आज
साहित्य अकादमी, दिल्ली में व्यंग्य से संबंधित कार्यक्रम सम्पन्न हुये। हिंदी व्यंग्य के दिग्गज लोग इस कार्यक्रम में शामिल हुए। कार्यक्रम के पहले 'द वायर' में छपी की
रपट के अनुसार साहित्य अकादमी के सचिव के ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न के आरोप और पीड़िता को नौकरी से निकालने की खबर चर्चा में आई। हाईकोर्ट के अनुसार पीड़िता महिला के खिलाफ कार्रवाई बदले की भावना से की गई थी।
वायर की खबर को श्रीलाल शुक्ल रचित उपन्यास 'रागदरबारी' के ट्रक के सत्य के सत्य की तरह देखा गया :
"जैसे कि सत्य के होते हैं, इस ट्रक के भी कई पहलू थे। पुलिसवाले उसे एक ऒर से देखकर कह सकते थे कि वह सड़क के बीच में खड़ा है, दूसरी ऒर से देखकर ड्राइवर कह सकता था कि वह सड़क के किनारे पर है।"
पीड़िता के साथ सहानुभूति रखने वाले लोगों का मानना था :
-साहित्य अकादमी के सचिव को फौरन नौकरी से बर्खास्त किया जाना चाहिए,
-लेखकों को साहित्य अकादमी के कार्यक्रमों का बहिष्कार करना चाहिए।
वायर में छपी रिपोर्ट में कुछ चुनिंदा टिप्पणियां यहाँ देखी जा सकती हैं। कुछ प्रतिक्रियाएँ :
जनवादी लेखक संघ के महासचिव संजीव कुमार ने सोशल मीडिया पर द वायर हिंदी की रिपोर्ट साझा करते हुए लिखा – ‘साहित्य अकादमी जैसी संस्था कहाँ पहुँच गई!! शर्मनाक!!’
वरिष्ठ पत्रकार और लेखक ओम थानवी ने कहा – ‘साहित्य अकादेमी का प्रशासन यदि यौन उत्पीड़न के आरोपों में घिरा रहेगा तो यह केवल संस्था की नहीं, पूरे साहित्य संसार की फ़ज़ीहत होगी. अकादेमी के अध्यक्ष माधव कौशिक को मैं चंडीगढ़ से जानता हूं. वे संकट को समझ सकते हैं. उन्हें अकादेमी की साख दुराचार जैसे संगीन विवादों से बचानी चाहिए.’
‘आलोचना’ पत्रिका के संपादक आशुतोष कुमार ने लिखा – ‘साहित्य अकादमी के सचिव पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों पर वायर की रिपोर्ट इतनी भयावह है कि पूरा पढ़ना मुश्किल है. यह सीरियल अपराधी अभी तक अपने पद पर बना हुआ है. यह गंभीर चिंता की बात है. कोर्ट द्वारा यह भी स्थापित हो चुका है कि वह अपने पद का दुरुपयोग करते हुए जांच में बाधा डालने और उत्पीड़न जारी रखने में जुटा हुआ है. जब तक इसे बर्खास्त नहीं किया जाता, लेखकों को साहित्य अकादमी के साथ पूरा असहयोग करना चाहिए. उनके हर कार्यक्रम का बहिष्कार करना चाहिए. यौन उत्पीड़न आरोपी के पद पर रहते साहित्य अकादमी के किसी भी कार्यकम में शरीक होना उसके कलंक में शरीक होने के बराबर है.’
वहीं साहित्य अकादमी, व्यंग्य, सचिव साहित्य अकादमी के पक्ष में खड़े लोगों ने अपनी टिप्पणियों में जो कहा उसका लब्बो लुआब था:
-इस कार्यक्रम का विरोध उन लोगों द्वारा किया जा रहा है जिनको साहित्य अकादमी के कार्यक्रम में बुलाया नहीं गया था।
-सचिव साहित्य अकादमी के ऊपर यह आरोप कई साल पहले से लगे हैं । इस बीच कई लोग सम्मानित होकर चले गए। तब किसी ने विरोध ने नहीं किया तो अब विरोध करने का क्या मतलब?
-व्यंग्य की चिंता करने वाले लोगों को इस बात से नाराजगी थी कि लोग बिना मतलब व्यंग्य के कार्यक्रम में बाधा डाल रहे हैं। कार्यक्रम का विरोध करने वाले लोग व्यंग्य के दुश्मन हैं।
इसी तरह तरह की और भी तमाम बातें होती रहीं। व्यंग्य की चिंता में लोग दुबले होते रहे। विसंगतियों पर चोट पहुँचाने वाले व्यंग्य पर केन्द्रित कार्यक्रम के बहाने कुछ रोचक विसंगतियां सामने आई। उन विसंगतियों पर नजर डालने के पहले परसाई जी और उनके मायाराम सुरजन जी के बीच हुए पत्राचार का जिक्र करते चलें। परसाई जी ने अपने मित्र मायाराम सुरजन को पत्र में लिखा था :
"हम लोग सब विभाजित व्यक्तित्व (स्पिलिट पर्सनालिटी) के हैं। हम कहीं करुण होते हैं और कहीं क्रूर होते हैं। इस तथ्य को स्वीकारना चाहिये।" इस कार्यक्रम के बहाने कुछ ऐसे उदाहरण यहाँ पेश हैं :
(1) आरोप पाँच साल पुराने हैं : कार्यक्रम के प्रथम सत्र में वक्ता प्रभात रंजन जी ने कार्यक्रम के बारे में जानकारी देते हुए लोगों को कार्यक्रम में आने का आह्वान किया। रामजी तिवारी ने उनकी पोस्ट पर टिप्पणी की :
" लेकिन वहाँ के अध्यक्ष जी पर तो गंभीर आरोप लगे हैं। फिर भी आप लोग उनके नेतृत्व में जुटान कर रहे हैं। कमाल है सर ।"
इस पर प्रभात रंजन जी का जवाब था : "आरोप 5 साल पुराने हैं।"
मतलब आरोप पुराने हो जाने पर अपना प्रभाव/महत्व खो देते हैं।
प्रभात रंजन जी की इस टिप्पणी से कुछ दिन पहले पटना में हिंदी के वरिष्ठ कवि द्वारा एक महिला के यौन शोषण की घटना पर उनकी प्रतिक्रिया याद आई। वरिष्ठ कवि कथाकार उदय प्रकाश जी ने एक पोस्ट लिखकर यौन शोषण के आरोपी कवि का समर्थन जैसा करती हुई पोस्ट लिखी थी। इस पर प्रभात रंजन जी ने लिखा :
"उदय प्रकाश जी का पोस्ट पढ़कर मैं बहुत आहत हुआ। सुबह से चुप था। उसका कारण भी बता देता हूँ। वैली ऑफ वर्ड्स पुरस्कार के लांग लिस्ट में मेरा उपन्यास ‘किस्साग्राम’ भी है और उदय प्रकाश उसके निर्णायक हैं। मैं इस लोभ में था कि चुप रहूँगा तो उदय जी मुझे पुरस्कार दे देंगे। लेकिन मेरी अंतरात्मा मेरी चतुर बुद्धि का साथ नहीं दे रही है। ऐसा सोचना भी मुझे अब अनैतिक लग रहा है।
उनके जूरी
में रहते मैं यह पुरस्कार नहीं ले सकता(अगर मिला तो)। इसलिए मैं इस सूची से अपना नाम वापस लेता हूँ। भविष्य में मैं ऐसा कोई पुरस्कार नहीं लेना चाहूँगा जिसके निर्णायक मंडल में उदय प्रकाश जी होंगे।"
पटना वाली घटना में पीड़िता ने कोई लिखित शिकायत नहीं कराई थी। लेकिन साहित्य अकादमी वाली घटना में पीड़िता महिला ने रिपोर्ट लिखाई थी। उसको बदले की कार्रवाई के रूप में बर्खास्त किया गया था (हाईकोर्ट की टिप्पणी के अनुसार)। इससे अंदाज लगता है कि एक जैसी घटना पर हमारी प्रतिक्रिया कैसे अलग-अलग हो सकती है। इसी बहाने परसाई जी भी याद आ जाते हैं -"हम लोग सब विभाजित व्यक्तित्व के हैं।"
(2) चार साल पहले एक पोस्ट में व्यंग्यकार, पत्रकार, अनुवादक समीक्षा तेलंग ने अपनी 4 अक्टूबर, 2021 की एक पोस्ट में लिखा था :
"आज एक रचना पढ़ी। दरअसल रचना थी ही नहीं वो। बहुत गुस्सा आता है ऐसे लोगों पर। लेकिन इतर लोगों की चुप्पी भी चुभती है।
साहित्यकार महिलाओं पर 'चकलाघर' चलाने वाली रचना लिखने के बाद कोई पुरुष व्यंग्यकार ही क्या, साहित्यकार कहलाने लायक बचता है?? फिर आदमी होना तो बहुत दूर की बात है ऐसे लोगों के लिए।"
लोगों द्वारा पूछे जाने पर किसी ने रचना लगाई थी । रचना इस प्रकार थी :
नया चकला घर
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" सर आप समझने की कोशिश कीजिये। उस दिन पति घर पर ही थे। आप बताकर आते तो उन्हें बाहर भेज देती।
" फिर बट्टा सर भी उसी दिन आ गए थे। जबकि वे हफ्ते भर पहले ही आये थे और पूरी रात बिताकर गए थे। "
" मैंने कहा भी तो बोले पत्नी मायके गई है। "
" अगली बार खुश कर दूंगी सर।
दो रातें बिताऊंगी आपके साथ।
रचनाएँ जरूर लाइएगा सर।"
"ओके आता हूँ अगले ही हफ्ते।"
"थैंक्यू सर।"
इस पर तमाम लोगों ने लेखक की भर्त्सना की थी। ज्ञान चतुर्वेदी जी ने भी रचना की निंदा करते हुए टिप्पणी की थी :
"रचना घनघोर निंदनीय है । लानत है ऐसे रचनाकार पर । इसके रचनाकार का व्यंग्य संसार से वहिष्कार कीजिये ।आक थू कहिये उसके रचना संसार पर ।"
ज्ञान जी ने रचनाकार के सामाजिक बहिष्कार का भी आह्वान किया था।
निंदनीय रचना पर रचनाकार को लानत भेजने वाले ज्ञान जी शायद द वायर की उस रिपोर्ट को पढ़ नहीं पायें होंगे जिसमें सचिव साहित्य अकादमी द्वारा पीड़िता के प्रति की गई टिप्पणियों का उल्लेख है। अगर पढ़ी होती तो शायद वे साहित्य अकादमी के इस कार्यक्रम में आने से पहले सोचते और शायद न भी आते। या शायद यह भी हो सकता है कि उनका टिकट हो गया हो तो आना मजबूरी हो गई हो। कारण जो भी रहा हो लेकिन हमको परसाई जी वाली बात याद आई जो हमने ऊपर लिखी।
मजे की बात समीक्षा तेलंग की पोस्ट में जिन भी लोगों ने निंदनीय रचना की भर्त्सना की थी उनमें से अधिकांश लोग आज के व्यंग्य पाठ में सम्मिलित थे। एक और मजे की बात यह कि जिस रचनाकार की रचना को घनघोर निंदनीय बताते हुए उनके रचना संसार को आक थू कहने का आह्वान किया था उन्होंने ही एक पोस्ट लिखकर सवाल किया है :
"अगर यह महिला कर्मचारी हमारी –आपकी बहू –बेटी होती और उसके साथ भी अकादमी सचिव ने वही सब किया होता , जो इस महिला कर्मचारी के साथ किया है, तो भी क्या आपका सचिव महोदय के साथ मंच साझा करने के लिए तैयार होते ?"
सबसे मजेदार बात कार्यक्रम के संयोजक/सह संयोजक प्रेम जनमेजय जी के साथ हुई। उन्होंने पंकज चतुर्वदी जी की एक पोस्ट की कॉपी पेस्ट करके साझा की। पंकज चतुर्वेदी जी के हवाले से उन्होंने लिखा :
"साहित्य अकादमी अपने सभागार में हर हफ्ते लगभग दो कार्यक्रम करता हैं . सचिव के ऊपर कथित यौन शोषण के आरोप के बाद वहां कम से कम हज़ार आयोजन हुए- छोटे -बड़े - सभी में हिंदी लेखक जगत उछल-कूद आकर गया -- लेकिन अचानक ही जब व्यंग्य के आयोजन की बात आई तो किसी ने श्रीनिवास राव के जांघिये में झांकना शुरू कर दिया -- जैसे आमतौर पर हिंदी का खलिहर
समाज करता है - बहिष्कार करो ----
इस बार के बहिष्कार की कड़ी जोड़ी तो पता चला कि कतिपय वे लोग जिन्हें इस व्यंग्य की गोष्ठी में बुलाया नहीं गया- उन्होंने ही सुरसुरी छोड़ी थी-- यदि वे आमंत्रित वक्त होते तो श्रीनिवास राव से उन्हें कोई गंध नहीं आती . "
इस पर व्यंग्य जगह से जुड़े अधिकांश लोगों ने कार्यक्रम का बहिष्कार का आह्वान करने वालों के ख़िलाफ़ टिप्पणी करते हुए अपने उद्गार व्यक्त किए। इस पर आई टिप्पणियाँ
पोस्ट पर जाकर पढ़ सकते हैं। हरीश नवल जी ने व्यंग्य के समर्थन में शानदार टिप्पणी करते हुए लिखा :
"कितना ही कोई कर ले,व्यंग्य विधा गद्य संसार में सिर उठा कर खड़ी रहेगी।"
इसको पढ़कर ऐसा लगा कि किसी घटना/दुर्घटना के समर्थन या विरोध में मत पूछे जाने पर कोई ज़ोर से नारा लगाये -"भारत माता की जय।"
बाद में पंकज चतुर्वेदी जी ने अपनी वाल से पोस्ट डिलीट कर दी। लेकिन चूँकि पोस्ट उनकी वाल से कॉपी पेस्ट की गई थी तो वह अभी भी प्रेम जनमेजय जी की वाल पर मौजूद है। मैंने पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए लिखा था :
"पोस्ट को कॉपी करके अपनी वाल पर पेस्ट करना रोचक है।
प्रेम जनमेजय जी ने इसे Pankaj Chaturvedi जी की वाल से कॉपी किया हुआ बताया है। लेकिन Pankaj Chaturvedi जी ने शायद यह पोस्ट हटा ली है। अब यह पोस्ट
प्रेम जनमेजय जी की मानी जायेगी कि Pankaj Chaturvedi जी की? अब अगर इस पोस्ट पर कोई बवाल होता है तो वह प्रेम जनमेजय जी के खाते में जाएगा या फिर Pankaj Chaturvedi जी के खाते में। Pankaj Chaturvedi जी के खाते में जाने की बात कहें तो कौन Pankaj Chaturvedi क्योंकि लिंक हट चुका है और Pankaj Chaturvedi कई हैं फेसबुक पर। "
प्रेम जी ने अभी तक इस या किसी की भी टिप्पणी पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देते। वैसे भी आमतौर पर प्रेम जी 'फालतू' की टिप्पणियों का जबाब नहीं देते।
आज संपन्न हुए कार्यक्रम के साहित्य अकादमी की साइट में लगे उद्घाटन सत्र के फोटो देखने से ऐसा लगता है कि कार्यक्रम के मुख्य अतिथि विश्वनाथ त्रिपाठी और विशिष्ट अतिथि सूर्यबाला जी उद्घाटन सत्र में नहीं आए। हो सकता उन्होंने वायर की रिपोर्ट पढ़ ली हो या अन्य कोई कारण रहा और उन्होंने कार्यक्रम में आना ठीक न समझा हो।
कार्यक्रम के बाद विविध तरह की प्रतिक्रियायें आईं।
विमल कुमार जी ने कार्यक्रम की तस्वीरें
साझा करते हुए लिखा :
"आप किस किसको रोकियेगा ।मना कीजियेगा।
कोई नहीं करेगा विरोध।कोई नहीं बोलेगा।नहीं करेगा बहिष्कार।
इन फोटो में आप खुद देख लेंसभी मौजूद हैं।
यह हिंदी साहित्य है।।
भूल जाये नैतिकता उसूल न्याय।
पीड़िता को भी भूल जाना चाहिए।
यह देश इसी तरह चलेगा।साहित्य भी।
आप कुछ नहीं कर सकते।आंख मूंद लें।"
विमल कुमार जी ने यह भी
लिखा :
"अधिक रॉयल्टी मिलने से लेखक बड़ा नहीं होता। लेखक वह बड़ा होता जो ग़लत बात का विरोध करने का साहस रखता हो।"
और भी पोस्ट लिखी गई होंगी इस मसले पर। आगे भी लिखी जायेंगी। इसी बहाने कुछ हलचल होगी।
जहाँ तक सचिव साहित्य अकादमी पर किसी कार्रवाई का सवाल है तो यह आने वाला समय बतायेगा लेकिन जिस तरह की गतिविधियां अभी तक हुई हैं उससे लगता नहीं कि उनकी ख़िलाफ़ कुछ हो पायेगा। शायद अगले महीने उनका रिटायरमेंट भी है। तब तक शायद सब ऐसे ही चलता रहेगा।
असद ज़ैदी जी ने इस पूरे घटनाक्रम पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा :
"साहित्य अकादेमी के सचिव द्वारा अपनी अधीनस्थ महिला अधिकारी के यौन उत्पीड़न का मामला पिछले सात साल से लोगों की आम जानकारी में है। इस मामले को नज़रअंदाज़ करने, दबाने, या दोषी के पक्ष में माहौल बनाने की ज़िम्मेदारी से हमारे लेखक और बौद्धिक भी बरी नहीं हो सकते। इस दरम्यान सौ से अधिक साहित्यकार बेहिचक होकर साहित्य अकादेमी पुरस्कार ग्रहण कर चुके हैं, इनसे भी बड़ी संख्या युवा
लेखन और अनुवाद के क्षेत्र में पुरस्कार पाने वाले लेखकों की है। अकादेमी के सालाना आयोजन में जमघट लगते रहे हैं। राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर सैकड़ों साहित्यिक आयोजन, कार्यशालाएँ, विचार गोष्ठियाँ और जलसे हुए हैं। हज़ारों लोग इनमें शरीक हुए हैं। किसी ने इस मामले को आधार बनाकर दोषी संस्था और व्यक्ति को नहीं ललकारा, पुरस्कार या निमंत्रण को क़ुबूल करने से इन्कार नहीं किया, और लालच भरी निगाह से देखते रहे।
पीड़िता एक अजनबी शहर में साहसपूर्वक अकेले ही इतने बरस तक क़ानूनी लड़ाई लड़ती रही, उसकी नौकरी भी ख़त्म कर दी गई। यह क़ाबिले-ग़ौर है कि किसी सांस्कृतिक या साहित्यिक संगठन ने इस लड़ाई में उसका साथ नहीं दिया। हल्की सी रस्म अदायगी में कहीं कुछ कह दिया हो तो कह दिया हो, ताकि सनद रहे। इससे अधिक कुछ नहीं। अपवादस्वरूप एकाध आवाज़ उठकर रह गयी। अब जबकि उच्च न्यायालय ने विचाराधीन मामले पर जो फ़ैसला दिया है वह स्पष्टतः पीड़िता के पक्ष में और अकादेमी और उसके सचिव के विरोध में जाता है तो कुछ लोगों की ज़बान खुलती नज़र आती है।
यह है हमारी नैतिक परिस्थिति और ‘प्रतिरोध’ का सार!
इक्कीसवीं सदी का पहला चौथाई हिस्सा हमारे बौद्धिक और सांस्कृतिक जगत में विराट आपराधिक ख़ामोशी, ज़मीर फ़रोशी और अघोषित आपसमर्पण का काल रहा है। और ज़िल्लत का यह रास्ता ख़ुद इसी जगत के वासियों ने चुना है।"
"हैरान करनेवाली बात है कि पटना में हुए एक कांड से जो लेखक बेहद उत्तेजित थे और होना भी चाहिए था,उनमें से 99 फीसदी ' द वायर 'की इस रिपोर्ट को आराम से नजरंदाज किए हुए हैं।कोई कारण तो होगा? अकारण तो कुछ होता नहीं।एक जगह स्त्री का अपमान, अपमान है, दूसरी जगह एक मामूली घटना!"
परसाई जी को अपना आदर्श मानने वाले लोग व्यंग्य के संक्रमण काल में व्यंग्य पर चर्चा करने के लिए मौजूद थे। परसाई जी ने व्यंग्य का परिभाषित करते हुए लिखा था -"व्यंग्य करुणा से उपजता है।" कितनी करुण स्थिति में पहुंचकर लोग व्यंग्य के बारे में चिंतित हो रहे होंगे यह देखने के मैं वहाँ मौजूद नहीं था।
हम यह कतई नहीं कहेंगे कि साहित्य अकादमी के मंच पर व्यंग्य पर चिंता करने वाले व्यंग्यकार किसी सम्मान, लालच के चलते इस कार्यक्रम में आए होंगे। हालांकि परसाई जी कहा जरूर है -"लाभ जब थूकता है तो उसे हथेली पर लेना पड़ता है।"
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