http://web.archive.org/web/20140419214328/http://hindini.com/fursatiya/archives/1963
कथनी और करनी के बीच अंतर की बात पर अक्सर हल्ला मचता रहता है।
वे कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं।
आपने कहा तो यह था लेकिन कर वो रहे हैं।
उनके काम और बयान में आपस में छत्तीस का आंकड़ा है।
सोचने की बात है कि ऐसा क्यों होता है? कथनी और करनी के बीच देश के चहुंमुखी विकास और आम जनता की स्थिति सरीखा अंतर क्यों होता है?
कहने में केवल जबान हिलानी पड़ती है। करने में शरीर डुलाना पड़ता है। जबान सौ ग्राम की होती है। शरीर सौ किलो का हो सकता है। दोनों के वजन में हजार गुने का अंतर है। जब स्रोत में हजार गुने का अंतर है तो उसके उत्पाद में कुछ न कुछ अंतर तो स्वाभाविक है।
जबान छोटी होती है। उसके मुकाबिले शरीर बड़ा। जबान जो कहती होगी उसकी सूचना शरीर के पास सूचना (बजरिये दिमाग) भेज देती होगी- यह कहा गया है। कृपया इसका निष्पादन सुनिश्चित करिये।
शरीर बड़ा है। वह जबान की सूचना को उसी तरह ग्रहण करता है जैसे दफ़्तर में बड़ा अधिकारी छोटे की सूचना को ग्रहण करता है। कभी-कभी देख लेता है कि कहीं इसमें दिमाग की सिफ़ारिश तो नहीं नत्थी है। सिफ़ारिश होती है तो थोड़ा हिलता-डुलता है। वर्ना सूचना को इधर-उधर सरका देता है। इसके बाद निढाल होकर पड़ जाता है।
इस बीच जबान अगली सूचना भेज देती है। पहले के विपरीत- कृपया इसका निष्पादन सुनिश्चित करिये। इसके लिये बयान जारी किया जा चुका है।
शरीर और निढाल होकर पड़ जाता है। अब तो उसके पास बहाना भी है कि दो बातें एक-दूसरे के विपरीत हैं। शरीर के पास अकल नहीं लेकिन काम न करने का निर्णय लेने भर की समझ उसने विकसित कर ली है। जबान और शरीर में कार्यक्षमता का अभाव है। तारत्मय का अभाव है। जबान जितना फ़ड़फ़डा सकती है, शरीर उतना करने की सोचकर ही लड़खड़ाने लगता है।
कथनी और करनी के बीच अंतर का मूल कारण जबान और शरीर की कार्यक्षमता का अंतर है। उनके बीच तारतम्य का अभाव है।
अक्सर आज के समय की पुराने समय से तुलना कर दी जाती है। आज कथनी और करनी का अंतर पहले के मुकाबले बढ़ गया है।
ऐसा समाज की बढ़ती आधुनिकता और विकास के चलते हुये है। पहले किसी काम की जो योजना बनाता था वही करता था। एक ही व्यक्ति पीर, बाबर्ची, भिस्ती, खर होता था।
आज योजना का प्रस्ताव कोई बनाता है। अनुमोदित कोई दूसरा करता है। करवाता कोई तीसरा है। करता कोई चौथा है। देखता कोई पांचवा है। समीक्षा कोई पांचवा करता है। भुगतान कोई छ्ठा करता है। मजा कोई सातवां करता है। झेलता कोई आठवां है। कथनी और करनी के बीच इतने बिचवानी घुस आये हैं। कथनी करनी का मुंह को देखने को तरस जाती है।
सरल समाज था पहले। एक काम को एक ही आदमी करता था। गड़बड़ी पकड़े जाने पर गड़बड़ी करने वाले को पकड़ना आसान था। आज जटिल समाज है। गड़बड़ करने वाला ही सर्च वारंट लिये गड़बड़ी करने वाले को खोजता रहता है।
बड़े-बड़े देश भी कथनी और करनी के बीच तारतम्य के अभाव में बेचारे बदनाम हो जाते हैं। अमरीका जी देखिये ईराक जी का भला करना चाहते थे। वहां लोकतंत्र की स्थापना करना चाहते थे। वहां गये तो भलाई करने में जो थोड़ा बहुत काम करना होता है। बम-उम बरसाये। लूटपाट हुई। तख्ता-उख्ता पलटा। फ़ांसी-ऊसी दी। ये तो हर भला चाहने वाला देश करता है। बिना लूटतंत्र के कहीं लोकतंत्र स्थापित होता है भला! बिना लूटपाट और गोला-बारूद के भला किसी का भला किया गया है आजतक कहीं। लेकिन वो बेचारा भला देश दुनिया भर में बदनाम हो गया कि वे तो गलत इरादे से वहां घुसे थे।
भाषा और अभिव्यक्ति का अंतर भी कथनी और करनी के बीच अंतर का कारण होता है। परसाईजी ने लिखा है-अमरीकी शासक हमले को सभ्यता का प्रसार कहते हैं.बम बरसते हैं तो मरने वाले सोचते है,सभ्यता बरस रही है!
फ़्रांस लीबिया के लोगों की सहायता करना चाहता है। जनता का भला करने के लिये बम जहाज उड़ा दिये। अब इसको कोई गलत इरादे से घुसना कहे तो यह उसकी समझ है। लोगों को कौन समझाये कि भाई भला करने की फ़ीस तो लेनी ही पड़ती है। न लेव तो लोग और गलत समझते हैं कि इनका क्या इंटरेस्ट है भलाई करने में। भला करने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। मेहनत का फ़ीस तो लेनी ही पड़ती है। बड़े देश जब छोटे देशों की सहायता करते हैं तो अपनी फ़ीस का चेक पहले से काट के धरवा लेते हैं। अक्सर यह फ़ीस कुल भलाई की कीमत से ज्यादा होती है। अच्छा बनने के चक्कर में देश दीवालिया हो जाता है। उसकी हालत तन पर नहीं लत्ता पान खायें अलबत्ता जैसी हो जाती है। लेकिन उसमें भलाई करने वाले का क्या दोष? उसको तो अपना काम करना ही है।
विकसित होते समाज में कथनी और करनी का अंतर होना अपरिहार्य है। किसी समाज की आधुनिकता उसकी कथनी और करनी के अंतर के समानुपाती होती है।
देखिये मोबाइल आने पर हजामत बनवाने वाला अपने को मीटिंग में व्यस्त बताता है। मीटिंग करता आदमी मेसेजिंग में मशगूल रहता है। मेसेजिंग करता आदमी गाना सुनते हुये मुस्कराते हुये अपने साथी को लटके मुंह वाले आइकन को नत्थी करके लिखता है -तुम्हारे बिना मन नहीं लग रहा है। यह कथनी और करनी के अंतर के घराने की ही बातें है। तकनीक आदमी को झूठ बोलने के बहाने मुहैया कराती है।
अब लोग कथनी और करनी के बीच अंतर को परिभाषित करने लगते हैं। कोई कहता है कि कथनी और करनी के पच्चासी पैसे का अंतर है। कोई बढ़ाकर नब्बे पैसे कर देता है। कथनी और करनी के बीच वियोग बता जा रहा है। वे आपस में लैला मजनू हो गये हैं। जालिम जमाना उनको मिलने नहीं देता। कथनी और करनी बिजली के पाजिटिव-निगेटिव फ़ेस से हो गये हैं। इनको लाल-हरे कुचालक की सहायता से अलग रखा जाता है। क्योंकि जहां वे मिलते हैं , फ़ेस उड़ जाता है।
बहुमत कथनी और करनी के बीच अंतर चाहने वालों का है। इस अंतर को पाटने की कोशिश करने वाला मारा जाता है। बदनाम होता है। फ़जीहत झेलता है। इसीलिये कथनी और करनी का अंतर बरकरार है।
है कि नहीं?
कथनी और करनी का अंतर
By फ़ुरसतिया on April 21, 2011
वे कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं।
आपने कहा तो यह था लेकिन कर वो रहे हैं।
उनके काम और बयान में आपस में छत्तीस का आंकड़ा है।
सोचने की बात है कि ऐसा क्यों होता है? कथनी और करनी के बीच देश के चहुंमुखी विकास और आम जनता की स्थिति सरीखा अंतर क्यों होता है?
कहने में केवल जबान हिलानी पड़ती है। करने में शरीर डुलाना पड़ता है। जबान सौ ग्राम की होती है। शरीर सौ किलो का हो सकता है। दोनों के वजन में हजार गुने का अंतर है। जब स्रोत में हजार गुने का अंतर है तो उसके उत्पाद में कुछ न कुछ अंतर तो स्वाभाविक है।
जबान छोटी होती है। उसके मुकाबिले शरीर बड़ा। जबान जो कहती होगी उसकी सूचना शरीर के पास सूचना (बजरिये दिमाग) भेज देती होगी- यह कहा गया है। कृपया इसका निष्पादन सुनिश्चित करिये।
शरीर बड़ा है। वह जबान की सूचना को उसी तरह ग्रहण करता है जैसे दफ़्तर में बड़ा अधिकारी छोटे की सूचना को ग्रहण करता है। कभी-कभी देख लेता है कि कहीं इसमें दिमाग की सिफ़ारिश तो नहीं नत्थी है। सिफ़ारिश होती है तो थोड़ा हिलता-डुलता है। वर्ना सूचना को इधर-उधर सरका देता है। इसके बाद निढाल होकर पड़ जाता है।
इस बीच जबान अगली सूचना भेज देती है। पहले के विपरीत- कृपया इसका निष्पादन सुनिश्चित करिये। इसके लिये बयान जारी किया जा चुका है।
शरीर और निढाल होकर पड़ जाता है। अब तो उसके पास बहाना भी है कि दो बातें एक-दूसरे के विपरीत हैं। शरीर के पास अकल नहीं लेकिन काम न करने का निर्णय लेने भर की समझ उसने विकसित कर ली है। जबान और शरीर में कार्यक्षमता का अभाव है। तारत्मय का अभाव है। जबान जितना फ़ड़फ़डा सकती है, शरीर उतना करने की सोचकर ही लड़खड़ाने लगता है।
कथनी और करनी के बीच अंतर का मूल कारण जबान और शरीर की कार्यक्षमता का अंतर है। उनके बीच तारतम्य का अभाव है।
अक्सर आज के समय की पुराने समय से तुलना कर दी जाती है। आज कथनी और करनी का अंतर पहले के मुकाबले बढ़ गया है।
ऐसा समाज की बढ़ती आधुनिकता और विकास के चलते हुये है। पहले किसी काम की जो योजना बनाता था वही करता था। एक ही व्यक्ति पीर, बाबर्ची, भिस्ती, खर होता था।
आज योजना का प्रस्ताव कोई बनाता है। अनुमोदित कोई दूसरा करता है। करवाता कोई तीसरा है। करता कोई चौथा है। देखता कोई पांचवा है। समीक्षा कोई पांचवा करता है। भुगतान कोई छ्ठा करता है। मजा कोई सातवां करता है। झेलता कोई आठवां है। कथनी और करनी के बीच इतने बिचवानी घुस आये हैं। कथनी करनी का मुंह को देखने को तरस जाती है।
सरल समाज था पहले। एक काम को एक ही आदमी करता था। गड़बड़ी पकड़े जाने पर गड़बड़ी करने वाले को पकड़ना आसान था। आज जटिल समाज है। गड़बड़ करने वाला ही सर्च वारंट लिये गड़बड़ी करने वाले को खोजता रहता है।
बड़े-बड़े देश भी कथनी और करनी के बीच तारतम्य के अभाव में बेचारे बदनाम हो जाते हैं। अमरीका जी देखिये ईराक जी का भला करना चाहते थे। वहां लोकतंत्र की स्थापना करना चाहते थे। वहां गये तो भलाई करने में जो थोड़ा बहुत काम करना होता है। बम-उम बरसाये। लूटपाट हुई। तख्ता-उख्ता पलटा। फ़ांसी-ऊसी दी। ये तो हर भला चाहने वाला देश करता है। बिना लूटतंत्र के कहीं लोकतंत्र स्थापित होता है भला! बिना लूटपाट और गोला-बारूद के भला किसी का भला किया गया है आजतक कहीं। लेकिन वो बेचारा भला देश दुनिया भर में बदनाम हो गया कि वे तो गलत इरादे से वहां घुसे थे।
भाषा और अभिव्यक्ति का अंतर भी कथनी और करनी के बीच अंतर का कारण होता है। परसाईजी ने लिखा है-अमरीकी शासक हमले को सभ्यता का प्रसार कहते हैं.बम बरसते हैं तो मरने वाले सोचते है,सभ्यता बरस रही है!
फ़्रांस लीबिया के लोगों की सहायता करना चाहता है। जनता का भला करने के लिये बम जहाज उड़ा दिये। अब इसको कोई गलत इरादे से घुसना कहे तो यह उसकी समझ है। लोगों को कौन समझाये कि भाई भला करने की फ़ीस तो लेनी ही पड़ती है। न लेव तो लोग और गलत समझते हैं कि इनका क्या इंटरेस्ट है भलाई करने में। भला करने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। मेहनत का फ़ीस तो लेनी ही पड़ती है। बड़े देश जब छोटे देशों की सहायता करते हैं तो अपनी फ़ीस का चेक पहले से काट के धरवा लेते हैं। अक्सर यह फ़ीस कुल भलाई की कीमत से ज्यादा होती है। अच्छा बनने के चक्कर में देश दीवालिया हो जाता है। उसकी हालत तन पर नहीं लत्ता पान खायें अलबत्ता जैसी हो जाती है। लेकिन उसमें भलाई करने वाले का क्या दोष? उसको तो अपना काम करना ही है।
विकसित होते समाज में कथनी और करनी का अंतर होना अपरिहार्य है। किसी समाज की आधुनिकता उसकी कथनी और करनी के अंतर के समानुपाती होती है।
देखिये मोबाइल आने पर हजामत बनवाने वाला अपने को मीटिंग में व्यस्त बताता है। मीटिंग करता आदमी मेसेजिंग में मशगूल रहता है। मेसेजिंग करता आदमी गाना सुनते हुये मुस्कराते हुये अपने साथी को लटके मुंह वाले आइकन को नत्थी करके लिखता है -तुम्हारे बिना मन नहीं लग रहा है। यह कथनी और करनी के अंतर के घराने की ही बातें है। तकनीक आदमी को झूठ बोलने के बहाने मुहैया कराती है।
अब लोग कथनी और करनी के बीच अंतर को परिभाषित करने लगते हैं। कोई कहता है कि कथनी और करनी के पच्चासी पैसे का अंतर है। कोई बढ़ाकर नब्बे पैसे कर देता है। कथनी और करनी के बीच वियोग बता जा रहा है। वे आपस में लैला मजनू हो गये हैं। जालिम जमाना उनको मिलने नहीं देता। कथनी और करनी बिजली के पाजिटिव-निगेटिव फ़ेस से हो गये हैं। इनको लाल-हरे कुचालक की सहायता से अलग रखा जाता है। क्योंकि जहां वे मिलते हैं , फ़ेस उड़ जाता है।
बहुमत कथनी और करनी के बीच अंतर चाहने वालों का है। इस अंतर को पाटने की कोशिश करने वाला मारा जाता है। बदनाम होता है। फ़जीहत झेलता है। इसीलिये कथनी और करनी का अंतर बरकरार है।
है कि नहीं?
Posted in बस यूं ही | 34 Responses
और पूरी सत्यता के साथ बिना अपनी परवाह किये हुए, वाकई बहुत सुंदरता के साथ बड़ी गहरी बात कह दी आपने…
Amit Srivastava की हालिया प्रविष्टी..शब्दों के खनकते सिक्के
तन पर नहीं लत्ता पान खायें अलबत्ता का एक देशी वर्जन भी है -
जहां निज ***वहां भगई नाईं
बहुमत कथनी और करनी के बीच अंतर चाहने वालों का है। इस अंतर को पाटने की कोशिश करने वाला मारा जाता है। बदनाम होता है। फ़जीहत झेलता है। इसीलिये कथनी और करनी का अंतर बरकरार है।
……एक की करनी दूसरे के लिए कथनी बन जाती है। आपने मेहनत किया, पोस्ट लिखा। मैने कथनी समझा, मजा लिया।
vijay gaur की हालिया प्रविष्टी..नियंत्रित अराजकता के विरोध में
पर अज्ज कविता कित्थे है जी? ओ नहीं दिखदी अज्ज, न कविता न गज़ल।
संजय @ मो सम कौन? की हालिया प्रविष्टी..शिकार – एक लघुकथा
किसी सामाजिक घटना की ऐसी गणितीय विवेचना पहली बार पढ़ी
मज़ा आ गया ,,,,ये तो सही है कि विरले ही ऐसे होंगे जिन की कथनी और करनी में
कभी न कभी कोई अंतर न हुआ हो ,,,,लेकिन मनुष्य के इस मनोविज्ञान का इतने रोचक ढंग से आप ही विश्लेषण कर सकते हैं
बधाई !
और बढेगा भी……….
पाई लागूं.
पिद्दी न पिद्दी का शोरबा ….साली खुद करले जाकर बहुत जरूरी लग रहा है तो …
हाँ ! दिमाग ( बास ) का आदेश, नत्थी देखकर मजबूर हो जाता हूँ मगर आखिरकार बॉस को भी थोड़ी जद्दोजहद के बाद समझाने में कामयाब हो ही जाता है
क्या विवेचना की है अनूप भाई ! मान गए आपको गुरु ! क्या फितरती बॉस पाया है आपने
शुभकामनायें आपको और इस लेख के लिए बधाई !
Nishant की हालिया प्रविष्टी..व्यक्तित्व विकास – पाठक व कर्ता में अंतर
कथनी और करनी के अँतर मॆं ही जीवन का सार है, बच्चा ।
इसे पाटने में सफ़लता प्राप्त कर लेने वाला मोक्षावस्था को प्राप्त होता है, वत्स !
aradhana chaturvedi की हालिया प्रविष्टी..खुश रहने की कुछ वजहें
अभय तिवारी की हालिया प्रविष्टी..अन्ना – भ्रष्टाचार – लोकपाल
“कथनी और करनी के बीच अंतर का मूल कारण जबान और शरीर की कार्यक्षमता का अंतर है। उनके बीच तारतम्य का अभाव है।”
सही. जबान कुछ कहती है और शरीर कुछ और करता है. एक भी वादा पूरा नहीं होता जबान का( नेताओं का)
“कथनी और करनी के बीच इतने बिचवानी घुस आये हैं। कथनी करनी का मुंह को देखने को तरस जाती है।”
हर जगह बिचवानी हैं, तो यही जगह क्यों छूटे?
“आज जटिल समाज है। गड़बड़ करने वाला ही सर्च वारंट लिये गड़बड़ी करने वाले को खोजता रहता है।”
इसीलिये तो गड़बड़ करने वाला पकड़ा नहीं जाता
“परसाईजी ने लिखा है-अमरीकी शासक हमले को सभ्यता का प्रसार कहते हैं.बम बरसते हैं तो मरने वाले सोचते है,सभ्यता बरस रही है!”
परसाई जी तो ऐसा ऐसा लिख गये हैं, कि बस आदर्श वाक्य बनाने को जी चाहता है
“तकनीक आदमी को झूठ बोलने के बहाने मुहैया कराती है।”
सही है.हमने भी किया है कई बार ऐसा इस्तेमाल.
“मुस्कराते हुये अपने साथी को लटके मुंह वाले आइकन को नत्थी करके लिखता है -”तुम्हारे बिना मन लग रहा है।”
सर जी मन लग रहा है, या मन नहीं लग रहा??
——–
वैज्ञानिक दृष्टिकोण नज़र आये …एक ओर तंत्रिका तंतु विज्ञान के ज्ञान का प्रयोग ….तो दूसरी ओर …भौतिकी ..के फेज .हरे – लाल चालक कुचालक!..वाकई तकनीक ने बहाने के बहाने सिखा दिए हैं…
…………………
अंतर सम्बंधित सभी उदाहरण समझ आये परन्तु पैसे से क्यूँ अंतर नापा गया ..पैसे तो वैसे भी चलने बंद हो गए हैं ..रूपये की बात होनी चाहिए थी.
——-
मेरे विचार में लत्ता वाली लोकोक्ति में अलबत्ता की जगह कलकत्ता होना चाहिए …तभी उसका वज़न बढ़ेगा!
———
कथनी रही हमेशा सच की, पर करनी रही हमेशा झूठ की
जिससे मतलब सधा सच कहूँ उसी से जीवन में प्रीति लगाई
तभी तो छोटी सी जिंदगी में, बड़ी बड़ी इमारतें बनाई।
ज़िंदगी झंड बा, फिर भी घमंड बा…
जय हिंद…
कथनी और करनि का अंतर बढ़ता जाएगा
चंद्र मौलेश्वर की हालिया प्रविष्टी..अज़ीम प्रेमजी – Azim Premji
जबान और शरीर साठवा में सिफारिशी दमागौ का
असली आशीष श्रीवास्तव ‘खालीपीली वाले’ की हालिया प्रविष्टी..मानक प्रतिकृति- ब्रह्माण्ड की संरचना भाग ४
लाख रुपे की बात है ,आपने फ्री में बता दी |आना और पढना सफल हुआ |
@ खाली पीली वाले आशीष,
भई, नकली तो हम भी नहीं ,आप झालिया वाले हो और हम जबलपुर वाले |
-आशीष श्रीवास्तव
किहनी खतम!
Gyan Dutt Pandey की हालिया प्रविष्टी..बाल पण्डितों का श्रम
Abhishek की हालिया प्रविष्टी..खिली-कम-ग़मगीन तबियत भाग २
सतीश चन्द्र सत्यार्थी की हालिया प्रविष्टी..दुनिया की सबसे बेहतरीन और तेज इंटरनेट सेवा