रात देर लौटकर आये। आराम से बतियाते हुए सो गए। सबेरे-सबेरे लगा कि कोई खिड़की खड़खड़ा रहा है। देखा तो हवा थी। शायद हमको उलाहना दे रही थी कि यहां क्या सोने आये हो? उठो, निकलो, देखो बाहर के नजारे। अभी मुफ्त हैं, क्या पता कल टैक्सिया जाएं।
छह बजे गए थे। बाहर निकले। सुबह हो चुकी थी। आसमान पर सूरज भाई की सरकार बन चुकी थी। हर तरफ उनका जलवा बिखरा हुआ था। हर पहाड़ पर उनकी ही किरणें बिखरी हुईं थी।
सामने एक पहाड़ पर थोड़ी ऊंचाई पर देखा एक कुतिया अपने पिल्ले को बेहद अपनापे से प्यार कर रही थी। उसके पूरे बदन को चूमती हुई। दुलराती हुई। पुचकारती हुई। दूर होने के चलते फोटो साफ नहीं आया। लेकिन याद के लिए जूम - फोटो तो ले ही लिए।
सबेरा हो गया लेकिन चाय अभी तक नदारद थी। जिस जगह ठहरे थे वहां आसपास कोई दुकान भी नहीं कि जाकर चाय पी आएं। मेस थी। उस दिन इतवार भी था। कुक को आराम से आना था , यह भी बाद में पता चला।
थोड़े इंतजार के बाद चयास बढ़ी तो वीरबालक की तरह किचन में धंस गए। किचन किसी कुंवारे बालक की रसोई की तरह बेतरतीब सा बिखरा हुआ था। वहां पहुंचते ही हमारे स्वागत में एक डम्प्लाट चूहा निकल कर आया। शायद किचन का यही प्रोटोकाल होगा।
हमको लगा कि हमको देखकर चूहा डरकर भाग जाएगा। लेकिन वह पट्ठा तो एक रैक से दूसरी रैक, एक डिब्बे से दूसरे डब्बे पर चढता-उतरता रहा। किचन में इस तरह निर्बाध टहलता रहा जैसे किसी देश का राष्ट्राध्यक्ष एक देश से दूसरे देश टहलता हो या फिर रिटायरमेंट की बढ़ता हुआ कोई अफसर एक के बाद दूसरा ताबड़ तोड़ दौरा करता हो।
जब चूहा हमसे डरा नहीं तो हमने भी उसको नजरअंदाज कर दिया। वह भी अपने करतब दिखलाकर किसी डिब्बे में सोने चला गया। हमने फिर चाय बनाने के लिए, चीनी के डब्बे और दूध की खोज शुरू कर दी। सब मिल गए लेकिन पानी नदारद। कमरे में जाकर पानी लाये और चाय बनाई। चाय की पत्ती किसी भी ब्रांड की रही हो लेकिन पीते हुए मन हुआ कहें -'वाह ताज।' लेकिन फिर कहा नहीं । कारण आपको पता ही है।
ड्राइवर लखपा अपने समय से पांच मिनट पहले हाजिर हो गए। हम तब तक तैयार नहीं हुए थे। देरी की तोहमत एक-दूसरे पर डालने की कोशिश की। लेकिन देरी की जिम्मेदारी किसी ने नहीं ली। अंततः तय हुआ कि अभी देर नहीं हुई है। यह तय करने के बाद सबने सुकून की सांस ली।
सुकून की सांस लेने के बाद सब लोग दूसरे से जल्दी तैयार होने की बात कहते हुए आराम-आराम से तैयार हुए। तैयार होकर नाश्ता किया। चलते हुए मेस का बिल दिया। सत्रह सौ करीब आया बिल जिसमें एक हजार कमरे का किराया था।
चलते समय देखा कि काम करने वाले आ गए थे। आसपास के गांवों से आते हैं। गावों में खेती भी है। लेकिन खेती के लिए वे बारिश पर नहीं निर्भर रहते। पहाड़ से पिघलने वाली बर्फ के पानी से सिंचाई होती है। पहाड़ की बर्फ लेह-लद्दाख की जीवन रेखा है।
हम सारा सामान गाड़ी में लादकर निकल लिए। हमारा अगला पड़ाव नुब्रा घाटी था।
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