मैं काफी दिनों से कानपुर के बारे में लिखने की सोच रहा था.आज अतुल के फोटो देखे तो लगा कि लिखने के लिये सोचना कैसा ?अगर लिखने के लिये भी सोचना पङे तो हालत सोचनीय ही कही जायेगी.
मेरे अलावा जो चिट्ठाकार कानपुर से किसी न किसी तरह जुङे रहे हैं(अतुल,इंद्र अवस्थी,जीतेन्द्र,आशीष और राजेश)उनको लिखने के लिये उकसाने की कोशिश भी कानपुर के बारे में लिखने का कारण है .अवस्थी की हरकतें तो कुछ-कुछ शरीफों जैसी लगती हैं:-
लहूलुहान नजारों का जिक्र आया तो
शरीफ लोग उठे और दूर जाके बैठ गये.
ज्यादा दिन नही हुये जब कानपुर "मैनचेस्टर आफ इंडिया" कहलाता था.यहां दिनरात चलती कपङे की मिलों के कारण.आज मिलें बंद है और कानपुर फिलहाल कुली कबाङियों का शहर बना अपने उद्धारक की बाट जोह रहा है.कानपुर को धूल,धुआं और धूर्तों का शहर बताने वाले यह बताना नहीं भूलते कि प्रसिद्ध ठग नटवरलाल ने अपनी ठगी का बिसमिल्ला (शुरुआत)कानपुर से ही किया था.
फिलहाल शहर के लिये दो झुनझुने बहुत दिनों से बज रहे हैं .गंगा बैराज और हवाई अड्डा.देखना है कि कब यह बनेगे.कानपुर अपने आसपास के लिये कलकत्ता की तरह है. जैसे कलकत्ते के लिये भोजपुरी में कहते हैं-लागा झुलनिया(ट्रेन)का धक्का ,बलम कलकत्ता गये.इसी तरह आसपास के गांव से लेकर पूर्वी उत्तरप्रदेश तक जिसका मूड उखङा वो सत्तू बांध के कानपुर भाग आता है और यह शहर भी बावजूद तमाम जर्जरता के किसी को निराश करना अभी तक सीख नहीं पाया.
टेनरियों और अन्य प्रदूषण के कारण कानपुर में गंगा भले ही मैली हो गयी हो,कभी बचपन में सुनी यह पंक्तियां आज भी साफ सुनाई देती हैं:-
कानपुर कनकैया
जंह पर बहती गंगा मइया
ऊपर चलै रेल का पहिया
नीचे बहती गंगा मइया
चना जोर गरम......
चने को खाते लछमण वीर
चलाते गढ लंका में तीर
फूट गयी रावण की तकदीर
चना जोर गरम......
कितना ही चरमरा गया हो ढांचा कानपुर की औद्धोगिक स्थिति का पर कनपुरिया ठसक के दर्शन अक्सर हो ही जाते हैं, गाहे-बगाहे.एक जो नारा कनपुरियों को बांधता है,हिसाबियों को भी शहंशाही-फकीरी ठसक का अहसास देता है ,वह है:-
झाङे रहो कलट्टरगंज,
मंडी खुली बजाजा बंद.
कनपरिया टकसाल में हर साल ऐसे शब्द गढे जाते हैं जो कुछ दिन छाये रहते हैं और फिर लुप्त हो जाते हैं.कुछ स्थायी नागरिकता हासिल कर लेते है.चिकाई /चिकाही, गुरु ,लौझङ जैसे अनगिनत शब्द स्थायी नागरिक हैं यहां की बोली बानी के.गुरु के इतने मतलब हैं कि सिर्फ कहने और सुनने वाले का संबंध ही इसके मायने तय कर सकता है ."नवा(नया) है का बे?" का प्रयोग कुछ दिन शहर पर इतना हावी रहा कि एक बार कर्फ्यू लगने की नौबत आ गयी थी. चवन्नी कम पौने आठ उन लोगों के परिचय के लिये मशहूर रहा जो ओवर टाइम के चक्कर में देर तक (पौने आठ बजे)घर वापस आ पाते थे.आलसियों ने मेहनत बचाने के लिये इसके लघु रूप पौने आठ से काम निकालना शुरू किया तो चवन्नी पता ही नही चला कब गायब हो गयी
कनपुरिया मुहल्लों के नामों का भी रोचक इतिहास है.
तमाम चीजें कानपुर की प्रसिद्ध हैं. ठग्गू के लड्डू (बदनाम कुल्फी भी)का कहना है:-
1.ऐसा कोई सगा नहीं
जिसको हमने ठगा नहीं
2.दुकान बेटे की गारंटी बाप की
3.मेहमान को मत खिलाना
वर्ना टिक जायेगा.
4.बदनाम कुल्फी --
जिसे खाते ही
जुबां और जेब की गर्मी गायब
5.विदेसी पीते बरसों बीते
आज देसी पी लो--
शराब नहीं ,जलजीरा.
मोतीझील ( हंस नहीं मोती नहीं कहते मोतीझील ),बृजेन्द्र स्वरूप पार्क,कमला क्लब,कभी सर्व सुलभ खेल के मैदान होते थे.आज वहां जाना दुर्लभ है. कमला टावर की ऊंचाई पर कनपुरिया कथाकार प्रियंवदजी इतना रीझ गये कि अपनी एक कहानी में नायिका के स्तनों का आकार कमला टावर जैसा बताया.
नाना साहब ,गणेश शंकर विद्धार्थी,नवीन,सनेही जी ,नीरज आदि से लेकर आज तक सैकङों ख्यातनाम कानपुर से जुङे हैं.
एक नाम मेरे मन में और उभरता है.भगवती प्रसाद दीक्षत "घोङेवाला" का.घोङेवाले एकदम राबिनहुड वाले अंदाज में चुनाव लङते थे.उनके समर्थक ज्यादातर युवा रहते थे.हर बार वो हारते थे.पर हर चुनाव में खङे होते रहे.एक बार लगा जीत जायेंगे.पर तीसरे नंबर पर रहे.उनके चुनावी भाषण हमारे रोजमर्रा के दोमुहेपन पर होते थे.एक भाषण की मुझे याद है:-
जब लङका सरकारी नौकरी करता है तो घरवाले कहते हैं खाली तन्ख्वाह से गुजारा कैसे होगा?ऐसी नौकरी से क्या फायदा जहां ऊपर की कमाई न हो.वही लङका जब घूस लेते पकङा जाता है तो घर वाले कहते है-हाथ बचा के काम करना चाहिये था.सब चाहते हैं-लड्डू फूटे चूरा होय, हम भी खायें तुम भी खाओ.
"डान क्विकजोट" के अंदाज में अकेले चलते घोङेवाले चलते समय कहते-- आगे के मोर्चे हमें आवाज दे रहे है.
सन् 57 की क्रान्ति से लेकर आजादी की लङाई,क्रान्तिकारी,मजदूर आन्दोलन में कानपुर का सक्रिय योगदान रहा है.शहर की बंद पङी मिलों की शान्त चिमनियां गवाह हैं ईंट से ईंट बजा देने के जज्बे को लेकर हुये श्रमिक आन्दोलनों की.ईंटे बजने के बाद अब बिकने की नियति का निरुपाय इन्तजार कर रही हैं.
आई आई टी कानपुर,एच बी टी आई ,मेडिकल कालेज से लैस यह शहर आज कोचिंग की मंडी है.आज अखबार कह रहा था कि अवैध हथियारों की भी मंडी है कानपुर.
कानपुर के नये आकर्षणों में एक है -रेव-3.तीन सिनेमा घरों वाला शापिंग काम्प्लेक्स. मध्यवर्गीय लोग अब अपने मेहमानों को जे के मंदिर न ले जाकर रेव-३ ले जाते हैं.पर मुझसे कोई रेव-3 की खाशियत पूंछता है तो मैं यही कहता हूं कि यह भैरो घाट(श्मशान घाट) के पीछे बना है यही इसकी खाशियत है.बमार्फत गोविन्द उपाध्याय(कथाकार)यह पता चला है कि रेव-3 की तर्ज पर भैरोघाट का नया नामकरण रेव-4 हो गया है और चल निकला है.
कानपुर में बहुत कुछ रोने को है.बिजली,पानी,सीवर,सुअर,जाम,कीचङ की समस्या.बहुत कुछ है यहां जो यह शहर छोङकर जाने वाले को बहाने देता है.यह शहर तमाम सुविधाओं में उन शहरों से पीछे है जिनका विकास अमरबेल की तरह शासन के सहारे हुआ है.पर इस शहर की सबसे बङी ताकत यही है कि जिसको कहीं सहारा नहीं मिलता उनको यह शहर अपना लेता है.
जब तक यह ताकत इस शहर में बनी रहेगी तब तक कनपुरिया(झाङे रहो कलट्टरगंज) ठसक भी बनी रहेगी.
आज दीपावली है.सभी को शुभकामनायें.
मेरी पसंद
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये.
नयी ज्योति के धर नये पंख झिलमिल
उङे मर्त्य मिट्टी गगन स्र्वग छू ले
लगे रोशनी की झङी झूम ऐसी
निशा की गली में तिमिर राह भूले.
खुले मुक्ति का वह किरण- द्वार जगमग
उषा जा न पाये निशा आ न पाये.
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये.
-----गोपाल दास "नीरज"
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वाह वाह अनूप भाई,, क्या बात है....
ReplyDeleteआपकी कही एक एक बात...सौ फी सदी खरी है.
लेख पढकर अपने कानपुर की याद आती है
हम चाहे जहाँ रहे, अपनी जन्मभूमि नही भूल सकते,
भले शहर ने हमे भुला दिया हो, मगर हम नही भूले.
हम आज भी तन मन से खालिस कानपुरी है,
यह सब हम दिल से कह रहे है, कोई चिकाइबाजी नही कर रहे.
अन्त मे आपको और सभी कानपुर वासियो को
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाये...
अरे भइया शहर पर यह तोहमत काहे लगा रहे हो कि उसने तुम्हे भुला दिया.शहर को तो भरोसा है:-
ReplyDeleteचाहे जितने दूर रहो तुम
कितने ही मजबूर रहो तुम,
जब मेरी आवाज सुनोगे
सब कुछ छोङ चले आओगे.
खुशनुमा दीपावली की मंगलकामनायें.
का लिखे हो अनूप बाबू। कसम से अपने अम्बाला की याद आ गई
ReplyDeleteमक्खी मच्छर और नाला
इन सबसे बना अम्बाला ।।
आदमी चाहे कितना ही दूर क्यों न चला जाए जन्मभूमि हमेंशा उस मदरशिप की तरह रहती है जिस के पास जाके आदमी की बैटरियाँ चार्ज हो जाती हैं। आप खुशकिस्मत हैं कि अपने कानपुर में बैठे हैं हमारी तरह मायादास हो कर दर दर नहीं घूम रहे।
पंकज भाई अम्बाले वाले
अनूप जी, कानपुर के बार में पढकर मजा आ गया.मेरे कुछ मित्र कानपुर से हैं, और आपका लेख पढकर समझ आता है कि वो पक्के कानपुरयें हैं.
ReplyDeleteआपने तद्भव में मनोहर श्याम जोशी के लेख के बारे में लिखा है. वो लेख शायद इंटरनेट संस्करण में उपलब्ध नहीं है, कुछ जानकारी हो तो बतायें.
शैल जी,यह जानकर अच्छा लगा कि आपको मजा आया पढकर.मैंने तो जो कुछ लिखा उसमें बाकी कनपुरिये और बहुत कुछ जोङ सकते हैं.जैसा पंकज ने अंबाला के बारे में लिखा वैसे ही हर शहर की कुछ खासियत होती है.बनारस के बारे में तमाम बातों के साथ यह भी कहा जाता है:-बनारस खुद आधुनिक नहीं होना चाहता (Varanasi is a city which have refused to modernize itself).जोशी जी के संस्मरण शीघ्र ही नेट पर आ जायेंगे ऐसा तद्भव पत्रिका वालों ने बताया.पर मैं
ReplyDeleteउससे पहले ही आपको भेज दूंगा.
भईये ईतनी पुरानी जुगलबंदियाँ याद दिलाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया| लगे हाथ यह रेव ४ का क्या चक्कर है जरा तफसील से बताईये|
ReplyDeleteहर बात में मौज का रास्ता तलाश लेने वाले लोग रेव-3 की तर्ज पर भैरोघाट (श्मशान घाट)को रेव -4 कहने लगे हैं और यह काफी चल निकला है.जीवन के दो विरोधाभासों को प्रतिनिधत्व करते हैं ये दोनो स्थान.एक जीवन के उल्लास को (रेव-4)तो दूसरा जीवन के अंत को(भैरोघाट/रेव -4 ).दोनो के बीच केवल एक दीवार है.
ReplyDelete......जीवन के उल्लास(रेव-३)पढें
ReplyDeleteअच्छा ये रेव ४ का चक्कर पहली बार पता चला है, फन्डू आइडिया है। लोगों के दिमाग में पता नहीं क्या क्या मस्त मस्त आता है ।
ReplyDeleteअच्छा ये भी बता दूं लगे हाथों कि गर मुझे किसी को बताना हो कि मैं कहां का हूं तो मैं कहूंगा कि मैं भी 'कान ही पुर' का हूं, है न ठेठ कनपुरिया अन्दाज़ ।
आशीष
anoop ji
ReplyDeleteaapke dwaara yahaan par lagayi hui neeraj ji ki kavita "jalao diye" mili.
main ye kavita kai dino se dhoondh rahi thi.
dhanyawaad!
waah bhai waah ...lekhak ki kalam ke zor ne hansaaya bhi ...aur bhaavuk karkey rulaaya bhi .....bahut badhiyaa kanpur hai apnaa ....jahaan sab dekhtey din main bhi sapnaa ......
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