Thursday, November 25, 2004

आत्मनिर्भरता की ओर

लिखने के तमाम बहानों का इस बीच खुलासा हो चुका है.एक और कारण श्रीलाल शुक्ल जी ने अपने एक लेख(मैं लिखता हूं इसलिये कि...)में बताया है:-

"लिखने का एक कारण मुरव्वत भी है.आपने गांव की सुंदरी की कहानी सुनी होगी .उसकी बदचलनी के किस्सों से आजिज आकर उसकी सहेली ने जब उसे फटकार लगाई तो उसने धीरे से समझाया-'क्या करूं बहन,जब लोग इतनी खुशामद करते हैं और हाथ पकङ लेते हैं तो मारे मुरव्वत के मुझसे नहीं नहीं करते बनती.तो बहुत सा लेखन इसी मुरव्वत का नतीजा है.सहयोगी और सम्पादक जब रचना का आग्रह करने लगते हैं तो कागज पर अच्छी रचना भले न उतरे ,वहां मुरव्वत की स्याही तो फैलती ही है."

अब जब मैंने यह पढा तो मेरी इस शंका का समाधान भी हो गया कि ठेलुहा नरेश तथाकथित ज्ञान प्राप्ति के बहाने केजी गुरु की तरफ काहे लपकते हैं.तथाकथित इसलिये लिखा क्योंकि जितना ज्ञान केजी गुरु से ये पाने की बात करते हैं उतना तो ये गुरुग्रह की तरफ लपकते हुये हर सांस में बाहर फेंक देते हैं प्रकृति की गोद में बिना पावती रसीद (acknowledgement)लिये.

हम अड्डेबाजी की असलियत जानने के लिये अपने उन आदमियों को लगा दिये जो वैसे तो किसी के नहीं होते पर लफङा अनुसंधान के लिये सारी दुनिया के होते हैं.जो रिपोर्ट मिली उसके अनुसार दो कारण समझ में आये अड्डेबाजी के:-

1.गुरुपत्नी का गुरु के साथ व्यवहार से उनको (ठेलुहा नरेश को)यह सुकून मिलता है कि ऐसा दुनिया मे सब पतियों के साथ होता है अकेले उन्हीं के साथ नहीं.

2.गुरुपत्नी से मिली तारीफ उनको यह खुशफहमी पालने का मौका देती है कि उनमें कुछ खास है जो दूसरों में नहीं.

दुनिया के सारे पति बराबर होते हैं पर कुछ पति ज्यादा बराबर होते हैं का झुनझुना थमा देती है केजी गुरु के घर की हर विजट इन्हें .इस मुरव्वत की चाहना में अपने मन की आवाज को अनसुना करके लपकते हैं ये तथाकथित ज्ञान की तलाश में.

हम भी मुरव्वत के मारे हैं.लोगों की तारीफ को सच मानकर या फिर जवाबी कीर्तन के फेर में पङकर हम जो लिख गये उसको जितनी बार हम पढते हैं उतनी बार गलतफहमी का शिकार होते हैं.हर बार मुग्धा नायिका की स्थिति को प्राप्त होते हैं जो अपने सौंदर्य पर खुद रीझती है. मुग्ध होती है खुद अपनी खूबसूरती के ऊपर .मेरे लिखे की तारीफ जब कोई करता है तो लगता है कि दुनिया उतनी बुरी नहीं जितना लोग बताते हैं.अभी भी दुनिया में गुणग्राहकों की कमी नही है.

मेरे मित्र नीरज केला के पिताजी कहते हैं -" तारीफ दुनिया का सबसे बङा ब्रम्हास्त्र है.इसकी मार से आज तक कोई बचा नहीं.इसका वार कभी बेकार नहीं जाता सिर्फ आपको इसके प्रयोग की सही विधि पता होना चाहिये."

इस सूत्र वाक्य की सत्यता मैं कई बार परख चुका हूं.हर बार यह खरा उतरा.जिन अवसरों पर यह विफल रहा वहां खोज करने पर पता चला कि प्रयोगविधि में दोष था.सही विधि वैसे तो 'गूंगे का गुङ' है फिर भी बताने का प्रयास करता हूं.

आमतौर पर जिन गुणों की समाज में प्रतिष्ठा है वे आंख मींच कर किसी पर भी आरोपित कर दिये जायें तो उस 'किसी भी' का प्रभावित होना लाजिमी है.किसी भी महिला को खूबसूरत ,बुद्धिमती, पुरुष को स्मार्ट ,बुद्धिमान आदि कह दें तो काम भर का काम तो हो ही जाता है.कुछ लोग दूसरे गुणों की तारीफ भी चाहते हैं.इसमें सारी कलाकारी इस बात पर निर्भर करती है कि आप यह जान सकें कि तारीफ किस चीज की चाही जा रही है.चाहने और करने में जितना साम्य होगा ब्रम्हास्त्र का असर उतना ही सटीक होगा.जितना अंतर होगा मांग और पूर्ति में उतना ही कम असर होगा तारीफ का.

गङबङी तब होती है जब आप किसी सुंदरी की तारीफ में कसीदे काढ रहे होते हैं और वह चातक की तरह आपके मुंह की तरफ इस आशा से ताकती रहती है कि आप उसकी उस बुद्धि की तारीफ करें जिसने उस पर स्पर्श रेखा(Tangent) तक नहीं डाली.किसी कूढमगज व्यक्ति की स्मार्टनेस के बारे में कहे हजारों शब्द बेकार हैं अगर आपको उसकी इस इच्छा का पता नहीं कि वह अपनी त्वरित निर्णय क्षमता को अपना खास गुण मानता है.

देखा गया है कि लोग अपने उन गुणों की तारीफ के किये ज्यादा हुङकते हैं जो उनमें कम होता है या कभी-कभी होता ही नहीं.

तारीफ के इस हथियार की मारक क्षमता दोगुनी करने भी तरीके हैं.एक राजा के दरबार में एक कवि के किसी जघन्य अपराध की सजा मौत सुनायी गयी.राजा के मंत्री ने कहा-महाराज इसके अपराध की तुलना में मौत की सजा कम है.इसे और बङी सजा मिलनी चाहिये.राजा बोला-मौत से बङी और क्या सजा हो सकती है?मंत्री ने कहा -महाराज, हो सकती है.इस कवि के सामने दूसरे कवि कीतारीफ की जाये .यह सजा मौत की सजा से भी बङी सजा है किसी कवि के लिये.

आज का समय आत्म निर्भरता का है.हर समझदार अपने कार्यक्षेत्र में आत्मनिर्भर होने की कोशिश करता है.नेता अब चुनाव जीतने के लिये गुंडे के भरोसे नहीं बैठा रहता.खुद गुंडागर्दी सीखता है ताकि किसी के सहारे न रहे. नेतागिरी केविश्वविद्धालयमें प्रवेश के लिये गुंडागर्दी के किंडरगार्डन की शिक्षा जरूरी हो गयी है.

आत्मनिर्भरता की इसी श्रंखला की एक कङी है-अपनी तारीफ में आत्मनिर्भरता(self reliance in self praise).लोग अब गुणग्राहक की प्रतीक्षा में अहिल्या की तरह राम का इंतजार नहीं करते.अपनी तारीफ खुद करना आज के सक्षम व्यक्ति का सबसे बङा हथियार है. मेरे एक मित्र अपना सारा समय यह बताने में गुजारते हैं कि उन्होने अपनी जिंदगी में कितने तीर मारे.चालीस साल का आदमी अपने पांच साल के कुछ कामों का बखान पूरे साठ साल करता है.खाली आत्मप्रसंशा को अपना पराक्रम समझता है.मैं डरने लगा हूं उसके पास जाने में.पर वह भी चालाक हो गया है.देखता हूं कि अपनी तारीफ का मंगलाचरण (शुरुआत)अब वह मेरी तारीफ से करता है.मैं मुरव्वत का मारा फिर सुनने पर मजबूर हो जाता हूं उसकी आत्मप्रसंशा.

किसी व्यक्ति की अपनी तारीफ में आत्मनिर्भरता की मात्रा उसके नाकारेपन की मात्रा की समानुपाती होती है.जो जितना बङा नाकारा होगा वह अपनी तारीफ में उतना ही अधिक आत्मनिर्भर होगा.

इस कङी में तमाम बातें उदाहरण हैं.देखा गया है कि गंुडे अपनी शराफत की,बेईमान अपनी ईमानदारी की , हरामखोर अपनी कर्तव्य निष्ठा की तारीफ करते रंगे हाथ पकङे जाते है. सच्चा ज्ञानी अपने ज्ञान की ध्वजा नहीं फहराता .लोग खुद उसके मुरीद होते जाते हैं.बुद्धिमान अपनी बुद्धि की तारीफ में बुद्धि नहीं खराब करता.जब इन गुणों का अभाव होता है तो लोग क्षतिपूर्ति के लिये तारीफ में आत्मनिर्भरता की डगर पर कदम रखते हैं.जैसे बुढापे में लोग वियाग्रा का प्रयोग करने लगते हैं.जवान लोगों को वियाग्रा की जरूरत नहीं पङती.

आज जब मैं यह लिख रहा था तो एक मित्र का फोन आ गया.मैंने उनको अपने सारे पुराने लेख पढ कर सुनाने शुरु किये.कुछ देर बाद मेरे लङके ने टोका -पापा आप फोन हाथ में किये क्यों पढ रहे है ? मैंने बताया फोन पर अपने दोस्त को अपना लिखा सुना रहा हूं.उसके पास पीसी नहीं है.मेरे लङके ने बताया -पर फोन तो मेरे दोस्त का आया था.आधा घंटा पहले.मैंने पैरालल(समातंर)लाइन पर बात करके फोन रख दिया था.मैंने देखा फोन जिसको मैं हाथ में पकङे था उसमें डायलटोन बज रही थी.

मुझे लगा हम मुग्धानायिका की स्थिति को प्राप्त हो चुके हैं.

मेरी पसंद

आंखों में रंगीन नजारे
सपने बङे-बङे
भरी धार लगता है जैसे
बालू बीच खङे.

बहके हुये समंदर
मन के ज्वार निकाल रहे
दरकी हुई शिलाओं में
खारापन डाल रहे
मूल्य पङे हैं बिखरे जैसे
शीशे के टुकङे.


अंधकार की पंचायत में
सूरज की पेशी
किरणें ऐसे करें गवाही
जैसे परदेसी
सरेआम नीलाम रोशनी
ऊंचे भाव चढे.

नजरों के ओछेपन
जब इतिहास रचाते हैं
पिटे हुये मोहरे
पन्ना-पन्ना भर जाते हैं
बैठाये जाते हैं
सच्चों पर पहरे तगङे

आंखों में रंगीन नजारे
सपने बङे-बङे
भारी धार लगता है जैसे
बालू बीच खङे.

कन्हैयालाल नंदन

6 comments:

  1. Anonymous4:54 AM

    धन्य हो गुरुदेव। यह लेख लिख कर कहीं हमारे जैसे पाठक जो पढ़कर बिना टिप्पणी किये आगे बढ़ जाते हैं, को धता तो नहीं बता रहे। कि तुम लोग तारीफ करो न करो मैं तो चिट्ठे बाँचता ही रहुँगा। भई हम तो यही कहेंगे कि लगे रहिए। कालोनी की कोई सभी वगैरह होती हो वहाँ भी प्रिंट आउट लेकर ले जाईए :D

    पंकज

    ReplyDelete
  2. "किसी व्यक्ति की अपनी तारीफ में आत्मनिर्भरता की मात्रा उसके नाकारेपन की मात्रा की समानुपाती होती है.जो जितना बङा नाकारा होगा वह अपनी तारीफ में उतना ही अधिक आत्मनिर्भर होगा".इन सूत्र वाक्यों की चर्चा मुख्य उद्देश्य था इस पोस्ट को लिखने का.बाकी उपलब्धियां हों तो उनसे भी परहेज नही होगा.

    ReplyDelete
  3. गुरुजनों की संगति में ही ज्ञान के दर्शन होते हैं. अब केजी गुरू को लें और उनके ट्रांजीशन को देखें, मुँह झोले जैसा लटकाने के बाद से लेकर हमको आँख मारने तक का (१:३० मिनट से भी कम). बीच के घटनाक्रम के बारे में कोई प्रतिक्रिया तक व्यक्त करने तक की ज़रूरत नहीं समझी गयी. यही गुरू-महिमा है. हमको तो लगता है कि यह लीला भी गुरू ने हमको ज्ञान-प्राप्त कराने के लिये रची, उन्हें तो पहले से ही पता थहा कि क्या होना है।
    बोलिये जय गुरुदेव

    ReplyDelete
  4. अवस्थी,केजी गुरु की तुमने जो महिमा बताई हम उसके झांसे में आने हीे वाले थे कि तुलसीदास जी ने बचा लिया.वो कहते हैं:-

    गुरु ग्रहे गये पढन रघुराई,
    अल्पकाल विद्धा सब पाई.

    मतलब राम को विद्धा गुरु ने दी नहीं उन्होने ले ली.तो गुरु एक ही होता है पर चेले अपनी औकात के अनुसार विद्धा पाते हैं.ये केजी
    गुरु तो लगता है तुम्हारा विद्धाविस्मरण (Delearning)करा रहे हैं तभी तुम इतने लचर बहाने मारने लगे गुरु के समर्थन में.तुम तो ऐसे न थे.

    ReplyDelete
  5. श्रद्धा और (अंध)विश्वास में लाजिक फाइंड करते हो और भारतीय संस्कृति क्या है इस पर लेख भी लिखते हो अइसे कइसे चली?कम से कम अपनी ही बात पर टिको कि ज्ञान लपका भी जा सकता है कहीं से!
    अब ऐसा ही हूँ मैं! (अजय देवगन से सीधे टोपा है)

    ReplyDelete
  6. श्रद्धा और (अंध)विश्वास का 'अद्धा' सारे तर्कों पर हावी होता है लिहाजा तुम्हारी बात मानने से बड़ी तार्किक बात और कोई नहीं है -फिलहाल.

    ReplyDelete