कल हमने फेसबुक पर दो पोस्ट लिखी। पहली पोस्ट में करीब आधे घण्टे की मेहनत लगी। दूसरी में दो मिनट । पहली में लिखाई थी। दूसरी में डीपी बदलाई।
लिखाई वाली पोस्ट पर सुबह तक 34 कमेंट आये और डीपी वाली पर सौ से ऊपर। लब्बो लुआब यह कि जिस काम में पंद्रह गुना मेहनत लगी उसमें एक चौथाई कमाई हुई (लाइक और टिप्पणी को कमाई माने तो)। मतलब सोशल मीडिया में लिखाई और फोटो चिपकाई में एक के बदले 60 का अंतर है। लगता है इसीलिए लोग फोटोबाजी पर ज्यादा भरोसा करते हैं।
ब्लागिंग से शुरू करके सोशल मीडिया में करीब 17 साल के सफर के दौरान अपन ने जितनी डीपी बदली बदली होंगी उनकी संख्या दस से कम ही होगी। डीपी बदलना मुझे लफड़े का काम लगता है। लगता है बेफालतू गड़बड़ शक्ल की नुमाइश करके दोस्तों की लिहाजी तारीफ झटकने की साजिश है।
बहरहाल कल जो डीपी लगाई वह मुझे अच्छी लगती है। गोवा के समुद्र तट पर प्रतापगढ़ के रहने वाले चाय बेचने वाले की साइकिल के साथ की फोटो मुझे ज्यादा सहज लगती है। इसके पहले की फोटो हमारे आफिस की थी। जब 2019 में शाहजहांपुर आये थे तब की। फोटो देखकर हमेशा लगता कि दफ्तर में ही बैठे हैं। पिछले समय का बड़ा हिस्सा कोरोना की चपेट में रहा। उसमें 'वर्क फ्राम होम' की भी भरमार रही। यह बात अलग है कि बकिया लोगों के 'वर्क फ्राम होम' के समय भी हमारा काम 'वर्क फ्राम आफिस' ही रहा।
कुछ दोस्त अक्सर डीपी बदलते रहते हैं। हर इंसान की अलग फितरत होती है। हमने भी कई बार फोटो बदलने की सोची लेकिन कोई फोटो जँची नहीं। जो बहुत अच्छी लगी वह फोटो प्रायोजित टाइप लगने के कारण डीपी वाले इम्तहान में फेल हो गयी।
फोटो और व्यक्तिगत सूचना वाली पोस्ट में लफड़ा यह भी होता है कि तमाम दोस्तों की बधाई, शुभकामनाएं आती हैं। उनका जबाब भी देने का मन होता है लेकिन उनकी संख्या अक्सर इतनी ज्यादा होती है कि कई लोगों की टिप्पणियों के जवाब नहीं दे पाता। अटपटा सा लगता है। कुछ दिन तक उधारी चुकाने टाइप लगता है मामला। लेकिन बाद में सब बराबर हो जाता है। बिसरा देते हैं कि कोई धन्यवाद भी देना था। इस तरह हज्जारों धन्यवाद हजम कर चुके हैं अपन अब तक।
अब तो मामला लिखाई , डीपी बदलाई से आगे वीडियो बनवाई तक पहुंच गया है। Alok Puranik जी तो नए वीडियोबाज से शुरू होकर वरिष्ठ वीडियोग्राफर होने के रास्ते पर हैं। घर वालों के सहयोग से शुरू हुआ कुटीर उद्योग अब पब्लिक लिमिटेड कम्पनी बनने की राह पर हैं। Samiksha Telang के भी जुड़ने से लगता है मामला और आगे बढ़ेगा।
बहरहाल बात लिखाई, फ़ोटो बदलाई से शुरू होकर विडियोबाजी तक पहुंच गई। इस चक्कर में पढ़ाई पीछे छूट गयी। पिछले दिनों करीब दो दर्जन से ज्यादा किताबें मंगाई हमने। उनमें से कई तो 'मस्ट रीड' घराने की हैं। लेकिन उनमें से एकाध छोड़कर कोई पूरी नहीं पढ़ पाये। यह उन सैकड़ों किताबों से अलग हैं जो काफी दिनों से अपने पढ़े जाने का इंतजार कर रही हैं।
कुल मिलाकर बात पहुंची समय के पाले में। समय सीमित है, काम असीमित। अब यह हम पर निर्भर है कि हम अपने समय का उपयोग कैसे करते हैं। समय भौत बड़ा कारसाज होता है। ऐसे ही थोड़ी कह गए हैं रागदरबारी वाले ठाकुर दूरबीन सिंह :
"कि पुरुष बली नहिं होत है, समय होत बलवान,
भिल्लन लूटी गोपिका, वहि अर्जुन वहि बान। "
तो कवि यहाँ कहना चाहता है कि जो कुछ है वह समय ही है। बीस साल जिन तालिबानों को अमेरिकियों ने उनके घर में घुसकर खदेड़ दिया था अब वही उनको अल्टीमेटम दे रहे हैं कि चुपचाप निकल लो नहीं तो हम नहीं जानते क्या होगा।
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