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अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
…अथ लखनऊ भेंटवार्ता कथा
काल्ह करै सो आज कर :- अनूप भार्गव के सम्मानित होने की खबर से
लोगों को मजा आया लेकिन उतना नहीं। यह भी हो सकता है लोगों को अनूप भार्गव
के सम्मानित होने की खबर से ज्यादा मह्त्वपूर्ण बात अनूप-द्वय का मिलन
विवरण लग रहा है। लोग अंदर की बात जानना चाहते होंगे कि आखिर कैसे मिलते
हैं दो लोग जिनकी उपमा नहीं दी जा सकती। या फिर यह कि सम्मानित तो हो ही
गये। जो होना था सो हो गया। होनी को कौन टाल सकता है भला। इसलिये अब कुछ और
सुनाओ भाई!सुनाओ अपनी मुलाकात का विवरण।
पाठक इच्छा को सर्वोपरि मानते हुये अनूप-अनूप की अनुपम मिलन कथा कहने का प्रयास करता हूं।आशा है कि पाठक गण इसे अपने हित में समझकर मन लगाकर पढ़ने का प्रयास करेंगे। ऐसा कहा जाता है कि जो इस कथा का मन लगाकर पारायण करेगा उसे उतना ही आनन्द प्राप्त होगा जितना सबेरे-सबेरे चाय की चुस्की के बीच बिस्तर से माया के समान चिपके हुये बापू ,बाबा,मां,देवी,दीदी आदि विभूतियों के माया त्याग के उपदेश सुनते हुये आनन्द की प्राप्ति होती है। जो इसे नहीं पढे़गा उसे भी वैसी ही आनन्दानुभूति होगी लेकिन कुछ समय लगेगा क्योंकि देर-सबेर उसको भी इसे पढने के लिये लोग मजबूर कर ही देंगे।इसलिये जो काम करना ही है उसे करने में देर से क्या फायदा।सो आप ऐसा करें कि इसे पढ़ ही डालिये आज ही।काल्ह करै सो आज कर…।
खबर उड़ना सम्मानित होने की:- बात उन दिनों की है जब प्लूटो का ग्रह होने का दर्जा छिना नहीं था न ही नारद जी पैदल हुये थे और न ही सचिन तेंदुलकर ने अभी बनाया शतक बनाया था। यहां तक कि लगे रहो मुन्ना भाई या ऒंकारा पिक्चरें रिलीज नहीं हुयीं थी। गरज यह कि सब कुछ सामान्य था। लेकिन तभी कुछ असामान्य घटनाक्रम हुआ ।बी.बी.सी. ने खबर उड़ा दी कि अमेरिका में रहने वाले अनूप भार्गव को विदेशों में हिंदी प्रचार के लिये जिम्मेदार ठहरा दिया गया। जब तक खबर का मतलब समझा जाये तब तक कानपुर में अनूप शुक्ल के यहां १२० रुपये किलो वाली मिठाई के दो डिब्बे खप गये। बाद में लोगों ने पेडे़ के ऊपर पानी पीते हुये कहा कि भाई नामराशि के सम्मानित होने की इतनी खुशी तो कम से कम होनी ही चाहिये। हम मजबूर थे खुश होने के सिवा क्या कर सकते थे! सो हुये। लेकिन उसका फायदा भी अनूप भार्गव को ही मिला। सम्मानित तो होना था सितम्बर में लेकिन हमारी खुशी के चलते ‘सेलेब्रिटी’ बन गये जून में ही। हमने राकेश खंडेलवाल की कविता पंक्तियां:-
आपके साथ जो भी मिला पग चले
वे ही सम्मान पाते रहे सर्वदा
को सच मानते हुये माना ,मजबूरन ,कि भाई यह हमारा ही सम्मान है।और इस तरह से हमने दो किलो पेड़े का खर्चा जायज ठहराया।
अनूप भार्गव बोले तो:-अनूप भार्गव होने का मतलब बताना मुश्किल काम है । जैसे सारे जानवर बराबर होते हैं लेकिन कुछ ज्यादा ही बराबर होते हैं वैसे ही यूं तो सारे अनूप बराबर होते हैं ,अनुपम होते हैं लेकिन कुछ ज्यादा ही बराबर होते हैं,अनुपम होते हैं। या फिर कहा जाये कि यूं तो सितम्बर में पैदा होने वाले सारे लोग महान होते हैं लेकिन कुछ सितम्बरी ज्यादा ही महान होते हैं।हमारी पहले बातों की पुष्टि सबसे अच्छी तरह अतुल कर सकते हैं, जिनके पैदाइसी छोटे भाई का नाम भी अनूप है और ब्लागिंग कृपा से मत्थे पड़े बडे़ भाई का नाम भी अनूप है, या फिर जीतेंद्र जिन्होंने धरती पर अवतार लेने का वही दिन चुना जिस दिन अनूप भार्गव ने भये प्रकट कृपाला होना तय किया मतलब आठ सितंबर।
अनूप भार्गव कविता लिखते हैं। उनकी सबसे अच्छी बात यह है कि वे झूठ नहीं बोलते। ब्लाग का नाम मुझे कुछ कहना है रखा तो कुछ ही कहते रहे। ये नहीं कि कुछ कहने की आड़ में बहुत कुछ कहने लगें। छोटी-छोटी कविताऒं में से अधिकतर में वे कुछ-कुछ होता है वाले घराने वाली कवितायें लिखते हैं। कुछ-कुछ भी उनको यह नहीं कि रोज-रोज हो। कभी-कभी होता है। ऐसा लगता है कि वे संतोषी प्रकृति के हैं।
उनकी कविताऒं में नये अंदाज में कुछ -कुछ होता है। कभी वे गणित के सहारे नजदीकी हासिल करते हैं,कभी चीनी की जगह अंगुली से मिठास घोलते हैं,कभी उनकी आंखों में नमी देखते हैं,कभी रजनीजी अगरबत्ती की तरह सुलगा देते हैं। ये तो कहो किसी महिला मुक्ति आंदोलन कार्यकर्ता की नजर नहीं पड़ी उनकी कविताऒ पर नहीं तो महिला विरोधी करार देती कविताऒं को।
लेकिन वे कवि होने से अधिक कविता के प्रचारक हैं। अमेरिका में चारो तरफ कविता ही कविता फैला दी हैं इन्होंने। ई-कविता का जलवा तो ऐसा है कि हमारा रेडिफमेल का खाता बेचारा मेल-बोझ से दुहरा होता रहता है।इसके अलावा वे अमेरिका में कवि सम्मेलनों का आयोजन करते रहते हैं।एक पत्रिका भी निकालने में सहयोग करते हैं।
लेकिन इनको जानने वाले कहते हैं कि वे कवि,प्रचारक,आयोजक,इंजीनियर,पति,पिता से बढ़कर एक बहुत अच्छे इंसान हैं। यह बात इतने लोगों ने कही है कि इसे सच मानने के सिवा हमारे पास कोई चारा नहीं है। आपके पास भी नहीं होगा सो बेहतर है आप भी इस पर यकीन कर लो ताकि लेख आगे पढा़ जा सके ।मानसी तो अपने अनूप दादा के ऊपर बिना एकोबार मिले ही इतना फिदा हैं कि दुनिया की सारी बढि़या आदते अपने अनूप दादा में ही देखने की दादागिरी दिखाती रहती हैं।ऐसे ही
अच्छाइयों का स्टाक दबा के रखने वाले लोगों के कारण दुनिया में अच्छाई का स्टाक सीमित हो रहा है।
अब एक बात और बता दें जो अंदर की बात है और इसीलिये ज्यादा सच है। जैसे कि हर ढोल के अंदर पोल होता है अनूप भार्गव जी का कुछ मामलों में मामला गोलमोल है । इनको इनाम तो मिला है दुनिया भर में हिंदी प्रचार करने के लिये लेकिन अपने घर में इनकी प्रगति बिल्कुल ऐसी-वैसी ही है । अपनी पत्नी ,जिनकी कवितायें अपने नाम से छापने का समय-असमय इन आरोप इनके बेहद आत्मीय लगाते रहे हैं,का हिंदी में ब्लाग बनाने में इन्होंने बहुत समय लिया और अब पता चला है कि इनकी सलहज बोले तो रजनीजी की भाभीजी बोले तो हिमानी भार्गवजी कवितायें लिखती हैं लेकिन अभी तक ब्लाग विहीन हैं।इसे कहते हैं चिराग तले अंधेरा। वो तो कहो मुख्यमंत्री जी को यह बात पता नहीं चली वर्ना वे कहो कहते आप पहले हिंदी का बचा हुआ प्रचार भी करके आइये फिर चाहे बाकी के पैसे भी ले जाइये ।या यह भी हो सकता है कि पता हो तभी २५०००/- काम के पहले दिये एड्वांस और बाकी के ७५०००/- काम पूरा होने के बाद मिलें।
हो अगर खाली तो आऒ बजाने ताली:- जब तय हुआ कि अब तो सम्मान होकर ही रहेगा तो अनूप भार्गव ने मरता क्या न करता अपने को सम्मानित करने के लिये सौंपने का तय कर लिया। घटना की सनद रखने के लिये जैसे कि बुलाया जाता है वैसे ही उन्होंने हमें कहा हो अगर खाली तो आओ बजाने ताली! मुझे यह अच्छी तरह पता है कि यह न्योता और भी तमाम लोगों को दिया गया होगा लेकिन इसे जिम्मेदारी से हमने ही ग्रहण किया।
जब तय हो गया कि हमें जाना ही है तो हमने ८० किलोमीटर जाने के लिये सैकड़ों योजनायें बनायी लेकिन सारी की सारी खारिज करनी पड़ी। क्योंकि ऐन मौके पर देश को हमारी जरूरत पड़ गयी और हम ताली बजाने से वंचित रह गये। वैसे ताली बजाने के लिये हमारा जाना १३ सितम्बर को ही निरस्त हो गया था लेकिन हमने यह बात समीर लाल जी को जानबूझ कर नहीं बताई। बता देते तो समीर जी संकोच के मारे १४ सितंबर का चिट्ठाचर्चा न लिखते और आप उनकी कुंडलिया युक्त पोस्ट से हाथ धोते।
बहरहाल ,हमारे जाने न जाने से कुछ फरक नहीं पड़ा और हिंदी संस्थान वालों ने अनूप जी को पहचान कर माला पहना के ही छोड़ा। ताली बजाने के लिये भी अनूप भार्गव जी ने बेहतर हाथों की व्यवस्था कर रखी थी।उनकी घरवाली रजनीजी की जगह उनकी आधी आधी घरवालियां साली जी और सलहज जी ने वहां अपने जीजा जी को झुककर माला पहनते हुये और फिर खड़े होकर सम्मानित होते हुये देखा और तालियां बजाईं। २५ हजार रुपये पाकर सम्मान के कारण हुये आर्थिक नुकसान का
अंदाजा लगाते हुये अनूप जी के चेहरे पर खुशी फैल गयी जब मुख्यमंत्री जी ने कहा कि ७५ हजार और दिये जायेंगे। सम्मानित होते ही सम्मान समारोह के अपने सारे फोटो अनूपजी ने खरीद लिये।
कनपुरिया अनूप भी इनाम पाये:-जब प्रदेश की राजधानी में गन्ना शोध संस्थान के सभागार में अनूप भार्गव सम्मानित हो रहे थे ,इनाम पा रहे थे ऐन उसी समय नाम महात्म्य के कारण और सितंबरी सुयोग वश कानपुर में अपनी फॆक्ट्री के सभागार में अनूप शुक्ल भी पैसे और उपहार बटोर रहे थे। कुल जमा सात सौ रुपये और पानी की दुइ लीटरिया बोतल मिली। कुल चार इनामों में से ३००/-मिले लेखन प्रतियोगिता में पहला स्थान पाने के लिये,२००/- मिले भाषण प्रतियोगिता में स्थान पाने के लिये और पूरे दो सौ मिले लेख भारत एक मीटिंग प्रधान देश है और कविता आऒ बैठें कुछ देर पास में के लिये जो हमारी निर्माणी की पत्रिका स्रवन्ती में छपी थी। पानी की बोतल मिली निर्णायक की हैसियत से काम करने के लिये। हमने उसी समय संकल्प पढ़कर सारे पैसे नारद उद्धार के लिये दान कर दिये। तो इस तरह हम दोपहर तक काम भर का इनाम पा चुके थे।
आऒ बैठें कुछ देर साथ में:- हमें जो नंबर अनूप भार्गवजी ने दिया था वह काम नहीं कर रहा था।अब हम यह तो नहीं कहेंगे कि जानबूझ कर ऐसा किया गया था लेकिन ऐसा हो भी तो हम ऐसा नहीं सोचते। हम उनके बताये बहाने को सच मानते हैं कि फोन उनकी सलहज हिमानी भार्गव का था जिसमें रोमिंग चालू नहीं हो पाई थी। जब यह पता लग गया कि दिया हुआ नंबर मिलना नहीं है,हमने उसे सैकड़ों बार मिलाया और परिणाम आशानुरूप रहा। जब दोनों अनूप सम्मानित इनामित हो गये तो लखनऊ वाले अनूपजी को कनपुरिया की याद आई और साथ में आया संदेश-हमारा मोबाइल नं.यह है। हमने संदेश भेजा हम यहां हैं। बात होते ही हमने शिकायती डायलाग झेला दिये -कहां गायब हैं भाई। अनूप भार्गव ताजे-ताजे सम्मानित हुये थे सो भावुक से थे और हमले को भी बधाई की तरह ले रहे थे। यह महसूसते ही हमने बधाई-वर्षा कर दी और उसकी बाढ़ में अनूपजी बाड़्मेर की तरह डूब गये।इसके बाद जैसे किसी साइट की टेस्टिंग करके उसे अंतिम रूप देकर लांच करते हैं वैसे ही अनूपजी ने हमें लखनऊ आने का न्योता दे दिया ।हम भी पता ठिकाना पक्का करके जाने का पक्का कर लिये।और दो घंटे बाद हम लखनऊ की तरफ जाने वाली बस पर सवार थे।
मोहन होटल -आयेगा आने वाला:-लखनऊ रेलवे स्टेशन के ही पास मोहन होटल में अनूप भार्गव स-साली और स-सलहज टिके थे। हमारे आने की खबर सुनकर कुछ जरूर परेशान हो गये होंगे और निकल लिये गंजिंग की तर्ज पर ‘मालिंग’ करने। हमने होटल पहुंचकर फोन किया तो पता चला कि सहारा माल मे टहल रहे हैं। बहरहाल हमारे पास इंतजार करने के सिवाय कोई चारा नहीं था। सो किया। इसके साथ होटल में टिके बाकी साहित्यकारों के नाम पढ़ डाले। से.रा.यात्री हमारी बगल में खड़े थे और हिमांशु जोशी पास में सोफे पर। हमने समय का सदुपयोग करते हुये सोचा सबसे मिला जाये और जब समय और बच गया तो सोचा क्या मिलना यार! जिससे मिलने आये वही नहीं मिला अभी तक तो दूसरों से क्या मिलना। इतना सोचने के बाद भी पाया समय अभी भी बचा हुआ है तो हमने बाकी का बचा सारा समय वहां मौजूद फोटोग्राफर के पास समारोह के फोटो देखने में लगा दिया। अनूप भार्गव की कौनौ फोटो नहीं थी लेकिन हमारे मामाजी,कन्हैयालाल नंदन की तीन फोटो दिखीं। हमने तीनों खरीद लीं। पता चला कि मामाजी समारोह की अध्यक्षता करने आये थे। हमें लगा शायद अभी हों लखनऊ
में सो हमने मोबाइल मिलाया ।पता चला कि वे वापस दिल्ली चले गये थे ,अगले दिन डायलिसिस करानी थी। बहरहाल इधर हमारा सारा समय गो,वेंट गान हुआ और उधर से अनूप भार्गव प्रकट हुये। हमने उनको समीर लाल की झप्पी टिका दी और गले मिलते हुये कमरे की तरफ गम्यमान हुये।
कुछ बतकही/कुछ हाहा,हीही:-हम लोग कमरे में पहुंचे। और चाय-साय का दौर-दौरा हुआ । हिमानीजी बगल के कमरे से आ गयी और अनूप जी की साली सहिबा भी घटना स्थल पर उपस्थित। हमसे हिमानी ने परिचय पूछा -हमने बताया एक बीबी,दो बच्चे…। हमारे साथ-साथ वहां मौजूद हास्य कवि सर्वेश अस्थाना का भी परिचय पत्र बना। फिर हमने हिमानीजी की भी तारीफ सुन डाली। जैसा बताया उन्होंने वे उन दिनों की यादें ताजा करती रहीं जब वे चाय के थर्मस
लेकर कवि सम्मेलन सुनने जातीं थीं। वे लेडी होर्डिंग मेडिकल कालेज में अध्यापिका हैं और कवितायें भी लिखती हैं। लेकिन जैसा पता चला कि जितनी अच्छी वे लिखती हैं उससे अच्छी तरह से सुनाती हैं। यह हमें उस समय समझना चाहिये था जब वे कमरे में सर्वेश अस्थाना और अपने अनूप जीजा से कुछ कविता सुनाने की बात कर रहीं थीं। हम और कुछ खास बात नहीं कर पाये क्योंकि माहौल को सर्वेश अस्थाना ने माइक की तरह अपने कब्जे में ले रखा था।लेकिन कवियों के बहुमत के बावजूद यह बात हम साबित कर ले गये कि आजकल कविता का स्तर गिर रहा है।इस मत में कवियों की भी सम्मति थी।
कटना एक नाक का कई-कई बार:-सर्वेश अस्थाना हमारे साथ करीब तीन घंटे रहे रात ८ बजे से ११ बजे तक। इस संक्षिप्त अवधि में कई बार उनकी नाक कटी और कई बार बेइज्जती (खराब) हुयी। हुआ यह कि बकौल सर्वेश अस्थाना यह उनकी ही बदौलत है कि आजकल मोहन होटल इतना चलता है। उन्होंने ही इसे कवियों वगैरह के ठहरने की शुरुआत करायी ।इसके बावजूद उनकी मौजूदगी में ही होटल की सर्विस खराब थी। ठीक से चाय नहीं लाना,बीयर के साथ सीयर लाने में देरी करना और आर्डर लेने आने में देरी होना। इन तीन वाकयों को उन्होंने अपनी नाक कटना बताया और बेइज्जती तो कई बार हुई उनकी। सर्वेश जी ने दैनिक जागरण के एक स्थानीय संवाददाता को भी बुला लिया। उसने बीयर पीते हुये सर्वेश अस्थाना के सहयोग से अनूप भार्गव का साक्षात्कार लिया जिसे हम ठंडा बोले तो कोकाकोला पीते हुये सुनते रहे। बीच में एक आध बार फुरसतिया का जिक्र भी आया जिसे हमने रोकने की कोशिश नहीं की ,करने दी तारीफ अनूप जी को (इतना अधिकार तो देना पड़ता है भाई)। सर्वेश अस्थाना ने अपने खास बंदर वाले चुटकुले को सुनाते हुये बताया कि लाफ्टर चैलेंज के राजू श्रीवास्तव का गजोधर उनकी सलाह पर पैदा किया राजू श्रीवास्तव ने। चूंकि राजू वहां थे नहीं अत: इसे सच मानने के सिवा हम कुछ और मानने की हालत में नहीं थे।
समय की कमी है:- जो लोग नेट पर दिन रात विचरते हैं वे ब्लाग न लिख पाने का कारण बताते हैं कि वे फांट नहीं जानते कि कैसे लिखें हिंदी में । लेकिन सर्वेश अस्थाना जैसे मंच प्रसिद्ध कवि गणों के पास यह सब करने के लिये समय की कमी है। हम लोगों ने काफी बताया कि यह सब आसान है लेकिन कठिनाई बनी रही। बहरहाल इसी बातचीत के दौरान हिंदी भूषन सम्मान प्राप्त डॉक्टर कृष्ण कुमार से मुलाकात करने कराने की कोशिश की लेकिन वे कहीं जा चुके थे ।लिहाजा उनको फिर हमारे साथ ही समय बर्बाद करना पड़ा-होनी को कौन टाल सकता है।
अमेरिका में कवि सम्मेलन:-सर्वेश अस्थाना और अनूप भार्गव से बातचीत से पता चला कि वहां कवि सम्मेलन कैसे आयोजित होते हैं। लोग दो-चार लोगों को बुलाते हैं जिसमें कम से कम एकाध नाम ऐसे होने चाहिये ताकि लोग उनके नाम पर टिकट खरीद लें। लगभग सारे कार्यक्रम सप्ताहांत में होते हैं। स्थानीय साहित्य रसिक २००-३०० किमी की दूरी तय करके कार्यक्रम देखने -सुनने आते हैं। हमें लगता है हमें भी लेकर जाना पड़ेगा अपना लैपटाप लेकर वहां हर हफ्ते कार्यक्रम देने और बाकी दिन चिट्ठा लेखन करने।
चलते-चलते ठहर गये:-हम तय करके घर से गये थे कि रात को ही लौट आयेंगे लेकिन वार्ता भंवर में ऐसा फंसे कि जब निकले तो रात आधी हो गयी थी। हमने सबेरे जाने की बात सोची और यह तय करने के बाद खाना खाया गया। हमें अनूपजी ने अपनी कविताऒं की सी डी तथा सी-डेक की हिंदी फांट वगैरह की सीडी दी जिसे हमने उदारता पूर्वक ग्रहण कर लिया। सर्वेश अस्थाना अपने पत्रकार मित्र के साथ चले गये। हम भी वहीं अनूप भार्गव के साथ ही कमरे में बिस्तर के सामान्तर हो गये। हम बतियाते हुये कब उनींदे हो गये और कब नींद का लंब हमारे ऊपर पड़ गया हमें पता ही न चला। वैसे सोते-सोते उनींदी
आंखों से हमने देखा कि अनूप भार्गव अपना पुरस्कार वाला फोल्डर देख रहे थे ,शायद यह सोचते हुये कि अभी तो ये अंगड़ाई है या फिर सितारों के आगे जहां और भी है…।
हमने सबेरे पांच बजे का अलार्म लगाया था अपने मोबाइल में लेकिन उसकी आवश्यकता नहीं पड़ी। हम पांच बजे के पहले ही उठ कर तैयार हो गये और अनूप भार्गव से विदा लेकर चल दिये । हमसे चाय-वाय पीकर जाने के लिये कहा लेकिन हमने बाय-बाय कह दिया और कुछ ही देर में लखनऊ-कानपुर राजमार्ग के मील के पत्थर गिनने शुरू कर दिये।उधर लखनऊ में अनूप भार्गव अपनी सफलता के मील के एक खास पत्थर को अपने पास रखे निद्रा लीन थे।
जैसे उनके दिन बहुरे :- यह सारा विवरण हमने सुना दिया अब आप लोग दनादन फिर से बधाई संदेश भेजो जहां मन आये। लेकिन पहले बता दें कि यह सारी कहानी हम पहले भी लिख चुके थे कल। लेकिन कल पता न जाने क्या हुआ कि सारी पोस्ट अनंग हो गयी। वह मिट गई । लिहाजा हमने सोचा कि फोटो ही दिखा दिया जाये सो दिखा दिया। अब लोगों ने आग्रह किया तो फिर से टाइप किया गया मामला । वैसे यह भी बता दें कि जो लोग हमसे विस्तार से लिखने के लिये कहते हैं वे खुद अपनी मुलाकातों के संक्षिप्त संस्करण नहीं लिखते। प्रत्यक्षाजी ने दो दिन लगातार अनूप भार्गव और हिमानी भार्गव के साथ,( बसीर बद्र,कुंवर बेचैन आदि के भी साथ ) कवितागिरी लेकिन उसका कोई विवरण नहीं दिया। उधर पूना में देबाशीष मे न रमण कौल से मुलाकात का जिक्र किया और सृजन शिल्पी तो खैर आज कल वहीं हैं ।
बहरहाल ,अनूप भार्गव से मिलना मेरे लिये उपलब्धि रही। एक कवि से ,साहित्यकार से बढ़कर एक अच्छे इंसान से मुलाकात करने का दुर्लभ अवसर मिला। जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं कि यह पुरस्कार तो शुरुआत है। कामना है कि उनको ढेर सारे इनाम मिलें ताकि उनको लगता रहे कि हिंदी साहित्य की उनकी सेवाऒं को समाज की स्वीकृति मिली तथा यह भावना उनको दूने उत्साह से काम करने के लिये उकसाती रहे।
इस ऐतिहासिक मिलन कथा का समापन शाश्वत मंगल कामना के साथ-जैसे उनके दिन बहुरे ,वैसे सबके बहुरॆं.
पाठक इच्छा को सर्वोपरि मानते हुये अनूप-अनूप की अनुपम मिलन कथा कहने का प्रयास करता हूं।आशा है कि पाठक गण इसे अपने हित में समझकर मन लगाकर पढ़ने का प्रयास करेंगे। ऐसा कहा जाता है कि जो इस कथा का मन लगाकर पारायण करेगा उसे उतना ही आनन्द प्राप्त होगा जितना सबेरे-सबेरे चाय की चुस्की के बीच बिस्तर से माया के समान चिपके हुये बापू ,बाबा,मां,देवी,दीदी आदि विभूतियों के माया त्याग के उपदेश सुनते हुये आनन्द की प्राप्ति होती है। जो इसे नहीं पढे़गा उसे भी वैसी ही आनन्दानुभूति होगी लेकिन कुछ समय लगेगा क्योंकि देर-सबेर उसको भी इसे पढने के लिये लोग मजबूर कर ही देंगे।इसलिये जो काम करना ही है उसे करने में देर से क्या फायदा।सो आप ऐसा करें कि इसे पढ़ ही डालिये आज ही।काल्ह करै सो आज कर…।
खबर उड़ना सम्मानित होने की:- बात उन दिनों की है जब प्लूटो का ग्रह होने का दर्जा छिना नहीं था न ही नारद जी पैदल हुये थे और न ही सचिन तेंदुलकर ने अभी बनाया शतक बनाया था। यहां तक कि लगे रहो मुन्ना भाई या ऒंकारा पिक्चरें रिलीज नहीं हुयीं थी। गरज यह कि सब कुछ सामान्य था। लेकिन तभी कुछ असामान्य घटनाक्रम हुआ ।बी.बी.सी. ने खबर उड़ा दी कि अमेरिका में रहने वाले अनूप भार्गव को विदेशों में हिंदी प्रचार के लिये जिम्मेदार ठहरा दिया गया। जब तक खबर का मतलब समझा जाये तब तक कानपुर में अनूप शुक्ल के यहां १२० रुपये किलो वाली मिठाई के दो डिब्बे खप गये। बाद में लोगों ने पेडे़ के ऊपर पानी पीते हुये कहा कि भाई नामराशि के सम्मानित होने की इतनी खुशी तो कम से कम होनी ही चाहिये। हम मजबूर थे खुश होने के सिवा क्या कर सकते थे! सो हुये। लेकिन उसका फायदा भी अनूप भार्गव को ही मिला। सम्मानित तो होना था सितम्बर में लेकिन हमारी खुशी के चलते ‘सेलेब्रिटी’ बन गये जून में ही। हमने राकेश खंडेलवाल की कविता पंक्तियां:-
आपके साथ जो भी मिला पग चले
वे ही सम्मान पाते रहे सर्वदा
को सच मानते हुये माना ,मजबूरन ,कि भाई यह हमारा ही सम्मान है।और इस तरह से हमने दो किलो पेड़े का खर्चा जायज ठहराया।
अनूप भार्गव बोले तो:-अनूप भार्गव होने का मतलब बताना मुश्किल काम है । जैसे सारे जानवर बराबर होते हैं लेकिन कुछ ज्यादा ही बराबर होते हैं वैसे ही यूं तो सारे अनूप बराबर होते हैं ,अनुपम होते हैं लेकिन कुछ ज्यादा ही बराबर होते हैं,अनुपम होते हैं। या फिर कहा जाये कि यूं तो सितम्बर में पैदा होने वाले सारे लोग महान होते हैं लेकिन कुछ सितम्बरी ज्यादा ही महान होते हैं।हमारी पहले बातों की पुष्टि सबसे अच्छी तरह अतुल कर सकते हैं, जिनके पैदाइसी छोटे भाई का नाम भी अनूप है और ब्लागिंग कृपा से मत्थे पड़े बडे़ भाई का नाम भी अनूप है, या फिर जीतेंद्र जिन्होंने धरती पर अवतार लेने का वही दिन चुना जिस दिन अनूप भार्गव ने भये प्रकट कृपाला होना तय किया मतलब आठ सितंबर।
अनूप भार्गव कविता लिखते हैं। उनकी सबसे अच्छी बात यह है कि वे झूठ नहीं बोलते। ब्लाग का नाम मुझे कुछ कहना है रखा तो कुछ ही कहते रहे। ये नहीं कि कुछ कहने की आड़ में बहुत कुछ कहने लगें। छोटी-छोटी कविताऒं में से अधिकतर में वे कुछ-कुछ होता है वाले घराने वाली कवितायें लिखते हैं। कुछ-कुछ भी उनको यह नहीं कि रोज-रोज हो। कभी-कभी होता है। ऐसा लगता है कि वे संतोषी प्रकृति के हैं।
उनकी कविताऒं में नये अंदाज में कुछ -कुछ होता है। कभी वे गणित के सहारे नजदीकी हासिल करते हैं,कभी चीनी की जगह अंगुली से मिठास घोलते हैं,कभी उनकी आंखों में नमी देखते हैं,कभी रजनीजी अगरबत्ती की तरह सुलगा देते हैं। ये तो कहो किसी महिला मुक्ति आंदोलन कार्यकर्ता की नजर नहीं पड़ी उनकी कविताऒ पर नहीं तो महिला विरोधी करार देती कविताऒं को।
लेकिन वे कवि होने से अधिक कविता के प्रचारक हैं। अमेरिका में चारो तरफ कविता ही कविता फैला दी हैं इन्होंने। ई-कविता का जलवा तो ऐसा है कि हमारा रेडिफमेल का खाता बेचारा मेल-बोझ से दुहरा होता रहता है।इसके अलावा वे अमेरिका में कवि सम्मेलनों का आयोजन करते रहते हैं।एक पत्रिका भी निकालने में सहयोग करते हैं।
लेकिन इनको जानने वाले कहते हैं कि वे कवि,प्रचारक,आयोजक,इंजीनियर,पति,पिता से बढ़कर एक बहुत अच्छे इंसान हैं। यह बात इतने लोगों ने कही है कि इसे सच मानने के सिवा हमारे पास कोई चारा नहीं है। आपके पास भी नहीं होगा सो बेहतर है आप भी इस पर यकीन कर लो ताकि लेख आगे पढा़ जा सके ।मानसी तो अपने अनूप दादा के ऊपर बिना एकोबार मिले ही इतना फिदा हैं कि दुनिया की सारी बढि़या आदते अपने अनूप दादा में ही देखने की दादागिरी दिखाती रहती हैं।ऐसे ही
अच्छाइयों का स्टाक दबा के रखने वाले लोगों के कारण दुनिया में अच्छाई का स्टाक सीमित हो रहा है।
अब एक बात और बता दें जो अंदर की बात है और इसीलिये ज्यादा सच है। जैसे कि हर ढोल के अंदर पोल होता है अनूप भार्गव जी का कुछ मामलों में मामला गोलमोल है । इनको इनाम तो मिला है दुनिया भर में हिंदी प्रचार करने के लिये लेकिन अपने घर में इनकी प्रगति बिल्कुल ऐसी-वैसी ही है । अपनी पत्नी ,जिनकी कवितायें अपने नाम से छापने का समय-असमय इन आरोप इनके बेहद आत्मीय लगाते रहे हैं,का हिंदी में ब्लाग बनाने में इन्होंने बहुत समय लिया और अब पता चला है कि इनकी सलहज बोले तो रजनीजी की भाभीजी बोले तो हिमानी भार्गवजी कवितायें लिखती हैं लेकिन अभी तक ब्लाग विहीन हैं।इसे कहते हैं चिराग तले अंधेरा। वो तो कहो मुख्यमंत्री जी को यह बात पता नहीं चली वर्ना वे कहो कहते आप पहले हिंदी का बचा हुआ प्रचार भी करके आइये फिर चाहे बाकी के पैसे भी ले जाइये ।या यह भी हो सकता है कि पता हो तभी २५०००/- काम के पहले दिये एड्वांस और बाकी के ७५०००/- काम पूरा होने के बाद मिलें।
हो अगर खाली तो आऒ बजाने ताली:- जब तय हुआ कि अब तो सम्मान होकर ही रहेगा तो अनूप भार्गव ने मरता क्या न करता अपने को सम्मानित करने के लिये सौंपने का तय कर लिया। घटना की सनद रखने के लिये जैसे कि बुलाया जाता है वैसे ही उन्होंने हमें कहा हो अगर खाली तो आओ बजाने ताली! मुझे यह अच्छी तरह पता है कि यह न्योता और भी तमाम लोगों को दिया गया होगा लेकिन इसे जिम्मेदारी से हमने ही ग्रहण किया।
जब तय हो गया कि हमें जाना ही है तो हमने ८० किलोमीटर जाने के लिये सैकड़ों योजनायें बनायी लेकिन सारी की सारी खारिज करनी पड़ी। क्योंकि ऐन मौके पर देश को हमारी जरूरत पड़ गयी और हम ताली बजाने से वंचित रह गये। वैसे ताली बजाने के लिये हमारा जाना १३ सितम्बर को ही निरस्त हो गया था लेकिन हमने यह बात समीर लाल जी को जानबूझ कर नहीं बताई। बता देते तो समीर जी संकोच के मारे १४ सितंबर का चिट्ठाचर्चा न लिखते और आप उनकी कुंडलिया युक्त पोस्ट से हाथ धोते।
बहरहाल ,हमारे जाने न जाने से कुछ फरक नहीं पड़ा और हिंदी संस्थान वालों ने अनूप जी को पहचान कर माला पहना के ही छोड़ा। ताली बजाने के लिये भी अनूप भार्गव जी ने बेहतर हाथों की व्यवस्था कर रखी थी।उनकी घरवाली रजनीजी की जगह उनकी आधी आधी घरवालियां साली जी और सलहज जी ने वहां अपने जीजा जी को झुककर माला पहनते हुये और फिर खड़े होकर सम्मानित होते हुये देखा और तालियां बजाईं। २५ हजार रुपये पाकर सम्मान के कारण हुये आर्थिक नुकसान का
अंदाजा लगाते हुये अनूप जी के चेहरे पर खुशी फैल गयी जब मुख्यमंत्री जी ने कहा कि ७५ हजार और दिये जायेंगे। सम्मानित होते ही सम्मान समारोह के अपने सारे फोटो अनूपजी ने खरीद लिये।
कनपुरिया अनूप भी इनाम पाये:-जब प्रदेश की राजधानी में गन्ना शोध संस्थान के सभागार में अनूप भार्गव सम्मानित हो रहे थे ,इनाम पा रहे थे ऐन उसी समय नाम महात्म्य के कारण और सितंबरी सुयोग वश कानपुर में अपनी फॆक्ट्री के सभागार में अनूप शुक्ल भी पैसे और उपहार बटोर रहे थे। कुल जमा सात सौ रुपये और पानी की दुइ लीटरिया बोतल मिली। कुल चार इनामों में से ३००/-मिले लेखन प्रतियोगिता में पहला स्थान पाने के लिये,२००/- मिले भाषण प्रतियोगिता में स्थान पाने के लिये और पूरे दो सौ मिले लेख भारत एक मीटिंग प्रधान देश है और कविता आऒ बैठें कुछ देर पास में के लिये जो हमारी निर्माणी की पत्रिका स्रवन्ती में छपी थी। पानी की बोतल मिली निर्णायक की हैसियत से काम करने के लिये। हमने उसी समय संकल्प पढ़कर सारे पैसे नारद उद्धार के लिये दान कर दिये। तो इस तरह हम दोपहर तक काम भर का इनाम पा चुके थे।
आऒ बैठें कुछ देर साथ में:- हमें जो नंबर अनूप भार्गवजी ने दिया था वह काम नहीं कर रहा था।अब हम यह तो नहीं कहेंगे कि जानबूझ कर ऐसा किया गया था लेकिन ऐसा हो भी तो हम ऐसा नहीं सोचते। हम उनके बताये बहाने को सच मानते हैं कि फोन उनकी सलहज हिमानी भार्गव का था जिसमें रोमिंग चालू नहीं हो पाई थी। जब यह पता लग गया कि दिया हुआ नंबर मिलना नहीं है,हमने उसे सैकड़ों बार मिलाया और परिणाम आशानुरूप रहा। जब दोनों अनूप सम्मानित इनामित हो गये तो लखनऊ वाले अनूपजी को कनपुरिया की याद आई और साथ में आया संदेश-हमारा मोबाइल नं.यह है। हमने संदेश भेजा हम यहां हैं। बात होते ही हमने शिकायती डायलाग झेला दिये -कहां गायब हैं भाई। अनूप भार्गव ताजे-ताजे सम्मानित हुये थे सो भावुक से थे और हमले को भी बधाई की तरह ले रहे थे। यह महसूसते ही हमने बधाई-वर्षा कर दी और उसकी बाढ़ में अनूपजी बाड़्मेर की तरह डूब गये।इसके बाद जैसे किसी साइट की टेस्टिंग करके उसे अंतिम रूप देकर लांच करते हैं वैसे ही अनूपजी ने हमें लखनऊ आने का न्योता दे दिया ।हम भी पता ठिकाना पक्का करके जाने का पक्का कर लिये।और दो घंटे बाद हम लखनऊ की तरफ जाने वाली बस पर सवार थे।
मोहन होटल -आयेगा आने वाला:-लखनऊ रेलवे स्टेशन के ही पास मोहन होटल में अनूप भार्गव स-साली और स-सलहज टिके थे। हमारे आने की खबर सुनकर कुछ जरूर परेशान हो गये होंगे और निकल लिये गंजिंग की तर्ज पर ‘मालिंग’ करने। हमने होटल पहुंचकर फोन किया तो पता चला कि सहारा माल मे टहल रहे हैं। बहरहाल हमारे पास इंतजार करने के सिवाय कोई चारा नहीं था। सो किया। इसके साथ होटल में टिके बाकी साहित्यकारों के नाम पढ़ डाले। से.रा.यात्री हमारी बगल में खड़े थे और हिमांशु जोशी पास में सोफे पर। हमने समय का सदुपयोग करते हुये सोचा सबसे मिला जाये और जब समय और बच गया तो सोचा क्या मिलना यार! जिससे मिलने आये वही नहीं मिला अभी तक तो दूसरों से क्या मिलना। इतना सोचने के बाद भी पाया समय अभी भी बचा हुआ है तो हमने बाकी का बचा सारा समय वहां मौजूद फोटोग्राफर के पास समारोह के फोटो देखने में लगा दिया। अनूप भार्गव की कौनौ फोटो नहीं थी लेकिन हमारे मामाजी,कन्हैयालाल नंदन की तीन फोटो दिखीं। हमने तीनों खरीद लीं। पता चला कि मामाजी समारोह की अध्यक्षता करने आये थे। हमें लगा शायद अभी हों लखनऊ
में सो हमने मोबाइल मिलाया ।पता चला कि वे वापस दिल्ली चले गये थे ,अगले दिन डायलिसिस करानी थी। बहरहाल इधर हमारा सारा समय गो,वेंट गान हुआ और उधर से अनूप भार्गव प्रकट हुये। हमने उनको समीर लाल की झप्पी टिका दी और गले मिलते हुये कमरे की तरफ गम्यमान हुये।
कुछ बतकही/कुछ हाहा,हीही:-हम लोग कमरे में पहुंचे। और चाय-साय का दौर-दौरा हुआ । हिमानीजी बगल के कमरे से आ गयी और अनूप जी की साली सहिबा भी घटना स्थल पर उपस्थित। हमसे हिमानी ने परिचय पूछा -हमने बताया एक बीबी,दो बच्चे…। हमारे साथ-साथ वहां मौजूद हास्य कवि सर्वेश अस्थाना का भी परिचय पत्र बना। फिर हमने हिमानीजी की भी तारीफ सुन डाली। जैसा बताया उन्होंने वे उन दिनों की यादें ताजा करती रहीं जब वे चाय के थर्मस
लेकर कवि सम्मेलन सुनने जातीं थीं। वे लेडी होर्डिंग मेडिकल कालेज में अध्यापिका हैं और कवितायें भी लिखती हैं। लेकिन जैसा पता चला कि जितनी अच्छी वे लिखती हैं उससे अच्छी तरह से सुनाती हैं। यह हमें उस समय समझना चाहिये था जब वे कमरे में सर्वेश अस्थाना और अपने अनूप जीजा से कुछ कविता सुनाने की बात कर रहीं थीं। हम और कुछ खास बात नहीं कर पाये क्योंकि माहौल को सर्वेश अस्थाना ने माइक की तरह अपने कब्जे में ले रखा था।लेकिन कवियों के बहुमत के बावजूद यह बात हम साबित कर ले गये कि आजकल कविता का स्तर गिर रहा है।इस मत में कवियों की भी सम्मति थी।
कटना एक नाक का कई-कई बार:-सर्वेश अस्थाना हमारे साथ करीब तीन घंटे रहे रात ८ बजे से ११ बजे तक। इस संक्षिप्त अवधि में कई बार उनकी नाक कटी और कई बार बेइज्जती (खराब) हुयी। हुआ यह कि बकौल सर्वेश अस्थाना यह उनकी ही बदौलत है कि आजकल मोहन होटल इतना चलता है। उन्होंने ही इसे कवियों वगैरह के ठहरने की शुरुआत करायी ।इसके बावजूद उनकी मौजूदगी में ही होटल की सर्विस खराब थी। ठीक से चाय नहीं लाना,बीयर के साथ सीयर लाने में देरी करना और आर्डर लेने आने में देरी होना। इन तीन वाकयों को उन्होंने अपनी नाक कटना बताया और बेइज्जती तो कई बार हुई उनकी। सर्वेश जी ने दैनिक जागरण के एक स्थानीय संवाददाता को भी बुला लिया। उसने बीयर पीते हुये सर्वेश अस्थाना के सहयोग से अनूप भार्गव का साक्षात्कार लिया जिसे हम ठंडा बोले तो कोकाकोला पीते हुये सुनते रहे। बीच में एक आध बार फुरसतिया का जिक्र भी आया जिसे हमने रोकने की कोशिश नहीं की ,करने दी तारीफ अनूप जी को (इतना अधिकार तो देना पड़ता है भाई)। सर्वेश अस्थाना ने अपने खास बंदर वाले चुटकुले को सुनाते हुये बताया कि लाफ्टर चैलेंज के राजू श्रीवास्तव का गजोधर उनकी सलाह पर पैदा किया राजू श्रीवास्तव ने। चूंकि राजू वहां थे नहीं अत: इसे सच मानने के सिवा हम कुछ और मानने की हालत में नहीं थे।
समय की कमी है:- जो लोग नेट पर दिन रात विचरते हैं वे ब्लाग न लिख पाने का कारण बताते हैं कि वे फांट नहीं जानते कि कैसे लिखें हिंदी में । लेकिन सर्वेश अस्थाना जैसे मंच प्रसिद्ध कवि गणों के पास यह सब करने के लिये समय की कमी है। हम लोगों ने काफी बताया कि यह सब आसान है लेकिन कठिनाई बनी रही। बहरहाल इसी बातचीत के दौरान हिंदी भूषन सम्मान प्राप्त डॉक्टर कृष्ण कुमार से मुलाकात करने कराने की कोशिश की लेकिन वे कहीं जा चुके थे ।लिहाजा उनको फिर हमारे साथ ही समय बर्बाद करना पड़ा-होनी को कौन टाल सकता है।
अमेरिका में कवि सम्मेलन:-सर्वेश अस्थाना और अनूप भार्गव से बातचीत से पता चला कि वहां कवि सम्मेलन कैसे आयोजित होते हैं। लोग दो-चार लोगों को बुलाते हैं जिसमें कम से कम एकाध नाम ऐसे होने चाहिये ताकि लोग उनके नाम पर टिकट खरीद लें। लगभग सारे कार्यक्रम सप्ताहांत में होते हैं। स्थानीय साहित्य रसिक २००-३०० किमी की दूरी तय करके कार्यक्रम देखने -सुनने आते हैं। हमें लगता है हमें भी लेकर जाना पड़ेगा अपना लैपटाप लेकर वहां हर हफ्ते कार्यक्रम देने और बाकी दिन चिट्ठा लेखन करने।
चलते-चलते ठहर गये:-हम तय करके घर से गये थे कि रात को ही लौट आयेंगे लेकिन वार्ता भंवर में ऐसा फंसे कि जब निकले तो रात आधी हो गयी थी। हमने सबेरे जाने की बात सोची और यह तय करने के बाद खाना खाया गया। हमें अनूपजी ने अपनी कविताऒं की सी डी तथा सी-डेक की हिंदी फांट वगैरह की सीडी दी जिसे हमने उदारता पूर्वक ग्रहण कर लिया। सर्वेश अस्थाना अपने पत्रकार मित्र के साथ चले गये। हम भी वहीं अनूप भार्गव के साथ ही कमरे में बिस्तर के सामान्तर हो गये। हम बतियाते हुये कब उनींदे हो गये और कब नींद का लंब हमारे ऊपर पड़ गया हमें पता ही न चला। वैसे सोते-सोते उनींदी
आंखों से हमने देखा कि अनूप भार्गव अपना पुरस्कार वाला फोल्डर देख रहे थे ,शायद यह सोचते हुये कि अभी तो ये अंगड़ाई है या फिर सितारों के आगे जहां और भी है…।
हमने सबेरे पांच बजे का अलार्म लगाया था अपने मोबाइल में लेकिन उसकी आवश्यकता नहीं पड़ी। हम पांच बजे के पहले ही उठ कर तैयार हो गये और अनूप भार्गव से विदा लेकर चल दिये । हमसे चाय-वाय पीकर जाने के लिये कहा लेकिन हमने बाय-बाय कह दिया और कुछ ही देर में लखनऊ-कानपुर राजमार्ग के मील के पत्थर गिनने शुरू कर दिये।उधर लखनऊ में अनूप भार्गव अपनी सफलता के मील के एक खास पत्थर को अपने पास रखे निद्रा लीन थे।
जैसे उनके दिन बहुरे :- यह सारा विवरण हमने सुना दिया अब आप लोग दनादन फिर से बधाई संदेश भेजो जहां मन आये। लेकिन पहले बता दें कि यह सारी कहानी हम पहले भी लिख चुके थे कल। लेकिन कल पता न जाने क्या हुआ कि सारी पोस्ट अनंग हो गयी। वह मिट गई । लिहाजा हमने सोचा कि फोटो ही दिखा दिया जाये सो दिखा दिया। अब लोगों ने आग्रह किया तो फिर से टाइप किया गया मामला । वैसे यह भी बता दें कि जो लोग हमसे विस्तार से लिखने के लिये कहते हैं वे खुद अपनी मुलाकातों के संक्षिप्त संस्करण नहीं लिखते। प्रत्यक्षाजी ने दो दिन लगातार अनूप भार्गव और हिमानी भार्गव के साथ,( बसीर बद्र,कुंवर बेचैन आदि के भी साथ ) कवितागिरी लेकिन उसका कोई विवरण नहीं दिया। उधर पूना में देबाशीष मे न रमण कौल से मुलाकात का जिक्र किया और सृजन शिल्पी तो खैर आज कल वहीं हैं ।
बहरहाल ,अनूप भार्गव से मिलना मेरे लिये उपलब्धि रही। एक कवि से ,साहित्यकार से बढ़कर एक अच्छे इंसान से मुलाकात करने का दुर्लभ अवसर मिला। जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं कि यह पुरस्कार तो शुरुआत है। कामना है कि उनको ढेर सारे इनाम मिलें ताकि उनको लगता रहे कि हिंदी साहित्य की उनकी सेवाऒं को समाज की स्वीकृति मिली तथा यह भावना उनको दूने उत्साह से काम करने के लिये उकसाती रहे।
इस ऐतिहासिक मिलन कथा का समापन शाश्वत मंगल कामना के साथ-जैसे उनके दिन बहुरे ,वैसे सबके बहुरॆं.
Posted in बस यूं ही | 12 Responses
अब प्रत्यक्षाजी/देबूदा/रमण जी पर हमला बोल कर आता हूं !
फुरसतिया जी को भी बहुत बहुत साधुवाद, इतने अच्छे आँखों देखा हाल सुनाने के लिये। लगे रहो मियाँ… ।
देबू दा से बहुप्रतीक्षित मुलाकात का एक दौर तो आज सुबह ही पूरा हुआ है। समय की कमी के कारण हमलोगों ने किश्तों में मिलना तय किया है। शनिवार को शशि भी मुम्बई से चर्चा में शामिल होने के लिए आ रहे हैं। देबू दा अपने नए घर में इंटरनेट कनेक्शन नहीं लग पाने के कारण चिट्ठे पर कुछ लिख नहीं पा रहे हैं। मैं भी आजकल औसतन बारह घंटे मशीन अनुवाद प्रणाली और स्पीच टू टेक्स्ट सॉफ्टवेयर से संबंधित कार्यशाला के सिलसिले में व्यस्त रह रहा हूँ। वापस दिल्ली लौटकर अवश्य इन मुलाकातों का विवरण लिख पाऊँगा। लेकिन आपकी तरह रोचक शैली में लेखन कर पाना मेरे वश में नहीं है।
ऐसी मुलाकातों में समय का अभाव हमेशा खलता है …