Thursday, October 05, 2023

मामा की दुकान पर भतीजे का काम

 



शहर का आख़िरी किनारा जहां से भारतीय देहात का महासागर शुरू होता है ।
कभी भी शहर से बाहर निकलने हैं तो श्रीलाल शुक्ल की रागदरबारी की शुरुआती लाइन याद आ जाती है ।
कानपुर से शाहजहांपुर जाते हुए हरदोई के पास जगदीशपुर में कई लगातार कई दुकाने दिखीं। हर दुकान पर जलेबी छन रही थी। हम लोगों को चाय की दरकार थी। उतर गये गाड़ी से। जलेबी बनते-छनते देख चाय की माँग की।
दुकान वाले ने कहा -‘चाय नहीं बनती यहाँ। ‘ क्यों नहीं बनती पूछने से पहले कारण भी बता दिया -‘बिकती नहीं यहाँ। माँग नहीं है।’ यह भी बता दिया उस दुकान पर मिलती है चाय।
ताज़ी जलेबी देखकर मन ललचा गया। तौला ली सौ ग्राम। एक किताब का पन्ना फाड़कर सौ ग्राम जलेबी थमा दी। किताब का पन्ना किसी गणित की किताब का था। जलेबी के नीचे किसी सिलिंडर का व्यास और ऊँचाई दी थी। आयतन निकालने को कहा गया था। मन किया निकाल के धर दें। लेकिन जलेबी के स्वाद में मन ऐसा रमा कि पन्ना डस्टबीन तक जाने तक याद नहीं आया।
दुकान पर बोर्ड लगा था -‘मामा स्वीट हाऊस।’ कारण पूछने पर बताया कि जिसकी यह दुकान है वो अपना घर छोड़कर अपनी बहन के पास आ गया। सभी लोगों का मामा हो गया। गाँव मामा। चूँकि गाँव में सब मामा कहते थे, बच्चे से बुजुर्ग तक । इसलिए दुकान मामा की दुकान के नाम से चल निकली। नाम हुआ ‘मामा स्वीट हाउस ।’
दुकान पर जलेबी बनाता बच्चा आठवीं के बाद , तीन साल पहले,स्कूल छोड़कर दुकान पर आ गया। कारण बताया -‘ग़रीबी बहुत थी। घर सब लोग काम पर लग गये। अब सब लोग कमाते हैं।’
ग़रीबी दूर हो गई लेकिन पढ़ाई छूट गई।
इससे सिद्ध हुआ कि सब लोग काम पर लग जाते हैं तो ग़रीबी दूर हो जाती है ।
हमने कहा कि अब ग़रीबी दूर हो गई तो फिर स्कूल जाने का मन नहीं करता ?
‘अब काम सीख गये हैं। इसी से कमाई होती है। क्या करेंगे स्कूल जाकर। कौन नौकरी करनी है।’ बालक में जलेबी का घान शीरे से निकाल कर थाल में रखते हुए बताया।
दुकान मामा की है लेकिन वो बच्चे के चाचा हैं। हमने पूछा -‘कुछ पैसा देते हैं चाचा कि मुफ़्त में काम करवाते हैं।’
‘अरे पैसे का क्या । सब तो हमारा ही है ।’ -बालक ने बताया।
दिन भर जलेबी बनती हैं। दिन भर बिकती है। अभी इतनी बनी। शाम फिर बनेंगी। ज़्यादातर ग्राहक आसपास काम करने वाले मजदूर हैं। ले जाते हैं किलो -दो किलो। आगे नवरात्रि भी आ रहे हैं। खूब बिकेंगी जलेबी।
सौ ग्राम जलेबी के दस रुपये हुए। जलेबी के दस रुपये देते हुए स्कूल के दिनों में दस पैसे की जलेबी खाने के दिन याद आए। हम और अप्पू जी Ajay Tiwari आई सी साथ जाते थे। गांधी नगर से। लेनिन पार्क के पास चौराहे पर मिठाई की दुकान पर ताजा बनी जलेबी खाते थे। दस पैसे की जलेबी में खाने का शौक़ पूरा हो जाता था । 45 साल पहले खाई जलेबी की याद आज भी उतनी ही ताजा है।
लेनिन पार्क की बात से याद आया कि हम लेनिन पार्क के पास रहते थे । वहाँ खेलने जाते थे। लेकिन लेनिन के बारे में नहीं जानते थे कि लेनिन कौन थे जिनके नाम पर यह पार्क बना है ।
अपने आसपास की ज़िंदगी से जुड़े तमाम लोगों , जगहों के साथ जीते हुए हम उनके बारे में कितना अनजान रहते हैं।
जलेबी की दुकान से जलेबी खाकर फिर पास की दुकान से चाय भी पी गई। टिक्की भी खाई गई। कोई रोकने वाला नहीं था कि मीठा क्यों खा रहे हो। चाय में चीनी क्यों डलवा रहे।
घर से बाहर निकलना मज़ेदार अनुभव होता होता। यह अलग बात है कि घर से निकलते ही घर याद भी आने लगता है।
घर से बाहर जाता आदमी
घर वापस लौटने के बारे में सोचता है।
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