सुबह चाय की दुकान पर भट्टी सुलगनी शुरू हो गयी। पहले धुंआ उड़ता रहा। फिर आग जली। चाय बनने लगी। लोग इंतजार में हैं।
एक बुजुर्ग दुकान के बाहर रखी बेंच पर बीड़ी पी रहे हैं। बीड़ी पीते हुए धुंआ उड़ा रहे हैं। धुंए को उड़ते हुए धुंए के पार देख रहे हैं। नजरे दूर टिकी हुई हैं। क्षितिज को ताक रहे हैं। शायद सोच रहे हैं -'धुंआ वहां तक जाएगा। लेकिन धुंआ मुंह के पास ही थक कर हवा में ही बैठ गया है शायद। संभावनाएं इसी तरह दम तोड़ देती हैं।'
बुजुर्ग जिस तरह चुपचाप बैठे बीड़ी पी रहे हैं उससे लग रहा है कि कुछ सोच रहे हैं। सोच मतलब चिंता। गरीब आदमी जब सोचता है तो उसको चिंतन कहा जाता है। यही काम जब सम्पन्न करता है तो उसे चिंतन का नाम दिया जाता है। आजकल तो चिंतन शिविरों का हल्ला है।
जो काम एक गरीब आदमी बीड़ी पीकर कर लेता है उसी काम के लिये लाखों फुंक जाते हैं चिंतन शिविरों में।
एक बीच की उमर का आदमी टहलते हुए दुकान में घुसा। बोला-'माचिस है किसी के पास?'
किसी के पास से माचिस अपने आप उसतक पहुंच गयी। बीड़ी सुलगाते हुए बोला-'बहुत उलझने हैं जिंदगी में। दिन पर दिन बढ़ती जा रही हैं। समझ में नहीं आ रहा कैसे निपटा जाए इनसे।'
कोई कुछ बोलता नहीं हैं। वह चुपचाप बीड़ी पीने लगता है। साथ के लोगों से बातचीत करने लगा। पता चला -'ऑटो चलाता है। फजलगंज से सवारी लेकर आया है।'
चाय बन गयी। दुकान वाला कागज के ग्लास से नापकर एक पन्नी में चाय भरने लगा। पांच ग्लास चाय बांधकर उसने पन्नी का मुंह बंद कर दिया। ग्राहक को थमा दिया।
हमने कुल्हड़ में चाय मांगी। उसने चुपचाप केतली से चाय डाल दी कुल्हड़ में। कुछ चाय कुल्हड़ की दीवार को भिगो गयी। चाय पीते हुए अपनी बनाई चाय से तुलना करने लगे। हमको लगा हम भी चाय बढिया बना लेते हैं। मन किया कि खोल लें चाय की दुकान। जितनी देर बैठें , लोगों की गप्पाष्टक सुनते रहें। लिखते रहें। सीरीज बने -'चाय की दुकान से।' या ऐसा ही कुछ।
दस रुपये की है चाय। पहली बार चाय पी थी दुकान से तीस पैसे की। 42 साल में 300 गुना बढ़ गए हैं चाय के दाम। और भी न जाने कितना बदला है इस दरम्यान। बदलाव ही शाश्वत है दुनिया में।
इस तरह के अनगिनत आइडिए आते हैं दिन भर। लेकिन जितनी जल्दी आते हैं, उससे भी जल्दी फूट भी लेते हैं। सबके साथ होता होगा। हमारे दिमाग ऐसी सड़क की तरह होते हैं जिनमें दिन भर तरह-तरह के विचार गाड़ियों की तरह गुज़रते रहते हैं। कोई टिककर नहीं बैठता।
गाड़ी आ गई। लोग बाहर आने लगे। ऑटो वाले सवारियों को अपने कब्जे में लेने की कोशिश करने लगे-'आइए कल्याणपुर, आइए विजयनगर, आइए रावतपुर।' बीच में ऑटो वालों में आपस में कहा-सुनी भी हो गयी। मां-बहन भी हुई। लेकिन सवारियां आते ही लोग लड़ाई स्थगित करके उनकी तरफ मुड़ गए। इससे लगा कि गाली-गलौज, लड़ाई-झगड़ा खाली समय और दिमाग की उपज है।
एक सवारी को एक ऑटो वाले ने लपक लिया। सवारी ने पूछा -'कितने पैसे लोगे?'
ऑटो वाले ने बोला-'उतने ही जितने पिछली बार लिए थे।' सवारी उसके साथ हो ली। उसके बेटे ने पूछा-'आपने कैसे पहचाना कि यह ऑटो वाला वही है जो पिछली बार ले गया था।' सवारी ने कोई जवाब नहीं दिया। मुस्करा कर ऑटो वाले के पीछे चल दी।
स्टेशन से लौटते हुए लगा शहर कितना बदल गया है। पहचान में नहीं आता। जो जगहें दिमाग में बसी हई हैं वो इतनी बदल गयी हैं कि पहचानी नहीं जाती। उनके आसपास इतनी जगहें पैदा हो गई हैं कि लगता है नई जगह पर आ गए-'हम कहाँ आ गए हैं, तेरे साथ चलते-चलते।'
इस्टेट में एक आदमी सामने से भागता आ रहा है। कसरत कर रहा है। दूसरा आदमी पीछे की तरफ चलता हुआ सड़क पर चल रहा है। उसके पीछे आंख नहीं है। बिना देखे पीछे चल रहा है। कोई गड्ढा पड़ गया तो उसमें लुढ़क सकता है। लेकिन अगला इससे बेपरवाह पीछे की तरफ चल रहा है।
दुनिया में कई समाज भी तो इसी तरह बिना सोचे पीछे की तरफ चल रहे हैं। उनको किसी गड्ढे में गिरने की चिंता नहीं।
आसमान में सूरज भाई मुस्कराकर गुड मॉर्निंग कर रहे हैं।
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