काफी दिन बाद कल साइकिल चली। पिछले कई इतवार सर्दी या फिर आलस्य के चलते स्थगित रही साइकिल बाजी। आठ बजे मिलना था गोविंद गंज फटकिया पर। हम पांच मिनट लेट पहुंच गए घटनास्थल पर।
रास्ते में सड़क पर जो नजारे दिखे उनसे एक बार फिर लगा कि रोज निकलना चाहिए घूमने।
कामसासू काम्प्लेक्स के बाहर दुकाने सजने लगीं थी। एक फल वाला कल की हुई कमाई के नोट गिन रहा था। कोने पर मांगने के लिए बैठी बुढ़िया जम्हाई लेते हुए दाताओं का इंतजार कर रही थी। पुल की चढ़ाई में सांस फूल गयी। पिछले पहिये में हवा कम थी। कई दिन बाद साइकिल चली इसलिए भी ऐसा लगा।
प्रयाण के पहले फोटो बाजी हुई। बिना फोटो आजकल कोई काम नहीं होता। बिनु फोटो सब सून। अलग-अलग एंगल से फोटो हुए तब पैडल पर पैर धरे गए।
गोविंदगंज से केरूगंज तक जाना था कल। सीधी सड़क। बहादुरगंज, घण्टाघर , चौक होते हुए। सुबह के समय खाली सड़क पर बमुश्किल 20 मिनट की साइकिलिंग। इत्ती जल्दी मंजिल पर पहुंचकर करेंगे क्या? लिहाजा जगह-जगह रुककर फोटो बाजी हुई। सड़क पर गुजरती बारात में जगह-जगह रुककर किये जाने वाले डांस की तर्ज पर रास्ते में पड़ने वाले चौराहों पर रुककर फोटोबाजी हुई।
रास्ते में हमारे साथियों ने हमारी जेब से निकलकर गिरे पांच सौ रुपये का नोट हमारे हवाले किया। पांच सौ का नोट हमारी जेब में पड़े-पड़े बोर हो गया होगा। मौका पाते ही फरार हो गया। पैसे की फितरत खर्च होने की होती है। ठहरना पसन्द नहीं उसको। मौका मिलते ही बाजार भागता है। हमारी जेब से भी इसीलिए फूटा होगा लेकिन साथियों ने गिरते हुए देख लिया तो फिर से वहीं पहुंच गया, जेब में। जेब के रुपये हंस रहे होंगे उस पर -'बहुत उचक रहे थे। आना पड़ा न यहीं। पड़े रहो चुपचाप। बाहर बहुत बवाल है।'
सड़क पर गुजरते साइकिल वालों को देखकर कुछ लोगों ने सोचा कि साइकिल रैली निकल रही है। किसी घटना के समर्थन में या किसी के विरोध में। एकाध ने पूछा भी -' पेट्रोल के बढ़ते दाम के खिलाफ रैली है क्या?' लोग हर घटना को अपनी नजर से देखते हैं। हमने भी देखा।
एक भाई जी मुंह में ब्रश करते हुए अपने घर के सामने की सड़क पर झाड़ू लगा रहे थे। ब्रश 'पकड़' की तरह उनके मुंह के कब्जे में था। मंजन का झाग होंठो के दोनों किनारों से निकलकर सफेद मूछों की तरह झलक रहा था। वो मुंह से निकलते मंजन के झाग से बेखबर झाडू लगाने में तल्लीन थे।
सड़क पर चाय, पकौड़े , जलेबी की दुकानें गुलजार हो गईं थी। कुछ जनरल मर्चेंट वाले अपनी दुकानें खोलकर मोबाइल में मुंडी घुसाए ग्राहक का इंतजार कर रहे थे। मोबाइल पर जिस तरह लोगों का झुकना बढ़ रहा है उससे ताज्जुब नहीं कि आगे आने वाली पीढ़ियां सर कुछ नीचे झुकाये पैदा होने। होमोइरेक्टस की तर्ज पर उस घराने का नाम 'होमोटिल्टस' रखा जाए।
केरूगंज चौराहे पर पहुंचकर नास्ता ब्रेक हुआ। एक दुकान पर जलेबी-दही सूती गई। जितनी ऊर्जा निकली होगी, उससे दूनी ग्रहण की गई। जमकर फोटोबाजी हुई। साइकिल साथी न जाने कितने कैमरों में कैद हुए। अपन भी हुए।
हमारे साथ सेल्फ़ियाते हुए Vipin Rastogi ने बताया कि उनकी बड़ी तमन्ना थी हमसे मिलने की। हमारे देखादेखी उन्होंने साइकिल फिर से चलानी शुरू की। यह सुनकर अपन को थोड़ी देर के लिए 'कुछ खास' होने का एहसास हुआ। लेकिन हम फौरन ही उससे मुक्त भी हो गए। अलबत्ता विपिन फौरन फेसबुकिया दोस्ती हो गयी उसी चौराहे पर।
चलने के पहले केरूगंज चौराहे पर फिर फोटोबाजी हुई। चौराहे पर तैनात सिपाही भी जलेबी-दही खाकर इस जमावड़े को प्रफुल्लित नयनों से देख रहे थे। वहां मौजूद एक सिपाही को सुनाते हुए मैंने कहा -'चलो वरना भाई जी दौड़ा लेंगे जाम लगाने के लिए।' भाईसाहब ने प्रसन्नवदन इस हमारी इस आशंका का, जलेबी का टुकड़ा मुंह में दबाते हुए ,फौरन खण्डन किया।
बाद में बातचीत करते हुए सिपाही जी ने बताया कि 30 किलोमीटर दूर गांव से आकर रोज सुबह ड्यूटी पर तैनात हो जाते हैं।
लौटते हुए साथ के लोग आगे निकल गए। हम खरामा-खरामा लौटे। एक दुकान को खोलते हुए भाई जी का नकली पैर दिखा। किसी दुर्घटना में कट गया होगा।
सड़क किनारे एक छुटके मन्दिर के चबूतरे पर एक कुत्ता आंख मूंदे , जीभ निकाले जम्हूआते हुए पहरेदारी टाइप कर रहा था। हमने डरते हुए उसका दूर से फोटो लिया। डर इस बात का कि कहीं बिना परमिशन फोटो लेने पर नाराज होकर भौंकने न लगे।
आगे सड़क पर दो जूते पड़े दिखे। साइज औऱ रंग से एक ही पैर के जूते लगे। जिस किसी भी पैर के जूते रहे हों लेकिन वे चलते एक ही तरफ होंगे। एक ही दिशा में। लेकिन सड़क पर पड़े जूते एक दूसरे के विपरीत मुंह किये हुए थे। ऐसा लगा जैसे एक ही पार्टी के, समान विचारधारा के लोग, पार्टी बदलते ही एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी करने लगते हैं। चुनाव के समय ऐसा खासतौर पर होता है।
एक दूसरे की विपरीत दिशा में होते हुए भी जूते चुप थे। एक दूसरे के खिलाफ कोई बयानबाजी नहीं कर रहे थे। उनको शायद एहसास हो कि कभी वे दोनों एक ही आदमी के पैरों के जूते थे। आदमी और जूते में शायद यही फर्क होता है।
शहीद चौराहे पर तैनात पुलिस वाले अखबार और मोबाइल में डूबे हुए सुरक्षा व्यवस्था में चुस्तैद थे।
एक घर के बाहर बैठा आदमी अपने दोनो पैरों को दूरतक फ़ैलाये हुए अखबार में पूरा डूबकर खबरें पढ़ने में तल्लीन था। कोई खबर बचकर निकल न जाये, अनपढी न रह जाए।
वापस मन्दिर होते हुए आये। मन्दिर के बाहर सूरज की रोशनी में मांगने वालों की भीड़ थी। कुछ लोग अपनी गाड़ी में पैर फैलाये हुए आराम से बतिया रहे थे। मांगते हैं तो क्या हुआ, आराम का हक तो सबको हैं। काम के वक्त आराम तो सब करते हैं।
लौटते हुए बचे हुए लोगों के साथ चाय पी गयी पंकज की दुकान पर। पंकज ने कहा-'हर इतवार को हम आपका इंतजार करते थे।' कोई हमारा इंतजार करता है यह अपने में खुशनुमा एहसास है।
चाय के साथ Ashish Bhardwaz की शादी की वर्षगांठ और बेटे के जन्मदिन की बधाई दी गई। पंकज ने गाना गाया -'घोड़ी पे होकर सवार, आया है दूल्हा यार।'
इस बीच वहां फैक्ट्री से रिटायर्ड कर्मचारी शुक्ला जी भी आ गए। इन्होंने तगड़ा सलाम मारकर नमस्ते किया। बोलने-सुनने के मोहताज शुक्ला जी के चेहरे पर पूरी गर्माहट पसरी हुई थी।
वापस आते हुए कामसासू काम्प्लेक्स गए। ओपी सुबह छह बजे से दस बजे तक एक ओवरआल बनाने के बाद धूप में अंगड़ाई ले रहे थे। स्वेटर उल्टा पहने थे। हमने ध्यान दिलाया तो बोले अब पहन लिया। पहने रहेंगे ऐसे ही। कल सीधा कर लेंगे।
कामगार को पहनावे की बजाय पेट की चिंता रहती है। पहनावा तो पेट भरने के बाद याद आता है।
सड़क किनारे कुछ जानवरों के पुतले रखे महावीर मिले। जयपुर के रहने वाले , लखनऊ से होते हुए शाहजहांपुर आये हैं बेचने। इस काम को 'घोड़े का काम' कहते हैं। पुतलों में घोड़ों के अलावा हिरन, हाथी आदि के पुतले भी थे। इसके अलावा पंजाबी ढोल बजाने का भी काम करते हैं।
जिंदगी के बारे में बात करते हुए बोले महावीर -'मेहनत करना चाहिए। मेहनत कभी बेकार नहीं जाती। मेहनत करना चाहिए, बाकी भगवान पर छोड़ देना चाहिए।'
खास स्टाइल में बाल बनाये हुए हैं महावीर ने। हमने पूछा तो बताया -'टाइगर श्राफ का स्टाइल है यह है। हमको पसन्द है।'
हमको टाइगर श्राफ का अंदाज नहीं था। लेकिन यह देखकर अच्छा लगा कि रोजी-रोटी के लिए शहर-शहर भटकने वाला भी अपना कोई शौक रहता है। किसी का स्टाइल पसन्द है उसको। स्टाइल मण्डूक नहीं है वह।
आपको किसका स्टाइल पसन्द है?
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