कल दिल्ली वाक में शामिल हुए। आलोक पुराणिक जी और मनु कौशल जी ने लोगों को पिछले कुछ दिनों से दिल्ली घुमाना शुरू किया है। बकौल आलोक पुराणिक उनको इसकी प्रेरणा उनकी बिटिया इरा पुराणिक से मिली है जो लगभग हर इतवार को बस्ता पैक करके निकल जाती थी। बिटिया से सीखकर पिताजी ने भी शुरू किया दिल्ली टहलना। इस काम में उनके साथ मनु कौशल जी भी जुड़े हैं जिनके अंदर गालिब की आत्मा ने स्थायी रूप से डेरा जमाया हुआ है। पुरानी दिल्ली, लाल किला की घुमाई के बाद अब कुतुब परिसर नया ठिकाना है आवारगी की चाहत रखने वाले आलोक पुराणिक जी का।
इतवार की वाक में हम भी शामिल हुए। हमारे साथ तकरीबन 30 लोग और थे। टिकट के दाम आलोक जी ने पहले ही धरा लिए थे। 400 रुपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से। कामर्स के मास्टर होने की आड़ में उनका कहना है -'कोई काम मुफ्त में करना आर्थिक अपराध है।'
35 रुपये का टिकट भारतीयों के लिए है। परदेशियों के लिए टिकट के दाम ज्यादा हैं- शायद 500 रुपये। देशी होने का फायदा तो ठीक लेकिन परदेश के लोगों से भी ज्यादा पैसे लेना जमा नहीं। वसुधैव कुटुम्बकम की भावना के विपरीत काम है।
बहरहाल अंदर प्रवेश करने के बाद आलोक पुराणिक और मनु कौशल जी ने एंकरिंग शुरू की। शुरुआत में सबके परिचय हुए। कुछ वरिष्ठ नागरिक भी थे। बच्चे भी थे। टूर शुरू हुआ।
कुतुब परिसर का इतिहास कुतुबुद्दीन ऐबक से शुरू हुआ। कुतुबुद्दीन ऐबक मोहम्मद गोरी का गुलाम था। गोरी ने तराई की लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान को हरा दिया और अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का कामकाज सौंप कर वापस लौट गया। कुतुबुद्दीन ऐबक ने कुतुबमीनार की शुरुआत करवाई जिसे बाद में उनके दामाद एल्तुतमिस ने पूरा करवाया। इल्तुतमिश के बाद उसकी बेटी रजिया सुल्तान गद्दी नशीन हुई। वह पहली महिला सुल्तान थी जिसके बारे में कहा गया कि रजिया में सिवाय औरत होने के कोई ऐब नहीं था। ऐसे समय में जब महिला होना अपने आप में ऐब माना जाता हो इल्तुतमिश ने अपनी बेटी को सुल्तान बनाया। कितनी आधुनिक सोच रही होगी गुलाम वंश के दूसरे शासक की।
गुलाम वंश के बाद खिलजी वंश की पारी शुरु हुई। अपने चाचा जलालुद्दीन खिलजी को ठिकाने लगाकर अलाउद्दीन गद्दीनशीन हुआ। मजे की बाद जलालुद्दीन अपने भतीजे को बेटे से ज्यादा चाहता था और बेटा भी अपने चाचा को बाप से ज्यादा इज्जत देता था। लेकिन मौका पाते ही अपने चाचा को निपटाकर अलाउद्दीन सुल्तान बन गया। इतिहास में हर तरह तरह के धतकरम हो चुके हैं।
खिलजी चाचा भतीजे की कहानी सुनते हुए मुझको पड़ोसी पाकिस्तान के किस्से याद आये जहां भुट्टो ने कई सीनियरों को नजरअंदाज करके जियाउलहक को सेना की कमान सौंपी थी। जियाउलहक भुट्टो से इतना डरता था कि एक बार सिगरेट पीते हुए भुट्टो के सामने पड़ने पर सिगरेट जेब में डाल ली। पैंट सुलग गयी लेकिन बोला नहीं। भुट्टो उसको अपना बंदर कहते थे। बाद में उसी बंदर ने उनकी गर्दन पर उस्तरा चला दिया और भुट्टो को निपटा दिया।
कहने का मतलब कि बहुत चापलूसी करने वाले, विनयवनत रहने वाले मुलाजिमों से सावधान रहने की जरूरत है।
बहरहाल बात हो रही थी कतुबपरिसर की। कुतुब परिसर की घुमाई शुरुआत अलाई मीनार से। अलाई मीनार की शुरुआत अलाउद्दीन खिलजी के समय हुई। सुल्तान की तमन्ना कुतुबमीनार से ऊंची और बुलंद मीनार बनवाने की थी। शुरुआत हुई। उनकी शान में कसीदे पढ़ने वालों ने लिखा -'मीनार के बनाने में सारे ग्रह लग गए।'
हिंदी साहित्य के इतिहास में वीरगाथा काल में कवियों को अपने आश्रयदाता राजाओं की तारीफ़ में अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन की बात कही गई है। लेकिन यह काम उनके बहुत पहले शुरू हो गया था। अमीर ख़ुसरो बेहतरीन प्रतिभा से युक्त थे। वे अपने समय सात सुल्तानों के अजीज शायर रहे। उनकी सफलता में उनके द्वारा सुल्तानों की उदार तारीफ और बेहिसाब शाब्दिक चापलूसी का भी योगदान रहा होगा। हर सुल्तान की जी खोलकर तारीफ।
अलाई मीनार की शुरुआत तो हुई लेकिन मुकम्मल नहीं हो पाई और अलाउद्दीन मुकम्मल हो गए। बाद के सुल्तानों ने भी इरादा किया इसे बनवाने का लेकिन फिर लोगों की समझाइश पर हाथ खींच लिए।
इसी बहाने मोहम्मद बिन तुगलक की अनुपस्थिति का फायदा उठाते हुए आलोक पुराणिक जी ने उनको बहुत बेवकूफ किस्म का जीनियस और जीनियस किस्म का बेवकूफ बताते हुए उनकी बेवकूफी के कई किस्से भी बयान किये यह कहते हुए कि इसको किसी से जोड़कर न देखा जाए। उनको पूरा भरोसा था कि यह कहने के बाद तुगलक के किस्सों से लोग आज के किस्से जरूर जोड़ लेंगे।
अलाई मीनार के बाद कुव्वतुल मस्जिद , लौह स्तम्भ, इल्तुमिश का मकबरा, अलाउद्दीन का मकबरा , उस समय के क्लासरूम और अलाई दरवाजा वगैरह देखना हुआ। इसी क्रम में शब्दों के सफर के लेखक पत्रकार अजित वडनेकर जी के हवाले से आलोक पुराणिक जी ने बताया कि महरौली नाम वराह मिहिर के मिहिर और पंक्ति माने कतार से पड़ा।
कुतुब पसिसर की मस्जिद कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद वहां मौजूद जैन मंदिरों के मलबे से बनाई गईं। इस बार का उल्लेख वहां के लेख में है।
परिसर में मौजूद लौह स्तम्भ चौथी शताब्दी का बताया जाता है। इस तरह कुतुब परिसर में चौथी सदी से लेकर आज तक का इतिहास आरामफरमा है। दुनिया में किसी एक जगह इतने लंबे समय की ऐतिहासिक इमारतें शायद ही मौजूद हों।
कुतुबुमीनार सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक के नाम पर बनवाई बताई जाती है। लेकिन इसके पीछे की एक कहानी यह भी है कि वहीं पास में रहने वाले एक फकीर के नाम पर इसका निर्माण हुआ।
इल्तुतमिश की कब्र के बारे में बताने का काम आलोक पुराणिक जी ने बिटिया इरा पुराणिक को सौंप दिया। इल्तुतमिश ने अपनी सल्तनत अपनी काबिल बेटी रजिया को सौंपी इधर एंकरिंग का काम आलोक पुराणिक जी ने बिटिया को थमाया। इरा ने यह काम बखूबी पूरा किया।
अलाऊद्दीन खिलजी के मकबरे में उनकी कब्र बनी है। एक चबूतरा है। इसके किस्से सुनाते हुए आलोक पुराणिक जी ने उस पर कुत्ते के टहलने और एक कन्या द्वारा उस पर डांस करते हुए रील बनाने के किस्से सुनाए। अगर अलाउद्दीन इसको देखते सुनते तो कैसा महसूस करते , कहना मुश्किल है।
अलाऊद्दीन खिलजी की कब्र के बाद वहां बने क्लास रूम देखे गए जहां कभी लोग पढ़ाई करते होंगे। इसके बाद खुले में विस्तार से खुसरो पर चर्चा हुई।
खुसरो की काबिलयत, उनकी भाषाई पकड़ और आशुकवित्व पर विस्तार से चर्चा करते हुए आलोक पुराणिक जी ने उनके परम चापलूस और काम भर के छिछोरेपन का भी हसरत वाले अंदाज में कई बार उल्लेख किया इस अंदाज में गोया वह यह स्थापित करना चाहते हैं कि सदियों तक मशहूर होने वाला काम करने के लिए चापलूसी और थोड़ा छिछोरापन भी चाहिए होता है। इसी सिलसिले में ग़ालिब जी की बात भी चली जो मुगलों से वजीफे लेने के बाद उनके दुश्मन रहे अंग्रेजों से पेंसन हासिल कर ली। इसमें उनकी काबिलियत के साथ मिजाजपुर्सी का हाथ भी रहा। आजकल के मैनेजमेंट में तो मिजाजपुर्सी और चापलूसी भी काबिलियत में शुमार है।
खुले में क्लास लगी में अमीर खुसरो के चर्चे हुए। अपने हुनर और काबिलियत से सात सुल्तानों के प्रिय रहे खुसरो साहब। उनकी कविता, प्रतिभा के साथ उनकी पहेलियों के चर्चे भी हुए। सही हल बताने वाले को चॉकलेट मिली। हमको भी एक बार मिलीं। एक साथ तीन छुटकी चाकलेट। हमने मिलबांट कर खा लीं।
कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद का जिक्र करते हुए अपनी बात कहने के लिये लाल कपड़े में आने वाली फ़रियादिन का जिक्र भी हुआ। उसके तार रामायण काल के कोपभवन तक खिंचे। और भी न जाने कहाँ-कहाँ के किस्से टहलते हुए बिना टिकट इस घुमाई के दौरान बतकही में शामिल होते गए और किस्सा बनते गए। चौथी सदी से शुरु हुई कहानी का सिलसिला 21 वीं सदी तक चला।
आखिर में मामला अलाई दरवाजा पर निपटा। बुलंद दरवाजा बनने तक यह अपने यहाँ का सबसे बड़ा दरवाजा था। वहां सबके फोटो हुए। फोटो के साथ delhi walk का पोस्टर भी लगा पहले उल्टा फिर सीधा। इसके बाद सब लोग निकल लिए एक-एक करके।
करीब ढाई घण्टे के वाक के संक्षेप में किस्से यहां बयान हुए। बाकी फोटो और वीडियो नीचे लगाए जा रहे हैं। वीडियो देखकर आप दिल्ली से बाहर रहते हुए भी इस वॉक में शामिल हो सकते हैं। लेकिन अगर दिल्ली में हैं अगले इतवार को 6 अगस्त को कुतुब परिसर की वाक में शामिल हो सकते हैं। मजे की पूरी गारंटी। मजा न आने पर पैसे वापस लेकिन इसके लिए मजा न आने का सबूत पेश करना होगा। मुझे पूरा यक़ीन हैं कि आप सबूत पेश न कर पाएंगे। यकीन तो यह भी है कि अगर यहाँ के इतिहास में शामिल बुज़ुर्गवारों को भी मौका मिलता तो वे भी इस वॉक में शामिल होते। अमीर खुसरो भी अपनी पहेलियों के हल बताकर चाकलेट लूट रहे होते।
वीडियो कुछ यहां लग पाए। बाकी जो नहीं लग पाए वो अगली पोस्ट में।
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