शाहजहांपुर बलिदानी शहर कहलाता है | पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां और ठाकुर रोशन सिंह के अलावा अन्य अनेक शहीद आजादी की लड़ाई में कुर्बान हुए हैं| बलिदानी शहर के बारे में ओज कवि स्व राजबहादुर विकल कहते थे :
बीच शहर में इन तीनों शहीदों की प्रतिमा लगी हैं। शहीद पार्क है| अशफाक उल्ला खां की मजार पर स्मारक है| ठाकुर रोशन सिंह और पंडित राम बिस्मिल के स्मारक देखने के बारे में बहुत दिन से सोच रहा था| कल बिस्मिल जी के स्मारक की खोज में निकले| इस बारे में सुधीर विद्यार्थी जी से जानकारी ली तो बिस्मिल जी के जन्मस्थान की जानकारी मिली| पता चला की गोविंदगंज आगे सदर बाजार में बद्री प्रसाद मुरलीधर का प्रेस और मकान था। उसी के पीछे वाले हिस्से में बिस्मिल के मां-पिता रहते थे| वहीं वे पैदा हुए थे| बाद में बिस्मिल के शहीद होने पर पास में एक घर में बिस्मिल की मां और बहन रहीं| उसी घर को जाने वाली सड़क पर बिस्मिल द्वार बना हुआ है| यह बिस्मिल द्वार शहर के काली मंदिर के सामने है|
काली मंदिर पहुंचे तो सामने बिस्मिल द्वार दिख गया| बिस्मिल के घर के बारे में पूछा एक नौजवान हमको वहां तक ले गया| पतली गली में पुरानी ढब का मकान| उस मकान में कश्यप परिवार रहता है| जिस हिस्से में बिस्मिल की बहन रहती थीं उसमें रविशंकर कश्यप रहते हैं| हलवाई का काम करते हैं| बगल के हिस्से में उनके चाचा राम कुमार कश्यप रहते हैं जो कि कचहरी से 2010 में चपरासी के पद से रिटायर्ड हैं|
कश्यप परिवार को सिर्फ यह जानकारी है की यहां बिस्मिल का परिवार रहता था| इसके अलावा उनको और कोई जानकारी नहीं है| जो है वो भी सुनी-सुनाई के आधार पर| जिस हिस्से में बिस्मिल की बहन रहती थीं वह हिस्सा कमोवेश वैसा ही है अभी| पुराने तरह का कुंडी वाला दरवाजा, महराब वाली बनावट वाला बरामदा | मकान का पुरानापन बरकरार है| उस हिस्से को देखकर लगा समय यहीं आलथी-पालथी मारकर बैठ गया है| ऊपर का हिस्सा अलबत्ता कुछ नया बना है| शौचालय भी| वहीं पर एक कुंआ भी था जो अब बंद हो गया है|
साथ में आए बालक ने बताया कि बिस्मिल के पत्र भी इनके पास हैं| पूछने पर मुस्कराए रामकुमार कश्यप| बोले – ‘ न जाने कहां रखे हैं|’ फिर बताया कि उनकी बहन के पास हैं शायद| लेकिन उनके बताने के लहजे से पता चला कि शायद इनको कुछ पता नहीं होगा|
बिस्मिल की बहन के घर से निकलकर उनका जन्मस्थान खोजने निकले| जिस जगह बद्री प्रसाद मुरलीधर का प्रेस था उसके एक हिस्से में एक कार्ड्स की दुकान है| दूसरे हिस्से में नया निर्माण हो रहा है| वहां के लोगों से पूछा तो किसी को पता नहीं था कि यहां बिस्मिल का जन्म हुआ था| विद्यार्थी जी से पता किया तो उन्होंने फिर गाइड किया कि पिछले हिस्से में गली में वैद्य जी की दुकान है उसके सामने वाले हिस्से में (प्रेस के पिछले हिस्से में) घर था बिस्मिल का| प्रेस के पिछले हिस्से में गए और रवि वैद्य का मकान पूछा तो देखा कि मकान चुका था| ऊपर की मंजिल टूट चुकी थी , नीचे की मंजिल में दवाखाना खुलने का समय उसके दवाखाना होने की गवाही दे रहा था|
बहरहाल जगह का अंदाजा लगने के बाद उस हिस्से में गए जो प्रेस का पिछला हिस्सा है| वहां आजकल बाथम परिवार रहता है| अनिल बाथम जी मिले| पूछने पर बताया –‘हां, पिताजी लोग बताया करते थे कि इस हिस्से में कभी बिस्मिल परिवार रहता था|’
पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का नाम आजादी की लड़ाई के प्रमुख क्रांतिकारियों में लिया जाता है| देश-दुनिया में उनका बड़ा नाम है| तुर्की में उनके नाम पर बिस्मिल शहर बसा है| लेकिन जिस शहर में वे पैदा हुए उसी शहर में उनके जन्मस्थान के बारे में लोगों को जानकारी नहीं|
शहीदों को नमन करते हुए शेर जो बहुत पढ़ा जाता है वह है :
“शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा|”
पहले शेर पढ़कर लगता था कि इसमें शायर कहना चाहता है कि शहीदों को लंबे समय तक याद किया जाएगा| उनकी कुर्बानियां लोगों को प्रेरित करेंगी| लेकिन कल शहर के बीचो-बीच स्थित बिस्मिल के जन्मस्थान के बारे में लोगों का अनजानापन और उदासीनता देखकर शेर का मतलब समझ में आया| शायर का मतलब यह रहा होगा कि जिन शहीदों की मजारे बन जाएंगी उनको लोग याद करेंगे| उनमें मेले लगेंगे| मजार इसलिए कहा होगा शायद कि मजार में जगह कम लगती है| कम जगह में हो जाएगा काम| पैदाइश वाली जगह पर मेले लगाने में ज्यादा जगह लगेगी| अब तो माल-संस्कृति में मेले भी लगाने बंद हो गए| लिहाजा अब शहीदों के नामों-निशान की गुंजाइश काम ही होती जाएगी|
वैसे भी क्रांतिकारियों ने आजादी के आंदोलन में अपनी कुर्बानी यह सोचकर तो दी नहीं थी कि इससे उनको क्या मिलेगा ? उनके परिवार के साथ कैसा व्यवहार होगा?
बिस्मिल के शहीद होने के बाद उनके परिवार का जीवन बहुत कष्ट में बीता | छोटा भाई बीमारी में इलाज के अभाव में नहीं रहा| पिता भी अभाव में कमजोर और चिड़चिड़े होकर नहीं रहे| इसके बाद मां और फिर बहन भी उसे राह गई| कहीं से उनको ऐसा सहयोग न मिला कि वे तसल्ली से जी सकें|
सुधीर विद्यार्थी अपनी किताब 'अपने हिस्से का शहर' में लिखते हैं:
“कहां थे तब बिस्मिल के शहर के राजनेता और समाजसेवी | किसी ने बिस्मिल की मां और उनके पिता को सहारा नहीं दिया| वे कब ,कहां और कैसे मरे यह भी किसी को नहीं पता| कोई यादगार नहीं बनी शाहजहांपुर की धरती पर पिता मुरलीधर और मां फूलमती की| इस शहर के किसी सभागार में इनकी तसवीरें नहीं लटकाई गईं|
बिस्मिल के मां और पिता के अंतिम दिन इस शहर के माथे पर कलंक की तरह लगते हैं मुझे| आखिर कौन माफ करेगा हमें| क्या हम बिस्मिल के एक भाई और उनके मां-पिता को स्वाभिमान से जीने और मरने लायक सुविधा देने लायक भी नहीं थे|”
इसका जबाब शायद किसी के पास नहीं है !
बिस्मिल की शहादत के बाद उनके परिवार की स्थिति
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