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शिवजी की चिट्ठी का जबाब
By फ़ुरसतिया on August 22, 2008
प्रिय भैया शिव जी,
आपकी चिट्ठी मिली। हम उसको कई बार पढ़े। कागजी चिट्ठी की तरह उलट-पुलट के , सहला-उहला के पढ़ने का मन किया तो हम लैपटाप उलट दिये। देखा पीछे सब ’करिया’ था। अचकचा के सामने आ गये। आपकी मुस्कराती छवि दिखी। मन खुश हो गया।
आपने लिखा कि हमने आपके नाम, ’शिव’ के आगे ’जी’ काहे लगाया! असल में आपको बतायें कि हमने ’जी’ लगाने के पहले जितने और शब्द लिखे सब मुझे फ़र्जी टाइप लगे। फ़र्जी बोले तो -छलावा।
’परम’ का अकेले कुछ मतलब नहीं होगा।’परम’ बिना ज्ञानी, ध्यानी, विद्वान के उसी तरह है जैसे बिना विभाग का मंत्री। लेकिन कानपुर में जब ’परम’ कहा जाता है तो कुछ और कहने की जरूरत नहीं पड़ती। “अरे ऊ ससुरा बहुत ’परम’ है, अरे, वो तो बहुत ’परम’ है गुरू! सो हमने ’परम’ जब लिखा तो लगा आपको यही न लगे! इसलिये सोचा ’प्रिय’ भी लिख दें।
’प्रिय’ का भी मामला ऐसा ही है। सार्वजनिक मजबूरी में, जिसे देखते ही जुतियाने का मन करे, उसे भी प्रिय कहना पड़ता है। जिसे हमेशा साथ रखने का मन करे उसे भी। बुशजी भी अगर ओसामाजी को चिट्ठी लिखेंगे तो प्रिय ही लिखेंगे न! प्रिय बेचारा निरीह, अर्थहीन, ’जनता टाइप’ लगता है।
’भाई’ लिखकर मैं डरा। आजकल भाई-भाई में अनबन रहती है ऊ बात तो पुरानी हो गयी। आजकल जहां ’भाई’ सुना तो लोग समझते हैं -इनके तार भी जुड़े हैं सिमी, सुलेमान, इरफ़ान से। ’हम’ ,’ तुम’ दोनों को ही ये ससुरा ’भाई’ शब्द एक कमरे में बन्द करा सकता है। जमानत जब्त।
इसीलिये ’शिव’ के साथ ’जी’ लिखा। ’शिव’ अकेलापन न महसूस करें। शिव के साथ एक तो रहे। शोभायमान!
आपने ’प्रणाम’ लिखा तो हम घबरा गये। सिट्ठी-पुट्टी गुम। हम कानपुर में अगर किसी से डरते हैं तो ’प्रणामियों’ से। न जाने कौन प्रणाम करके चला जाये। आप हतप्रभ प्रणाम समेटते रहो।
पिछले दो साल हमारे एक माफ़िया टाइप पार्टी से जूझते बीते। वे हमें हमेशा प्रणाम करते रहे। बहुत इज्जत करते रहे। हम उनको , उनके प्रणाम को और अपनी ’बहुत इज्जत’ को असहाय झेलते रहे।
एक और नेताजी टाइप हैं। हमारी उमर के उनके बच्चे हैं। लेकिन जब मिलते हैं , प्रणाम ठोंक देते हैं। आशीर्वाद मांग लेते हैं। हमें लगता है कि कोई काम का नवजात भी उनके सामने पड़े वे तो उसे भी प्रणाम निवेदित कर देंगे।
ये छद्मप्रणामी जब चरण छूने झुकते हैं तो लगता है उठा के पटक देगा। आजकल वैसे भी चरण कम कमर ज्यादा छूते हैं। जैसे कोई दुर्योधन हो सामने। जो जितना झुकता है उससे उतना डर लगता है।इसी डर से हम अपने बच्चों तक के द्वारा चरण स्पर्श कराने में हिचकते हैं। हमें लगता है कि अगर हम अपने अपने को प्रणाम निवेदित करने वालों से बचा ले गये तो समझ लो सब कुछ बच गया।
अब देखिये हम आपको भला आदमी कहना चाहते हैं लेकिन संकोच हो रहा है। कहीं आप यह न समझ लें कि हम आपको बेवकूफ़ बनाना चाह रहे हैं। या आपको ’सिर्री’ समझते हैं। शब्दों के मायने इत्ती तेजी से बदलते हैं कि ससुरे उत्ती तेजी से नेता लोग दलबदल करें तो हांफ़ जायें।
अब आप समीरलाल जी को ही लें। जब उन्होंने अपने कोअदना सा ब्लागर कहा तो हम सनाका खा गये। इतना बड़ा हो गया समीरजी का साम्राज्य कि अपने को अदना सा कहने लगे। इतना अहंकार कि जहां देखो वहां विनम्रता से दोहरे हो गये। इनके इरादे तो जाहिर हो ही गये । देखा न अंदर की बात बाहर आ ही गयी। इनकी नजर अन्तर्राष्ट्रीय ब्लागर महासभा पर है। ब्रम्हांड सभा कैसे छूट गयी -हम समझ नहीं पा रहे हैं।
जब समीरलाल जी अपने को अदना सा ब्लागर कहते हैं तो याद आता है कि कैसे लोग सैकड़ों एकड़ जमीन पर अवैध कब्जे की जमीन पर महल बनवाते हैं और नाम लिखवाते हैं- पर्ण कुटीर। जित्ता पैसा ’पर्ण कुटीर’ लिखवाने में लगता है उत्ते में कई कुटिया बन जायें। समीरलाल जी को कोई समझाये। अब तो बचपना छोड़ दें। समधी बनने वाले हैं। ये सब देखकर समधियाने वाले क्या सोंचेंगे? सोचेंगे- इनके दोस्त भी ऐसे ही होंगे।
आपने प्रियंकर जी, प्रत्यक्षाजी के बारे में कहा, बताया। हम इन दोनों विभूतियों का बहुत सम्मान करते हैं( देखा न! जैसे ही’विभूतियों’ लिखा , मन में खटका हुआ। धत क्या ये लोग अगरबत्ती की राख हैं? उसी को विभुति कहते हैं न!)। ये कविमना लोग अपने ’पोयटिक जस्टिस’ के बावजूद बड़े भले लोग हैं। आप जिस तरह के लोग लेख लिखने लगे हो आजकल उसके चलते आगे चलकर आपकी आलोक पुराणिक से ठनेगी। तब आप इन पोयटिक जस्टिस वाले मित्रों की कवितायें आलोक पुराणिक को सुनाना । वे ढेर हो जायेंगे। टिक न पायेंगे।
बालकिशन जी का क्या कहें? जब देश में कब्र में पांव लटकाने की उम्र तक राजनीतिज्ञ युवा नेता बना रहता है! राजा मांडा के लिये लोग “राजा नहीं फ़कीर है” का नारा लगा सकते हैं तो बालकिशन अगर अपने को युवा पीढ़ी का मानते हैं तो आप क्यों परेशान हैं? वैसे भी जवानी की परिभाषा बताते हुये आप जिनके भीषण प्रशंसक हैं उन्होंने( परसाई जी ने) लिखा है- और इस सबसे अलग बेहिचक बेवकूफ़ी करने की इच्छा का नाम यौवन है।
तो बालकिशनजी अगर यौवनमद में अपने को क्रांतिकारी मान रहे हैं , झोला लादकर क्रांतिकारी बनने का प्रयास कर रहे हैं तो आपको कष्ट नहीं होना चाहिये।
कल से बिजली गुल थी। मजबूरी में यह पत्र लिखा। आज पोस्ट करेंगे। चिट्ठाचर्चा छूट गयी। वो फ़िर कभी।
चिट्ठी आदतन लम्बी हो गयी। तमाम लोग टोकेंगे। लेकिन उनकी चिंता नहीं। यह आपके लिये है। प्रत्यक्षा जी से इस सब पर कोई कोई आशा मत किया करो। आलस्य उनका आभूषण है उसे वे छोड़ने से रहीं। बकिया फ़िर,
अनूप
२२.०८.०८
आपकी चिट्ठी मिली। हम उसको कई बार पढ़े। कागजी चिट्ठी की तरह उलट-पुलट के , सहला-उहला के पढ़ने का मन किया तो हम लैपटाप उलट दिये। देखा पीछे सब ’करिया’ था। अचकचा के सामने आ गये। आपकी मुस्कराती छवि दिखी। मन खुश हो गया।
आपने लिखा कि हमने आपके नाम, ’शिव’ के आगे ’जी’ काहे लगाया! असल में आपको बतायें कि हमने ’जी’ लगाने के पहले जितने और शब्द लिखे सब मुझे फ़र्जी टाइप लगे। फ़र्जी बोले तो -छलावा।
’परम’ का अकेले कुछ मतलब नहीं होगा।’परम’ बिना ज्ञानी, ध्यानी, विद्वान के उसी तरह है जैसे बिना विभाग का मंत्री। लेकिन कानपुर में जब ’परम’ कहा जाता है तो कुछ और कहने की जरूरत नहीं पड़ती। “अरे ऊ ससुरा बहुत ’परम’ है, अरे, वो तो बहुत ’परम’ है गुरू! सो हमने ’परम’ जब लिखा तो लगा आपको यही न लगे! इसलिये सोचा ’प्रिय’ भी लिख दें।
’प्रिय’ का भी मामला ऐसा ही है। सार्वजनिक मजबूरी में, जिसे देखते ही जुतियाने का मन करे, उसे भी प्रिय कहना पड़ता है। जिसे हमेशा साथ रखने का मन करे उसे भी। बुशजी भी अगर ओसामाजी को चिट्ठी लिखेंगे तो प्रिय ही लिखेंगे न! प्रिय बेचारा निरीह, अर्थहीन, ’जनता टाइप’ लगता है।
’भाई’ लिखकर मैं डरा। आजकल भाई-भाई में अनबन रहती है ऊ बात तो पुरानी हो गयी। आजकल जहां ’भाई’ सुना तो लोग समझते हैं -इनके तार भी जुड़े हैं सिमी, सुलेमान, इरफ़ान से। ’हम’ ,’ तुम’ दोनों को ही ये ससुरा ’भाई’ शब्द एक कमरे में बन्द करा सकता है। जमानत जब्त।
इसीलिये ’शिव’ के साथ ’जी’ लिखा। ’शिव’ अकेलापन न महसूस करें। शिव के साथ एक तो रहे। शोभायमान!
आपने ’प्रणाम’ लिखा तो हम घबरा गये। सिट्ठी-पुट्टी गुम। हम कानपुर में अगर किसी से डरते हैं तो ’प्रणामियों’ से। न जाने कौन प्रणाम करके चला जाये। आप हतप्रभ प्रणाम समेटते रहो।
पिछले दो साल हमारे एक माफ़िया टाइप पार्टी से जूझते बीते। वे हमें हमेशा प्रणाम करते रहे। बहुत इज्जत करते रहे। हम उनको , उनके प्रणाम को और अपनी ’बहुत इज्जत’ को असहाय झेलते रहे।
एक और नेताजी टाइप हैं। हमारी उमर के उनके बच्चे हैं। लेकिन जब मिलते हैं , प्रणाम ठोंक देते हैं। आशीर्वाद मांग लेते हैं। हमें लगता है कि कोई काम का नवजात भी उनके सामने पड़े वे तो उसे भी प्रणाम निवेदित कर देंगे।
ये छद्मप्रणामी जब चरण छूने झुकते हैं तो लगता है उठा के पटक देगा। आजकल वैसे भी चरण कम कमर ज्यादा छूते हैं। जैसे कोई दुर्योधन हो सामने। जो जितना झुकता है उससे उतना डर लगता है।इसी डर से हम अपने बच्चों तक के द्वारा चरण स्पर्श कराने में हिचकते हैं। हमें लगता है कि अगर हम अपने अपने को प्रणाम निवेदित करने वालों से बचा ले गये तो समझ लो सब कुछ बच गया।
जो जैसा दिखता है वैसा होता नहीं। जैसा होता है वैसा दिखता नहीं। हर आदमी हैंडपम्प हो गया है- दो हाथ जमीन के ऊपर , सत्तर हाथ नीचे।
भैया शिव जी, आप बुरा मत मानना हमारी बात का। हम सच कह रहे हैं। आजकल हर
तरफ़ छ्द्म (कैमाफ़्लाजिंग) का जमाना है। जो जैसा दिखता है वैसा होता नहीं।
जैसा होता है वैसा दिखता नहीं। हर आदमी हैंडपम्प हो गया है- दो हाथ जमीन के ऊपर , सत्तर हाथ नीचे।अब देखिये हम आपको भला आदमी कहना चाहते हैं लेकिन संकोच हो रहा है। कहीं आप यह न समझ लें कि हम आपको बेवकूफ़ बनाना चाह रहे हैं। या आपको ’सिर्री’ समझते हैं। शब्दों के मायने इत्ती तेजी से बदलते हैं कि ससुरे उत्ती तेजी से नेता लोग दलबदल करें तो हांफ़ जायें।
अब आप समीरलाल जी को ही लें। जब उन्होंने अपने कोअदना सा ब्लागर कहा तो हम सनाका खा गये। इतना बड़ा हो गया समीरजी का साम्राज्य कि अपने को अदना सा कहने लगे। इतना अहंकार कि जहां देखो वहां विनम्रता से दोहरे हो गये। इनके इरादे तो जाहिर हो ही गये । देखा न अंदर की बात बाहर आ ही गयी। इनकी नजर अन्तर्राष्ट्रीय ब्लागर महासभा पर है। ब्रम्हांड सभा कैसे छूट गयी -हम समझ नहीं पा रहे हैं।
जब समीरलाल जी अपने को अदना सा ब्लागर कहते हैं तो याद आता है कि कैसे लोग सैकड़ों एकड़ जमीन पर अवैध कब्जे की जमीन पर महल बनवाते हैं और नाम लिखवाते हैं- पर्ण कुटीर। जित्ता पैसा ’पर्ण कुटीर’ लिखवाने में लगता है उत्ते में कई कुटिया बन जायें। समीरलाल जी को कोई समझाये। अब तो बचपना छोड़ दें। समधी बनने वाले हैं। ये सब देखकर समधियाने वाले क्या सोंचेंगे? सोचेंगे- इनके दोस्त भी ऐसे ही होंगे।
आपने प्रियंकर जी, प्रत्यक्षाजी के बारे में कहा, बताया। हम इन दोनों विभूतियों का बहुत सम्मान करते हैं( देखा न! जैसे ही’विभूतियों’ लिखा , मन में खटका हुआ। धत क्या ये लोग अगरबत्ती की राख हैं? उसी को विभुति कहते हैं न!)। ये कविमना लोग अपने ’पोयटिक जस्टिस’ के बावजूद बड़े भले लोग हैं। आप जिस तरह के लोग लेख लिखने लगे हो आजकल उसके चलते आगे चलकर आपकी आलोक पुराणिक से ठनेगी। तब आप इन पोयटिक जस्टिस वाले मित्रों की कवितायें आलोक पुराणिक को सुनाना । वे ढेर हो जायेंगे। टिक न पायेंगे।
पोयटिक
जस्टिस मुझे एक ऐसा भुस भरा कमरा लगता है जिसमें आप जितनी भी चाहें उतनी
सुई घुसा लो , सब अंट जायेंगी। आप जैसी मन आये वैसी बात कहकर ’पोयटिक
जस्टिस’ के नाम पर धंसा सकते हो।
वैसे पोयटिक जस्टिस मुझे एक ऐसा भुस भरा कमरा लगता है जिसमें आप जितनी
भी चाहें उतनी सुई घुसा लो , सब अंट जायेंगी। आप जैसी मन आये वैसी बात कहकर
’पोयटिक जस्टिस’ के नाम पर धंसा सकते हो।बालकिशन जी का क्या कहें? जब देश में कब्र में पांव लटकाने की उम्र तक राजनीतिज्ञ युवा नेता बना रहता है! राजा मांडा के लिये लोग “राजा नहीं फ़कीर है” का नारा लगा सकते हैं तो बालकिशन अगर अपने को युवा पीढ़ी का मानते हैं तो आप क्यों परेशान हैं? वैसे भी जवानी की परिभाषा बताते हुये आप जिनके भीषण प्रशंसक हैं उन्होंने( परसाई जी ने) लिखा है- और इस सबसे अलग बेहिचक बेवकूफ़ी करने की इच्छा का नाम यौवन है।
तो बालकिशनजी अगर यौवनमद में अपने को क्रांतिकारी मान रहे हैं , झोला लादकर क्रांतिकारी बनने का प्रयास कर रहे हैं तो आपको कष्ट नहीं होना चाहिये।
कल से बिजली गुल थी। मजबूरी में यह पत्र लिखा। आज पोस्ट करेंगे। चिट्ठाचर्चा छूट गयी। वो फ़िर कभी।
अनूप
आपको पत्र लिखते समय पुराने दिन याद आ गये। अपनी होने वाली पत्नी
को तमाम पत्र लिखे थे। नीचे फोटो कापी करके अपनी स्मार्ट फोटो लगाते थे।
सोचते थे धांसू इम्प्रेशन पड़ेगा। बाद में बताया गया- वही सबसे बेवकूफ़ी की
बात लगती थी उनको। उन्होंने यह बात मुस्कराते हुये कही थी लिहाजा हमें अभी
भी इसी भुलावे में हैं कि वे उसी से सबसे ज्यादा प्रभावित हुयीं होंगी।चिट्ठी आदतन लम्बी हो गयी। तमाम लोग टोकेंगे। लेकिन उनकी चिंता नहीं। यह आपके लिये है। प्रत्यक्षा जी से इस सब पर कोई कोई आशा मत किया करो। आलस्य उनका आभूषण है उसे वे छोड़ने से रहीं। बकिया फ़िर,
अनूप
२२.०८.०८
और आपने जिस तरह “अ” लिखा है, गुजरा जमाना याद आ गया, पुरानी किताबों में ही अब देखने को मिलता है, जब हमने अक्षरों को घोटना शुरू किया था “अ” बदल चुका था. बादमें “झ” बदला था.
चिट्ठी हाथ से लिखी फिर भी लम्बी लिखी
डाक से भिजवाई होगी, मगर अंदर की बात बाहर आ गई, सार्वजनिक हो गई
मुमकिन है वे नाराज़ हो जाएं….:)
हां ! यह ज़रूर है कि आर्बिट्रेटर किस्म की भूमिका निभाने में सिद्धहस्त यह आदमी लफ़ड़ा-झगड़ा होने पर थोड़ा अन्योक्तिपरक और दार्शनिक किस्म के मोड में चला जाता है और डायरेक्ट कन्फ़्रंटेशन या हेड-ऑन कलिज़न से बचना चाहता है . पर हम सबका कोई न कोई डिफ़ेंस मैकेनिज़्म होता है . यह उनका है . इन्हें सिर्फ़ कुछ समय के लिए ही नारद के बैन-प्रकरण में भाई अफ़लातून जी से जिरह करते समय यह मुद्रा त्यागते देखा गया था .
हम जिस समय में रह रहे हैं वहां चिट्ठी लिखने वाला और चिट्ठी पाने वाला दोनों ‘रेयर’ किस्म के भाग्यशाली जीव हैं . सो भाग्यशालियों के भाग्य का सितारा ऐसे ही चमकता रहे . और क्या कहूं इसके सिवाय कि झाड़े रहो कलट्टरगंज .
फ़ाइनली,इस आदमी के समय-प्रबंधन का राज क्या है ? इसकी जांच होनी चाहिए और परिणाम स्कूली स्तर पर पाठ्यक्रम का हिस्सा होने चाहिए . यह आदमी सहस्रबाहु है क्या ?
बार बार निहार कर आतमहत्या वाली हवन्नक शीर्षक देख देख लौट रहे थे ।
पंडिताइन अलग चिल्लाय रहीं हैं, सो अलग ।
कह रही हैं..कहाँ अटके पड़े हो ?
अरे कुछ लिखो-ऊखो तो कोई बात है..
जहाँ जाते हो.. बुरी संगत पकड़ लेते हो !
अरे.. अरे देखो.. माउस ही उठा कर ले गयीं..
ससुरा दुमकटा है, तभी तो !
दुमकटे कब किस पाले में चले जायें, भरोसा नहीं यारों !
आपलोग.. और समीर भाई खास तौर पर आप अब दुमकटे माउस से निज़ात पाओ,
मन का लिखना पढ़ना नहीं हो पाता ,
हुहः हा हा हा ……
ई.. ‘ हा हा हा ‘ स्वामी-संहिता की मज़बूरी है, दोस्त !
और ये रही हमारी टिप्पणी.
आज पता चला कि हिन्दी और अंग्रेजी की डिक्शनरी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जिसकी कानपुरी व्याख्या न हुई हो. परम से लेकर प्रिय, भाई से लेकर जी और जेंटलमैन से लेकर गुडमैन, कौनौ शबद छोड़ा नाहीं है कानपुर वालों ने. हमारे ऊपर ऐसे-ऐसे शब्दों की कानपुरी मार पड़ी और हम बहुत कोशिश करके खाली प्रणाम नामक मिसाइल छोड़ पाये. ऊ भी कोई काम नहीं आया. एंटी मिसाइल वार ऐसा कि प्रणाम जमीन पर.
वैसे ई प्रणाम शब्द का इस्तेमाल बड़ा स्ट्रेटजिक था. हमनें कानपुर में इस प्रणाम शब्द की व्याख्या सुनी थी. एक गुनी बच्चे ने बताया था कि; “हमारे कानपुर में जब भी कोई प्रणाम करता है या पाँव छूता है तो हाथ को केवल घुटने तक ले जाकर फट से छाती पर रख लेता है. इसका मतलब ये हुआ कि आपका घुटना टूटे तो हमारे कलेजे को ठंडक पंहुचेगी.”
हम प्रणाम की कानपुरी व्याख्या को ध्यान में रखकर शब्द का इस्तेमाल किए थे. हमें क्या मालूम था कि नेता और पार्टीवाले तक आपको प्रणाम करते हैं. अब जो अनूप भइया नेता, पार्टी, माफिया टाइप लोगों का परनाम झेलते हों, उनके ऊपर एक ब्लॉगर द्बारा फेंके गए ‘प्रणामिक मिसाइल’ का कैसा असर? क्या करें, जब चिट्ठी लिख रहे थे उसी दिन कलकत्ते में बंद था. अब यहाँ तो ऐसा है कि बंद मतलब सबकुछ बंद. आदमी का दिमाग बंद. खुला रहता है केवल कामरेडों का दिमाग और मुंह. अब अगर आदमी का दिमाग बंद हो जाए तो ब्लॉगर की क्या बिसात? लिहाजा इस प्रणाम नामक मिसाइल से होनेवाले परिणामों से अनजान, हम शब्द दाग बैठे.
खैर, आपको जिनका इंतजार था, वो प्रियंकर भइया टिपिया चुके हैं. ये अलग बात है कि उन्होंने पोएटिक जस्टिस पर कम और आपके टाइम मैनेजमेंट पर ज्यादा ध्यान दिया है. ऊपर से इस बात आश्चर्य कर रहे है कि आप ज्ञान भइया तक से चुहलबाजी और मौज ले लेते हैं? इसे कहते हैं अचीवमेंट. क्या आनी-जानी है जेंटलमैन-फेंटलमैन कहला कर? वैसे भी एक दिन में ही नशा उतर गया. अचीवमेंट तो ये है कि मौज और चुहलबाजी के जरिये लोगों को चित कर दें. और चित भी ऐसा कि पोएटिक जस्टिस की तलवार चले तो चलने वाला ये सोचकर दंग रह जाए कि मौज में इतनी ताकत! मौज का कवच ऐसा कि तलवार की धार घायल दिखाई दे रही है. मौजत्व का ये रूप देखकर बड़े-बड़े धरासायी हो जायेंगे.
प्रियंकर भइया आगे लिखते हैं;
“हां ! यह ज़रूर है कि आर्बिट्रेटर किस्म की भूमिका निभाने में सिद्धहस्त यह आदमी लफ़ड़ा-झगड़ा होने पर थोड़ा अन्योक्तिपरक और दार्शनिक किस्म के मोड में चला जाता है और डायरेक्ट कन्फ़्रंटेशन या हेड-ऑन कलिज़न से बचना चाहता है . पर हम सबका कोई न कोई डिफ़ेंस मैकेनिज़्म होता है.”
मेरा उनसे यही कहना है कि वे यह बात कैसे भूल गए कि अनूप भइया विज्ञान के छात्र थे. अब विज्ञान के छात्र रह चुके अनूप भइया को इतना तो मालूम ही है कि डायरेक्ट कन्फ्रंटेशन और हेड-ऑन कलिज़न के क्या-क्या खतरे हैं. आप उनके इस गुण को डिफेन्स मैकेनिज्म न कहें. असल में जिसे आप डिफेन्स समझ रहे हैं, वो निहायत ही अफेंस मैकेनिज्म है. सबसे बड़ी बात ये कि केवल विज्ञान की विज्ञानी ही नहीं, आर्बिट्रेटर की भूमिका कई बार निभाने के बाद हमारे अनूप भइया विज्ञान की कलाबाजी भी बखूबी सीख गए हैं.
हमें प्रियंकर भइया से एक ही बात की शिकायत है. और वो ये है कि अभी हम अपनी जेंटलमैनी जाने के सदमे से उबर भी नहीं पाये थे कि उन्होंने हमें एक और उपाधि थमा दी. कहते हैं हम ‘रेयर किस्म के भाग्यशाली जीव’ हैं. हाँ, हमें एक बात की खुशी है कि ये उपाधि केवल हमें नहीं मिली है. हमदोनो को मिली है. लिहाजा हम अकेले ही चित नहीं हैं, आप भी हमारे साथ चित हुए.
लेकिन उनकी जांच वाली मांग का क्या करेंगे भइया? कमीशन बैठने देंगे या फिर कुछ करके इस मांग को ही खारिज कर देंगे?
एक चिट्ठी इस बात की जानकारी देने के लिए हो जाए!
wahi n….. baat fursat ki hai
मजा आ गया पढ़कर, आपकी हर पोस्ट लेखन शैली मे सुधार के लिए माल-मत्ता दे जाती है कि देखो आवारा बंजारा, लिखा तो ऐसे जाता है।
प्रियंकर जी की ऐसी टिप्पणी बड़े दिन बाद पढ़ा, भाई साहब इतना संतुलित काव्य सा गद्य कैसे लिख लेते हैं आप, राज हमें भी बताएं।
फुरसतियाजी आजकल पाठकों के बेहद मांग पर कुछ छोटे लेख लिखने लगे है.. सभी मांगकर्ताओं का बहुत बहुत धन्यवाद।
हस्त लिखित पत्र का अपना अलग ही आनन्द होता है, भले ही वो अपने नाम से ना आकर सिर्फ अपना जिक्र लेकर आया हो. अतः आनन्द से सारोबार हूँ.
‘अदना सा ब्लॉगर’ तो मानो चुनावी स्लोगन हो लिया है और विनम्रता के आतंकवाद से आप जिस तरह आतंकित दिख रहे हैं, हमें तो अंदर की बाद यही लगती है कि आप भी उसी चुनाव की तैयारी में हैं, ठाकुर!! यह तो किसी भी चुनाव लड़ने वाला का गहना है. आप भी सज लें और फोटू जो लास्ट में चेंपी है, वो स्मार्ट है, उसे इस गहने से और स्मार्ट बना डालें. फिर तो हमारी जमानत जब्त ही समझो.
आपको ‘टाइम मैनेजमेंट गुरु’ के सम्मान से नवाजे जाने पर मेरी हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.
समधियाने में अपने ब्लॉग का जिक्र तक नहीं किये हैं, अतः कोई टेन्शन नहीं वरना तो मित्रों की बदनामी तय ही थी. लेकिन बाद में तो मित्रों से मिल कर पढ़ने की जरुरत भी न रहेगी उन लोगों को-खुदे जान जायेंगे.
समीरजी की विनम्रता का हिसाब लगाने में भी २-४ आदमी लगाने पड़ जायेंगे…
एकसे एक उस्ताद लिक्खाड हैँ यहाँ पर
- लावण्या
अदना ब्लौगर कौन है दूजा माई का लाल
दुसरी बात की मम्मी कहती हैं कि जब बडे बात कर रहे हों तो बच्चो को नही बोलना चाहिये… इसलिये मै सिर्फ़ दूर से प्रणाम करके चलती हूँ
एक बार फिर से साष्टांग प्रणाम
और टिप्पणी के जवाबी चिट्ठी का इंतजार रहेगा, वैसे मै पढूँगी नहीं जैसा कि पहले ही बताया है.. वो बस स्क्रीन पर दिख जायेगा तो पढना ही पडेगा.. वैसे मै पढने कि बिल्कुल कोशिश नही करूँगी।
अब भी कुछ बचा है कहने को?
(इससे लम्बी टिप्पणी चट्रे से सम्भव नही!)
आज हृदयंगम करके लिये जा रहा हूँ ।
यदि गंभीर ड्रुष्टिकोन से पढ़ें तो हिन्दी ब्लागिंग को दिशा निर्देश देता है,
आपका यह चिट्ठीनुमा आलेख !
स्वस्तियाय भवेत !