Monday, July 22, 2019

लेह में पहला दिन




जैसा लोगों ने बताया था उससे लगा कि लेह पहुंचते ही सांस लेने में तकलीफ होने लगेगी। चलते हुए हांफने लगेंगे। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। मौसम एकदम चमकदार और चकाचक था। हमको लगा कि मौसम के यह दांत दिखावटी हैं। कुछ देर बाद असली रंग दिखेगा। हम उसके इंतजार में थे।

एयरपोर्ट पर ड्राइवर हमको लेने आये थे। नाम लखपा। हमारे दोस्त अंकुर के मार्फ़त । रहने की व्यवस्था एयरपोर्ट के पास ही एक मेस में थी। वहां जाने के रास्ते में सेना द्वारा व्यवस्थित 'हाल आफ फेम' दिखा । इसमें लद्दाख के बारे में और सेना के विविध आपरेशन के बारे में जानकारियां हैं। उनको बाद में देखने के लिये सोचते हुए हम अपने ठिकाने पहुंचे।
मेस में पहुंचते ही चाय-पानी हुआ। इसके बाद डायमोक्स खा कर लेट गए। अनुशासित मुद्रा में। सब कुछ सामान्य सा महसूस करते हुए लगा कि लेह में खराब मौसम का हल्ला अफवाह ही है।


कुछ देर बाद बाहर टहलने निकले। बगल में ही निर्माण का काम चल रहा था। बातचीत हुई। पता लगा कि वे लोग पास के ही गांव के रहने वाले हैं। बड़े-बड़े पत्थर को स्थानीय मिट्टी के गारे से जोड़ते हुए दीवार खड़ी कर रहे थे।
बातचीत के दौरान पता चला कि कुछ साल की अस्थाई मजदूरी के वे स्थाई कर्मचारी हुए। सभी अनपढ़। उम्र का कोई कागज नहीं। स्थाई करते समय अधिकारी ने उनकी सेहत और शायद व्यवहार के चलते अंदाज से उम्र लिख दी। जो लिख गयी सो लिख गयी।
कामगारों ने 'बूझो तो जाने' वाले अंदाज में अपनी उम्र का अंदाजा लगाने को कहा। हमने कुछ लगाया लेकिन वह गलत बताया उन्होंने। पता चला कि एक कि उम्र 71 साल है और उसके रिटायर होने में अभी भी कुछ साल बाकी हैं। दूसरे ने भी अपनी उम्र साठ पार बताई। यह बताते हुए उन्होंने कहा -'पहले सब ऐसे ही हो जाता था। अब तो इतना कागजबाजी होता है कि हम तो भर्ती ही न हो पायें।'


मेस में काम करने वाले भी कोई महाराष्ट से कोई झारखण्ड से। लेह कठिन स्टेशन है। यहां से शायद दो साल बाद वापस तबादला हो जाता है। कई लोग उसके इंतजार में थे। जाड़े के कठिन मौसम के किस्से भी सुनाये लोगों ने।
मेस में पानी की टंकियों से सप्लाई होता है। 'वाटर बाउजर' हम लोग जबलपुर की फैक्ट्री में बनाते थे। वहां की सप्लाई यहाँ दिखी। अच्छा लगा।
मैदान में जगह-जगह बंकरनुमा गोडाउन बने थे। बादल आसमान में मुफ्तिया ठहलाई कर रहे थे। एक जगह पेट्रोल पम्प नुमा जगह दिखी। देखा तो मिट्टी के तेल का पम्प था। मिट्टी का तेल यहाँ जरूरत है , शायद नियामत भी।






शाम हुई तो लगा कि टहल लिया जाए। हमने ड्राइवर साहब को बुलाया। वे आ गए। बाजार टहलने निकले। सड़कों पर जाम बचाने के लिए गाड़ियां अनुशासन में खड़ी दिखीं। हमारी गाड़ी भी पार्किग में रही।
बाजार में एक जगह चबूतरे पर एक बुजुर्ग लोगों को उनका भविष्य बता रहे थे। एक यन्त्र की सहायता से। लोगों के पूछने के अंदाज से लगा कि वे भी मजे ले रहे हैं। पूछने वाले -बताने वाले दोनों एक ही घराने -'टाइम पास' घराने के लगे। यह बात अलग कि बताने वाले को कुछ आय भी होने की आशा थी।
बाजार टहलने के बाद पास के ही एक बौद्ध स्थल देखने गए। शांति स्थल।
बौद्ध स्थल थोड़ा ऊंचाई पर है। पहुंचते ही वहां लोगों को कैमरा बाजी में जुटते देखा। आजकल लोगों के मोबाइल में कैमरे का साइड इफेक्ट यह भी है कि कहीं भी पहुंचते ही लोग वहां के दृश्यों को दुश्मन को देखते ही गोलियों से छलनी करने वाले अंदाज में शूट करने करने लगते हैं। हमने भी किया। कुछ फोटो बावजूद तमाम लापरवाही के अच्छी भी आईं।


बुद्ध स्थल से लौटकर हमने रात का खाना बाहर ही खाया। तीन लोगों के खाने का खर्च 400 रूपये से कम ही रहा। यह इसलिए बताया कि अंदाज लग सके कि लेह-लद्दाख में खाना-पीना किसी और शहर जैसा ही है। महंगा नहीं।




खाते-पीते हुए रात हो गयी थी। बाजार बंद हो रहे थे। हम वापस लौट आये। अगले दिन हमको नुब्रा जाना था। ड्राइवर ने जल्दी तैयार होकर चल देने के लिए कहा। हमने भी हामी भर ली। लेकिन खाली हामी भरने से क्या होता है।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10217223242466591

No comments:

Post a Comment