सोशल मीडिया पर सबसे बड़े और एकमात्र गुरु पाठक होते हैं। पाठकों की टिप्पणियां पोस्ट के श्रंगार की तरह होती हैं।
पुस्तक मेले से लौटते हुए मेट्रो से दिल्ली से नोयडा यात्रा के किस्से लिखे। उस पर अपनी टिप्पणी करते हुए Prahlad Singh जी ने टिप्पणी की:
मेट्रो की भीड़ में पुरुष-पुरुष, स्त्री- स्त्री और स्त्री-पुरुष के शरीर अनचाहे ऐसे चिपके रहते है कि वैसे तो सहवास के चरमोत्कर्ष पर चाह कर भी स्त्री-पुरुष के शरीर एक दूसरे से चिपक नही पाते. मेट्रो के अंदर एक स्त्री एक से अधिक अनजाने पुरुषों के शरीर से इतना अधिक कनफाइन डेढ़ घण्टे के लिए होती है कि उतना कंफ़ाइन एक युवा पति अपने युवा पत्नी का 5 मिनट के लिए कर दे तो पत्नी डोमेस्टिक वॉयलेंस का केस दर्ज करा दे.
सन 2000 में जब मैं पहली बार मुम्बई रेल की भीड़ देखी और स्त्री-पुरुष का जानवरो से बदतर हालत में ठूँस कर जाते देखा तो यह बात मुझे मानव-गरिमा के खिलाफ लगी. मुझे लगा कि यह अमानवीय और मानव गरिमा के खिलाफ है. मतलब यह बात सिर्फ उनके लिए अपमान जनक नही है जो इसमे ठूँस कर जा रहे है बल्कि यह पूरी मानवता के लिए अपमान जनक है.
2010 से जब से दिल्ली मेट्रो की पीली लाइन शुरू हुई मेट्रो में इतनी भीड़ देखकर हर बार मुझे बचपन मे सुनी एक ही कहावत स्मरण होता है: " सौ सौ जूता खाय, तमाशा घुस कर देखे"
एक तो भारत की बढ़ती जनसँख्या ऊपर से भरभरा कर (Cascading) बढ़ती शहरीकरण, हर कोई दिल्ली जैसे महानगरों में बसने को लालायित. सरकार भी रोजगार के साधन, फैक्टरियां, ऑफिस इत्यादि इन्ही महानगरों में खोलती है. नतीजा, बेतहाशा ट्रैफिक. इस ट्रैफिक से निबटने के लिए सरकार दिल्ली, मुम्बई जैसे शहरों में 1 किलोमीटर ट्रैक पर जितना खर्च करती है उतने में गाँवो में 1000 किलोमीटर सड़क बन जाएगी.
भारत मे शहरीकरण की नही, शहरों की सुविधाएं गाँवो तक पहुँचाने की जरूरत है.
मेरा यह एक रफ गेस है कि सरकार यदि एक बड़ी फैक्ट्री शहर से निकाल कर गाँवो में लगा दे तो शहर में एक फ्लाईओवर की जरूरत खत्म हो जाएगी. उस पैसे के एक और फैक्ट्री गाँव मे लग सकती है.
आज की तारीख में हम शहरों में शोर, प्रदूषण, जाम, समय की बर्बादी, और शारीरिक असुविधा बहुत महंगे दामो में खरीद रहें है.
इस पर आप भी कुछ लिखते क्यो नही?
(कृपया इसे अनुरोध के रूप में लें.)"
मुम्बई की मेट्रो यात्रा के अनुभव का Devpriya Awasthi ने भी किया : पता नहीं आपको मुंबई की लोकल में सफर करने के सफर (suffer) का अनुभव है या नहीं. व्यस्त घंटों में वहां की लोकल ट्रेनों में चढ़ना- उतरना कठिन कवायद से कम नहीं.
मैंने तो मुंबई-पुणे की खचाखच भरी ट्रेनों में कई बार साढ़े चार-पांच घंटे की यात्रा खड़े-खड़े की है.
देवप्रिय अवस्थी के अनुभव में अपना अनुभव जोड़ते हुए Om Prakash Nagar जी ने लिखा:
"Devpriya Awasthi जी
मुबई लोकल में उतरना एक अलग ही एहसास कराता है, सिर्फ गेट की तरफ मुख करना होता है और आप प्लेटफार्म पर । "
मुम्बई की लोकल/मेट्रो के किस्से अनगिनत हैं। मुंबई मेट्रो दिल्ली मेट्रो से बहुत सीनियर हैं। मुंबई की लाइफलाइन कही जाती है मुम्बई लोकल। किस्से भी उसी हिसाब से खूब होंगे। बहूत पहले एकाध बार सफर किया है मुम्बई लोकल में। जल्द ही फिर होगा अनुभव तब फिर विस्तार से लिखेंगे किस्से मुंबई मेट्रो के।
पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए इं. प्रदीप शुक्ला ने सलाह दी:
"और बढ़िया लिख सकते हैं आप! पोस्ट करने के पहले एक बार ग्रामेटिकल एरर चेक कर लिया करिए!"
ग्रामेटिकल इरर चेक करने सुझाव अच्छा है। लेकिन लफड़ा है कि हमारी लगभग सब पोस्ट्स दौड़ते, भागते लिखी जाती हैं। लगभग हर पोस्ट 'ड्राफ्ट मोड' में ही पब्लिश कर देते हैं। फिर देखते हुए पोस्ट की कमियां, गलतियां बीनते-बुहारते हैं। फिर भी तमाम कमियां रह ही जाती हैं। कोशिश करेंगे आगे तसल्ली से लिखने की।
फिलहाल तो इतना ही।
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