम हासिल करने को रह गये हैं?
जबाब:बहुत से हैं। मुख्यतः तो अपने बेटे के लिये जीता हूँ। पर कैरियर और हॉबी दोनों में ही काफी कुछ करना है। विचारों के कार्यावन्यन के लिये टीम नहीं बन पा रही। शशि काफी व्यस्त रहने लगे हैं। समान राय वाले लोगों का दल बन जावे तो काफी कुछ किया जा सकता है और मैं व्यावसायिक उपक्रमों की बात कर रहा हूँ, स्वांत सुःखाय पराक्रमों की नहीं। वे तो अब बहुत हुये।
सवाल: जन्मदिन कैसे मनायेंगें?
जबाब:इस बार तो सपरिवार छुट्टी पर जा रहा हूं। खुली वादियों में।
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देबाशीष -जन्मदिन के बहाने बातचीत
By फ़ुरसतिया on September 12, 2008
देबाशीष को हिंदी ब्लाग जगत की तमाम गतिविधियों को शुरु करने तथा उनको जारी रखते हुये हिंदी चिट्ठाकारी को बुलंदियों तक पहुंचाने के लिये सतत प्रयत्नशील व्यक्ति के रूप में जाना जाता है । हिंदी ब्लाग नुक्ताचीनी तथा अंग्रेजी ब्लाग नलप्वाईंटर के लेखक देबाशीश चक्रबर्ती मेधावी ,मेहनती तथा हिंदी-अंग्रेजी भाषाओं पर जबरदस्त अधिकार रखते वाले व्यक्ति हैं। देबाशीष के बारे में पंकज नरुला का मानना है- देबू 'गीक' टाइप शख्सियत है। जिनको नयापन आकर्षित करता है। चुनौतियां काम करने को उकसाती हैं। जहां चुनौती खत्म वहां रुचि समाप्त। देबू बेचैन रूह के परिंदे हैं जो हरदम कुछ नया,आकर्षक तथा उपयोगी करने को छटपटाते रहते हैं। हिंदी चिट्ठाकारी की लगभग सभी गतिविधियॊं वो चाहे अनुगूंज हो या बुनोकहानी।निरंतर हो या ब्लागनाद।ब्लागरोल हो या फिर चिट्ठाचर्चा सभी में देबाशीष का योगदान रहा है।इंडीब्लागर तथा चिट्ठा विश्व के तो ये पीर-बाबर्ची-भिस्ती-खर रहे हैं।
यही कारण है कि हिंदी ब्लाग जगत के जाने-माने लेखक रविरतलामी देबाशीष को हिंदी हिन्दी ब्लॉग जगत का पितृपुरूष मानते हैं ।
नयी से नयी चीजों के बारे में ब्लाग जगत को जानकारी मुहैया कराने वाले देबू के मुंह से यह सुनकर ताज्जुब सा कि बंदा खुद अभी तक लिखने के लिये छहरी की बोर्ड का प्रयोग करता है। कमेंट में टाइप-कट-पेस्ट करता है और लेखन में अभी भी कागज/कलम की संगत छूटी नहीं है।
आज देबू का जन्मदिन है। इस बहाने उनसे बात करने और उनसे ब्लाग जगत के कुछ सवालों का अच्छा मौका था। सो हमने उनको पकड़ा और सवाल किये।
जन्मदिन के इस मौके पर देबाशीष को अनेकानेक शुभ कामनायें देते हुये मैं कामना करता हूं कि उनके मनचाहे सारे काम वे पूरे कर सकें।]
- नुक्ताचीन, पौडिया और जाँबाज़ मेरा मतलब है जावाबाज़! आलोक कुमार
- “देबाशीष ने हिंदी चिट्ठों को पहचान व लोकप्रियता दिलाने के लिए अद्वितीय काम किया है।विनय
- देबू दा डयूरासेल की वो बैटरी हैं जो चलती ही रहती है चलती ही रहती है।
पंकज नरुला - “देबाशीष जी अपने उदात्त चिन्तन और ऊर्जस्विता की वजह से सभी हिन्दी चिट्ठाकारों के लिये प्रेरणा-स्रोत हैं।प्रतीक पाण्डेय
- देबू के ‘सेरेब्रल’ लेखन की कदर तो कौन नहीँ करेग॥‘गीक’ के पाँव ब्लाग के पलने मेँ ही दिखते हैँ। इंद्र अवस्थी
- देबाशीष एक अच्छे , हमेशा सहयोग प्रदान करने को तत्पर रहने वाले साथी ब्लागर हैं। उन्मुक्त
- देबू दा! आपसे संबंध भले ही आभासी दुनिया में बना हो मगर अब तो हम घरैया हैं। दादा, आप हमारे आमिर खान हो… पता है मुझे, एक्टिंग-वैक्टिंग का कोई शौक नहीं है आपको लेकिन अपने काम में परफेक्शनिस्ट होने के मामले में आमिर भी आपसे पीछे ही खड़े मिलेंगे। अपने इस रवैये के लिए आपने कीमत भी चुकाई है मगर समझौता करना आपकी फितरत नहीं। हमें ये भी पता है कि आप ऐसा किसी अहं या जिद की वजह से नहीं करते बल्कि इंटरनेट पर हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं के विकास को लेकर आपकी दूरदृष्टि आपकी प्रेरणा होती है। शशि सिंह
- “देबू दा के बारे में शायद ही कुछ कहने को हो। हिन्दी ब्लॉगिंग के शुरुआती ब्लॉगरों में से एक हैं और हिन्दी ब्लॉगिंग को बढ़ावा देने के इनके योगदान से सभी वाकिफ़ हैं। दादा इनको बड़ा भाई होने के कारण कहा जाता है, बाकी तो क्या कहें। मेरी तरह या मुझसे अधिक गहन तकनीकी कीड़े वाले लोग हिन्दी ब्लॉगिंग में बहुत ही बहुत कम हैं और देबू दा उनमें से एक हैं। उनको इस जन्मदिवस पर ढेर सारी शुभकामनाएँ कि वे साल दर साल इसी तरह अपनी वर्षगाँठ मनाते रहें।” अमित गुप्ता
- देबाशीष जिन्हे देबूदा कहते रहें है, हिन्दी चिट्ठाजगत की पहली पीढ़ी के लोगो में से है। इन्होने जितना काम हिन्दी चिट्ठाकारी के बाल्यकाल में उसके सुदृढ़ भविष्य के लिए किया उतना काम आज भी हम चाह कर नहीं कर पाते। इसलिए उनके प्रति मन में सम्मान है. लम्बा जीओ देबूदा…अभी बहुत कुछ करना बाकी है। संजय बेंगाणी
- मेरा व्यक्तिगत मिलने और मित्र बनाने का बहुत कम मन होता है। अमूमन
लोगों के विषय में लिख पढ़ कर जितना जान जाता हूं, उसे पर्याप्त समझता हूं।
बहुत कम लोग हैं जिनसे मिलने की उत्कण्ठा जेनुइनली होती है।
और देबाशीष ऐसे सज्जन हैं – जिनसे मिला नहीं पर मिलने का मन है। किसी एजेण्डा के साथ नहीं पर इत्मीनान से मिल कर व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों को समझने-देखने के लिये। ज्ञानदत्त पाण्डेय - देबूदा बहुत कर्मठ व्यक्ति हैं और साफगोई करते हैं, जो मुझे पसंद हैं। वे बहुत मेहनती भी हैं। विशेष रूप से उनके निरंतर प्रोजेक्ट से मै काफी प्रभावित हुआ हूं। देबूदा का नाम कई सारी वेबसाइटों पर पढने को मिलता तो अच्छा लगता है। वे हिन्दी ब्लोगजगत के सबसे पुराने खिलाडि़यों मे से एक हैं, इसलिए उनके योगदान को नकारा नही जा सकता है।दादा से कभी कभी वैचारिक मतभेद हो जाते हैं पर उनके प्रति सम्मान की भावना पर इसका कोई प्रभाव नही पड़ता। पंकज बेंगानी
- देबाशीष हिन्दी चिट्ठाकारी के युगपुरुषों में से एक हैं। अन्य लोगों की तुलना में वे बहुत खरा बोलते हैं जो सुनने में कई बार बहुत कडा लगता है, लेकिन दुबारा सोचने पर लगता है कि उन्होंने बिना लागलपेट के सत्य ही बोला है। एक परिवार में ऐसे लोगों का होना जरूरी है जिससे हम दिशा से भटक न जायें। शास्त्री
- जब इंटरनेट पर हिंदी में लिखने की कोशिश कर रहा था तो सबसे पहले देबाशीष ने आगे बढ़ कर मुझे रास्ता दिखाया था कि क्या करना चाहिये, कैसा करना चाहिये। तबसे आज के सफ़र में तीन साल से भी अधिक बीत गया। निरंतर ने एक ओर देबाशीष से परिचय कराया और उसकी कर्मबद्धता को प्रशंसक बना दिया। मृदुल और मितभाषी देबाशीष को उसके जन्मदिन पर बहुत सी शुभकामनाएँ। सुनील दीपक
- इंटरनेट पर ईमेलिया आदान-प्रदान और कार्य-सहयोग के जरिए देबाशीष चक्रवर्ती – मेरे लिए कब देबाशीष और फिर कब मेरे अनुज देबू भाई हो गए पता ही नहीं चला। जीरो टालरेंस के हद तक परफ़ेक्शनिस्ट, जुनूनी और क्लीयरकट विजन और विचार के धनी देबूभाई ने हिन्दी का सबसे पहला ब्लॉग एग्रीगेटर चिट्ठा विश्व बनाया था जो – बहुत ही उन्नत किस्म का और बहुत ही फ़ीचर युक्त भी था। मुफ़्त के संसाधनों पर निर्भर रहने के कारण वह भले ही आज अप्रासंगिक और काल-कवलित सा हो गया हो, परंतु हिन्दी चिट्ठों की शुरूआती दशा और दिशा बनाने में चिट्ठाविश्व ने बहुत ही महत्वपूर्ण काम किया था। देबू भाई के ऊर्वर दिमाग में कुछ कर गुजरने के विचार यूं है कि हर विचार पे दम निकले। समय और संसाधनों की कमी के बावजूद निरंतर जैसी खूबसूरत और क्वालिटी मैगजीन निकालना, और पुराने गायब हो चुके पन्नों को सहेजना – दैट नीड्स ए रीयल गट्स. देबू भाई शतायु हों, और उनकी हर कामना पूरी हो – हमारी यही कामना है।रविरतलामी
- हिन्दी ब्लॉगजगत के आभामंडल देबाशीष बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उनसे मेरा सम्पर्क काफी पुराना है, मेरे ख्याल से हिन्दी ब्लॉग लिखते ही सबसे पहले मैने देबाशीष को सम्पर्क किया था। मै देबाशीष की तकनीकी समझ का कायल हूँ, किसी भी प्रोजेक्ट को पूरी लगन और ईमानदारी से करना कोई देबाशीष से सीखे। मुझे देबाशीष के साथ काम करने मे काफी मजा आया। जितना ये तकनीकी जानकार है उतना ही क्रिएटिव भी है, इसकी कलात्मकता की छाप देखनी हो तो इसके काम इंडीब्लॉगीज, निरंतर और पॉडभारती देखिए। हिन्दी ब्लॉगजगत को देबाशीष से ढेर सारी उम्मीदे है, आशा है देबाशीष हिन्दी सेवा मे अपना बहुमूल्य सहयोग देते रहेंगे।”जीतेंद्र
- देबू दा को जानते हुए या कहें बूझते हुए लगभग ४ साल होने को है, ब्लोगजगत में कई लोग शायद उन्हें थोड़ा खूसट टाईप मानते हैं, ऐसा बातों से लिखने से समझ आ जाता है। लेकिन एक बार आप उनसे बात करो या उनके साथ काम करो तो पता चलता है कि देबू दा एक सरल और सीधे इंसान हैं जो बातों की साफगोई में विश्वास रखते हैं। हिन्दी के लिये उनके शुरू किये गये सारे ही प्रोजेक्ट सराहनीय हैं, आज जन्मदिन के इस अवसर पर उन्हें आने वाले ऐसे कई प्रोजेक्टस के लिये शुभकामनायें। हैप्पी बर्थ डे देबू दा।”तरुण
सवाल: नवम्बर माह में तुम्हारे चिट्ठा लेखन के पांच साल हो जायेंगे! कैसी यादें रहीं इस सफ़र की?
जबाब:ब्लॉगिंग तो मज़ेदार अनुभव रहा है क्योंकि इससे काफी समान राय वाले मित्र मिले। कितना ही कुछ सीखा और काफी परिपक्वता भी हासिल हुई। पॉडभारती और निरंतर इसी सफ़र के दौरान बनें तो असर तो काफी रहा इस विधा का।
सवाल: इंडीब्लागीज भारतीय ब्लाग जगत की एक प्रक्रिया है। उसके कर्णधार आप हैं! क्या कारण रहे कि इंडीब्लागीज इस बार आयोजित नहीं हो पाया?
जबाब:इंडीब्लॉगीज़ को मैं इस साल जिस पैमाने पर आयोजित करना चाह रहा था वो संभव न हो सका। इस आयोजन का एक मुख्य हिस्सा पीआर और मार्केटिंग है। पहली चीज़ में मैं कमज़ोर हूं और इंटरनेट के उत्पाद के विपणन का मुझे कोई अनुभव नहीं। इन दोनों के बिना इसे भव्यता से आयोजित करना, तगड़े स्पांसरों का साथ पाना बेहद मुश्किल है। एक और पक्ष है चिट्ठों का सही आंकलन का कोई कारगर तरीका अब तक नहीं मिल पाया, पिछले आयोजनों से सीखे सबक के आधार पर जो मैं करना चाहता था उसमें समय, श्रम व पैसे इन सभी की ज़रूरत है। समय और पैसा ये दोनों ही चीजें मेरा पास मन मुताबिक नहीं है। अनमने ढंग से करने से बेहतर लगा कि २००७ का आयोजन स्थगित कर दिया जाय। अगर स्थितियाँ अनूकूल रहीं तो शायद इसमें पुनः प्राण फूंका जा सके।
सवाल: देबाशीष एक ऐसा तोता लगता है जिसकी जान निरंतर पत्रिका के तोते में बसती है। क्या वजह इस भीषण लगाव की?
जबाब:इस लगाव का कारण शायद पत्रकारिता का कीड़ा ही है। स्कूल के दिनों से संपादक के नाम पत्र लिख कर शुरुवात की, स्कूल व कालेज की पत्रिकाओं के संपादक मंडल में रहा और दिशाहीनता का यह हाल था कि बीई करने के उपरांत नईदुनिया भोपाल में नौकरी के लिये पहुंच गया। मदन मोहन जोशी जी संपादक थे, विवेक “मृदुल” के सानिध्य में फीचर विभाग में लगा दिये गये। २० दिन बाद पता लगा कि तनख्वाह ५०० रुपये माहवार मिलेगी। जोशी जी बोले पहले पहल जनरल बोगी में लटक कर सफर शुरु करना ही होता है। तो मेरी सारी ख़ामखयाली यहीं खत्म हो गई। दरख्वास्त की कि जाने दिया जाय, मुझे २० दिनों में लिखे व अनुवादित लेखों का मेहनताना दे दिया गया। मज़े की बात थी कि ये रकम १५०० से ज्यादा निकली।
विषय पर लौटा जाय… तो अपनी पत्रिका निकालने का जब मौका मिला और साथ देने वाले गुणी लोग भी मिले गये तो काम कठिन न लगा। मुझे यह विश्वास रहा है कि निरंतर की विषयवस्तु वाली हिन्दी जाल पत्रिका की ज़रूरत है और इसे निरंतर निकलना चाहिये, यही कारण है कि इसमें पुनः जान डाली गई। मैं इस बात से भी वाकिफ हूं कि बिना किसी मॉनीटाईज़ेशन मॉडल के पत्रिका की गुणवत्ता व अविरल प्रकाशन सुनिश्चित करना मुश्किल है। इस बाबत काम चल रहा है। विज्ञापन मिलने शुरु हो रहे हैं, डॉ अमर जैसे अनेक इस बाबत सहयोग देने के लिये आगे आये हैं। निरंतर के आगामी अंकों में आमुख कथा के लेखकों को मानदेय देने की शुरुवात की गई है, उम्मीद है इससे हमें गुणी व पेशेवर लेखक का साथ मिलेगा। निरंतर व पॉडभारती में सामग्री का विनिमय संभव है, पॉडभारती जिस विषय पर संक्षिप्त पॉडकास्ट बनायें उसका ट्रांस्क्रिप्ट व विस्तारित रूप निरंतर पर जंचेगा। ऐसी कई व्यावहारिक योजनायें हैं इस पत्रिका को जारी रखने हेतु। अब पत्रिका के मुख्य संपादक तो आप ही हैं तो आपको भी रुचि बनाये रखनी होगी।
सवाल: निरंतर के नियमित प्रकाशन में दिक्कतें क्या हैं?
जबाब:जिस तरह के विषयों पर हम लेख प्रकाशित करते हैं, इनके लिये अच्छे लेखों व लेखकों का टोटा है। Hindiblogs.org पर शामिल चिट्ठों के आधार पर कह सकता हूँ कि सबसे बड़ा तबका कविताई चिट्ठों का है, दूसरा नंबर निजी चिट्ठों का आता है। निरंतर पर साहित्यिक रचनायें हम कम ही छापते हैं, छापना चाहते हैं। इस हेतु अभिव्यक्ति, कृत्या, अनुभूति जैसी बेहतरीन जाल पत्रिकायें मौजूद ही हैं। पर हम साहित्य से मुंह नहीं मोड़ रहे, प्रत्यक्षा ने निरंतर पर अनोखी इंटरेक्टिव कहानी “लाल परी” लिखी जहाँ पाठकों ने कहानी का रुख तय किया। पर हम मुख्यतः समाचार विचार, समसामयिक, सामाजिक विषयों पर विश्लेषण, विवेचन, बहस, तकनीकी लेख व ट्यूटोरियल, साक्षात्कार, पुस्तक व उत्पाद समीक्षा, ब्लॉगमंडल के उद्भव जैसे मुद्दों पर लेख छापना चाहते हैं। निरंतर के पूर्व अंको में हमने हिन्दी ब्लॉग के रचना संसार, जिसमें वर्डप्रेस पर आधारित अपनी तरह का विशेषांक भी शामिल रहा, से लेकर, शिक्षा व इसमें सूचना प्रोद्योगिकी का प्रयोग, जल संकट, विस्थापन, जैसे अनेक मुद्दों पर लेख छापे हैं। मेधा पाटकर से लेकर डॉ सुगाता मित्र के साक्षात्कार और अतानु दे, प्रो यशपाल जैसे लेखकों के लेख यहाँ छपे हैं। पर ये बड़े नाम अपवाद हैं, निरंतर मूलतः ब्लॉगरों द्वारा निकाली जाने वाली पत्रिका है, हम लोग पेशेवर लेखक नहीं हैं पर हम पेशेवराना रवैये से प्रिंट मीडिया की गुणवत्ता से लोहा लेने का साहस लेकर चले थे। हमने केरल के एक गुमनाम छात्र का साक्षात्कार भी छापा जिसने कागज़ को हार्डडिस्क जैसे इस्तेमाल करने की तकनीक खोजी और एक पत्रकार की पुस्तक का भी ज़िक्र किया जिसने बाँधों से विस्थापन का दर्द उजागर किया। अनियमितता का एक मुख्य कारण समय की कमी और प्रकाशन में केवल मेरे शामिल होने की भी है, इस person dependency को तभी हटाया जा सकेगा जब निरंतर से कमाई होने लगे और प्रकाशन के लिये हम किसी की पेशेवर सेवा ले सकें।
सवाल: अगर ब्लागर साथी आपको सहयोग करने का मन बनायें तो किस तरह का सहयोग चाहिये?
जबाब:जैसा मैंने लिखा, आर्थिक सहयोग के अलावा ज़रूरत होगी कि वे लेखक जिन्हें उपरोक्त विषयों में original तथा formal लेखन में रुचि हो, वे हमसे जुड़ें। निरंतर में हम कोलेबोरेटिव लेखन के मुरीद हैं, जब कई लोग मिल कर लेख तैयार करते हैं तो उसमें अनेक पक्ष सामने आ पाते हैं। निरंतर मित्र नामक एक गूगल पत्र समूह है जिसमें इस समय तकरीबन १०० सदस्य हैं, दुर्भाग्य से जब भी हम विषय सुझा कर लेख आमंत्रित करते हैं तो एक भी लेखक सामने नहीं आते। कविता, कहानी के अलावा रचनायें मांगना तो अपराध बन जाता है। मैं जानता हूं कि पेशेवर लेखक हमसे तभी जुड़ेंगे जब उन्हें लाभ मिले, वह लाभ जो उन्हें मुख्यधारा के मीडिया के लिये लिख कर मिलता है। पर पेशेवर लेखकों के बनिस्बत मैं चिट्ठाकारों से लिखवाना चाहूंगा, किसी एक पेशेवर लेखक के लेख की तुलना में तीन चार चिट्ठाकारों द्वारा कोलेबोरेटिव तरीके से लिखा लेख कहीं बेहतर होगा, यह मेरा यकीन है। और मेरा प्रयास यही है चिट्ठाकारों को भी लेखन के लिये वह लाभ मिले। बस उन्हें यह मानसिकता छोड़नी होगी कि वे इस तरह का लेखन अपनी ब्लॉग पोस्ट की तरह ही कर पायेंगे। ब्लॉग पोस्ट और formal लेखन में काफी अंतर है, हालांकि कई चिट्ठाकार ब्लॉग पोस्ट पर भी उतनी ही मेहनत करते हैं। साथ ही किसी माध्यम के लिये exclusively लिखने का मन भी बनाना होगा क्योंकि ऐसे जाल आधारित माध्यम कम ही होंगे जो चाहेंगे कि आप अपना वही लेख पहले हर मुनासिब जाल पत्रिका में छपवायें और फिर अपने ब्लॉग पर भी ठेल दें। यह मनःस्थिति प्रिंट माध्यम के लिये लिखने वाले अधिकाँश लेखकों की होती है।
सवाल: हिंदी ब्लागजगत में तमाम विवादों, लफ़ड़ों, झगड़ों के गवाह रहे तुम! कुछ में पार्टी भी रहे! इस सब को किस नजर से देखते हैं?
जबाब:बर्तन साथ रहेंगे तो खड़केंगे ही। पुराने चिट्ठाकारों से जो भिड़ंत हुई उसके बाद काफी हद तक उन्हें समझने का मौका मिला, इससे उनसे मित्रता बढ़ी ही है। और खुद मुझमें भी परिपक्वता आई है। तो अपने ने हर ऐरे गैरे की पोस्ट पर जवाबी पोस्ट लिखने की आदत से निजात पाई। आत्ममंथन किया तो पाया कि खामख्वाह तू-तू, मैं-मैं तो समय जाया हो रहा है और जो चीज़ें इंटरनेट पर लुभाती हैं उन पर ध्यान ही नहीं जा रहा। ब्लॉग लिखने का टेंशन भी छोड़ दिया, जब मन आता है लिखता हूँ, बेमतलब टिप्पणी करने और टिप्पणी पाने का कायल तो मैं कभी भी नहीं रहा। यही कारण है की अब महीनों ब्लाग अपडेट नहीं होता और इसका कोई गिला भी नहीं। और भी ग़म हैं ज़माने में ब्लॉगिंग के सिवा!
सवाल: हिंदी ब्लागजगत की कौन सी चीजें आकर्षित करती हैं तुमको?
जबाब:
- विषयों की विविधता और अविविधता।
- टिप्पणी का जोश और टिप्पणियों में रोष
- जाने पहचाने चिट्ठों और चिट्ठाकारों के बीच पनपते छोटे मोटे समुदाय।
- हिन्दी पर अतिशय गर्व।
- लगभग हर बड़ी खबर पर नज़र, अगर आप अखबार न पढ़ें और टीवी न देखें
- चिट्ठा जगत व चिट्ठा चर्चा
- कुछ बेहद अच्छे चिट्ठे जिन्हें मैं हमेशा पढ़ता हूं।
जबाब:
- लगाई भगाई, कुछ लोग इसी पर समय और श्रम ज़ाया करते रहे हैं।
- विवादास्पद पोस्ट, पुराने ब्लॉगरों को गाली देते पोस्ट लिख इंस्टैंट हिट्स पाने की चाहत रखने वाले ब्लॉग
- “हिडन अजेंडे” के तहत ब्लॉगिंगः! ब्लॉग कैसे बनायें और बच्चे को ब्रश कैसे करायें के बहाने मसीही ज्ञान चटाने वाले ब्लॉग
- अपनी एक ही प्रविष्टि ब्लॉगर डॉट कॉम और वर्डप्रेस के बारह ब्लॉग पर पोस्ट पर उसे साढ़े तीन सौ ईमेल पतों पर मेल करने वाले बला के मेहनती ब्लॉगर
- अनाम लेखक, जिनके लेखन से साफ पता लग जाता है कि वे कौन है पर वे यह सोचकर नेट संसार में विचरण करते हैं कि उन्हें कोई पहचान नहीं पायेगा।
- अखबारों में ब्लॉगर के रूप में नाम पहले कमाने वाले और ब्लॉगिंग बाद में शुरु करने वाले ब्लॉगर।
- अपनी पहली ही पोस्ट में “सफल ब्लॉगर कैसे बनें” का प्रवचन देने वाले ब्लॉग
जबाब:सहमति तो आम ही रही है। तब समूह छोटा था और सामुदायिक प्रकल्प भी बने। पंकज नरूला के अक्षरग्राम बैनर तले काफी कुछ पनपा, निरंतर पत्रिका भी वहीं जन्मीं। अब सामुदायिक प्रकल्प हैं कहाँ? जो कुछ हैं, (मसलन जीतू, रमण, रवि, संजय के साथ लाँचपैड पर वर्डप्रेस का स्थानीयकरण) वहाँ छुटपुट काम जारी है।
सवाल: लिखना कम क्यों हो गया?
जबाब:इसका मुख्य कारण है टायपिंग की कम गति और आलस, पर दूसरे अन्य कारण भी हैं जिनका ज़िक्र कर आपका समय नहीं नष्ट करुंगा। और फ़िर मेरे न लिखने से किसे क्या फर्क पड़ता है?
सवाल:अमेरिका के अनुभव कैसे रहे? क्या आकर्षित किया और किस चीज से मन उचटा!
जबाब:बहुत ही बढ़िया अनुभव रहा, इसलिये भी कि शानदार शहर न्यूयॉर्क का प्रवास था और वह भी वहाँ के सबसे खुशगवार मौसम में। ग्लोबलाईज़ेशन के दौर में आज जहाँ भारत में वो सब मयस्सर है जो अमरीका में मिलता है, पर सही मायनों में दोनों समाजों में तुलना करना जायज न होगा। कहा ही गया “द ईस्ट इज़ ईस्ट एंड द वेस्ट इज़ वेस्ट“, हाँ यह हो सकता है कि कभी भविष्य में “द ट्वेंस मे मीट“। अच्छा लगता है जब फिल्मों या टीवी कार्यक्रमों में न्यूयॉर्क, वाशिंगटन दिखते हैं।
सवाल: तुम्हारी एक खासियत है कि तुम जो करते हो उसे परेफ़ेक्शन के साथ करना चाहते हो। जबकि ब्लागिंग , जो आमतौर पर “जो मन में आया सो कह दिया” टाइप का माध्यम है! इन दोनों में तालमेल कैसे बैठता है!
जबाब:तारीफ के लिये शुक्रिया! इसीलिये तो नियमित ब्लॉग लिखने में परेशानी होती है और निरंतर का काम लुभाता है। विषय कौंधते रहते हैं दिमाग में, पर कई बार लगता है, खास मसौदा नहीं है लिखने का, चार लाईना पोस्ट क्या लिखें। कई दफा लिखते लिखते विषय बासी हो जाता है या कोई और कवर कर लेता है। तालमेल तो बैठ ही नहीं पाया।
सवाल: तुम्हारी पैदाइश बनारस की है। बनारस एक अलमस्त शहर है। दुनिया को अपने ठेंगे पर रखकर ठहाका लगाने वाला शहर! जबकि देबाशीष की इमेज एक गम्भीर से आदमी की है। ऐसा कैसे हुआ?
जबाब:गंभीर तो नहीं हूं, हाँ थोड़ा एकांतप्रिय और अंतर्मुखी होने का कारण शायद यह आभास जाता हो। बनारस में मेरा जन्म ही हुआ है, परवरिश तो भोपाल की है तो वो तेवर तो शायद दिख जाते होंगे
सवाल: देबाशीष की शुरुआती तमन्ना एक सरकारी नौकरी करते हुये आराम की जिंदगी बिताते हुये अपने मनपसंद् काम करने की थी। अब जब लोगों में सरकारी नौकरियों का आकर्षण कम हो रहा है तब भी क्या अब भी यह ख्वाहिश कभी-कभी होती है!
जबाब:यह तो शायद आम ख्वाहिश भी होगी। मेरे पिता भेल, भोपाल में कार्यरत थे, उन्हें हमेशा सवेरे साढ़े छ बजे आफिस जाते और चार बजे लौटते देखा। दोपहर को वे अक्सर खाना खाने भी घर आ जाते। खूब समय मिलता था उनका हमें। भेल टाउनशिप मिनी भारत जैसा है। तो जाने अनजाने इस तरह के जीवन की आदत हो जाती है और उसी में बने रहने की लालसा भी रहती है। यही कारण है कि शुरुवाती चार साल भोपाल में छोटी मोटी नौकरी कर काटे, यार दोस्त थे, माता पिता के साथ रहने से वे भी खुश थे, सब कुछ मस्त था। तो करियर बनाने की आकांक्षा देर से बनी और तब से गाड़ी पाँच छ साल लेट चल रही है। खैर देर आयद दुरस्त आयद! तर्क यही होगा कि “मैं देर करता नहीं, देर हो जाती है“। लीजिये फिर बात तो घुमा कर कहाँ ले गया। तो नहीं, सरकारी नौकरी की ख्वाहिश तो अब नहीं बची।
सवाल: ब्लागजगत में काफ़ी पहले ही लोगों ने पितामह जैसी उपाधि से नवाज दिया। काफ़ी आदर दिया! कैसा लगता है बाली उमर में पितामह कहलाना?
जबाब:अगर किसी ने सम्मान से कहा तो शुक्रिया, मैं कृतार्थ हुआ। अगर मजाक भर के लिये कहा तो भैया तुम जानो तुम्हारा काम जाने। पितामह होने के नाते ब्लॉगमंडल से कौन से पेंशन मिलने वाली है। बाकी उमर बाली तो नहीं रही, अंकल तो लोगबाग मुझे पाँच साल पहले से पुकारने लगे थे, सो पितामह भी चलेगा, बस चरणस्पर्श से परहेज है।
सवाल: धीर गंभीर होते हुये भी ऐसे कौन से तत्व हैं तुम्हारे व्यक्तित्व में जो कि नेट पर बेफ़िजूल के आरोपों के लम्बे-लम्बे जबाब देने के लिये उकसाता है!
जबाब:वो भी एक दौर था, जब अपना पक्ष रखने के लिये मैंने कुछ जवाबी पोस्ट लिखे। पोस्ट हटाना सही काम नहीं इसलिये ये अब भी ब्लॉग पर हैं। मुझे अब तक समझ नहीं आया कि ऐसा क्या कारण था कि वे लोग इतना चिढ़े पर कारण रहे होंगे और उन बातों पर पुनः जाकर कोई लाभ नहीं। मेरी नीति हमेशा से “विथ मेलिस टुवार्ड्स वन एंड आल” की रही, अगर कोई बात गलत लगे तो मैं व्यक्ति का कद देख कर टिप्पणी नहीं करता। वैचारिक मतभेद समझ में आते हैं, और ऐसी बहसों से मुझे कभी परहेज़ भी नहीं रहा। दूजे, जहाँ मैंने गलत लिखा और उसका एहसास हुआ तो बिना शर्त माफी भी मांगी। खैर! मुझे कई हितेषियों ने सुझाव दिया और मैंने उस पर अमल कर ऐसे उकसावों पर बहकना बंद कर दिया। यह भी लगता है लोग मेरे काम को सराहते भी हैं, तो मुझे नहीं लगा कि व्यक्तिगत आग्रह अब रहा हो। परिपक्व वे भी हुये होंगे इन दिनों में, तो मेरे ख्याल से दोनों पक्षों को निरर्थक बहस में समय जाया करने के बेतुकेपन का एहसास भलीभांति हुआ है, कम से कम मुझे तो।
सवाल: इंडीब्लागीस भारतीय ब्लागजगत का सबसे महत्वपूर्ण आयोजन है/था। इसके सूत्रधार तुम रहे। लेकिन कम से कम हिंदी ब्लागजगत में दूसरे इंडीब्लागीस के आयोजन के अंत तक किसी को हवा नहीं थी कि कौन है इसका कर्ता-धर्ता। जब आज जरा-जरा से काम के लिये शाबासी लेने का जमाना है तब इत्ते दिनों तक इस बात को छिपाये रहना कैसे संभव हो सका?
जबाब:हिन्दी ही नहीं अंग्रेजी ब्लॉगजगत में भी हवा नहीं थी, जब मैंने यह शुरु किया तब मैं अपनी ओर ध्यान आकर्षित नहीं करना चाहता था। उसी समय अंग्रेज़ी ब्लॉग जगत में अनुगूँज की तर्ज पर आयोजन ब्लॉग मेला का मज़ाक उड़ाते हुये किसी ने पैरोडी के रूप में “ब्लॉग केला” शुरु की जिसमें सबका मज़ाक उड़ाया जाता। तो माहौल थोड़ा नाकारात्मक था, ऐसे में इंडीब्लागीज़ सबको पसंद आया। पर जैसा कि हर अवार्ड में होता है, लोगबाग जो मन आये अनाप शनाप लिखने लगे तो मुझे अंततः नाम जाहिर करना पड़ा। और इसके बाद यह निंदा बिल्कुल ठहर गई, और लोग आयोजक के रुप में जानने, सराहने लगे।
सवाल: ब्लागिंग में लोग लिखते-लिखते अचानक अपना लेखन स्थगित करने की घोषणा कर देते हैं। फ़िर मान-मनौव्वल के बाद लिखने लगते हैं। ऐसा पहले भी तमाम लोग कर चुके हैं! अभी तुरंत समीरलालजी ने ये किया! ब्लागिंग की इस प्रवृत्ति के क्या कारण हैं?
जबाब: एनी पब्लिसिटी इज़ गुड पब्लिसिटी समीर जी तो पीआर में पीएचडी हैं।
सवाल: हिंदी और अंग्रेजी के कौन से ब्लाग हैं जिनको तुम अपनी नजर में आदर्श ब्लागिंग के नमूने मानते हो?
जबाब:अंग्रेज़ी में तो अनेक हैं, हिन्दी में सुनील दीपक मेरे सबसे प्रिय चिट्ठाकार हैं। आप, प्रमोद सिंह, अभय, अनामदास, रवीश, अविनाश, ईस्वामी, समीरलाल, विनय, विनीत कुमार, रवि भैया हर बार अच्छा लिखते हैं। पुराने चिट्ठाकारों में जब भी समय मिले सभी को पढ़ता हूं, तरुण, बेंगानी बंधु, जीतू, रमण जब भी, जो भी वे लिखें। और भी अनेक ब्लॉग पसंद हैं सबका नाम लिखना तो मुश्किल है।
सवाल: तुम्हारा हिंदी ब्लागिंग और अंग्रेजी ब्लागिंग से भी संबंध हैं। दोनों के मिजाज में क्या खास अंतर है?
जबाब:अभी तो अंग्रेज़ी में मुख्यतः तकनीकी चिट्ठे ही पढ़ पाता हूं पर जहाँ तक याद है सम सामयिक विषयों पर चर्चायें अच्छी रहती हैं। तकनीकी लेख भी उम्दा होते हैं।
सवाल: अपनी ब्लागिंग से तुम कित्ता संतुष्ट हो?
जबाब:संतुष्टि तो कम है। जितना सोचता हूं उसका १० फीसदी भी कागज पर उतार नहीं पाता। मन होता है कि काश मोब्लॉगिंग तथा स्पीच टु टेक्सट जैसे माध्यमों का इस्तेमाल कर पाता। मन में कई बार ट्विटरी विचार उठते हैं पर उनको ब्लॉग पर डालना खलता है। पर मैं विचार कर रहा हूँ कि अब यह करूं।
सवाल: और अपनी जिंदगी से? क्या मुकाम हासिल करने को रह गये हैं?
जबाब:बहुत से हैं। मुख्यतः तो अपने बेटे के लिये जीता हूँ। पर कैरियर और हॉबी दोनों में ही काफी कुछ करना है। विचारों के कार्यावन्यन के लिये टीम नहीं बन पा रही। शशि काफी व्यस्त रहने लगे हैं। समान राय वाले लोगों का दल बन जावे तो काफी कुछ किया जा सकता है और मैं व्यावसायिक उपक्रमों की बात कर रहा हूँ, स्वांत सुःखाय पराक्रमों की नहीं। वे तो अब बहुत हुये।
सवाल: जन्मदिन कैसे मनायेंगें?
जबाब:इस बार तो सपरिवार छुट्टी पर जा रहा हूं। खुली वादियों में।
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Posted in इंक-ब्लागिंग, इनसे मिलिये, साक्षात्कार | Tagged देबाशीष, निरंतर, नुक्ताचीनी, पाडभारती, features | 42 Responses
warm rgds,
- Lavanya
अनूप भाई
धन्यवाद इन जानकारीयोँ और स विस्तार परिचय का !
– लावण्या
खैर, इन सज्जन को कई जगह पर पढ़ा हूँ, इन्हें पढ़कर अच्छा लगा.
जन्मदिन की बधाई स्वीकार करें.
कभी निरंतर पर टिपण्णी नहीं की और न ही पॉडभारती पर, लेकिन कल ज़रूर बात होगी.
अरे, देबू दा का आज ही जन्म दिन है, पता नहीं था, बधाई स्वीकार करें.
अब और क्या कहूं इनके बारे में जो कुछ आपने बताया उससे अछूता था.
कल सम्भव है कि इनसे बात भी हो जाए.
अनूप भाई, सुन लिया न!!! एनी पब्लिसिटी इज़ गुड पब्लिसिटी -अब कुछ ठीक लगा या कुछ और दरकार है?? ह हा!! यही आज की मांग है, आप भी न!!!
साक्षात्कार बढ़िया रहा.
साक्षात्कार बढिया था. दादा घूम फिर आओ तो फोटो दिखाना…
दादा, जन्मदिन की हार्दिक शुभकामाना!!!
Many happy returns to Debu!
Hopefully, we will see new material on Nuktachini, bahut din ho gaye ab to. Likh dalo kuchh ab
देबूभाई को बधाइयां । आपकी गाड़ी लेट सही , जन्मदिन तो हर साल सही समय पर ही आ रहा है …:)
शुभकामनाएं.
खुशी की बात यह है कि आब इत्ते लोग हैं कि साल भर जन्मदिन वाले लेख लिखे जा सकते हैं!
ईश्वर उन्हें शक्ति दे कि हिन्दी ब्लॉगिंग को बढ़ावा देने के अपने सत्प्रयासों में उन्हें मनोवांक्षित सफलता मिले।
हिन्दी ब्लॉग जगत के लिए देबू दा इतने खास हैं कि उनके जन्म-दिन को इसी तरह खास अंदाज़ में याद किया जाना चाहिए।
जन्मदिन की हार्दिक मंगल कामनाएँ। आप जीयो हजारों साल,ब्लॉग के दिन हो पचास हजार. भाई आपने यह सिद्ध कर दिया है कि हिंदी में दम है जो नई तकनीक के साथ कदम मिला कर सफर तय कर सकती है। आपका आदर्श हम जैसे नए लोगों के लिए आश्वस्त करता है। आपको अनेक शुभाशिर्वाद.
क्योंकि ब्लागिंग अनुभवों में यदि वह अंबानी हैं,
तो मैं, टूटी हुई कमानी !
उन तक पहुँचने का तो कोई सवाल ही नहीं…
मैंने एक पोस्ट लिखी थी ” देबूदा को गुस्सा क्यों आता है ? ”
पर वेट एन्ड वाच की सतर्कता में, वह अप्रकाशित ही रह गयी,
और शायद अब कभी होगी भी नहीं !
यह तमाम तरह के बयाने बटोर लेने का तनाव रहा होगा ।
अब मैं उनके मिशन में साथ हूँ ।
यह शुभकामना संदेश उन्हें किंचित निजता का आभास दे,
केवल इसलिये..
দেবূদা কে জন্মদিনের উপলক্ষ্যে আমাদের হার্দিক শুভকামনা !
উনী আমাদের সব সময নিজের অমূল্য মার্গদর্শন দিতে থাকেন,
এঈ আমি ঠকুরের কাছে প্রার্থনা করি |
নিজের পরিৱারের সংগে ভাল ভাৱে এন্য্ৱায কোরুন আপনি |
ইতি শুভেক্ষু – অমর
कतिपय चिट्ठाप्रेमियों को शायद अखरे,
किंतु परभाषी होते हुये भी उनका हिंदी के प्रति समर्पण
हमपर जैसे निष्कलुष कटाक्ष है, आइये हमसब इसको प्रेरणा रूप में अपनायें ।
और उनके जीवटता को मेरा अभिनंदन !
देबू, हैप्पी ब’डे, मैन!
यह साक्षात्कार भले ही पुराना हो पर आज भी ताजादम लगता है.कई बातें देबू दा से सीखने को मिलीं,उन्हें मेरी तरफ से आभार देना.मैं कभी उन्हें पढ़ नहीं पाया,पर आज आपके माध्यम से उन्हें थोडा-बहुत जान पाया !
उनके जन्मदिन की ढेर बधाइयाँ !
डॉ. अमर कुमार की टीप भी उनकी कमी को बार-बार याद दिलाती है !