Wednesday, November 06, 2019

अमेरिका के रास्ते से

 



अमेरिका के बारे में किस्से-कहानी तो सुनते आए थे। कोलम्बस ने खोज की अमेरिका की। यूरोपियन अमेरिका आये। यहां के मूल निवासियों को निपटाकर कब्जा किया। छा गए यहां। आज विश्व के सबसे ताकतवर लोकतंत्र की हैसियत से दुनिया की दिशा-दशा और दुर्दशा भी तय करने में अहम भूमिका है अमेरिका की।
समानता, लोकतंत्र औऱ विश्वबन्धुत्व के पैरोकार अमेरिका के मूल निवासी यहां की आबादी का कुल 0.9 प्रतिशत बचे हैं। संख्या में कम होने के चलते उनकी वही स्थिति है जो किसी लोकतंत्र में संख्या में बहुत कम वोटबैंक वालों की होती है। चन्द्रभूषण जी Chandra Bhushan अपने एक लेख में बताते हैं :
"आबादी के आंकड़ों पर नजर डालें तो अमेरिकन इंडियन समुदाय अपने शुद्ध नस्ली रूप में अमेरिका की कुल आबादी का मात्र 0.9 फीसदी है, जबकि इसमें मिश्रित नस्ल वाले अमेरिकन इंडियन भी शामिल कर लिए जाएं तो उनका हिस्सा 1.6 फीसदी हो जाता है। उनकी ज्यादातर आबादी पहले दक्षिणी-पूर्वी अमेरिका में बसती थी लेकिन पांच सौ साल पहले यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने अमेरिका पर अपना कब्जा जमाना शुरू किया तो या तो उन्हें घेरकर मार डाला, या उजाड़ कर ऐसे बंजर इलाकों में धकेल दिया, जहां उनका बड़ा हिस्सा भूख और बीमारियों का शिकार होकर मर गया। "
बाजार का जलवा है अमेरिका में। पूंजीपति सरकार बनवाते हैं। अमेरिका की नीतियों पर पूंजीपतियों के दबदबे की बात पर अपने एक व्यंग्य लेख में परसाई जी ने कुछ इस तरह लिखा है -"अमेरिका का कारपोरेट सड़क से किसी को पकड़कर खड़ा कर देता है और अमेरिकन जनता को बताता है देखो यह तुम्हारा राष्ट्रपति है।"
अमेरिका की दुनिया के कमज़ोर देशों पर बरजोरी की बात करते हुए एक और लेख में परसाई जी लिखते हैं -
'अमरीकी शासक हमले को सभ्यता का प्रसार कहते हैं. बम बरसते हैं तो मरने वाले सोचते हैं, सभ्यता बरस रही है'
इन बातों के अलावा अभिव्यक्ति की आजादी, मनचाहा जीवन जीने आजादी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की मिसाल भी है अमेरिका। अनेक उलटबांसियों के बावजूद एक ऐसा देश जहां आना और बसना लोगों की इच्छा में सुमार होता है। दुनिया भर के सबसे प्रतिभाशाली लोगों की तमन्ना अमेरिका में बसने की होती है। काबिलियत और मेहनत की इज्जत होती है यहां।
ब्लागिंग से जुड़ने के साथ अमेरिका के कई मित्रों से परिचय हुआ। अतुल अरोरा ने Atul Arora अपने 'लाईफ इन अ एच ओ वी लेन' के जरिये अपने अमेरिका के शुरुआती दिनों के किस्से लिखे । मन किया अपन भी घूम आएं।
हमारे नामराशि अनूप भार्गव Anoop Bhargava जी भी हमको कई बार बुलाते-बुलाते रह गए। संयोग कि इस बार जब हम उनके ही मोहल्ले 'न्यू जर्सी' में एक हफ्ते रुकने के प्लान से अमेरिका जा रहे हैं तब वो जयपुर- दिल्ली -भोपाल की यात्रा पर भारत निकल लिए। अमेरिका भी लगता है एक समय में एक ही 'अनूप' को झेल सकता है।
बहरहाल पासपोर्ट तो पिछले साल ही बन गया था अपन दोनों का। बच्चा सौमित्र Saumitra और भांजी अन्विता Anvita अपने मियां सौरभ Saurabh के साथ पिछले कुछ सालों से यहां हैं तो हम सोचे हम भी हो आएं। लिहाजा वीजा फार्म भरा। वीजा में अमेरिका यात्रा की सम्भावित तिथि भरनी होती है। जुलाई में फार्म भरा तो तारीख भरी यात्रा की अक्टूबर की आखिरी वाली।
फार्म भर तो दिया लेकिन ग़लत भरा था। फिर ठीक किया भांजे अपूर्व ने। इंटरव्यू तय हुआ 18 अगस्त/19 अगस्त। लेकिन उस दौरान संस्थान में हड़ताल के चलते हमारा निर्माणी में रहना जरूरी हो गया। लिहाजा इंटरव्यू की तारीख बदली गईं । 23 सितम्बर को हाथ के निशान और फोटो और 15 अक्टूबर को इंटरव्यू।
इंटरव्यू के लिए जो तैयारी की वो हमने आजतक कभी पहले नहीं की । एक-एक कागज जमाकर फाइल में लगाये । सबमें नाम की स्लिप लगाई। पासबुक अपडेट कराई। जीपीएफ की पर्ची ली। मतलब कोई कसर न छोड़ी। सम्भावित सवालों के जबाब तैयार किए।
वीजा फार्म में सोशल मीडिया के खातों के विवरण भी भराये गए थे। भरते समय हमने सोचा कहीं हमारा कोई लेख देखकर नाराज होकर वीजा मना न कर दें एम्बेसी वाले।
बहरहाल ,पूरी तैयारी से 15 अक्टूबर को इंटरव्यू देने गए। एकाध सवाल पूछने के बाद वीजा स्वीकृत हो गया। हमें लगा यार यह तो कुछ हुआ ही नहीं। इतना आसानी से हो गया। फिर याद आया सम्वाद - 'समस्या हल हो जाने के बाद उनकी सरलता आश्चर्यजनक लगती है।' Simplycity of the problem when solved is amazing.
15 को जब लौटकर घर आये तो अमेरिका जाने के बारे में मतविभाजन हो गया। एक घराने के हिसाब से अभी टिकट मंहगे हैं, जाड़ा पड़ रहा है न्यूयार्क में। इसलिए गर्मियों में चला जाएगा। लेकिन दूसरे घराने के लोगों का कहना था कि टिकट मंहगा हो तो भी जाना चाहिए। आखिर पैसा किस दिन के लिए बचाते हैं लोग। अभी नहीं तो कभी नहीं।
रात में दोनों घरानों के दबाबों के बीच झूलते हुए टिकट देखने बैठे। सबेरे जो सबसे सस्ता टिकट 81 हजार का मिल रहा था वह रात को 88 हजार हो गया था। कुछ देर बाद वही टिकट 91 हजार हो गया। हमें लगा कि इस 'गोले' में साजिश हो रही है हमारे खिलाफ हमें अमेरिका जाने से रोकने के लिए।
जैसे ही हमको यह एहसास हुआ कि हमारे खिलाफ साजिश हो रही है हमारा इरादा और पक्का हो गया। इरादों में अम्बुजा सीमेंट छिड़ककर हमने आगे पीछे की तारीख भी देखी। दिखा एक फ्लाइट की टिकट 67 हजार ( आने-जाने दोनों )की मिल रही है। हमने फौरन दो टिकट लपक ली। इस तरह हमारा जाना तय हुआ।
अब टिकट के बाद मामला फंसा विभाग से अनापत्ति प्रमाणपत्र का। सरकारी कर्मचारी होने के नाते बिना विभाग से अनुमति लिए हम विदेश जा ही नहीं सकते। हम आश्वत थे कि हमको तो अनुमति मिल ही जानी है। लेकिन हमारे यहां बताता गया कि पैसे तो हैं ही नहीं हमारे खाते में। जाओगे कैसे, अमेरिका में खाओगे क्या। हमने बहुत बताया कि भाई टिकट हम ले चुके हैं, वहां हमारा बच्चा है। हमारे जीपीएक में पैसे हैं, क्रेडिट कार्ड है। लेकिन बात बनी नहीं।
अंततः अनुमति श्रीमती जी की इस अंडरटेकिंग पर मिली कि हमारे घूमने का खर्च वही उठाएंगी। उनके खाते में पैसा था इसलिये उनकी बात मानकर हमें विदेश यात्रा की अनुमति मिल गयी। पैसे वाले की बात हर जगह मान ली जाती है।
हमारे बाद श्रीमती जी का अनापत्ति प्रमाणपत्र फंस गया। हम खुद लेने गए उसे इलाहाबाद। सुबह ढाई बजे निकले, रात वापस आये साढ़े ग्यारह। समझ लिया जाए कित्ती मेहनत पड़ती है अमेरिका जाने में।
इस बीच हमारा वीजा अपूर्व Apoorv ने कलेक्ट कर लिया था। मतलब सब कागजी कार्यवाही हो गयी थी अमेरिका यात्रा की। अब न जाने की कोई गुंजाइश या बहाना बचा नहीं था।
कागजी कार्यवाही के बाद यात्रा की तैयारी में जुटे।गर्म कपड़े खरीदे गए। सब सामान जमाया गया। तैयारी चली ट्रेन आने के पहले तक। ट्रेन से नोयडा आये।
नोयडा पहुंचते ही आंख दर्द, सर दर्द, कमरदर्द , बुखार भी आ गया। हम सोचे शायद फिर खिलाफ पार्टी का पलड़ा भारी हो गयी। विरोधियों का परचम पहरा गया। लगा कि डेंगू की चपेट में आ गए। हमको डर डेंगू से नहीं था। डेंगू से तो दवाई खाकर निपट लेंगे। डर इस बात का कि कहीं अमेरिका जाकर न पता चले कि बीमारी भी लाये हैं सामान के साथ। इसके बाद सब मिलकर हड़काएँ कि हेल्थ बीमा कराने का मतलब यह थोड़ी कि बीमार होकर ही आएं।
लिहाजा डाक्टर की राय लेने पहुंचे। डॉक्टर बोलिस -'डेंगू के लक्षण नहीं हैं। आराम करो । पैरासिटामॉल खाओ। ठीक हो जाओ।'
डाक्टर की बात मानकर हमने हचककर आराम फरमाया। सुबह तबियत एकदम झक्कास। दिन भर फिर अंगड़ाइयां लेते हुए आराम फरमाया। रात को निकल लिए एयरपोर्ट।
एयरपोर्ट पहुंचकर चेकइन कराया। फिर याद आया कि कुछ डॉलर और डाल लें पास में। लिहाजा पास में जितने पैसे थे उन सबको डॉलर में बदलवा लिया। इम्मीग्रेशन से गुज़रते हुए, सिक्योरिटी चेक कराया। टाइम पर आकर राजा बाबू की तरह जहाज का इंतजार किया। जहाज एक घण्टा देरी से आया। डेढ़ घण्टा देर चला। लेकिन हमने किसी बात का कोई बुरा नहीं माना। अच्छे बच्चों की तरह अपनी सीट पर आकर बैठ गए। चल।दिये अमेरिका की ओर।
इस समय भारत में सवा बारह बजे हैं। 6987 किमी की यात्रा हो चुकी है। 5102 किमी बाकी है। कुल मिलाकर 12089 किमी की यात्रा है। मतलब घर से निर्माणी अगर 4 किमी धर लें और साल के 300 कार्यदिवस तो पांच साल लगातार घर से फैक्ट्री आने-जाने की दूरी के बराबर है दिल्ली से अमेरिका।
फिलहाल जहाज हेलसिंकी, बर्लिन, एम्स्टर्डम के बगल वाले इलाके के ऊपर से होते हुये अटलांटिक महासागर के ऊपर उड़ रहा है। बर्लिन में इस समय सुबह के आठ बज रहे हैं। लेकिन बाहर घुप्प अंधेरा है। एकदम ब्लैकआउट सा। लगता है यहां की बिजली व्यवस्था भी किसी खटारा कम्पनी के हाथ है।
यह भी हो सकता है कि जो जगह हमको एकदम पास दिख रही हो वह दूर हो। हम बर्लिन को एकदम पास देख रहे हों लेकिन वह जगह वहां से दूर हो और वहां अभी सुबह हुई ही न हो।
किसी के बारे में बिना जाने सिर्फ अनुमान के सहारे राय बनाना ठीक नहीं।
जहाज का रास्ता ऐसे दिख रहा है जैसे दिल्ली से फेंका गया कोई पिंड पैराबोला पथ पर चला जा रहा हो। सीधे न्यूयार्क में ही लैंड करेगा। अभी करीब छह घण्टे की दूरी पर 'स्टेच्यू आफ लिबर्टी' और एम्पायर एस्टेट वाला न्यूयार्क ।
न्यूयार्क पहुंचने का इंतजार है हमको। न्यूयार्क भी पक्का हमारा इंतजार कर होगा। दोनों इंतजार एक साथ ही पूरे होंगे।
(रास्ते से लिखी गयी पोस्ट न्यूयार्क के बाद न्यूजर्सी पहुंचकर न्यूजर्सी के समय के हिसाब से 5 नवम्बर को दोपहर बाद 2 बजकर 58 मिनट पर पोस्ट की जा रही। भारत में इस समय 6 नवम्बर के सुबह के एक बजकर 30 मिनट हुए हैं)

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