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टुकुर-टुकुर देउरा निहारै बेईमनवा
By फ़ुरसतिया on February 15, 2010
पिछली पोस्ट में हिमांशु और अमरेन्द्र ने गीतकार लवकुश दीक्षित का गीत टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेईमनवा सुनाने का आग्रह किया था। मैं पहले भी इस गीत को लवकुशजी की आवाज में ही पॉडकास्ट कर चुका हूं। लेकिन उस समय जिस मुफ़्तिया साफ़्टवेयर
का प्रयोग किया था वह बाद में कामर्शियल हो लिया और हमारी पोस्ट से लवकुश
जी की आवाज साफ़्टवेयर के साथ विलीन हो गयी। उसी के साथ हमारे और भी तमाम
पॉडकास्ट गो,वेन्ट,गान हो लिये। फ़िलहाल इसे दुबारा पॉडकास्ट कर रहा हूं इस उम्मीद के साथ कि यह गायब नहीं होगा।
पॉडकास्ट करने के पहले इसे टाइप करके जब मैंने पहली बार पोस्ट किया था तो इस गीत के अनुरूप देवर-भाभी का चित्र भी बनवाया था। सुरेन्द्र ,जिन्होंने यह चित्र बनाया उस समय एम.ए. आर्ट्स की पढ़ाई कर रहे थे। आजकल वे कहीं स्केचिंग/पेंटिंग का अच्छा काम कर रहे हैं।
लवकुश दीक्षित का लिखा/गाया अवधी भाषा का यह गीत भाभी द्वारा देवर की बदमासियों ,शरारतों के जिक्र से शुरु होकर खतम होता है जहां भाभी बताती है कि देवर पुत्र के समान होता है.अपनी शैतानियां समाप्त कर दो। मैं देवरानी को बुलवा लूंगी ताकि तुम्हारी विरह की आग समाप्त हो जायेगी| यह भी कहती है कि मैं होली खेलूंगी जैसे भाई के साथ सावन मनाया जाता है। जो साथी लोग अवधी नहीं जानते उनकी सुविधा के लिये भावानुवाद दिया है।
इस गीत को जितनी बार सुनता हूं उतनी बार लगता है कि भारतीय समाज में ,खासकर उत्तर भारत (के अवध प्रान्त में) स्त्रियों की स्थिति का आख्यान है यह गीत। अब तो गांवों में भी परिवार टूट रहे हैं और संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार बहुतायत में दिखते हैं। लेकिन आज से बीस-पचीस-तीस साल पहले जब अधिकांश परिवार संयुक्त हुआ करते थे उस समय परिवार में स्त्री की क्या स्थिति होती थी उसकी कहानी यह गीत कहता है।
इसमें देखिये कि एक स्त्री अकेली है घर में। उसको अपने देवर से डर लगता है। स्त्री को घर के काम-काज भी करने हैं, मर्यादा पूर्वक रहना भी है , देवर की नजरों से बचना भी है आगे के लिये भी खतरा न हो इसलिये देवर को यह एहसास दिलाना है कि वह (भाभी ) उसकी मां/बहन के समान है। एक ही घर में विरह की आग में जलते हुये स्त्री और पुरुष की स्थिति अलग-अलग है। स्त्री को अपनी मर्यादा भी देखनी और अपने शील की भी रक्षा करनी है। जबकि पुरुष ….? उस नठिया को तो बस टुकुर-टुकुर ताकना है!
बहरहाल ,इस बारे में विमर्श फ़िर कभी! फ़िलहाल तो आप यह गीत सुनिये!
निहुरे-निहुरे कैसे बहारौं अंगनवा,
कैसे बहारौं अंगनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा।
भारी अंगनवा न बइठे ते सपरै,
न बइठे ते सपरै,
निहुरौं तो बइरी अंचरवा न संभरै,
लहरि-लहरि लहरै -उभारै पवनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा।
छैला देवरु आधी रतिया ते जागै,
आधी रतिया ते जागै,
चढ़ि बइठै देहरी शरम नहिं लागै,
गुजुरु-गुजुरु नठिया नचावै नयनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा।
गंगा नहाय गयीं सासु ननदिया,
हो सासु ननदिया,
घर मा न कोई मोरे-सैंया विदेसवा,
धुकुरु-पुकुरु करेजवा मां कांपै परनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा।
रतिया बितायउं बन्द कइ-कइ कोठरिया,
बन्द कइ-कइ कोठरिया,
उमस भरी कइसे बीतै दोपहरिया,
निचुरि-निचुरि निचुरै बदनवा पसीनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा।
लहुरे देवरवा परऊं तोरि पइयां,
परऊं तोरि पइयां,
मोरे तनमन मां बसै तोरे भइया,
संवरि-संवरि टूटै न मोरे सपनवां,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा।
माना कि मइके मां मोरि देवरनिया,
मोरि देवरनिया,
बहुतै जड़ावै बिरह की अगिनिया,
आवैं तोरे भइया मंगइहौं गवनवां,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा।
तोरे संग देउरा मनइहौं फगुनवा,
मनइहौं फगुनवा,
जइसै वीरनवा मनावैं सवनवां,
भौजी तोरी मइया तू मोरो ललनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा|
–लवकुश दीक्षित
भावार्थ:
आंगन में झुके-झुके कैसे झाड़ू लगाऊं?बदमास देवर (पति का छोटा भाई )टकटकी लगाकर मुझे देख रहा है। आंगन बड़ा है। बैठकर सफाई करना मुश्किल है। अगर झुकती हूं तो मुआ आंचल सरकता है। हवा आंचल को बार-बार लहरा कर उभार देती है। शरारती देवर आधी रात से ही जाग जाता है। बेशर्म होकर देहरी पर बैठकर आंखें नचाता ताकता रहता है। सास-नंद गंगा स्नान के लिये गये हैं। पति विदेश गये है। घर में कोई नहीं है मेरे कलेजे में धुक-पुक मची है। डर लग रहा है। रात तो मैने कोठरी बंद करके बिता ली। अब दोपहर में बहुत उमस है। आंचल से पसीना छूट रहा है।
मेरे प्यारे देवर,मैं तेरे पांव पकड़ती हूं। मेरे तन-मन में तुम्हारे भइया बसे हैं। मैं केवल उन्हींके सपने देखती हूं। मैं जानती हूं मेरी देवरानी(देवर की पत्नी)मायके में है। विरह की आग तुमको जला रही होगी। पर जब तुम्हारे भइया आयेंगे तो मैं उसका गौना करवा कर उसको बुलवा लूंगी। मैं तुम्हारे साथ होली खेलूंगी जैसे भाइयों के साथ सावन का त्योहार मनाया जाता है। भाभी मां के समान होती है इसलिये तुम मेरे पुत्र के समान हो।
पॉडकास्ट करने के पहले इसे टाइप करके जब मैंने पहली बार पोस्ट किया था तो इस गीत के अनुरूप देवर-भाभी का चित्र भी बनवाया था। सुरेन्द्र ,जिन्होंने यह चित्र बनाया उस समय एम.ए. आर्ट्स की पढ़ाई कर रहे थे। आजकल वे कहीं स्केचिंग/पेंटिंग का अच्छा काम कर रहे हैं।
लवकुश दीक्षित का लिखा/गाया अवधी भाषा का यह गीत भाभी द्वारा देवर की बदमासियों ,शरारतों के जिक्र से शुरु होकर खतम होता है जहां भाभी बताती है कि देवर पुत्र के समान होता है.अपनी शैतानियां समाप्त कर दो। मैं देवरानी को बुलवा लूंगी ताकि तुम्हारी विरह की आग समाप्त हो जायेगी| यह भी कहती है कि मैं होली खेलूंगी जैसे भाई के साथ सावन मनाया जाता है। जो साथी लोग अवधी नहीं जानते उनकी सुविधा के लिये भावानुवाद दिया है।
इस गीत को जितनी बार सुनता हूं उतनी बार लगता है कि भारतीय समाज में ,खासकर उत्तर भारत (के अवध प्रान्त में) स्त्रियों की स्थिति का आख्यान है यह गीत। अब तो गांवों में भी परिवार टूट रहे हैं और संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार बहुतायत में दिखते हैं। लेकिन आज से बीस-पचीस-तीस साल पहले जब अधिकांश परिवार संयुक्त हुआ करते थे उस समय परिवार में स्त्री की क्या स्थिति होती थी उसकी कहानी यह गीत कहता है।
इसमें देखिये कि एक स्त्री अकेली है घर में। उसको अपने देवर से डर लगता है। स्त्री को घर के काम-काज भी करने हैं, मर्यादा पूर्वक रहना भी है , देवर की नजरों से बचना भी है आगे के लिये भी खतरा न हो इसलिये देवर को यह एहसास दिलाना है कि वह (भाभी ) उसकी मां/बहन के समान है। एक ही घर में विरह की आग में जलते हुये स्त्री और पुरुष की स्थिति अलग-अलग है। स्त्री को अपनी मर्यादा भी देखनी और अपने शील की भी रक्षा करनी है। जबकि पुरुष ….? उस नठिया को तो बस टुकुर-टुकुर ताकना है!
बहरहाल ,इस बारे में विमर्श फ़िर कभी! फ़िलहाल तो आप यह गीत सुनिये!
निहुरे-निहुरे कैसे बहारौं अंगनवा,
कैसे बहारौं अंगनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा।
भारी अंगनवा न बइठे ते सपरै,
न बइठे ते सपरै,
निहुरौं तो बइरी अंचरवा न संभरै,
लहरि-लहरि लहरै -उभारै पवनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा।
छैला देवरु आधी रतिया ते जागै,
आधी रतिया ते जागै,
चढ़ि बइठै देहरी शरम नहिं लागै,
गुजुरु-गुजुरु नठिया नचावै नयनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा।
गंगा नहाय गयीं सासु ननदिया,
हो सासु ननदिया,
घर मा न कोई मोरे-सैंया विदेसवा,
धुकुरु-पुकुरु करेजवा मां कांपै परनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा।
रतिया बितायउं बन्द कइ-कइ कोठरिया,
बन्द कइ-कइ कोठरिया,
उमस भरी कइसे बीतै दोपहरिया,
निचुरि-निचुरि निचुरै बदनवा पसीनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा।
लहुरे देवरवा परऊं तोरि पइयां,
परऊं तोरि पइयां,
मोरे तनमन मां बसै तोरे भइया,
संवरि-संवरि टूटै न मोरे सपनवां,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा।
माना कि मइके मां मोरि देवरनिया,
मोरि देवरनिया,
बहुतै जड़ावै बिरह की अगिनिया,
आवैं तोरे भइया मंगइहौं गवनवां,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा।
तोरे संग देउरा मनइहौं फगुनवा,
मनइहौं फगुनवा,
जइसै वीरनवा मनावैं सवनवां,
भौजी तोरी मइया तू मोरो ललनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा|
–लवकुश दीक्षित
भावार्थ:
आंगन में झुके-झुके कैसे झाड़ू लगाऊं?बदमास देवर (पति का छोटा भाई )टकटकी लगाकर मुझे देख रहा है। आंगन बड़ा है। बैठकर सफाई करना मुश्किल है। अगर झुकती हूं तो मुआ आंचल सरकता है। हवा आंचल को बार-बार लहरा कर उभार देती है। शरारती देवर आधी रात से ही जाग जाता है। बेशर्म होकर देहरी पर बैठकर आंखें नचाता ताकता रहता है। सास-नंद गंगा स्नान के लिये गये हैं। पति विदेश गये है। घर में कोई नहीं है मेरे कलेजे में धुक-पुक मची है। डर लग रहा है। रात तो मैने कोठरी बंद करके बिता ली। अब दोपहर में बहुत उमस है। आंचल से पसीना छूट रहा है।
मेरे प्यारे देवर,मैं तेरे पांव पकड़ती हूं। मेरे तन-मन में तुम्हारे भइया बसे हैं। मैं केवल उन्हींके सपने देखती हूं। मैं जानती हूं मेरी देवरानी(देवर की पत्नी)मायके में है। विरह की आग तुमको जला रही होगी। पर जब तुम्हारे भइया आयेंगे तो मैं उसका गौना करवा कर उसको बुलवा लूंगी। मैं तुम्हारे साथ होली खेलूंगी जैसे भाइयों के साथ सावन का त्योहार मनाया जाता है। भाभी मां के समान होती है इसलिये तुम मेरे पुत्र के समान हो।
कुछ समझ में नहीं आया तो मिनिग भी मिल गया, अब और क्या चाहिए??
अच्छा लगा
बढ़िया गीत रहा.
अति उत्तम ! ! !
.
उस दिन प्रदत्त लिंक के अनुसार जब पढ़ा था तभी मन बंध गया था , यहाँ
तो सभी पक्ष जैसे स्पर्धा कर रहे हों – क्या चित्र , क्या गीत , क्या लोकगीत , क्या
भावार्थ ,क्या ध्वनित वस्तु , क्या ध्वनन – शैली , क्या मार्मिकता , क्या सहजता ,
क्या खिलंदडपना-सह-डपटपना(डहपटपना भी) , क्या लोकगीतजन्य बेबाकपना , आदि – आदि ……
.
यह चित्रकार भी उतना ही ‘फोक’ में फुका है गोया
बिरहा-अगिनिया उकेर कर ही मानेगा !
.
और आपने जो भावार्थ लिखा है उसपर उड़न – तस्तरी की सही उड़ान
है कि ”भावार्थ बड़ा मन लगा कर लिखे हैं. ” , यह मजाक
नहीं है सच्चाई है ! और एक राज की बात यह भी है कि जब इतने छोटे – छोटे
वाक्य होने लगें तो मान लीजिये भावुकता पैंयाँ – पैंयाँ चल रही है ! अनुभव जैसे
अपने आदिम रूप में जाना चाह रहे हों … इस लोक – गीत का अभिप्रेत भी तो यही है !
ऐसा भावार्थ उस अभिप्रेत का सहज-सरल-सजल-सरस साधन है ! इस मनोयोग-पूर्ण
साधन को प्रणाम !
.
लोकगीत के कंटेंट पर बहुत कुछ कहा जा सकता है पर फिर कभी ! … आज इतनी देर तक
जगता रहा , अब लगता है कि इस अच्छी पोस्ट को पढ़ना बदा था … आभार ,,,
ई गौनई तौ कइउ
बार सुनि डारेन !
‘
फुरै मा …
जिउ अघाय गा !!!
बेहतरीन
लवकुश जी की आवाज में इसे सुनना तो और भी आनन्ददायी है ।
चित्र भी शानदार बनवाया है आपने ! चित्र का संप्रेषण जबरदस्त है !
हर्ष हो आया है बहुत । अवधी-अमरेन्द्र तो आ ही रहे होंगे कलेजे लगाने इस प्रविष्टि को !
लगता है बेचारे पर होली चढ्गई है.:)
रामराम.
हमेशा की तरह उम्दा पोस्ट।
गीत ने तो मन बाँध ही लिया,पर उसकी जो विवेचना की है आपने….वाह !!!
सचमुच यह गीत केवल चित्ताकर्षक ही नहीं बल्कि ग्रामीण परिवेश में परिवार के मध्य स्थित नारी की स्थिति भी बखूबी बयां करती है…
“तोरे संग देउरा मनइहौं फगुनवा,
मनइहौं फगुनवा,
जइसै वीरनवा मनावैं सवनवां,
भौजी तोरी मइया तू मोरो ललनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा| ”
शील का जिस प्रकार से संवहन किया गया है इनमे…ओह्ह्ह !!! कमाल का है…
लाजवाब पोस्ट है…लाजवाब…आपका बहुत बहुत आभार इस अद्भुद पोस्ट के लिए…कुछ न कहते हुए भी इस एक गीत के बहाने कितना कुछ कह दिया आपने…
अबतक इस तरह के रिश्तों में हँसी ठिठोली ही मूल भाव उभर कर आता था, लेकिन इस पोस्ट से भौजाई की संशय में पड़ी मनोवृत्ति बड़े मुखर ढंग से सामने आई है..
अवधी-भोजपुरी क्षेत्र में पला बढ़ा होने के बावजूद इस मनोविज्ञान पर आज तक गौर नहीं किया… अजीब बात है।
ऑफ द रेकार्ड ही सही..
तीनों ने मिलकर इसे एक महत्वपूर्ण पोस्ट बना दिया.. आभार इसे चर्चा में रखने पर..
जय हिंद… जय बुंदेलखंड…
लोक गीत सुनने का अपना ही आनंद है.
बहुत ही सुंदर!आभार.
मनइहौं फगुनवा,
जइसै वीरनवा मनावैं सवनवां,
भौजी तोरी मइया तू मोरो ललनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा|
बहुत ही वास्तविक और जीवंत यथार्थ का परिचय देती इस पोस्ट की एक एक विषय वस्तु। फ़ुरसतिया जी,
बस इसीलिए लोग आपके मुरीद हुआ करते हैं।
सुन्दर अति सुन्दर ! होली पर इससे आला बात नहीं कही जा सकती।
पिछले पोस्ट जो छूट गये थे पढ़ने जा रहा हूँ अब…
नेचर का देखो फैशन शो
-डॉ० डंडा लखनवी
क्या फागुन की फगुनाई है।
हर तरफ प्रकृति बौराई है।।
संपूर्ण में सृष्टि मादकता -
हो रही फिरी सप्लाई है।।1
धरती पर नूतन वर्दी है।
ख़ामोश हो गई सर्दी है।।
भौरों की देखो खाट खाड़ी-
कलियों में गुण्डागर्दी है।।2
एनीमल करते ताक -झाक।
चल रहा वनों में कैटवाक।।
नेचर का देखो फैशन शो-
माडलिंग कर रहे हैं पिकाक।।3
मनहूसी मटियामेट लगे।
खच्चर भी अपटूडेट लगे।।
फागुन में काला कौआ भी-
सीनियर एडवोकेट लगे।।4
इस जेन्टिलमेन से आप मिलो।
एक ही टाँग पर जाता सो ।।
पहने रहता है धवल कोट-
ये बगुला या सी0एम0ओ0।।5
इस ऋतु में नित चैराहों पर।
पैंनाता सीघों को आकर।।
उसको मत कहिए साँड आप-
फागुन में वही पुलिस अफसर।।6
गालों में भरे गिलौरे हैं।
पड़ते इन पर ‘लव’ दौरे हैं।।
देखो तो इनका उभय रूप-
छिन में कवि, छिन में भौंरे हैं।।7
जय हो कविता कालिंदी की।
जय रंग-रंगीली बिंदी की।।
मेकॅप में वाह तितलियाँ भी-
लगतीं कवयित्री हिंदी की।8
वो साड़ी में थी हरी – हरी।
रसभरी रसों से भरी- भरी।।
नैनों से डाका डाल गई-
बंदूक दग गई धरी – धरी।।9
ये मौसम की अंगड़ाई है।
मक्खी तक बटरफलाई है ।।
धोषणा कर रहे गधे भी सुनो-
इंसान हमारा भाई है।।10
सचलभाष-0936069753
वाह! आपके ब्लॉग पर तो अनमोल खजाने हैं .
मैं तो सलाम करता हु आपके इस दिमाग को की कैसे करते हैं ये अद्भुत रचना
मैं तो दीवाना हूँ तो सिर्फ आपकी कविताओ का ||