पिछले दिनों कई किताबें पढ़ीं। उनमें से एक उर्दू के मशहूर शायर जोश मलीहाबादी की बहुचर्चित आत्मकथा 'यादों की बरात' भी थी।
जोश साहब ने अपने बारे में और अपने समय के बारे में रोचक और बेबाक अंदाज में लिखा है।
अपनी खूबियों-खामियों के बारे में बेहिचक लिखी आत्मकथा का अंदाज-ए-बयाँ इतना शानदार है कि पूरी आत्मकथा एक दिन में पढ़ गए।
अपने समय के ख्यातनाम लीडरों से जोश साहब की व्यक्तिगत जान-पहचान थी। नेहरू जी उनमें से खास थे। इसके बावजूद वे उर्दू के मसले पर नेहरू जी नाइत्तफाकी रखते हुए आजादी के बाद सन 1956 में पाकिस्तान चले गए। बाद बाकी वहां उनके साथ जो सलूक हुआ उसके चलते उनके निर्णय पर पछतावा भी हुआ। नेहरू जी ने उनको वापस आने का निमंत्रण भी दिया लेकिन उनका वापस आना हुआ नहीं।
अपने समय की महिलाओं की स्थिति का जोश जी ने जिस तरह चित्रण किया है उसको पढ़कर लगता है कि सौ साल पहले महिलाएं किस तरह की पाबन्दियों में जीने को मजबूर थीं। उनकी आत्मकथा का एक अंश यहां पेश है:
"नवाब साहब की बेगम हों या बैरिस्टर साहब की बेटर हाफ (better half) दोनों बड़ी सख्ती के साथ पर्दे की पाबंद थीं। डोली और पालकी के सिवा कोई बीबी घर के बाहर कदम नहीं रखती थीं। और तो और , औरतों की आवाजें और उनका वजन भी पर्दा नशीन था। यानी कोई बीबी इस कदर जोर से नहीं बोलती थी कि मर्दांने तक उनकी आवाज जा सके। और जब कोई औरत पालकी में सवार होती थी तो पत्थर का टुकड़ा या सिल पालकी में रख दी जाती थी ताकि कहारों को उनके जिस्म का सही अंदाजा न हो सके। बीबियाँ तो बीबियाँ, मामाएँ, असीलें और लौंडियाँ तक पर्दे की पाबंद थीं।
जनाने में आने-जाने वाले बाहर के बच्चों से भी, जबकि वे दस -ग्यारह बरस के हो जाते थे, पर्दा शुरू कर दिया जाता था। और तो और , बाप, दादा , नाना, चाचा, फूफा के सामने भी औरतें सरों पर पल्लू डालकर जाया करतीं थीं और किसी औरत की यह मजाल नहीं थी कि वह अपने बुजुर्गों की मौजूदगी में अपने बच्चे को गोद में ले ले।
जनाने मकान की फिजा को पवित्र रखने का यहां तक ख्याल किया जाता था कि किसी तरकारी वाली को यह इजाजत नहीं थी कि वह लंबी-लंबी तरकारियाँ जैसे लौकी, तुरई, केले, चचेंड़े टुकड़े-टुकड़े किये बगैर सालम (साबुत) हालत में अंदर ले जाये, इसलिए कि सूरत के लिहाज से इन तरकारियों की 'अश्लील' तरकारी ख्याल किया जाता था।
अपने लड़कपन का एक वाकया बयान करता हूँ। मलीहाबाद के एक लड़के का शादी में नाच हो रहा था कि बालाखाने से एक औरत झांककर इधर देखने लगी और साहबाने-महफ़िल में से एक साहब ने उसे बंदूक मार दी। साहबे-खाना देंगों के हल्के में खड़े थे कि उन्होंने गोली चलने की आवाज सुनी और दौड़े हुए महफ़िल में आये। गोली मारने वाले खां साहब ने उनसे कहा , "भाई आपकी बीबी ऊपर से झांक रही थीं। मुझसे यह बेहयाई बर्दाश्त नहीं हुई, मैंने गोली मार दी।" साहबे-खाना ने उसकी पीठ ठोंककर कहा,"बहुत अच्छा किया आपने।" वह तुरन्त अंदर चले गए। थोड़ी देर में एक लाश खींचते हुए आये और कहा," भाइयों, देख लीजिए मेरी बीबी नहीं लौंडी झांक रही थी। अल्लाह ने मेरी आबरू और मेरी जान दोनों चीजें बचा लीं।""
जोश मलीहाबादी की आत्मकथा -"यादों की बरात" से। किताब ख़रीदने का लिंक कमेंट बाक्स में।
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