Saturday, March 20, 2010

…कविता का मसौदा और विश्व गौरैया दिवस

http://web.archive.org/web/20140419215407/http://hindini.com/fursatiya/archives/1306

…कविता का मसौदा और विश्व गौरैया दिवस


मैं पिछले कई दिन से कविताई के मूड में हूं। कविताई के मूड में मतलब कविता लिखने के मूड में। सब मसाला भी सोच रखा है और हर पल लगता है कि बस अब हुआ तब हुआ। कविता निकाल ही देनी चाहिये। अब और देरी ठीक नहीं। वैसे भी अगर कोई पोस्ट(लेख)लिखने का मसौदा मन में हो तो उसको स्थगित करना तो समझ में आता है लेकिन किसी कविता का मजनून तैयार हो इसके बाद भी उसे न लिखना तो घोर गैरजिम्मेदाराना हरकत है न!
वैसे भी कवितायें तो राजधानी एक्सप्रेस की तरह होती हैं। उनको रोका नहीं जाता। प्राकृतिक जरूरत के दबाब की तरह होती है कवितायें। लिखने को ऐसा लिख गया मैं लेकिन ऐसा है नहीं मेरे साथ। भतेरी कवितायें मजनून मजमून के रूप में मेरे मानस पटल (कवि के लिये ऐसा लिखना बहुत जरूरी होता है भाई :) ) उभरीं। कुछ दिन तक छाईं रहीं और बाद में इधर-उधर हो लीं। अनलिखी कविताओं के मजनून ऐसे लगते हैं कि बस यह तो अल्टीमेट है गुरु! बस प्रस्फ़ुटित होने भर की देरी है और बस छा जाना है इसको!
एक गजल के चार-पांच शेर तो मैंने सड़क पर मोटरसाइकिल रोक कर मोबाइल पर लिखकर रखे। एक दोस्त को भेज भी दिये तुरंत ताकि सनद रहे कि हम कित्ते घणे रचनात्मक क्षणों से पंजे लड़ाते हुये मोटर साइकिल चला रहे हैं। वो तो अच्छा हुआ मेरे मोबाइल की बैटरी ने समाज का सहयोग किया और उसी समय चुक गयी वर्ना क्या अचरज कि इस पैरा की जगह आपको उस गजल का लिंक मिल गया होता अब तक। यह अलग बात है कि आप बिना उसे क्लिक किये आगे निकल लिये होते और अनजाने में एक कालजयी रचना के उपेक्षा के बवाल में नामजद हो जाते। :)
बहरहाल, अभी जो मसौदा है मन में उसे आपके साथ शेयर करता हूं। मैं लगभग तय ही कर चुका हूं कि इस मजमून पर कविता लिखे बिना मानूंगा नहीं चाहे धरती इधर से उधर हो जाये। वो तो ऐसे भी होती ही रहती है। आज बराबरी से होगी। दिन और रात बराबर होते हैं न आज के दिन।
मजमून कुछ यूं है कि कवि आयेगा और बिना किसी भूमिका के शुरु हो जायेगा। कविता में वह एक पारिवारिक सीन खींचेगा। उस सीन में मां है, पत्नी है, बच्चे हैं और पति भी है जिसने जबरियन कवि की भूमिका पर भी कब्जा कर रखा है। कवि कल्पनालोक में है जहां विचरण का कोई किराया तो पड़ता नहीं है। लिहाजा वो इधर से उधर, उधर से और उधर, और उधर से और और उधर मतलब कि न जाने कि किधर-किधर दौड़ा-भागा कर रहा है। उसकी दौड़ा-भागी देखकर लगता है कि बच्चों को अगर ब्राउनियन मोशन के बारे में बताना हो तो बताया जा सकता है कि बालकों ब्राउनियन मोशन में गैस में निलंबित छोटे कण उसी तरह से इधर-उधर न जाने किधर-किधर भागते रहते हैं जिस तरह किसी कोई कवि कल्पना लोक में अपनी कल्पनाओं की गठरिया लिये इधर-उधर डांय-डांय घूमता रहता है।
बहरहाल बात कविता की हो रही है तो उसी पर टिका जाये। तो इस घणी पारिवारिक कविता में शुरुआत पत्नी से होती है जिसकी एकमात्र शिकायत है कि पिछले बीस-बाइस सालों वो पति को स्मार्ट नहीं बना पायी। पति उसे खिझाने के लिये जानबूझकर नेचुरल बना रहता है। हमेशा डाई देर से करता है। कपड़ों की मैंचिंग अभिरुचि नहीं सीख पाया है। जैसा मिला था वैसा ही बना हुआ है अभी तक। ये नहीं कि उन भाई साहब की तरह हमेशा चिट बना रहे।
बस जहां कविता यहां से शुरु हुई फ़िर न पूछों भैया। फ़िर तो आइडियों की भगदड़ मच जाती है। कित्ते आइडिये घायल हो जाते हैं, कित्ते अपना लोक सुधार कर परलोक की यात्रा पर निकल लेते हैं। पत्नी की शिकायत के बाद बच्चे मोर्चा संभालते हैं। वे मम्मी-पापा दोनों को आड़े हाथों लेते हैं कि वे बच्चों को हमेशा ऐसा-वैसा न जाने कैसा-कैसा कहते रहते हैं। पत्नी बच्चों को उलाहना देती है कि वे न ठीक से खाते हैं न ठीक से कोई काम करते हैं। पढ़ने की तो खैर बात ही छोड़ दो। बच्चे आक्रमण ही धांसू बढिया बचाव है की नीति के अनुसार अपनी मां पर हावी होने की कोशिश करते हैं -आप एकदम टिपिकल मम्मी हो। हमेशा डांटती रहती हो।
पति इस बीच मौका निकाल कर मुस्कराते हुये राहत की पचीस-तीस सांसे खींच लेता है ताकि अगले हमले का मुकाबला करने में आक्सीजन की कमी न महसूस हो।
चूंकि मामला पारिवारिक है इसलिये अम्माजी की भी कोई बात कवि जरूर कहेगा। कवि अम्मा जी से मौके के अनुसार बयान दिलवाता है। उनका लड़का बहुत शैतान है, गैरजिम्मेदार और न जाने कैसा-कैसा है लेकिन उसके जैसा लड़का और कोई नहीं है।
इतना पारिवारिक सीन खींचने में पचीस तीस लाइनें निकल जायेंगी। अगर कवि को लगेगा लाइने कम हैं तो वो बड़ी लाइनों को काट-काटकर उनसे छोटी-छोटी दो-तीन चार छोटी लाइनें निकाल लेगा। अगर उसको लगा लाइनें ज्यादा हो गयीं तो वो उनको जोड़-जाड़कर तीन-चार लाइनों को एक में नत्थी कर देगा। इसके बाद कवि बेचैन हो जायेगा कि कविता को खत्म कैसे किया जाये। कवि की सबसे बड़ी परेशानियों में एक यह ही होती है कि वह कविता खत्म कैसे करे। है कि नहीं!

लेकिन नहीं भाई साहब यहीं तो गड़बड़ है आपकी समझ में। आपकी समझ को गड़बड़ कहें तो शायद आप बुरा मान जाओ और एकाध पोस्ट लिखकर अपने ब्लॉग पर फ़नफ़नाते रहें कई दिनों तक। इसलिये पहले वाले वाक्य में आपकी समझ की जगह हमारी समझ पढ़ लें! बकिया जैसा का तैसा रहने दीजिये।
हां तो हम कह रहे थे कि यही तो गड़बड़ है हमारी समझ में! कवि ने यहां अंत पहले ही सोच रखा है। इसीलिये तो वह कविता लिखने की सोच रहा है। वह कवि कवि नहीं होता जिसने कविता की शुरुआत से पहिले उसका अंत नहीं सोचा होता है। कवि हमेशा कविता तब ही शुरु करता है जब वह उसका अंत सोच चुका होता है। इससे अलग रूटीन पर चलने वाले कवि के कविता प्रयासों के बारे में हम कुछ नहीं कहना चाहते। न आप सुनना चाहते होगें।
हां तो कवि इस पारिवारिक कविता का अंत कुछ यूं सोचे बैठा है। बातचीत और घरेलू मसखरी के दौरान कविनुमा पति आरोप-प्रत्यारोप की रस्म निभाने के लिये पत्नी से भी कुछ मौज लेता है और कुछ उसकी कुछ भी कमियां गिनाने लगता है। इस वीरता पूर्ण काम की शुरुआत में ही वह पत्नी को देखकर लटपटा जाता है और कुछ अटपटे शब्द बोल जाता है। बस्स! सब खिलखिलाने लगते हैं। हंसी-ठहाके का दौर चल निकलता है और छा जाता है।
यहीं कविजी अपनी कामना का बिरवा कविता में रोप देते हैं और कहते हैं- ये हंसते,खिलखिलाते क्षण छा जायें सारे जीवन के वितान में। यह अटपटापन हमेशा बना रहे जीवन में। आदि-इत्यादि! वगैरह-वगैरह!
इसी तरह के और कुछ खुशनुमा बातें ठेलकर कवि महोदय कोई घरेलू सा शीर्षक देकर उन श्रोताओं/पाठकों के सामने पटक देंगे जिसे वे पेश करना कहते हैं। अगर ऐन मौके पर स्मृति पट भड़भड़ा उठे तो कहो कवि किसी का शेर भी ठेल दें जिसका कविता से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं हो! जैसे कि यही वाला देख लीजिये:
अपनी खुशी के साथ मेरा गम भी निबाह दो,
इतना हंसो कि आंख से आंसू छलक पड़ें।
अब देखिये है न ज्यादती वाली बात! किसी को हंसते देख लिया तो अपनी गम-गठरिया लाद दी उसके ऊपर-भैया इसऊ को लादे चलो नेक!
इसी मजनून कच्चे माल से दूसरे लोग दूसरी तरह की कवितायें निकाल सकते हैं। करुणा सम्प्रदाय के लोग हंसते खिलखिलाते सीन के बाद एक लुटे-पिटे व्यक्ति का सीन लगा कर समाज में विसंगति का ऐसा जोरदार सीन खैंच देंगे कि हंसते-खिलखिलाते लोग अपराध बोध में गले तक डूब जायें।
हर रकम का कवि अपने यहां उपलब्ध प्रोसेसिंग प्रक्रिया के हिसाब से इस कच्चे माल का उपयोग करेगा। कवितायें ऐसे ही प्रस्फ़ुटित होती हैं।
आपका भी मन कर रहा है क्या कोई कविता लिखने का? लिख डालिये। मौका भी , मजनून है और दस्तूर तो हैइऐ!

मेरी पसंद

आज प्रथम विश्व गौरैया दिवस है। इस मौके पर गौरैया के बारे में कुछ लिखने की सोच रहा था लेकिन लिख नहीं पाया। ले-देकर एक ठो कविता याद आई जिसे मैंने जब लिखा था तब यह भी अकल नहीं थी कि गौरैया आम तौर पर आंगन में आती थीं ,पिंजड़े में नहीं रहती थी। महिलाओं की स्थिति की बारे में सोचते हुये ऐसे ही लिखी गयी लाइने फ़िर से ऐसे ही पेश कर रहा हूं। जब यह कविता लिखी गयी थी तबसे महिलाओं की हालत बहुत बदली है लेकिन उनका बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी वैसा ही है जैसा इसे लिखते समय था।
मैं ,
अक्सर,
एक गौरैया के बारे में सोचता हूं,
वह कहाँ रहती है -कुछ पता नहीं।
खैर, कहीं सोच लें,
किसी पिजरें में-
या किसी घोसले में,
कुछ फर्क नहीं पड़ता।
गौरैया ,
अपनी बच्ची के साथ,
दूर-दूर तक फैले आसमान को,
टुकुर-टुकुर ताकती है।
कभी-कभी,
पिंजरे की तीली,
फैलाती,खींचती -
खटखटाती है ।
दाना-पानी के बाद,
चुपचाप सो जाती है -
तनाव ,चिन्ता ,खीझ से मुक्त,
सिर्फ एक थकन भरी नींद।
जब कभी मुनियाँ चिंचिंयाती है,
गौरैया -
उसे अपने आंचल में समेट लेती है,
प्यार से ,दुलार से।
कभी-कभी मुनिया गौरैया से कहती होगी -
अम्मा ये दरवाजा खुला है,
आओ इससे बाहर निकल चलें,
खुले आसमान में जी भर उड़ें।
इस पर गौरैया उसे,
झपटकर डपट देती होगी-
खबरदार, जो ऐसा फिर कभी सोचा,
ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।
अनूप शुक्ल
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27 responses to “…कविता का मसौदा और विश्व गौरैया दिवस”

  1. Dr.Manoj Mishra
    कभी-कभी मुनिया गौरैया से कहती होगी -
    अम्मा ये दरवाजा खुला है,
    आओ इससे बाहर निकल चलें,
    खुले आसमान में जी भर उड़ें।
    इस पर गौरैया उसे,
    झपटकर डपट देती होगी-
    खबरदार, जो ऐसा फिर कभी सोचा,
    ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।…..
    बेहतरीन भावाभिव्यक्ति.
  2. गिरिजेश राव
    भतेरी और मजनून जान बूझ कर प्रयोग किए हैं या …?
    पढाई जारी है।
  3. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    इतना धाँसू …? बाप रे बाप।
    कविता! तेरी महिमा अपरम्पार है।
  4. गिरिजेश राव
    @ जैसा मिला था वैसा ही बना हुआ है अभी तक। – बहुत अड़ियल है।
    @ कवि की सबसे बड़ी परेशानियों में एक यह ही होती है कि वह कविता खत्म कैसे करे। – आप को कैसे पता चला?:)
    @वह कवि कवि नहीं होता जिसने कविता की शुरुआत से पहिले उसका अंत नहीं सोचा होता है। कवि हमेशा कविता तब ही शुरु करता है जब वह उसका अंत सोच चुका होता है। – उपर से विरोधाभास
    @करुणा सम्प्रदाय के लोग हंसते खिलखिलाते सीन के बाद एक लुटे-पिटे व्यक्ति का सीन लगा कर समाज में विसंगति का ऐसा जोरदार सीन खैंच देंगे कि हंसते-खिलखिलाते लोग अपराध बोध में गले तक डूब जायें। – करुणा सम्प्रदाय, प्रगतिवादी और बाद के ढेर सारे बकवादी ..हा हा हा
    @ जब यह कविता लिखी गयी थी तबसे महिलाओं की हालत बहुत बदली है लेकिन उनका बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी वैसा ही है जैसा इसे लिखते समय था। – asymptotic curve कभी लक्ष्य रेखा को स्पर्श नहीं करता लेकिन बस उठते ही जाता है। यह चहकन और उड़न पसरती रहे।…
    हाँ, गौरैया पिंजरे में नहीं रहती।
  5. कृष्ण मुरारी प्रसाद
    संवेदनशील …प्रस्तुति…..
    ………………………
    विश्व गौरैया दिवस– गौरैया…तुम मत आना..
    http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_20.html
  6. दिनेशराय द्विवेदी
    भैया अपुन का जब भी कविता करने का मन करता है एक छिन को भी नहीं रुकते, तुरंत कर डालते हैं। कविता तो वह नवाँ आवेग है जिस को रोक दो तो प्रज्ञापराध हो जाता है।
  7. विवेक सिंह
    जब आपकी कविता देखी तो जोश में हमने भी लिख मारी एक ।
  8. काजल कुमार
    :)
  9. विनोद कुमार पांडेय
    बढ़िया मूड में बढ़िया रचना..धन्यवाद..
  10. sushila puri
    अनूप जी ! मान गई आज आपको !!!!!!! आज से गुरु आप ……, गौरय्या का प्रतीक लेकर आपने हम स्त्रियों का जो इतिहास रचा है वह नमन करने योग्य है . मै तो चकित हूँ इस बात पर की कविता लिखने के पहले जो आपने इतनी लंबी भूमिका लिखी ,उसको लिखने के लिए धीरज कहाँ से लाते हैं ??? कवियों की धज्जियाँ उड़ाते हुये अंततः खुद भी कवि हो गए न ?
  11. anitakumar
    यह अलग बात है कि आप बिना उसे क्लिक किये आगे निकल लिये होते और अनजाने में एक कालजयी रचना के उपेक्षा के बवाल में नामजद हो जाते। :)
    हा हा
    आज विश्व गौरैया दिवस है? हमें तो पता ही नहीं था नहीं तो एक दो कविता तो हम भी ठेल देते, गौरैया भी क्या याद करती…मस्त पोस्ट
  12. aradhana "mukti"
    हमेशा की तरह बहुतै धाँसू. कुछ लाइनें जो मुझे बहुत पसन्द आयीं–
    -प्राकृतिक जरूरत के दबाब की तरह होती है कवितायें।
    -किसी को हंसते देख लिया तो अपनी गम-गठरिया लाद दी उसके ऊपर-भैया इसऊ को लादे चलो नेक!
    -करुणा सम्प्रदाय के लोग हंसते खिलखिलाते सीन के बाद एक लुटे-पिटे व्यक्ति का सीन लगा कर समाज में विसंगति का ऐसा जोरदार सीन खैंच देंगे कि हंसते-खिलखिलाते लोग अपराध बोध में गले तक डूब जायें।
    और गौरैया की कविता में से–
    -खबरदार, जो ऐसा फिर कभी सोचा,
    ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।
    और हाँ, गिरिजेश जी की बात सही है, गौरैया कभी पिंजरे में नहीं रहती. ज़रूरत ही नहीं पड़ती. पिंजरे में उन पक्षियों को रखा जाता है, जिनके उड़ जाने का डर हो और गौरैया तो हमेशा घर के आस-पास रहती है. गौरैया और कबूतर दो ऐसे पक्षी हैं, जो हमेशा मनुष्यों के साथ ही रहते हैं.
    सबसे अच्छी लाइन मुझे मेरे लिये लगी–प्राकृतिक जरूरत के दबाब की तरह होती है कवितायें। मुझे कविता वैसे ही लगती है, जैसे भूख लगती है. जब आती है, तो बस लिख देती हूँ, तुरंत, ज्यों का त्यों, कोई काँट-छाँट किये बिना. मुझे बगीचे से ज्यादा जंगल पसन्द हैं.
  13. वन्दना अवस्थी दुबे
    अच्छा! कविता लिखने के लिये इतना माहौल बनाना पड़ता है? समझ में आ गई पूरी प्रक्रिया.
    मैने पहले भी कहा है, आज फिर दोहरा रही हूं कि आप बहुत-बहुत अच्छी कवितायें लिखते हैं . नियमित कविता लिखा करें, लेकिन क्या करें, बड़ए लोग छोटी-छोटी बातों पर ध्यान कहां देते हैं?
    कभी-कभी मुनिया गौरैया से कहती होगी -
    अम्मा ये दरवाजा खुला है,
    आओ इससे बाहर निकल चलें,
    खुले आसमान में जी भर उड़ें।
    इस पर गौरैया उसे,
    झपटकर डपट देती होगी-
    खबरदार, जो ऐसा फिर कभी सोचा,
    ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।
    क्या कहूं? उस बेअक्ली की उम्र में जब इतनी सुन्दर-सार्थक कविता लिखी है तो आज के लिये क्या कहूं?
  14. dr anurag
    कवितायें तो राजधानी एक्सप्रेस की तरह होती हैं। उनको रोका नहीं जाता।
    ताकि सनद रहे कि हम कित्ते घणे रचनात्मक क्षणों से पंजे लड़ाते हुये मोटर साइकिल चला रहे हैं
    कोई कवि कल्पना लोक में अपनी कल्पनाओं की गठरिया लिये इधर-उधर डांय-डांय घूमता रहता है।
    फ़िलहाल तो इन पंक्तियों को बांच कर सोच रहा हूँ ……के ये कवि नुमा प्राणी कित्ती खतरनाक चीज़ लगता है …..
  15. Abhishek
    ब्राउनियन मोशन का बढ़िया प्रयोग :)
  16. pankaj upadhyay
    वाह ऐसे कवि तो क्रान्ति ला दे… सरकार सोचते तो हम भी है कि सबेरे सबेरे एक खादी का झोला टागकर निकल जाय कही दूर..और ऐसे ही लाईन्स लिखते रहेगे…लेकिन डर जाते है कि जब वापस आना होगा तब सब कुछ यही रहेगा या ये भी कही दूर जा चुका होगा…. सो बस लाईने आती है और सीने मे दफ़न हो जाती है…
    वैसे आप लिखते दिल खोलकर है..कोई ऎ वे पढना चाहे तो सिर्फ़ nice बोलकर निकल ले..दुबारा आ रहा हू.. पहली बार चुपचाप चला गया था… nice नही बोलना चाह रहा था :P
  17. Manoj Kumar
    @ प्राकृतिक जरूरत के दबाब की तरह होती है कवितायें।
    कविता के ऊपर टिप्पणी दूँ या कविता के ऊपर (पहले) जो गद्य लिखा है उस पर। इसी ऊहापोह में हूँ। वैसे कवि लोगों की आदत होती है कि वे कविता सुनाने के पहले काफी लंबा खींच लेते हैं। इस लिहाज से आप कवि तो हैं ही पर वो “प्राकृतिक जरूरत के दबाब” के हिसाब से नहीं। दवाब बन जाए तो देरी … अच्छी बात नहीं। हां वह गद्य भी कवितामय ही है।
    सरलता और सहजता का अद्भुत सम्मिश्रण बरबस मन को आकृष्ट करता है। गौरैयों के जीवन से जुड़ी इस कविता में आस्था और आशावादिता से भरपूर स्वर मुखरित हुए हैं। आपका यह प्रस्तुत करने का अलग और नया अंदाज काफ़ी रोचक है। मानवीय संवेदना की आंच में सिंधी हुई इस तरह की कविताएं हमें मानवीय रिश्ते की गर्माहट प्रदान करती है।
  18. Gyan Dutt Pandey
    अपना कविता का हाजमा ज्यादा पुष्ट नहीं है। पर आठ दस छटांक कविताई का मूड खरीदने की सोच रहा हूं। कहें तो बचपना ही सही!
  19. समीर लाल
    आपकी यह कविता शुरु से प्रभावित करती आई है.
    विश्व गौरेया दिवस की शुभकामनाएँ.
  20. amrendra nath tripathi
    बड़ी देर से आया , गौरैया तो उड़ गयी !
    अगर तस्तरी भी उड़े ( सन्दर्भ;उड़नतस्तरी ) तो गौरैया बिना उड़े कैसे रह सकती है !
    कोई कैद उसे नहीं सुहाती !
    सुन्दर प्रविष्टि , आभार !
  21. शरद कोकास
    मुनिया गौरय्या और अम्मा गौरय्या के बिम्ब मे आपने स्त्री की ममता ,उसकी सोच महत्वाकान्क्षा और उसकी विवशता चित्रित किया है । यह बहुत सुन्दर चित्र है ।
    मोटर्साइकल पर आपकी रचना प्रक्रिया के विषय में पढकर आनन्द आया । हम लोगों के साथ भी ऐसी स्थिति कई बार आती है ।
  22. अजित वडनेरकर
    राजधानी एक्सप्रेस वाली नहीं, एक ठो, बल्कि दस ठौ गगनविहारी एक्सप्रेस वाली कविताई हो जाए…
    गगनविहारी मनकी समझे कि ना…
  23. Saagar
    सबको लपेट लिया… हें, हें, हें, हें !
    मस्त लिखा है… सुन्दर अभिव्यक्ति बधाई :)
    अखबार में एक दिन एक सूक्ति पढ़ी थी “मजाक, सिरिअस बातों को कहने का तरीका है” आपकी पोस्ट पढ़कर याद आया…
  24. bhootnath
    waah…waah….kyaa baat hai bhyi…….laajawaab……!!
  25. shefali
    ye bhi khoob rahee…..
  26. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] …कविता का मसौदा और विश्व गौरैया दिवस [...]
  27. Padm Singh पद्म सिंह
    कुल मिला कर अद्भुद है ….मने गजब
    Padm Singh पद्म सिंह की हालिया प्रविष्टी..मगर यूं नहीं

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