http://web.archive.org/web/20140419161233/http://hindini.com/fursatiya/archives/494
द्विवेदीजी ने अपने कामकाज के दिनों के तमाम किस्से सुनाये। वे एक ईमानदार और निर्भीक कर्मचारी के रूप में विख्यात थे। कानून सम्बन्धी कामकाज देखते थे। कुछ मसलों में अपने अधिकारियों की राय के धुर उलट कानून सम्मत राय रखी और अधिकारियों की नाराजगी भी मोल ली लेकिन अंतत: सही साबित हुये। वे मानते रहे कि विश्वविद्यालय का हर वह कानून गलत है जो विद्यार्थियों की उन्नति में बाधक है।
ऐसे ही बातचीत के दौर में मैंने उनकी ईमानदारी की तारीफ़ की। इस पर उन्होंने कहा- Honesty is not a matter of pride.(ईमानदारी गर्व का विषय नहीं है)
यह मेरे लिये एक नयी चीज थी। मैंने अभी तक तमाम ईमानदार लोगों देखा और उनमें से कई अपनी ईमानदारी का बैड खुद बजाते दिखे। लेकिन यह मैं किसी ईमानदार के मुंह से पहली बार सुन रहा था कि ईमानदारी गर्व का विषय नहीं है।
बाद में उन्होंने इस पर अपने और विचार रखे और मैंने तब से आज तक इस पर बहुत सोचा। गैरसिलेसिलेबार ढंग से सोचा। बातें गड्ड-मड्ड होती रहीं लेकिन यह बात दिमाग से उतरी नहीं – ईमानदारी गर्व का विषय नहीं है।
अक्सर जब ईमानदारी की बात होती है तो तमाम लोगों के किस्से सुनने को मिलते हैं वे बहुत ईमानदार थे। एक पैसे की बेईमानी नहीं की। कोई गलत काम उनसे नहीं करवाया जा सकता। ऐसा कोई सिक्का नहीं बना जो उनको खरीद सके। आदि-इत्यादि।
अपने समाज में ईमानदारी की महिमा सदियों से बखानी जाती रही है। लेकिन समय के साथ कुछ ऐसा हुआ कि आज ईमानदार कहलाने का मतलब एक निरीह, कमजोर, दीन-हीन और महत्वहीन सा हो जाना है। ईमानदारी की आम छवि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी टाइप हो गयी है।
ऐसा कैसे हुआ यह सब बड़े विचार का विषय है। लेकिन यह सच है कि अक्सर लोग जब अपनी ईमानदारी की बात करते हैं तो इसे इस रूप में मानते हैं मानो ईमानदार हो लिये अब इसके बाद कुछ और होना उनके लिये न लाजिमी है न किसी मतलब काम का। हम तो ईमानदार हैं भैये अब इससे ज्यादा और कुछ हमसे न अपेक्षा करो।
ईमानदारी की आड़ में तमाम लोग अपने तमाम दूसरे नकारात्मक गुण छिपा लेते हैं। वे ईमानदार होने मात्र से संतुष्ट हो जाते हैं। मैंने तमाम ईमानदार देखे हैं जो बेईमानी की कोई भी बात देखते ही दुर्वासा बन जाते हैं। कालान्तर में हर चीज में बेइमानी देखने की आदत बन जाती है उनमें और वे चिड़चिड़े , शंकालु और रूखे से होते जाते हैं। किसी भी प्रस्ताव में गलती देखते ही उसे अगले की बेइमानी समझते हुये घंटों ईमानदारी पर प्रवचन देते हैं।
यहीं ईमानदारी मार खा जाती है।
ईमानदार व्यक्ति की ईमेज एक चिड़चिड़े, खूसट और शक्की आदमी के रूप में बनती जाती है। ऐसा साजिशन भी होता है। लोग एक ईमानदार व्यक्ति को अव्यवहारिक, समय की मांग को न समझने वाला और ’बड़े हरिशचन्द्र बनते हैं’ साबित कर देते हैं।
मुझे लगता है कि आज की व्यवस्था में ईमानदार बने रहने के लिये सबसे जरूरी है कि ईमानदारी हमेशा नेपथ्य में रहे। केवल ईमानदारी का झण्डा फ़हराने से विजय श्री का वरन न होने का।
ईमानदार बने रहने के लिये जरूरी है कि आपको लोग ईमानदार व्यक्ति के रूप में जानने से पहले एक सक्षम , कार्यकुशल और ऐसे व्यक्ति के रूप में जाने जिसके जैसे लोग कम हैं। तार्किकता, व्यवहार कुशलता, अभिव्यक्ति क्षमता, दुविधा रहित विचार ऐसी चीजें हैं जो जितनी मात्रा में होंगी वह आपकी ’कोर ईमानदार’ की रक्षा करेंगी।
ईमानदार अधिकारी /कर्मचारी के लिये जरूरी है कि वह इतना चकड़ हो कि बेईमानों के इरादे समय रहते भांप ले और उस पर बिना किसी हल्ले के अंकुश लगा सके। ऐसे अवसर कम से कम बनने दे जिसमें बेइमानी की गुंजाइश रहे।
मेरा यहां ईमानदार व्यक्ति को ठेस पहुंचाने की इरादा नहीं है। मैं सिर्फ़ कहना चाहता हूं आज ईमानदारी विरल होती जा रही है। जिसे देखो वो ईमानदारों का शिकार करने पर आमादा है। ईमानदार लोगों को अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिये सक्षम , कार्यकुशल और किसी भी सिस्टम के अपरिहार्य बनना जरूरी है।
टाटा स्टील का विज्ञापन आता था। उसमें टाटा ग्रुप की तमाम अच्छाईयां बताते हुये अंत में कहा जाता है- हम स्टील भी बनाते हैं।
किसी भी सिस्टम में ईमानदार बने रहने के लिये जरूरी है कि लोग आपकी कार्यकुशलता, क्षमता, निर्णय की गुणता, दूरदर्शिता और और अन्य तमाम गुणों की बात यह कहते हुये कहें -और वो ईमानदार भी है।
अपने बेहतरीन जीवन मूल्यों की रक्षा करने के लिये आपको उसकी समर्थक सेना भी तैयार करनी पड़ती है।
आपको शायद यह मेरी खामख्याली लगती होगी कि ऐसा भी कहीं होता है? ये तो शेखचिल्ली जैसे बाते हैं। लेकिन मैं यही कहना चाहता हूं -हां यह होता है। मैं इसे होते देखता हूं । कुछ कम -ज्यादा होगा लेकिन जितना होते देखता हूं उससे यह तो लगता है कि यह मुश्किल है लेकिन असंभव नहीं।
अफ़सोस इस बात का है कि जित्ती अच्छी तरह से इसे मुझे रखना चाहिये था उत्ती अच्छी तरह से रख नहीं पाया लेकिन जो है सो है। हम जित्ता रख पाये रख रहे हैं बाकी आपके लिये छोड़ दिया।
ईमानदारी गर्व का विषय नहीं है
By फ़ुरसतिया on August 5, 2008
ईमानदारी
मैं आज से करीब दो महीने पहले कानपुर विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त हुये
श्री पी.सी.द्विवेदी जी मिलने गया। वे कानपुर विश्वविद्यालय की विधि
सम्बन्धी समस्यायें देखते थे। उनके पिताजी पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी
प्रख्यात कांग्रेसी थे। पी.सी. द्विवेदी जी अपने पिताजी से बहुत प्रभावित
थे लेकिन उनका झुकाव साम्यवाद की तरफ़ भी था। बाप-बेटे में वैचारिक मतभेद
बने रहते थे। इतने की पिताजी ने थाने में सूचित भी किया था- मेरे लड़के पर
नजर रखी जाये वह कम्युनिष्ट हो रहा है।द्विवेदीजी ने अपने कामकाज के दिनों के तमाम किस्से सुनाये। वे एक ईमानदार और निर्भीक कर्मचारी के रूप में विख्यात थे। कानून सम्बन्धी कामकाज देखते थे। कुछ मसलों में अपने अधिकारियों की राय के धुर उलट कानून सम्मत राय रखी और अधिकारियों की नाराजगी भी मोल ली लेकिन अंतत: सही साबित हुये। वे मानते रहे कि विश्वविद्यालय का हर वह कानून गलत है जो विद्यार्थियों की उन्नति में बाधक है।
ऐसे ही बातचीत के दौर में मैंने उनकी ईमानदारी की तारीफ़ की। इस पर उन्होंने कहा- Honesty is not a matter of pride.(ईमानदारी गर्व का विषय नहीं है)
यह मेरे लिये एक नयी चीज थी। मैंने अभी तक तमाम ईमानदार लोगों देखा और उनमें से कई अपनी ईमानदारी का बैड खुद बजाते दिखे। लेकिन यह मैं किसी ईमानदार के मुंह से पहली बार सुन रहा था कि ईमानदारी गर्व का विषय नहीं है।
बाद में उन्होंने इस पर अपने और विचार रखे और मैंने तब से आज तक इस पर बहुत सोचा। गैरसिलेसिलेबार ढंग से सोचा। बातें गड्ड-मड्ड होती रहीं लेकिन यह बात दिमाग से उतरी नहीं – ईमानदारी गर्व का विषय नहीं है।
अक्सर जब ईमानदारी की बात होती है तो तमाम लोगों के किस्से सुनने को मिलते हैं वे बहुत ईमानदार थे। एक पैसे की बेईमानी नहीं की। कोई गलत काम उनसे नहीं करवाया जा सकता। ऐसा कोई सिक्का नहीं बना जो उनको खरीद सके। आदि-इत्यादि।
अपने समाज में ईमानदारी की महिमा सदियों से बखानी जाती रही है। लेकिन समय के साथ कुछ ऐसा हुआ कि आज ईमानदार कहलाने का मतलब एक निरीह, कमजोर, दीन-हीन और महत्वहीन सा हो जाना है। ईमानदारी की आम छवि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी टाइप हो गयी है।
ऐसा कैसे हुआ यह सब बड़े विचार का विषय है। लेकिन यह सच है कि अक्सर लोग जब अपनी ईमानदारी की बात करते हैं तो इसे इस रूप में मानते हैं मानो ईमानदार हो लिये अब इसके बाद कुछ और होना उनके लिये न लाजिमी है न किसी मतलब काम का। हम तो ईमानदार हैं भैये अब इससे ज्यादा और कुछ हमसे न अपेक्षा करो।
ईमानदारी की आड़ में तमाम लोग अपने तमाम दूसरे नकारात्मक गुण छिपा लेते हैं। वे ईमानदार होने मात्र से संतुष्ट हो जाते हैं। मैंने तमाम ईमानदार देखे हैं जो बेईमानी की कोई भी बात देखते ही दुर्वासा बन जाते हैं। कालान्तर में हर चीज में बेइमानी देखने की आदत बन जाती है उनमें और वे चिड़चिड़े , शंकालु और रूखे से होते जाते हैं। किसी भी प्रस्ताव में गलती देखते ही उसे अगले की बेइमानी समझते हुये घंटों ईमानदारी पर प्रवचन देते हैं।
यहीं ईमानदारी मार खा जाती है।
ईमानदार व्यक्ति की ईमेज एक चिड़चिड़े, खूसट और शक्की आदमी के रूप में बनती जाती है। ऐसा साजिशन भी होता है। लोग एक ईमानदार व्यक्ति को अव्यवहारिक, समय की मांग को न समझने वाला और ’बड़े हरिशचन्द्र बनते हैं’ साबित कर देते हैं।
मुझे लगता है कि आज की व्यवस्था में ईमानदार बने रहने के लिये सबसे जरूरी है कि ईमानदारी हमेशा नेपथ्य में रहे। केवल ईमानदारी का झण्डा फ़हराने से विजय श्री का वरन न होने का।
ईमानदार बने रहने के लिये जरूरी है कि आपको लोग ईमानदार व्यक्ति के रूप में जानने से पहले एक सक्षम , कार्यकुशल और ऐसे व्यक्ति के रूप में जाने जिसके जैसे लोग कम हैं। तार्किकता, व्यवहार कुशलता, अभिव्यक्ति क्षमता, दुविधा रहित विचार ऐसी चीजें हैं जो जितनी मात्रा में होंगी वह आपकी ’कोर ईमानदार’ की रक्षा करेंगी।
ईमानदार अधिकारी /कर्मचारी के लिये जरूरी है कि वह इतना चकड़ हो कि बेईमानों के इरादे समय रहते भांप ले और उस पर बिना किसी हल्ले के अंकुश लगा सके। ऐसे अवसर कम से कम बनने दे जिसमें बेइमानी की गुंजाइश रहे।
मेरा यहां ईमानदार व्यक्ति को ठेस पहुंचाने की इरादा नहीं है। मैं सिर्फ़ कहना चाहता हूं आज ईमानदारी विरल होती जा रही है। जिसे देखो वो ईमानदारों का शिकार करने पर आमादा है। ईमानदार लोगों को अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिये सक्षम , कार्यकुशल और किसी भी सिस्टम के अपरिहार्य बनना जरूरी है।
टाटा स्टील का विज्ञापन आता था। उसमें टाटा ग्रुप की तमाम अच्छाईयां बताते हुये अंत में कहा जाता है- हम स्टील भी बनाते हैं।
किसी भी सिस्टम में ईमानदार बने रहने के लिये जरूरी है कि लोग आपकी कार्यकुशलता, क्षमता, निर्णय की गुणता, दूरदर्शिता और और अन्य तमाम गुणों की बात यह कहते हुये कहें -और वो ईमानदार भी है।
अपने बेहतरीन जीवन मूल्यों की रक्षा करने के लिये आपको उसकी समर्थक सेना भी तैयार करनी पड़ती है।
आपको शायद यह मेरी खामख्याली लगती होगी कि ऐसा भी कहीं होता है? ये तो शेखचिल्ली जैसे बाते हैं। लेकिन मैं यही कहना चाहता हूं -हां यह होता है। मैं इसे होते देखता हूं । कुछ कम -ज्यादा होगा लेकिन जितना होते देखता हूं उससे यह तो लगता है कि यह मुश्किल है लेकिन असंभव नहीं।
अफ़सोस इस बात का है कि जित्ती अच्छी तरह से इसे मुझे रखना चाहिये था उत्ती अच्छी तरह से रख नहीं पाया लेकिन जो है सो है। हम जित्ता रख पाये रख रहे हैं बाकी आपके लिये छोड़ दिया।
आपने जित्ता रख दिया है उत्ता ही उठ जाए बहुत है .. चूंकी बात में वजन है!
ईमानदारी गर्व का नहीं, शर्म का विषय है।
ईमानदार बंदे की बीबी कलक्टरगंज में शापिंग कर पाती है
बेईमान की सिंगापुर जाती है.
बताइए बीबी के सामने कौन शर्मिंदा होता है।
कितनी सही बात है.. और ये भी सही की आज के समय में ईमानदारी “मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी हो गयी”
धन्यवाद इस लेख के लिए
पर ऐसे मामलों में उस इन्सान की गलती कहाँ है जो ‘नॉर्म’ के अनुसार ही चल रहा है, ईमानदार अफसर ने अपनी ईमानदारी की कुंठा उसपर निकाल दी, जबकि गलती उसके साथ और उससे पूर्व पदस्थ अधिकारीयों की थी.
यह दफ्तर कोई शिक्षण संस्थान, न्यायलय, सरकारी विभाग, मंत्रालय या फ़िर कुछ और भी हो सकता है. ऐसी ईमानदारी से भगवन बचाए!
लिखा अच्छा!
एकदम सटीक बात कही, और चिन्ताइए मत, आप ने अपनी बात बहुत अच्छे से कही, पूरे दमखम के साथ स्टीली बात है जी, आप कह सकते हैं हम मौज ले सकते हैं, कविताई हो सकते है, गंभीर बातें भी कर सकते हैं और हां हम ब्लोग भी लिखते हैं।
हम तुंरत आप की बात से सहमत हो जायेगें।
बहुत अच्छा लिखा है और एक्दम विचारणीय बात है
धन्यवाद
ईमानदारी अपने-आप में कोई ऐसी चीज नहीं है जिसकी प्रशंसा हो….बाकी चीजें उसे पूर्ण बनाती हैं…ये तो बस पूरक है आपके गुणों की
बहुत कुछ लिखने का मन हो रहा है….हालांकि मेरा अनुभव कुछ ज्यादा तो नहीं है पर कोशिश करूंगा इसे एक पोस्ट का रूप देने की
और मननीय…प्रेरक भी.
====================
डा.चन्द्रकुमार जैन
आप ने इस विषय को छू कर फिर से चर्चा का विषय बना दिया है। हो सकता है इस विषय पर अनेक आलेख पढने को मिलें वैसे आप को भी यह विषय प्रेमचन्द जयन्ती पर नमक का दरोगा कहानी से स्मरण हो आया है। मुंशी प्रेमचन्द जी के साहित्य की यही तो खूबी है।
“अप्रत्याशित रूप से सीन में ‘ईमानदार अधिकारी की एंट्री’ होती है. साथी कर्मचारियों, आधीनस्थों एवं उच्चाधिकारियों को ईमानदार लोगों से निपटने के कुछ गुर आते ही हैं, पर फजीहत उस अन्तिम व्यक्ति की होती है जो दफ्तर में अपना काम करवाने भटक रहा है. कोई खूसट ईमानदार अचानक आता है और ‘चलन के अनुसार’ रिश्वत के लिए मोलभाव (जो की यहाँ की अब तक सामान्य बात थी) करने वाले का काम रुकवा देता है, या कभी कभी अन्दर भी करा देता है. अपमान हमेशा कमज़ोर का ही होता है, फ़िर चाहे गलती उसकी हो या न हो, ताक़तवर पर शायद ही कोई अपनी ईमानदारी दिखाता है.”
यहाँ जिस ‘ईमानदार अधिकारी’ की चर्चा विवेक जी ने की उसी की कथित ईमानदारी की निरर्थकता की ओर अनूप जी ने इशारा किया है। जो ईमानदारी deliver न करे, अच्छे परिणाम न दे, दूसरों को राहत न दे, अपनी संस्था और समाज के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक न हो, वह ईमानदारी किस बात का गर्व करेगी?
अनूप जी, हम आपकी विचार-श्रृंखला के मुरीद होते जा रहे हैं।
कि किसी टीका-टिप्पणी की आवश्यकता हो, जाट के मित्र
यानि डाक्टर अनुराग की लेखनी ने इसकी पुष्टि कर दी है ।
ईमानदारी तो केवल इतना ही चाहती है कि हर व्यक्ति
अपनी अपनी जगह पर अपने हैसियत के अनुरूप ही सही
अपने कार्य व पद के प्रति निष्ठावान रहे, तो भी ईमानदारी
को आक्सीज़न पर रखे जाने की ज़रूरत ख़त्म हो जाती है ।
एक बड़ेबाबू, जो एक पैसे के भी गुनाहगार नहीं रहे हैं, वह
दफ़्तर में प्राक्सी लगा कर, उससे इतर व्यक्तिगत कार्य करते
हुये बरामद होते हैं, तो निश्चय ही वह ईमानदार तो नहीं कहे
जा सकते हैं, कोई असहमति ? भला होनी भी नहीं चाहिये !
ईमानदारी तो किंन्ही भी विज्ञजन से यह तक पूछ सकती
है कि क्या आप अपने दफ़्तर के ब्राडबैंड के जरिये टिप्पणी
तो नहीं प्रेषित कर रहे हैं ? बड़ा व्यापक है यह सब, छोड़िये भी..
ईमानदारी तो मुझसे यह भी करवा चुकी है, कि ‘ यहाँ मेडिकल
सर्टीफ़िकेट नहीं बेचे जाते हैं ‘ का डिस्प्लेबोर्ड लगाओ..और तुम
खिसके हुये का ख़िताब पाकर भी मस्त रहो । चलता है..
ईमानदारी तो मुझसे यह भी कह रही है कि, यह भी लिखो कि
यहाँ तुम मूड़ हिलाने तो नहीं आये हो, या फ़ुरसतिया गुरु के
भौकाल में हाज़िरी दर्ज़ करा रहे हो ? सुकुल तो जब कोई चेला
शक्कर बनने बनने को होता है, तभी तो वह ज्ञान से आलिंगन
करने को मचल उठते हैं ! तो मेरे पीछे पंक्तिबद्ध टिप्पणीकारों..
ईमानदारी कहाँ पायी जाती है, मैं स्वयं ही अब तक इतने गली
कूचों में ढूँढ़ चुका हूँ कि ईमानदारी के अते-पते की गुहार आपसे
कर रहा हूँ , न कि किसी धवलवस्त्र धारी मठाधीष से ? राम राम ।
पुनःश्च- अब तो राम का नाम लेना भी शक पैदा करता है, क्या करें ?
घुघूती बासूती
आशा है सारे ईमानदार लोग आपके लेख से सबक लेकर और अधिक शक्तिशाली ईमानदार में परिवर्तित हो सकेंगे.
Ab mayavati ko hi dekh lijye, kitni imandaari se ghus aur bemaani se mili kamai ko donation ki bata karoron ka tax sarkar ko de diya lekin phir bhi media peeche para hua hai.
“किसी भी सिस्टम में ईमानदार बने रहने के लिये जरूरी है कि लोग आपकी कार्यकुशलता, क्षमता, निर्णय की गुणता, दूरदर्शिता और और अन्य तमाम गुणों की बात यह कहते हुये कहें -और वो ईमानदार भी है।”
यह भी जोड़ दूँ अब इमानदारी एक कुशल प्रबंधन का ही प्रगटीकरण है -कभी यह सच था कि यह प्रदर्शन की वास्तु नहीं है -पर अब का युग सत्य यह है कि यह प्रदर्शित होनी चाहिए .अब इमानदारी एक अपवाद ही है -तंत्र ऐसा हो चला है कि आपको अपने तई नहीं तो दूसरों के लिए बेईमानी पर उतरना पड़ रहा है .अस्तित्व का एक दूसरे तरह से सामाजिक व्यवस्था में हावी हो रहा है .तथापि आनेस्टी इस द बेस्ट पालिसी …..
अच्छा लिखा… एकदम खांटी ईमानदारी की परिभाषा मतलब पैसे की ईमानदारी के मामले में तो हमारे काम की नहीं…(मास्टर का मतलब ही है ईमानदार कयोंकि उसके पास बेईमानी के अवसरे ही नीं होते) लेकिन बहत्तर संदर्भ में ‘हम ईमानदार हैं… हमसे और कोई अपेक्षा न रखें’ सिंड्राम सबसे ज्यादा स्टाफरूम में ही दिखता है।
sushma की हालिया प्रविष्टी..कथा सिर्फ कहवैया की गुनने की सीमा हैं
टाप्चिक
प्रणाम,.
“ईमानदार बने रहने के लिये जरूरी है कि…………………………………………………………………….. वह आपकी’कोर ईमानदार’ की रक्षा करेंगी।”
आपका लेख, विशेषकर उपरोक्त लाइनें, पढ़कर मुझे सिर्फ एक ही विचार आया, काश ऐसा कोई लेख मैंने पहले पढ़ा होता या श्री द्विवेदी जैसे ईमानदार और निर्भीक व्यक्ति से मिलने का अवसर मुझे भी मिला होता ।
Rekha Srivastava की हालिया प्रविष्टी..डाक तार सेवायें !
ईमानदारी भी अब विलक्षण वस्तु बन चुकी है, सम्भवतः आगे चलकर ‘ईमानदारी दिवस’ मनाने की परंपरा भी शुरू हो जायेगी !
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एक बात और
सभी भ्रष्टाचारियों, लुटेरों और अत्याचारियों ने मिलकर एक और भ्रामक सवाल उत्पन्न कर दिया है कि “हिंदुस्तान में लोग तभी तक ईमानदार हैं, जब तक उनको बिकने का मौका नहीं मिलता”…..
अक्सर लोग इसके भ्रमजाल में फंस भी जाते हैं……ऐसा कहने भर से ही समाज को कितना नुकसान पहुँचता है, उन्हें नहीं मालूम …. ऐसा कहने से समाज को कोई फायदा नहीं होता, उल्टे ईमानदार आदमी का मनोबल गिरता है, वह तो हतोतसाहित (Demoralized) होता ही है ,,,साथ ही बेईमान आदमी की हौंसला आफजाई होती है !
Prakash Govind की हालिया प्रविष्टी..एक दिलचस्प और सच्चा किस्सा