Wednesday, February 28, 2024

पुस्तक मेले से वापसी मेट्रो यात्रा


पुस्तक मेले में चाय पचास रुपये की थी। एक कारण इसके पीछे यह भी रहा होगा कि वहां दुकान लगाने के पैसे काफी लिए होंगे मेला आयोजको द्वारा।
पुस्तक मेले से निकलकर अपन मेट्रो स्टेशन की तरफ बढ़े। टैक्सी का किराया करीब साढ़े चार सौ पड़ा था एक दिन पहले। मेट्रो के चालीस रुपये लगे थे। सार्वजनिक परिवहन और व्यक्तिगत आवाजाही में दस गुने का अंतर।
मेट्रो में भीड़ बहुत थी। स्टेशन पर खड़े-खड़े कई मेट्रो आईं , रुकी, उनमें से इक्का-दुक्का लोग उतरे लेकिन उनमें चढ़ने की हिम्मत किसी की नहीं हुई। एकाध लोगों ने कोशिश की लेकिन असफल रहे। मेट्रो एकदम भरी थी।
देखते-देखते कई मेट्रो निकल गईं। किसी में जगह नहीं दिखी। हम स्टेशन पर खड़े-खड़े ऐसी मेट्रो का इंतजार करते रहे जिसमें कम से कम खड़े होने लायक जगह मिल जाये।
काफी इंतजार के बाद एक मेट्रो आई जिसमें घुसने लायक जगह मिल गयी। हम घुस गए। खड़े हो गए मेट्रो में। किताबों के झोले हमने कुछ देर हाथ में पकड़े रहे। लेकिन बाद में भारी लगने लगे तो मेट्रो के फर्श पर अपनी दोनों टांगो के बीच रख लिए।
हमारे लिए एक दिन का मसला था। भीड़ बहुत लग रही थी। लेकिन रोजमर्रा के यात्रियों के लिए कोई खास मसला नहीं था। कुछ लोग भीड़ की लहरों के धक्के से निर्लिप्त भाव से इधर-उधर होते हुए मोबाइल पर वीडियो देख रहीं थीं। कुछ लड़कियों फोन पर अपनी सहेलियों/दोस्तों से बतिया रहीं थी। एक लड़की अपने दोस्त के साथ थी। दोस्त उसको भीड़ के धक्कों से यथासम्भव बचाते हुए उसका सफर आसान करने की कोशिश कर रहा था। इस तरह वह शायद अपने अगले सफर की गुंजाइश बना रहा हो।
भीड़ इतनी थी कि चढ़ना जितना आसान था , उतरना उससे कम मुश्किल नहीं था। एक आदमी गलत चढ़ गया। लोगों ने उसको अगले स्टेशन पर उतरकर दूसरी मेट्रो पकड़ने को बोला। वह जबतक उतर पाता तब तक मेट्रो कई स्टेशन पार कर गयी। वह पक्का भी नहीं कर पाया था कि उतरना भी हो या नहीं।
एक स्टेशन पर यात्रियों की भीड़ जलजले की तरह आई। हमको भी धक्का लगा। हमारे पैरों के बीच रखी हुई किताबों का पैकेट भी समुद्र की लहरों के साथ रेत की तरह खिसकते हुए मेट्रो के दरवाजे की तरफ बह सा गया। गनीमत यह हुई कि जब तक दरवाजे के बाहर जाता पैकेट, दरवाजा बंद हो गया। जिस कन्या का पैर की किक से पैकेट के दरवाजे की तरफ सरकने की यात्रा शुरू हुई थी उसने 'ओह, ओह' जैसा कुछ कहा। इसके बाद वह डब्बे में अपने को स्थिर रखने की जद्दोजहद में जुट गई। हम भी किताबों के पैकेट को अपने कब्जे में लाने की कोशिश में जुट गए। कोशिश करते हुए एहसास हुआ कि राजनीतिक पार्टियां अपने छिटके हुए प्रतिनिधियों को कब्जे में रखने की कोशिश में कितना हलकान होती होंगी।
कुछ देर में हमारी किताबो के सारे पैकेट हमारे कब्जे में मतलब फिर से हमारे दोनों पैरों के बीच आ गए। हमने संतोष की कई सांसे एक साथ लीं। फिर लगा तेजी से सांसे लेने के चक्कर में डब्बे ने ऑक्सीजन न कम हो जाये। यह सोचकर सांस-स्पीड कर ली।
इस बीच गन्तव्य स्टेशन आ गए। हमने किताबों और खुद को समेटा। खरामा-खरामा चलते हुए स्टेशन के बाहर आये और घर की तरफ चल लिए।

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