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ब्लॉग जगत के बड़े भाई साहब- सतीश सक्सेना
By फ़ुरसतिया on January 6, 2011
सतीश सक्सेना जी ने तीन दिन पहले की चर्चा पर टिपियाते हुये कहा:
सतीश जी के व्यक्तित्व का कोर कम्पीटेन्स है भाईचारा, इंसानियत, अच्छा व्यवहार, परदुखकातरता। इधर अमन-वमन भी जुड़ा था लेकिन जोड़ने वाला गोंद किसी लोकल कम्पनी का था सो उखड़ गया जोड़! अमन की चद्दर फ़ैलाने वाले ही अमन की खटिया खड़ी करने लगे।
किसी ने तो नाम न बताने की शर्त पर जानकारी दी कि एक जगह एक जोड़ा मौका पाकर गले लगकर इजहारे मोहब्बत कर रहा था। उधर से सतीश भाई निकले। झट से उनको अलग करके फ़ट से दोनों में बीच-बचाव करा दिया। झगड़ा निपटवाना सतीश जी की हाबी है।
हमारे भी न जाने कित्ते झगड़े सतीश जी ने निपटवाये हैं। अनूप शुक्ल-समीरलाल, अनूप शुक्ल-अरविन्द मिश्र वाले झगड़े तो नामी हैं। इसके अलावा हमारे न जाने कित्ते फ़ुटकर झगड़े सतीश भाई ने नक्की कराये हैं। इन फ़ुटकर झगड़ों का हिसाब पेश करना भारत में हुये घोटालों का हिसाब देने जैसा है। वैसे सतीश जी की बीच-बचाव की हसीन आदत से हमें दो फ़ायदे हुये हैं।
१. हम महान लोगों में गिने गये। सतीश भाई जब झगड़ा निपटवाते हैं झगड़ने वाले को पहले अच्छा और महान बताते हैं इसके बाद झगड़े में हाथ डालते हैं। सतीश जी अ-महान लोगों के झगड़े में कोई रुचि नहीं लेते। अगर आपको अपना झगड़ा सतीश जी ने निपटवाना है तो पहले महान बनना होगा। अच्छा है कि आप खुद बन के आयें वर्ना सतीश जी तो बना ही देंगे।
२. दूसरा फ़ायदा यह हुआ कि हम ऊंचे लोगों में गिने गये। अनूप शुक्ल ही हैं जो समीरलाल जैसे लोकप्रिय और अरविन्द मिश्र जैसे परशुरामी तबियत वाले विद्वान से पंगा ले सकते हैं।
सतीश जी ने हमारे जब-जब हमारे झगड़े निपटवाने का आवाहन किया चाहे वह समीरलाल से हो या अरविन्द मिश्र जी से तब-तब हमें लगा कि हम छुट्टा सांड़ की तरह आपस में भिड़े पड़े हैं। उनकी चिन्ता मुझे उस फ़ुटपाथ पर सब्जीवाले की चिंता के समान लगी जो सड़क पर सींग भिडाये साड़ों को देखकर सोचता है कि कहीं वे उसकी ठेलिया न पलट दें।
कभी लगता है कि हम और हमारे साथी बिजली के लाल-हरे तार हैं। जिनके बीच अगर सतीश भाई का बीच-बचाव वाला इन्सुलेटर न होता तो हम आपस में सटकर ब्लॉगजगत का फ़्यूज उड़ा दिये होते।
सतीश जी सहज विश्वासी हैं। आसानी से किसी पर भरोसा कर लेते हैं। वे किसी से जब भी मिलते हैं पहले उस पर विश्वास करते हैं इसके बाद नमस्ते-वमस्ते। इस चक्कर में कई बार उनका विश्चास टूटता भी है। हर वे अपने सहजविश्वास करने की आदत पर अफ़सोस करते हैं। कभी-कभी कहते हैं कि उनका विश्वास उठ गया है। अब किसी पर भरोसा नहीं करेंगे। लेकिन सहजविश्वास की आदत उनके साथ बुजुर्ग दम्पति तरह जुड़ी है । बुजुर्गवार आपस में कुड़बु्ड़ाते हैं। एक दूसरे को कोसते हैं लेकिन एक दूसरे के बिना एक दिन भी गुजारा नहीं कर सकते।
अनूप शुक्ल के सतीश जी इस बात के लिये मुरीद हैं कि वे हंसते-हंसते अपनी खिंचाई कर लेते हैं। मस्तमौला हैं। इसके चलते उनको वे गुरु तक कह देते हैं। कभी-कभी जब ज्यादा सच कहना चाहते हैं तो गुरु के साथ घंटाल भी चिपका देते हैं। उनको आश्चर्य होता है कि कैसे कोई सालों तक लोगों के बीच इस तरह अपनी खिंचाई करते हुये मस्त रह सकता है। इस बारे में सतीशजी से हालिया मुलाकात में अनूप शुक्ल ने बताया कि -अपनी बुराई करते रहना घर का रद्दी/कबाड़ बेचने जैसा काम है। रद्दी का रद्दी निकल जाती है और पैसे अलग से खड़े हो जाते हैं।
सतीश सक्सेना जी गीत बहुत धांसू लिखते हैं। भाईचारा, इंसानियत, अच्छा व्यवहार, परदुखकातरता में बहुत समय चला जाता है उनका वर्ना वे पक्के गीतकार होते। लेकिन समय-समय उनका हुनर उचक-उचककर बाहर आ ही जाता है। देखिये अपने एक गीत में वे क्या कहते हैं:
अब देखिये जिसके लिये प्यार जैसी कोमल च सुकोमल चीज माने जाने चीज भी झेलने वाली है उसकी संवेदनशीलता का अंदाज लगाया जा सकता है। मैंने पूछा सतीश जी से कि भाईजी ये आपका ये कौन सा ब्रांड वाला प्यार है जिसे झेलना पड़ता है। इस पर उन्होंने मुस्कराते हुये सारा दोष अपनी जवानी के दिनों पर ठेल दिया-
वैसे आज भी प्रेम की बात करने वाले रोना-धोना किये बिना प्रेम को सार्थक नहीं मानते। वे रोने-धोने को प्रेम-प्यार को उतना ही अपरिहार्य मानते हैं जितना किसी देश के विकास के लिये घपले-घोटाले। उनकी यह पंक्तियां देखिये जरा:
मतलब देखिये क्या हाल बना रखा है प्रेमी ने अपना। जीवन में दर्द है, पीड़ा जबरियन बैठ गयी है तनमन में। अब इसके बाद करेले के ऊपर नीम की तरह प्यार का प्रवेश हो सकता। दुख से गठबंधन इत्ता तगड़ा है कि छोड़ते नहीं बनता। खुशियों के लिये जगह नहीं बचती। बवाल है भाई प्यार भी। कानपुर के कवि उपेन्द्र जी ने लिखा है:
सतीश जी हमसे इस बात से जित्ते खुश रहते हैं कि हम हमेशा मस्त रहते हैं उत्ते ही इस बात से कभी-कभी परेशान भी रहते हैं कि हम हमेशा खिंचाई के ही मूड में रहते हैं। उनकी शिकायत जायज है। लेकिन हमारा कहना है कि भाई जी ,खिंचाई हम नहीं करेंगे तो क्या ये काम भी आउटसोर्स कर दोगे? क्या खिंचाई करने वाले होनोलूलू से आयेंगे? इसई पर एक किस्सा पेश है सुना जाये:
फ़िराक साहब मुंहफ़ट थे। किसी को कभी भी कुछ भी कह देते थे। एक बार इलाहाबाद युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर अमर नाथ झा के लिये भी कुछ कह दिये। लोगों ने चुगली कर दी दरबार में। फ़िराक साहब को पता चला तो अमर नाथ झा से मिलने गये। दरबार लगा था झा जी का। अपना नम्बर आने पर आने पर फ़िराक साहब जब अन्दर गये तो पहले बाल बिखेर लिये। शेरवानी के बटन खोल लिये। कपड़े अस्त-व्यस्त कर लिये। अमर नाथ झा बोले -फ़िराक अपने कपड़े तो ठीक कर लो। सलीके से रहा करो।
फ़िराक बोले- अरे ये सलीका तो तुमको आता है अमरू! तुम्हारे मां-बाप इतने समझदार थे। सिखाया तुमको। हमारे मां-बाप तो जाहिल थे। कौन सिखाता हमको।
अमरनाथ झा बोले- फ़िराक अपने मां-बाप को इस तरह कोसना ठीक नहीं।
फ़िराक बोले- अमरू मैं अपने लोगों को नहीं कोसूंगा तो किसको कोसूंगा। अपने मां-बाप को , भाई- दोस्तों को नहीं कोसूंगा तो किसको नहीं कोसूंगा। तुमको नहीं कोसूंगा तो किसको कोसूंगा।
अमरनाथ झा बोले – ओके, ओके फ़िराक। आई गाट योर प्वाइंट। चलो आराम से रहो।
हम न फ़िराक जी हैं न यहां कोई अमरनाथ झा लेकिन कहना यही है कि अगर हम मौज नहीं लेंगे, खिंचाई नहीं करेंगे तो कौन करेगा। वैसे भी ये जिनकी बात की उनके साथ बहुत पुराना याराना है अपन का। इनके बारे में हम नहीं कहेंगे तो कौन कहेगा।
सतीश जी ने लिखा था:
बहुत दिन से मौज लेने का मन था सतीश जी से। आज सोचा जाये अच्छे कामों को बहुत दिन तक स्थगित नहीं करना चाहिये। सो उनकी ता्रीफ़ कर दी। सतीश जी भले इंसान हैं। सोचने-समझने का सारा काम दिल को सौंप दिये हैं। दोस्त बाज हैं। छोटों से स्नेह रखते हैं। बड़ों के लिये आदर-सत्कार। उनसे मिलकर मन खुश हो गया। सोचा अपनी खुशी भी जाहिर भी कर दें। उनके व्यक्तित्व के तमाम बेहतरीन पहलू छूट गये। उन पर फ़िर कभी। फ़िलहाल तो यही देखिये।
सतीश सक्सेना जी से पिछली मुलाकात के कुछ फ़ोटो यहां देखें।
हम गाते नहीं तो
कौन गाता?
ये पटरियाँ
ये धुआँ
उस पर अंधेरे रास्ते
तुम चले जाओ यहाँ
हम हैं तुम्हारे वास्ते।
गीत!
हम आते नहीं तो
कौन आता?
छीनकर सब ले चले
हमको
हमारे शहर से
पर कहाँ सम्भव
कि बह ले
नीर
बचकर लहर से।
गीत!
हम लाते नहीं तो
कौन लाता?
प्यार ही छूटा नहीं
घर-बार भी
त्यौहार भी
और शायद छूट जाए
प्राण का आधार भी।
गीत
हम पाते नहीं
तो कौन पाता?
विनोद श्रीवास्तव
अब जब सतीश जी ने अनुरोध किया है तो चुप्पी तोड़नी ही पड़ेगी और तारीफ़ वारीफ़ करनी ही पड़ेगी। गैर की तो बाद में देखी जायेगी पहले अपने को देखा जाये। सतीश जी अपने हैं। बड़े भाईसाहब हैं। पिछले महीने जे एन यू में खूब खिलाये-पिलाये। मजे कराये। ऐश भी। सो सबसे पहले उनकी ही तारीफ़ की जाये।@ अनूप भाई ,
गलत बात कोई भी, कहीं भी कर रहा हो अगर हम सब उसे बढ़ावा न दें और हाथ जोड़ कर मनाने का प्रयास कर लें तो लेखन पाठन का कितना आनद आये ?
एक से एक बेहतरीन लेखक यहाँ मौजूद है मगर कहीं लेखकों के गाल फूले हैं और कही अच्छे पाठक गायब हैं ! बौद्धिकता से व्यक्तिगत रंजिशों का सफ़र हम सबको कहीं न कहीं खराब तो लगता ही होगा मगर कुछ समय में अपनी बारी आते ही सब दार्शनिकता और विद्वता गायब हो जाती हैं
दे तेरे की और ले तेरे की …हम सब लोग अंतत अपनी औकात बताने में माहिर हैं !
अनूप भाई की चुप्पी भी कई बार रहस्यमय हो जाती है और अखरती है …
मौज के साथ साथ कभी गैरों की तारीफ भी कर दिया करो गुरु !
शुभकामनाएं !
सतीश जी के व्यक्तित्व का कोर कम्पीटेन्स है भाईचारा, इंसानियत, अच्छा व्यवहार, परदुखकातरता। इधर अमन-वमन भी जुड़ा था लेकिन जोड़ने वाला गोंद किसी लोकल कम्पनी का था सो उखड़ गया जोड़! अमन की चद्दर फ़ैलाने वाले ही अमन की खटिया खड़ी करने लगे।
सतीश सक्सेना
सतीश जी चिरयुवा हैं। अपने को युवा और युवतर समझने और जताने का कोई मौका
छोड़ते नहीं। युवाओं में कई हसीन आदते होते हैं। सतीश जी में भी हैं। सतीश
जी की हसीन आदतों में से सबसे हसीन आदत है बीच-बचाव कराने की। पुराने
जमाने में बुरादे की अंगींठी होती थी न। उसमें ठूंस-ठूंस के बुरादा भरते थे
ताकि अंगींठी देर तक जले। वैसे ही सतीश भाई में ये बीच-बचाव कराने का भाव
ठूंस-ठूंस कर भरा है। जहां किसी को झगड़ते देखा फ़ौरन बीच-बचाव के लिये हाजिर
हो गये। ऐसा कोई झगड़ा नहीं जहां सतीश जी ने बीच-बचाव न करवाया हो। लोग उस
झगड़े को झगड़ा मानते ही नहीं जिसमें सतीशजी की झगड़ा निपटाऊ रिपोर्ट न नत्थी
हो। कुछ लोग यह भी कहते हैं सतीश जी का कराया ऐसा कोई बीच-बचाव नहीं
जहां झगड़ा न हुआ हो। किसी ने तो नाम न बताने की शर्त पर जानकारी दी कि एक जगह एक जोड़ा मौका पाकर गले लगकर इजहारे मोहब्बत कर रहा था। उधर से सतीश भाई निकले। झट से उनको अलग करके फ़ट से दोनों में बीच-बचाव करा दिया। झगड़ा निपटवाना सतीश जी की हाबी है।
हमारे भी न जाने कित्ते झगड़े सतीश जी ने निपटवाये हैं। अनूप शुक्ल-समीरलाल, अनूप शुक्ल-अरविन्द मिश्र वाले झगड़े तो नामी हैं। इसके अलावा हमारे न जाने कित्ते फ़ुटकर झगड़े सतीश भाई ने नक्की कराये हैं। इन फ़ुटकर झगड़ों का हिसाब पेश करना भारत में हुये घोटालों का हिसाब देने जैसा है। वैसे सतीश जी की बीच-बचाव की हसीन आदत से हमें दो फ़ायदे हुये हैं।
१. हम महान लोगों में गिने गये। सतीश भाई जब झगड़ा निपटवाते हैं झगड़ने वाले को पहले अच्छा और महान बताते हैं इसके बाद झगड़े में हाथ डालते हैं। सतीश जी अ-महान लोगों के झगड़े में कोई रुचि नहीं लेते। अगर आपको अपना झगड़ा सतीश जी ने निपटवाना है तो पहले महान बनना होगा। अच्छा है कि आप खुद बन के आयें वर्ना सतीश जी तो बना ही देंगे।
२. दूसरा फ़ायदा यह हुआ कि हम ऊंचे लोगों में गिने गये। अनूप शुक्ल ही हैं जो समीरलाल जैसे लोकप्रिय और अरविन्द मिश्र जैसे परशुरामी तबियत वाले विद्वान से पंगा ले सकते हैं।
सतीश जी ने हमारे जब-जब हमारे झगड़े निपटवाने का आवाहन किया चाहे वह समीरलाल से हो या अरविन्द मिश्र जी से तब-तब हमें लगा कि हम छुट्टा सांड़ की तरह आपस में भिड़े पड़े हैं। उनकी चिन्ता मुझे उस फ़ुटपाथ पर सब्जीवाले की चिंता के समान लगी जो सड़क पर सींग भिडाये साड़ों को देखकर सोचता है कि कहीं वे उसकी ठेलिया न पलट दें।
कभी लगता है कि हम और हमारे साथी बिजली के लाल-हरे तार हैं। जिनके बीच अगर सतीश भाई का बीच-बचाव वाला इन्सुलेटर न होता तो हम आपस में सटकर ब्लॉगजगत का फ़्यूज उड़ा दिये होते।
सतीश जी सहज विश्वासी हैं। आसानी से किसी पर भरोसा कर लेते हैं। वे किसी से जब भी मिलते हैं पहले उस पर विश्वास करते हैं इसके बाद नमस्ते-वमस्ते। इस चक्कर में कई बार उनका विश्चास टूटता भी है। हर वे अपने सहजविश्वास करने की आदत पर अफ़सोस करते हैं। कभी-कभी कहते हैं कि उनका विश्वास उठ गया है। अब किसी पर भरोसा नहीं करेंगे। लेकिन सहजविश्वास की आदत उनके साथ बुजुर्ग दम्पति तरह जुड़ी है । बुजुर्गवार आपस में कुड़बु्ड़ाते हैं। एक दूसरे को कोसते हैं लेकिन एक दूसरे के बिना एक दिन भी गुजारा नहीं कर सकते।
अनूप शुक्ल के सतीश जी इस बात के लिये मुरीद हैं कि वे हंसते-हंसते अपनी खिंचाई कर लेते हैं। मस्तमौला हैं। इसके चलते उनको वे गुरु तक कह देते हैं। कभी-कभी जब ज्यादा सच कहना चाहते हैं तो गुरु के साथ घंटाल भी चिपका देते हैं। उनको आश्चर्य होता है कि कैसे कोई सालों तक लोगों के बीच इस तरह अपनी खिंचाई करते हुये मस्त रह सकता है। इस बारे में सतीशजी से हालिया मुलाकात में अनूप शुक्ल ने बताया कि -अपनी बुराई करते रहना घर का रद्दी/कबाड़ बेचने जैसा काम है। रद्दी का रद्दी निकल जाती है और पैसे अलग से खड़े हो जाते हैं।
सतीश सक्सेना जी गीत बहुत धांसू लिखते हैं। भाईचारा, इंसानियत, अच्छा व्यवहार, परदुखकातरता में बहुत समय चला जाता है उनका वर्ना वे पक्के गीतकार होते। लेकिन समय-समय उनका हुनर उचक-उचककर बाहर आ ही जाता है। देखिये अपने एक गीत में वे क्या कहते हैं:
कैसे झेलूँ प्यार तुम्हारा
टूटा मन शीशे जैसा
हर मीठी नज़रों के पीछे
प्यार छिपा ! शंकित मन है
खंड – खंड विश्वास हुआ है मोहपाश मैं बंधना क्या !
मेरे एकाकी जीवन को मधुर हास से लेना क्या !
अब देखिये जिसके लिये प्यार जैसी कोमल च सुकोमल चीज माने जाने चीज भी झेलने वाली है उसकी संवेदनशीलता का अंदाज लगाया जा सकता है। मैंने पूछा सतीश जी से कि भाईजी ये आपका ये कौन सा ब्रांड वाला प्यार है जिसे झेलना पड़ता है। इस पर उन्होंने मुस्कराते हुये सारा दोष अपनी जवानी के दिनों पर ठेल दिया-
अरे भाई ये तीस साल पहले लिखी थी। इससे दो पीढियों के बीच हुये प्यार के बदलाव का अंदाज मिलता है। तीस साल पहले शायद ऐसे ही करते होंगे लोग प्रेम को।
वैसे आज भी प्रेम की बात करने वाले रोना-धोना किये बिना प्रेम को सार्थक नहीं मानते। वे रोने-धोने को प्रेम-प्यार को उतना ही अपरिहार्य मानते हैं जितना किसी देश के विकास के लिये घपले-घोटाले। उनकी यह पंक्तियां देखिये जरा:
सारा जीवन जिया दर्द में
पीड़ा बैठ गई तनमन में
जैसे प्यार दे रहीं मुझको
कैसे खुशियाँ सह पाऊँगा
अब तो जैसे वर्षों से ना , युग युग से नाता पीड़ा का
रिश्ता मधुर बन गया दुःख से इसके बिन अब जीना क्या
मतलब देखिये क्या हाल बना रखा है प्रेमी ने अपना। जीवन में दर्द है, पीड़ा जबरियन बैठ गयी है तनमन में। अब इसके बाद करेले के ऊपर नीम की तरह प्यार का प्रवेश हो सकता। दुख से गठबंधन इत्ता तगड़ा है कि छोड़ते नहीं बनता। खुशियों के लिये जगह नहीं बचती। बवाल है भाई प्यार भी। कानपुर के कवि उपेन्द्र जी ने लिखा है:
प्यार एक राजा है जिसकासतीश सक्सेना जी हमसे बहुत स्नेह करते हैं। वे हमारी तारीफ़ करते हुये कहते भी रहते हैं कि अगर हम ब्लॉगिंग से जुड़े न होते तो ब्लॉगजगत इतना समृद्ध न होता। इस बात से हम भी इत्तफ़ाक रखते हैं। हम न होते तो पिछले छह सालों में जो चिरकुटई, हाहा-हेहे हमने की वह न होती होती और ब्लॉग जगत ज्यादा बेहतर होता।
बहुत बड़ा दरबार है
पीड़ा जिसकी पटरानी है
आंसू राजकुमार है।
सतीश जी हमसे इस बात से जित्ते खुश रहते हैं कि हम हमेशा मस्त रहते हैं उत्ते ही इस बात से कभी-कभी परेशान भी रहते हैं कि हम हमेशा खिंचाई के ही मूड में रहते हैं। उनकी शिकायत जायज है। लेकिन हमारा कहना है कि भाई जी ,खिंचाई हम नहीं करेंगे तो क्या ये काम भी आउटसोर्स कर दोगे? क्या खिंचाई करने वाले होनोलूलू से आयेंगे? इसई पर एक किस्सा पेश है सुना जाये:
फ़िराक साहब मुंहफ़ट थे। किसी को कभी भी कुछ भी कह देते थे। एक बार इलाहाबाद युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर अमर नाथ झा के लिये भी कुछ कह दिये। लोगों ने चुगली कर दी दरबार में। फ़िराक साहब को पता चला तो अमर नाथ झा से मिलने गये। दरबार लगा था झा जी का। अपना नम्बर आने पर आने पर फ़िराक साहब जब अन्दर गये तो पहले बाल बिखेर लिये। शेरवानी के बटन खोल लिये। कपड़े अस्त-व्यस्त कर लिये। अमर नाथ झा बोले -फ़िराक अपने कपड़े तो ठीक कर लो। सलीके से रहा करो।
फ़िराक बोले- अरे ये सलीका तो तुमको आता है अमरू! तुम्हारे मां-बाप इतने समझदार थे। सिखाया तुमको। हमारे मां-बाप तो जाहिल थे। कौन सिखाता हमको।
अमरनाथ झा बोले- फ़िराक अपने मां-बाप को इस तरह कोसना ठीक नहीं।
फ़िराक बोले- अमरू मैं अपने लोगों को नहीं कोसूंगा तो किसको कोसूंगा। अपने मां-बाप को , भाई- दोस्तों को नहीं कोसूंगा तो किसको नहीं कोसूंगा। तुमको नहीं कोसूंगा तो किसको कोसूंगा।
अमरनाथ झा बोले – ओके, ओके फ़िराक। आई गाट योर प्वाइंट। चलो आराम से रहो।
हम न फ़िराक जी हैं न यहां कोई अमरनाथ झा लेकिन कहना यही है कि अगर हम मौज नहीं लेंगे, खिंचाई नहीं करेंगे तो कौन करेगा। वैसे भी ये जिनकी बात की उनके साथ बहुत पुराना याराना है अपन का। इनके बारे में हम नहीं कहेंगे तो कौन कहेगा।
सतीश जी ने लिखा था:
तो उनकी आज्ञा का पालन करते हुये उन्ही की तारीफ़ से अपनी चुप्पी तोड़ रहे हैं। अपने की तारीफ़ कर दी। आधी-अधूरी है। पूरी फ़िर कभी। अपनों के बाद अब गैरों की भी करेंगे कभी। वैसे मैं किसी को गैर नहीं मानता।
अनूप भाई की चुप्पी भी कई बार रहस्यमय हो जाती है और अखरती है …
मौज के साथ साथ कभी गैरों की तारीफ भी कर दिया करो गुरु !
बहुत दिन से मौज लेने का मन था सतीश जी से। आज सोचा जाये अच्छे कामों को बहुत दिन तक स्थगित नहीं करना चाहिये। सो उनकी ता्रीफ़ कर दी। सतीश जी भले इंसान हैं। सोचने-समझने का सारा काम दिल को सौंप दिये हैं। दोस्त बाज हैं। छोटों से स्नेह रखते हैं। बड़ों के लिये आदर-सत्कार। उनसे मिलकर मन खुश हो गया। सोचा अपनी खुशी भी जाहिर भी कर दें। उनके व्यक्तित्व के तमाम बेहतरीन पहलू छूट गये। उन पर फ़िर कभी। फ़िलहाल तो यही देखिये।
सतीश सक्सेना जी से पिछली मुलाकात के कुछ फ़ोटो यहां देखें।
मेरी पसंद
गीत!हम गाते नहीं तो
कौन गाता?
ये पटरियाँ
ये धुआँ
उस पर अंधेरे रास्ते
तुम चले जाओ यहाँ
हम हैं तुम्हारे वास्ते।
गीत!
हम आते नहीं तो
कौन आता?
छीनकर सब ले चले
हमको
हमारे शहर से
पर कहाँ सम्भव
कि बह ले
नीर
बचकर लहर से।
गीत!
हम लाते नहीं तो
कौन लाता?
घर-बार भी
त्यौहार भी
और शायद छूट जाए
प्राण का आधार भी।
गीत
हम पाते नहीं
तो कौन पाता?
विनोद श्रीवास्तव
Posted in बस यूं ही | 80 Responses
उनसे परिचय कराने के लिए शुक्रिया.
Shiv Kumar Mishra की हालिया प्रविष्टी..एक अधूरा इंटरव्यू
वाह गुरु !
फिर चिरकुटई शुरू कर दी ….वाकई शुकुल जी तुम्हारा कोई इलाज़ नहीं
पूरी पोस्ट लिख मारी हमारी चिंता पर कि कहीं यह लड़ते सांड हमारा ठेला न पटक दें ! बड़ी मुश्किल में दो साल कट गए तब जाकर ठेला भर पाया और एरिया में लोग जान पाए तुम अपने सांडों को लेकर यहाँ ग़दर पेलते रहो और हम अपना ठेला भी ना बचाएं ….:-))
…….जारी
satish saxena की हालिया प्रविष्टी..विदेश यात्रा पर जाने में डर -सतीश सक्सेना
अनूप भाई ,
मुझे वे सब अच्छे लगते हैं जो आपसी भेदभाव को भुला कर अच्छे को अच्छा कहने का साहस रखें और विरोधी को भी उचित सम्मान दें !
इस बात से आप अवश्य सहमत होंगे कि अच्छा कार्य किसी के इज्ज़त का भूखा नहीं होता समय के साथ हर आदमी का लेखन उसकी पहचान बताने में समर्थ है और मेरा विश्वास है कि अच्छे बुरे सब, अपने लेखन से अपनी पहचान बना लेंगे !
जब मैनें ब्लॉग लेखन शुरू किया था उन दिनों से मुझे आपकी सहज हास्य शैली बहुत पसंद आती थी …
आपको एक से एक भयंकर लोगों से हँसते हँसते सींग भिडाये देखने में एक अलग ही आनंद आता था और इसी मस्त मौला व्यक्तित्व का मैं मुरीद रहा हूँ और आज भी हूँ !
ब्लॉग इतिहास में चिटठा जगत में ब्लागर्स के योगदान की जब भी चर्चा होगी अनूप शुक्ल के काम को नकारने वाला सिर्फ मूर्ख होगा अथवा आपसे व्यक्तिगत तौर पर नाराज कोई और सज्जन !
…..जारी
satish saxena की हालिया प्रविष्टी..विदेश यात्रा पर जाने में डर -सतीश सक्सेना
यह टिप्पणी नहीं है
satish saxena की हालिया प्रविष्टी..विदेश यात्रा पर जाने में डर -सतीश सक्सेना
बिल्कुल सही है कि सतीश जी एक बहुत ही संवेदनशील व्यक्ति हैं ,ब्लॉग जगत के अधिकांश लोग उन की इस विशेषता को जानते हैं , आप के इस लेख ने कुछ और जानकारियां भी दीं , धन्यवाद
उन के लिखे कुछ गीत बहुत सुंदर हैं
विनोद जी की कविता भी बहुत सुंदर है
छीनकर सब ले चले
हमको
हमारे शहर से
पर कहाँ सम्भव
कि बह ले
नीर
बचकर लहर से।
गीत!
हम लाते नहीं तो
कौन लाता?
वाह !
क्या बात है !
सतीश भाई, वाकई बेहतरीन इंसान हैं और आप भी कम नहीं।
दिनेशराय द्विवेदी की हालिया प्रविष्टी..आह! मेरे- दुनिया के सब से उदार लोकतंत्र !
….वाकई शुकुल जी तुम्हारा कोई इलाज़ नहीं!
विद्वानों की नोकझोंक और कटुता एक जगह काम करते समय अस्वाभाविक भी नहीं मगर इनको दूर दूर रखने में ही भलाई है, लोगों की यह मानसिकता ठीक नहीं ! आप सब लोग इस कटुता के बारे में हमेशा ही नकारते रहे हो मगर हम सब जानते हैं कि कडवाहट है….
मेरा अनुरोध है कि आप पहल करें और इन दोनों “गैरों ” के बारे में भी लिखें और मस्त लिखें जिससे लोग आनंद लें और फुरसतिया को याद रखें !
और मेरा ठेला भी नहीं गिरेगा ….
—-जारी
satish saxena की हालिया प्रविष्टी..विदेश यात्रा पर जाने में डर -सतीश सक्सेना
रही बात कभी इनलोगों पर लिखने की तो समीरलाल पर जितना मैंने लिखा उतना किसी ने नहीं लिखा होगा। एक लेख देखिये यह मैंने तब लिखा था जब आप ब्लॉग जगत में आये भी न थे-
http://www.nirantar.org/1206-kachha-chittha-sameer-lal
इसके अलावा भी बहुत कुछ लिखा है मैंने। खोजिये, मिलेगा।
डा.अरविन्द मिश्र के बारे में लिखा नहीं लेकिन कभी लिखूंगा जरूर। उनसे तमाम असहमतियां हैं लेकिन वे मेरे लिये गैर नहीं हैं। कोई नहीं है गैर मेरी निगाह में।
परोस में थूकम फजीहत चल रही है ….. बच्चे ले तेरे की —– दे तेरे की कर रहे हैं ……. थोरा डांट-डपट देवें …..
प्रायोजक – जमाल साहेब हैं …. भाईचारा का सर कलम होने को है. जो भी हैं जैसे भी हैं, हैं तो अपने ही …..
उम्मीद है बच्चे की बचकानी बात पर …. दिस्क्लैमेर की कौनो जरूरत नहीं होगी ……..
सभी को सादर प्रणाम.
ब्लागिंग का दायरा विशाल दर विशाल होता जा रहा है इस सागर में हमारे एक प्रष्ठीय लेख, बूँद मात्र भी नहीं हैं यह हमें जितना शीघ्र समझ आ जाए उतना ही सुखकर होगा !
हिंदी ब्लॉग जगत को एक मजबूती प्रदान करने की कोशिश की जानी चाहिए अफ़सोस है कि यहाँ मचती चिल्लपों में सही बात कहने वाले या तो हैं नहीं या उनकी आवाज सुनाई नहीं देती !
मैं तो लड़ते हुए सांडों के बीच भी अपनी सड़ी सब्जी को अच्छी सब्जी के अन्दर छिपा कर बेंचने में समर्थ हूँ पर जमीन पर बैठे टोकरी वालों का क्या होगा !
सब तो मेरे जैसे चालाक नहीं कि अनूप, समीर और अरविन्द सबको एक साथ पटा लें …???
कुछ नया करें …इस आवाहन और आशा के साथ !
satish saxena की हालिया प्रविष्टी..विदेश यात्रा पर जाने में डर -सतीश सक्सेना
किसी को कोई पटा नहीं सकता भाईजी! सब अपने हिसाब से चलते हैं! आप भी और दूसरे भी!
प्रेमचंद के लिखे ‘बड़े भाई साहब’ सा किरदार इधर भी ? ? ?
बढ़िया है
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..नये बादल बिन पिये ही धीरे धीरे सिप लेने का आनंद देती मोहक कृतिसतीश पंचम
उनका ब्लॉग इधर ही देखा था… बड़े गुणी और संवेदनशील लगे मुझे तो….
पर यह मौज अच्छी लगी…..
सुकुल चचा, आप करोड़पति बन सकते हैं आने वाले टाइम में…
फिल्म, पुस्तक और कला समीक्षक टाइप से आगे ‘ब्लोगर समीक्षक’ भी एक संभावनाओं से भरा कैरियर है..
आपसे प्रायोजित समीक्षाएँ लिखवाने के लिए बड़ी रकम देने को तैयार हो सकते हैं लोग..
सतीश चन्द्र सत्यार्थी की हालिया प्रविष्टी..नहाए और साफ़ कपड़ों वालों- घरों में रहो
क्या सही में हम ब्लॉगर समीक्षक बन सकते हैं?
कभी हम ज़मीन पर टोकरा लेकर बैठने वालों की भी मौज लीजिए तो जन्म सफ़ल हो जाए…
जय हिंद…
Khushdeep Sehgal, Noida की हालिया प्रविष्टी..ये देखो- हमारे जले हाथखुशदीप
सनद के लिये यह बताते चलें कि किसी भी सरकारी रिपोर्ट की तरह, इस रिपोर्ट का मसौदा भी टुकड़ों टुकड़ों में पहले ही अनेक ब्लोगों पर लीक हो चुका था!
-”अपने को युवा और युवतर समझने और जताने का कोई मौका छोड़ते नहीं।”
अच्छा है न कम से कम हमारे लिए तो वे पथ प्रदर्शक (महाजनों येन गतः स पन्था
“ऐसा कोई झगड़ा नहीं जहां सतीश जी ने बीच-बचाव न करवाया हो।”
और वह कोई शान्ति प्रयास नहीं जहाँ अनूप सम्प्रदाय ने फसाद न कराया हो एक बगल वाली बैठक में धुंआधार चल रहा है नए साल में भी प्रवेश कर चुका है ..एक प्रतिमान बन चुका ….और बीच बचाव अनूप शुक्ल का था ….
अनूप शुक्ल ही हैं जो समीरलाल जैसे लोकप्रिय और अरविन्द मिश्र जैसे परशुरामी तबियत वाले विद्वान से पंगा ले सकते हैं।
मैं तो भाई, अनूप का ही मारा हूँ -उन्होंने और उनकी ज्यादतर युवा टीम ने एक इमेज मेरे ऊपर उढ़ा दी है —-मैं तो उसी से न उबर पाऊँ …अब नए साल में तो दुरभिसंधियाँ ख़त्म हों!दूसरे की बुराई से अपनी इमेज सवारना अक्सर बूमरैंग कर जाता है ,,,बचियेगा !
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया …..ना त्वहम कामये राज्यं न स्वर्गम न पुनर्भवं
वैसे आपने यह लिखा कि आपके ऊपर इमेज उढ़ा दी है हमने यह बात सही नहीं है। आपने बहुत मेहनत से यह इमेज अर्जित की है। आप अपनी सफ़लता का श्रेय हमेशा दूसरों को देने की कोशिश करते हैं। महान लोगों के गुण हैं ये।
“फलां तारीख को सागर को फोन लगाये… मिलने के नाम पर वो दफ्तर का काम, (फलाना-चिलाना), कोशिश करने का बहाना कर नहीं आया… बहरहाल .. उसकी आवाज़ मीठी है… खुदा बनाये रखे…”
पूरा पढ़ के की कहीं हमारा नाम होगा लेकिन निराश हुए.. नए साल में बेवकूफ बन्ने का हमारा रिजोलियुशन नहीं था…. निराश भये पढ़ कर… और यह कहते हुए रुआंसे हुए :):):)
आप लोग जारी रहें, मैं साथ बना हुआ हूँ.
सतीश जी को आपके मार्फ़त जानना अच्छा लगा .
मजेदार रही ये मौज.
shikha varshney की हालिया प्रविष्टी..आओ खेलें विधा विधा
आप ने दोनों काम कर दिये इस पोस्ट को लिख कर ।
२००५ – २०१० तक आप ही हिंदी ब्लॉग मे “बड़े भाई ” कहे जाते थे अब आप ने सतीश सक्सेना जी को ये पदवी दे दी ।
उनको ये पदवी और आप को इस पदवी से भर मुक्त होना “मुबारक हो ” ।
साल के शुरुवात मे ही सरकार बदल गयी । लगता हैं जैसा न्यूज चॅनल पर आरहा था की सूर्य ग्रहण का प्रभाव राजनीतिक हलको मे पड़ना निश्चित हैं , पड़ ही गया ।
अब देखते हैं हिंदी ब्लॉग परिवार की राजनीति नयी सरकार मे कैसी रहती हैं ।
rachna की हालिया प्रविष्टी..कमाल हैं
सतीश जी का यह गुण दैवीय है यह तो हम मानते हैं। उनको बदलने का आवाहन हम थोड़ी कर रहे हैं।
सतीश जी को शुभकामनाएं.
dhiru singh की हालिया प्रविष्टी..इस सदी के दूसरे दशक का पहला साल मुबारक हो
जोत से जोत मिलाते चलो -मौज की गंगा बहाते चलो,
जहां दिख जाये गंगा मौज की, वहीं पर डुबकी लगाते चलो।
‘अगर आपको अपना झगड़ा सतीश जी ने निपटवाना है तो पहले महान बनना होगा। अच्छा है कि आप खुद बन के आयें वर्ना सतीश जी तो बना ही देंगे।’
चलो सतीश जी का ही इंतजार कर लेगें महान बनने की गलतफ़हमी पालने के लिए, जब उन्हों ने जिम्मा ले ही लिया है तो कौन मेहनत करे।
सतीश जी लगता है जे एन यू में रसगुल्ले नहीं खिलाए आप ने अनूप जी को, ये तारीफ़ तो समोसे वाली है, चटपटी मजेदार……॥रसगुल्ले वाली तारीफ़ का इंतजार है
सोचा कि क्या इसकी कोई तामसिक परम्परा है आपके यहाँ तो यह लिंक याद आया -
http://hindini.com/fursatiya/archives/1661
जहां कमेन्ट भी थे , मौज की हिंसकता को रेखांकित करते – ‘कितने पिन रखते हैं तरकश में ‘ …आदि आदि .. और ऐसी शाबाशी पाते हुए आप सहज ही थे गचागच्च
खैर उस पोस्ट की मौज-विषय की एक बिंदु लोहारिन ( लौह लेडी का देशज रूप ) का इलाज बचाते बचाते नव-वर्ष में हो ही गया , यानी कनपटी पे दो हथौड़ा लगा और पिपिहरी चिग्घार बंद , उस समय होता तो आपको विषय का कमताला पड़ जाता
विनोद श्रीवास्तव जी का गीत बढियां लगा ! अस्तु , आभार !
amrendra nath tripathi की हालिया प्रविष्टी..बाबू तुम यादि बहुतु आयेउ
“सतीश जी के व्यक्तित्व का कोर कम्पीटेन्स है भाईचारा, इंसानियत, अच्छा व्यवहार, परदुखकातरता। इधर अमन-वमन भी जुड़ा था लेकिन जोड़ने वाला गोंद किसी लोकल कम्पनी का था सो उखड़ गया जोड़! अमन की चद्दर फ़ैलाने वाले ही अमन की खटिया खड़ी करने लगे।”
सही है. हमने भी देखा.
“कभी लगता है कि हम और हमारे साथी बिजली के लाल-हरे तार हैं। जिनके बीच अगर सतीश भाई का बीच-बचाव वाला इन्सुलेटर न होता तो हम आपस में सटकर ब्लॉगजगत का फ़्यूज उड़ा दिये होते।”
हाहाहा… शानदार है.
फ़िराक़ साहब का किस्सा क्या खूब सुनाया है. मज़ा आ गया.
सतीश जी के बहाने, आपकी लेखनी ने फिर ग़ज़ब ढाया है. बधाई.
वन्दना अवस्थी दुबे की हालिया प्रविष्टी..शुभकामनाएँ
छोटे भाई
हमें तो लगता है
दोनों
आमने सामने खड़े भाई
बीच में होती जो रजाई
जो होती खूब जम जमाई
थम थमाई
बम बमाई
खड़े भाई
अच्छा है
न लड़े भाई
मौज है
रोज है
मौज़ा है
सोचा है
बड़े भाईसाहब
साहब के बड़े भाई
अविनाश वाचस्पति की हालिया प्रविष्टी..मानवसेवा की रूखी-सूखी मेवा सबको पसंद है – सोपानस्टेप मासिक पत्रिका के जनवरी 2011 अंक में प्रकाशित रचना
इतना अवश्य अपने बारे में कहना चाहूँगा कि जब भी कुछ लिखा, दिल से निकला तभी लिखा उसमें बनावट बिलकुल नहीं थी ….
अक्षय कुमार नामक बेनामी के शब्द खुद मुझे अतिशयोक्ति से जान पड़े हाँ अगर वे अपने नाम से लिखते तो शायद मुझे खराब नहीं लगता ! यहाँ तो अक्षय कुमार और बेनामी महोदय को पढ़कर लगता है कि यह खुद सतीश सक्सेना द्वारा प्रायोजित हैं !
अनूप भाई से निवेदन है कि इन्हें हटा दें …
एक दो टिप्पणी ही सौ के बराबर हैं बशर्ते ईमानदारी के साथ कही गयी हो
satish saxena की हालिया प्रविष्टी..विदेश यात्रा पर जाने में डर -सतीश सक्सेना
प्रवीण पाण्डेय और अरविन्द मिश्र की बात पर भरोसा रखें। वे सच कहने से डरते नहीं। अपने पर भी भरोसा करें। अक्षय कुमार ने कोई गलत बात नहीं लिखी जो उसे मिटाया जाये।
मौज aka चक्कलस जारी रखिये
sonal की हालिया प्रविष्टी..उफ़ ये अलसाई सी सुबह !
चकल्लस बहुत दिन बाद सुना/पढ़ा। मजा आ गया।शुक्रिया।
और @ पुराने जमाने में बुरादे की अंगींठी होती थी न। उसमें ठूंस-ठूंस के बुरादा भरते थे ताकि अंगींठी देर तक जले। वैसे ही सतीश भाई में ये बीच-बचाव कराने का भाव ठूंस-ठूंस कर भरा है। जहां किसी को झगड़ते देखा फ़ौरन बीच-बचाव के लिये हाजिर हो गये।
पर, कहना है,
१. रचना जी की टिप्पणी सबसे अच्छी लगी। मेरी भी मानी जाए।
२. इस संस्मरण से और में जो लकड़ी के बुरादे वाले चूल्हे का उपमा दिया गया है उससे अपने दिन याद आए। वह कुन्नी का चूल्हा कहलाता था, और उसमें आंच बरकरार रखने के लिए एक लकड़ी जलती होती थी, जिसे चैला कहा जाता था, चेला नहीं।
जब हम दोनों भाई-बहन में झगड़ा होता था तो वह चैला ही आता था हमारे बीच मां के हाथों का संबल पाकर और प्रायः हमारी पीठ थपथपा जाता था।
सितारा तो यहां एक ही है सतीश सक्सेनाजी!
हम तो उसकी रोशनी के एक हिस्से को देख रहे हैं।
ये पोस्ट पढ़कर भी हँसी रुक नहीं पायी —
” अगर सतीश भाई का बीच-बचाव वाला इन्सुलेटर न होता तो हम आपस में सटकर ब्लॉगजगत का फ़्यूज उड़ा दिये होते”
सही है. बिल्कुल सही. आपका नाम ‘फुरसतिया’ नहीं ‘खुरपेंची’ होना चाहिए अब मैं तो ब्लॉगजगत में काफी बाद में आयी. ये तो अरविन्द जी ही बेहतर बता सकते हैं कि अगर सतीश जी नहीं होते, तो आप कितनी बार फ्यूज उड़ा चुके होते
aradhana की हालिया प्रविष्टी..नए साल का उपहार ‘सोना’
सच तो यह है कि इस पोस्ट का सही मंतव्य तुमने समझा। हम भी इस बात से एकदम सहमत हैं कि:
सतीश जी वाकई एक बहुत भले इंसान हैं. आपने उनकी भी खिंचाई कर दी, पर बिल्कुल उसी अंदाज़ में कि अपनों की ही तो खिंचाई की जाती है
बाकी खुरपेंची नाम पहले ही डा.अमर कुमार धारण कर चुके हैं। वैसे कोई काम किसी नाम का मोहताज नहीं होता । है न!
पीड़ा बैठ गई तनमन में
जैसे प्यार दे रहीं मुझको
कैसे खुशियाँ सह पाऊँगा
अब तो जैसे वर्षों से ना , युग युग से नाता पीड़ा का
रिश्ता मधुर बन गया दुःख से इसके बिन अब जीना क्या
बहुत बढ़िया ,सब कुछ तो लाजवाब है ,सतीश के बारे में मैं तो इतना जानती ही नहीं थी ,इंसानियत कायम इसी तरह रहती है .सतीश जैसे लोग इसे बिखरने नहीं देते .नव बर्ष की बधाई .
शुक्रिया! आपको भी नया साल मुबारक!
ब्लॉग जगत में विभिन्न प्रकार के व्यक्तित्व, आस्था और सोंच के लोगों के मध्य काम करते समय लेख में शब्दों के चयन में सावधानी बेहद जरूरी है ! आपकी मौज लेने की आदत अथवा मस्ती में बात कहने की आदत अक्सर द्विअर्थी समझ ली जाती है और अपनी अपनी समझ और पुराने हिसाबों के अनुसार उसपर कमेन्ट आते हैं ! यह लेख और उस पर आये, न आये कमेन्ट इसका एक बेहतरीन उदाहरण है ! भाई डॉ दिनेश राय द्विवेदी का कमेन्ट समझने का प्रयत्न करें !
यकीन मानें तो आप के “झगडे” निपटवाने का प्रयत्न मात्र मेरी बेवकूफी है जिसमें सिवा गालियों के मुझे कुछ नहीं मिलने वाला ! मगर मैं ऐसी “गलतियाँ” जो कोई न करे करने का शुरू से आदी हूँ …हाँ अगर आपकी समझ में आ जाये तो अपने आप को धन्य मान लूँगा !
व्यंग्य विधा दुर्लभ है, मगर इसके प्रयोगों में मान अपमान की सीमा रेखा का ध्यान रखना बेहद आवश्यक होता है ! और अगर इसकी धार पर कभी अरविन्द मिश्र और रचना जैसा व्यक्तित्व हो तो प्रयोगकर्ता को अतिरिक्त सावधानी की आवश्यकता रखनी ही चाहिए !
ब्लॉग जगत की इन हस्तियों से जब भी मुलाकात हुई उनका शानदार व्यक्तित्व देख कर विस्मित ही हुआ हूँ ताऊ रामपुरिया, डॉ अरविन्द मिश्र, रचना जैसे जैसे लोग कहीं न कहीं घायल तो हुए ही होंगे इनको उचित सम्मान दिए जाने की आवश्यकता है ! उछलती कीचड़ के मध्य, हम इनके काम का उचित मूल्यांकन नहीं कर पा रहे हैं और कहीं न कहीं हिंदी ब्लॉग जगत की मज़ाक उडवाने में अपना योगदान ही दे रहे हैं ! आशा है मेरी इस प्रतिक्रिया को उचित सम्मान मिलेगा !
सादर
satish saxena की हालिया प्रविष्टी..नए वर्ष पर होमिओपैथी की सौगात -सतीश सक्सेना
मेरी पोस्ट पर आपकी यह सातवीं टिप्पणी है। हर टिप्पणी का रंग और मिजाज एक दूसरे कुछ अलग-अलग है। जिन लोगों के नाम आपने लिये मैं उनके बारे में आपसे शायद बेहतर जानता हूं। उनके बेहतरीन पहलू भी और कम बेहतरीन तथा धुंघले पक्ष भी। सबके काम का मूल्यांकन समय करता है। वाह-वाही और जय-जयकार के बीच में बहुत कुछ छिप-छिपा जाता है। मैं सबके वे शेड्स भी देखता हूं। देखकर उसे समझने का प्रयास भी करता हूं। किसी की किसी भी हरकत के पीछे उसका पूरा परिवेश काम करता है। कैसे वह रहा, कैसे जिया, घर, परिवार, दोस्त। सब कुछ।
किसी को सम्मान देने का मतलब उसके हर सही/गलत का सम्मान करना नहीं होता। हर व्यक्ति के व्यक्तित्व में विविध रंग होते हैं। एक ही स्थिति पर लोग अलग-अलग तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। मेरा अलग अंदाज होगा आपका अलग। बीच बचाव वाली बात जो मैने लिखी वह आपको बताने के लिये कि आप जिस मंतव्य से इसे लिखते हैं वह कहीं पूरा नहीं होता। बल्कि कई मर्तवा बात हास्यास्पद हो जाती है। अच्छा होना एक बात है, अच्छाई के लिये प्रयास करना दूसरी बात है, अच्छाई के लिये हुड़कना तीसरी बात है और अच्छे बने रहने का हल्ला मचाना और दिखावा करना एकदम अलग बात है। इनके बीच में अंतर करना होगा।
मैंने अक्सर यह कहता आया हूं – वह व्यक्ति बड़ा अभागा होता है जिसे कोई टोकने वाला नहीं होता।
मैं इस मामले में सौभाग्यशाली हूं कि मुझे टोकने वाले बहुत से हैं। इस पोस्ट में मैंने आपके शानदार व्यक्तित्व के एक पहलू पर अपना नजरिया बताया। लेकिन आप उसको भी समझ न सके। मेरे लिखने में कुछ लफ़ड़ा रहा होगा।
इस आलेख को पढकर …
और @ पुराने जमाने में बुरादे की अंगींठी होती थी न। उसमें ठूंस-ठूंस के बुरादा भरते थे ताकि अंगींठी देर तक जले। वैसे ही सतीश भाई में ये बीच-बचाव कराने का भाव ठूंस-ठूंस कर भरा है। जहां किसी को झगड़ते देखा फ़ौरन बीच-बचाव के लिये हाजिर हो गये।
पर, कहना है,
१. रचना जी की टिप्पणी सबसे अच्छी लगी। मेरी भी मानी जाए।
२. इस संस्मरण से और में जो लकड़ी के बुरादे वाले चूल्हे का उपमा दिया गया है उससे अपने दिन याद आए। वह कुन्नी का चूल्हा कहलाता था, और उसमें आंच बरकरार रखने के लिए एक लकड़ी जलती होती थी, जिसे चैला कहा जाता था, चेला नहीं।
जब हम दोनों भाई-बहन में झगड़ा होता था तो वह चैला ही आता था हमारे बीच मां के हाथों का संबल पाकर और प्रायः हमारी पीठ थपथपा जाता था।
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..फ़ुरसत में … आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी के साथ – पहला भाग
आपकी टिप्पणी अनाम खाते में चली गयी शायद इसलिये कि उसमें नाम लिखना रह गया होगा आपके द्वारा। शुक्रिया पहली बार और फ़िर दुबारा टिपियाने का।
कभी कभी लगता है कि आपके मौजीय दांत नरभक्षी हो चुके हैं , अकारण ही नहीं ज्ञानदत्त पाण्डेय जी की आपके मौज-सन्दर्भ में कही बात याद आती है कि ” अपने मौज-कर्म की सीमा रेखा नहीं बना सके हैं पंडित ” ! [ ~ संदर्भ 'शुक्ल बड़े कि लाल' पोस्ट ]
देखिये , अपने ढंग से मैंने भी मौज ली , इसका मतलब यह नहीं कि ये मौजीय दांत मुझे ही काट खाएं काटें भी तो का फरक पड़ता है , हम बे-औकाती हैं , हम सक्सेना जी तो हैं नहीं
@सतीश पंचम जी ने सही कहा है : प्रेमचंद के लिखे ‘बड़े भाई साहब’ सा किरदार इधर भी
शुक्रिया आप मजे ले लिये!
मजेदार टिप्पणी है लेकिन अपने नाम से करते तो और मजा आता!
२) बड़े भाई की पदवी अनूप शुक्ल ने त्याग दी, इस बलिदान को सोनिया गाँधी के बलिदान से अधिक माना जायेगा (इतिहास में)
३) अन्ततः आज इस रहस्य से पर्दाफ़ाश हो ही गया कि हिन्दी ब्लॉग जगत के “तीन” सबसे बड़े ब्लॉगर कौन हैं…
४) मौज और मौजा दोनों में भले ही सिर्फ़ मात्रा का अन्तर हो लेकिन दोनों ही भरपूर ठण्ड के मौसम में पहने जा सकते हैं
हर पाइंट के साथ जो स्माइली जोड़ी गई हैं उसमें १००८ का गुणा करें…
Suresh Chiplunkar की हालिया प्रविष्टी..दिग्विजय सिंह और अन्य मंत्री हैं कई कम्पनियों के ब्राण्ड एम्बेसेडर… … Diggy Raja- UPA Ministers Brand Ambassador
इत्ते पुराने घसीट ले जाओगे मुझे औरंगजेब के साथ?
गुणा करने के आदेश का पालन किया गया। गुणनफ़ल शानदार निकला। शुक्रिया।
जानकर हर्ष हुआ।
सुज्ञ की हालिया प्रविष्टी..यदि……कर न सको तो…
सतीश जी के बारे में बहुत कुछ पता चला. लगता है कई की बारी आएगी.
घुघूती बासूती
मैनें बहुत लोगो के बारे में पढ़ा तो मुझे बहुत अच्छा लगा।
उपरोक्त लोगों में अनूप सर जो मेरे अधिकारी हैं जो कि अच्छे इंसान और अधिकारी के उदारण हैं।
उनके जीवन से सम्बन्धित दो पंक्ति……
कैसे छोड़ दू अपने जीवन के रंग
पैसे की दौड़ में
आज भी छुपा है मेरा बचपन
मेरी हर एक हरकत में।
.
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हा हा हा हा,
अब यह मौज भी भली… खूब जम कर मौज लिये हैं आप आज सतीश जी से,,, इस में आपका साथ तो नहीं दूंगा…
पर बस यह कहने के लिये टिपिया रहा हूँ कि सतीश जी मुझे तो बहुत पसंद हैं… अपनी ढेर सारी अच्छाइयों, भलमनसाहत, जिंदा दिली व कुछ कमियों के साथ जीते, ब्लॉग पर हर किसी के लिये अपना दिल खोल देने वाले एक पूर्ण ‘इंसान’…
…
प्रवीण शाह की हालिया प्रविष्टी..उफ्फ़ यह ठंड तो आइडियाज् तक को जमा देती है टैंट के भीतर से एक पोस्ट खास आपके लिये !
मुझे पश्चाताप है तो इस बात का कि मैं सतीश जी को ज्यादा नहीं पढ़ सका। मात्र आलस्य इसका कारण है। यदा-कदा तो देखता ही रहा हूँ लेकिन पूरी तरह फॉलो न करने का मलाल हो रहा है।
ब्लॉगजगत के झगड़ों में बीच-बचाव की कोशिश बहुत साहस का काम है। कभी-कभी धोखा हो जाता है। जो आपस में झगड़ते दिख रहे होते हैं वे अपना प्रहसन छोड़कर बीच-बचाव करने वाले पर ही पिल पड़ते हैं। फिर उसे दोनो की मार पड़ सकती है। यह हादसा किसी के साथ हो सकता है। अनूप जी के साथ तो ऐसा हुआ ही है, अमरेंद्र त्रिपाठी, अरविंद मिश्र, रचना जी आदि भी इसके शिकार हो चुके हैं। सतीश जी के बारे में मुझे नहीं पता क्यों कि दुर्भाग्य वश मैंने उन्हें ज्यादा फॉलो नहीं किया। मैं तो यह काम करने से इसी लिए डरता हूँ। अनूप जी या सतीश जी जैसा साहस कहाँ से लाऊँ?
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..हिंदी में लिखा जा रहा साहित्य प्रायः प्रासंगिक नहीं है
सतीश भाई ’दिलदरिया’
सतीश भाई ’दिलदरिया’ की हर बात.. हर अदा.. हर छवि निराली है ।
मैं दिन भर में कम से कम एक बार इनके ब्लॉग पर अवश्य ही जाता हूँ, अपनी खोयी हुई मूँछ ज़नाबे आली के चेहरे पर तसल्ली-बख़्श तरीके से चिपका देख कर ग़ुज़रे ज़माने की कशिश में खो जाता हूँ । का करियेगा… ई मनवा पापी होबे करता है ।
तो… सतीश भाई आजकल मुझ पर बुरी तरह गिरे हुये हैं, मेरा इत्ता ध्यान रखने लगे हैं कि पूछो मत !
उतने ही बुरे तरह से मेरा पापी मनवा इनसे डरा हुआ है.. क्या पता, कब मुझी पर प्यार लुटा मारें ?
अलबत्ता उन्होंनें खाये होंगे धोखे, पर ग्रॉस टोटल में आदमी चोखे हैं ! बोले तो.. बेचारा भला आदमी !
आपकी मौज में हम शामिल हों या न हों, समझ नहीं पा रहे हैं।
वैसे तो आप भी सज्जन ब्लॉगर जैसे लगते हैं:)
अजित वडनेरकर की हालिया प्रविष्टी..हाथों की कुशलता यानी दक्षता
संजय की हालिया प्रविष्टी..इंतज़ारसमापन कड़ी
इंसूलेटर के साथ थोडा इन्वर्टर भी लगा देते जो ब्लॉग जगत में सतत प्रवाह बनाये रखते हैं . बढ़िया पोस्ट