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rowse: Home / पुरालेख / गालियों का सामाजिक महत्व
कल मैंने शिखा वार्षेय की पोस्ट पढ़ी! हाथ में सुट्टा लबों पे गाली ,हाय री मीडिया बेचारी…. ।
इस पोस्ट में एक पिक्चर के बहाने मीडिया से जुड़ी महिलाओं की गाली देने की
आदत धारण करने के बारे में लिखा है उन्होंने और बाद में अफ़सोस भी कि वे
विख्यात पत्रकार न बन पायीं और ब्लॉगर बनकर रह गयीं।
इस पोस्ट में लोगों ने अपने विचार व्यक्त किये हैं और संस्कृति वगैरह के हवाले से बताया है कि गाली देना बहुत खराब बात है। यह सही है लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि गालियां हर समाज में थीं, हैं और रहेंगी। आज आक्रोश बढ़ रहा है तो उसकी अभिव्यक्ति भी हो रही है। उसके लिये गालियों का उपयोग करते हैं लोग। मेरी समझ में गालियां आक्रोश को व्यक्त करके संभावित मारपीट बचाने का काम करती हैं। इसलिये मैं मानता हूं कि गालियां बहुत कुछ हिंसा रोकती हैं।
पाच साल पहले लिखी इस पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुये सुनील दीपक जी ने भी एक पोस्ट लिखी थी जिसमें उन्होंने बताया था-
“लेकिन बुरी मानी जाने वाली वस्तु का भी क्या सामाजिक महत्व हो सकता है? मुझे तो लगता है होता है ।”
इस पर विनयजी ने स्पष्टीकरण मांग लिया:-
सोचने लायक मुद्दा है. आपके स्पष्टीकरण का इन्तज़ार रहेगा. महत्व तो बेशक होता है, क्योंकि अच्छा या बुरा, असर तो होता ही है. पर हर बुरी “माने जानी वाली” वस्तु का सकारात्मक सामाजिक महत्व हो, ऐसा मुझे नहीं लगता.
वैसे तो हम यह कह सकते हैं कि अच्छाई-बुराई सापेक्ष होती है। बुराई न हो तो अच्छाई को कौन गांठे? बुराई वह नींव की ईंट है जिस पर अच्छाई का कंगूरा टिका होता है। लेकिन यहां हम हर बुराई की बात नहीं करेंगे। अच्छे बच्चों की तरह केवल गाली पर ध्यान केंद्रित करेंगे जिसके बारे में यह बात शुरु की गयी थी।
अब हम खोज रहे हैं गाली के समर्थन में तर्क। जैसे खिचडी़ सरकार का मुखिया बहुमत की जुगत लगाता है वैसे ही हम खोज रहे हैं तमाम पोथियों से वे तर्क जो साबित कर दें कि हां हम सही कह रहे थे।
सबसे पहले हमें तर्क मिला अनुनाद सिंह के ब्लाग पर। वहां लिखा है :-
अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
(कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं ।)
ऐसा कोई अक्षर नहीं जिससे किसी मंत्र की शुरुआत न होती हो। अब देखने वाली बात है कि गाली शब्द दो अक्षरों ‘गा’ और ‘ली’ के संयोग से बना है। जो कि खुद ‘ग’ तथा ‘ल’ से बनते हैं। अब जब ‘ग’ व ‘ल’ से कोई मंत्र बनेगा तो ‘गा’ और ‘ली’ से भी जरूर बनेगा। अब आज के धर्मपारायण, धर्मनिरपेक्ष देश में किस माई के लाल की हिम्मत है जो कह सके कि मंत्र का सामाजिक महत्व नहीं होता? लिहाजा निर्विरोध तय पाया गया कि ‘गा’तथा’ली’ से बनने वाले मंत्रों का सामाजिक महत्व होता है। जब अलग-अलग शब्दों से बनने वाले मंत्रों का है तो मिल जाने पर भी कैसे नहीं होगा? होगा न! हां तो यह तय पाया गया कि गालियों का सामाजिक महत्व होता है।
जैसे कुछ अरब देशों में तमाम लोगों का काम केवल एक पत्नी से नहीं चल पाता या जैसे अमेरिकाजी में केवल एक जीवन साथी से मजा नहीं आता वैसे ही ये दिल मांगे मोर की तर्ज पर हम और सबूत खोजने पर जुट ही गये। इतना पसीना बहा दिया जितना अगर तेज टहलते हुये बहाता तो साथ में कई किलो वजन भी बह जाता साथ में। अरविंदकुमार द्वारा संपादित हिंदी थिसारस समांतर कोश में गालियां खोजीं। जो मिला उससे हम खुश हो गये । मुस्कराने तक लगे । अचानक सामने दर्पण आ गया । हमने मुस्कराना स्थगित कर दिया। दर्पण का खूबसूरती इंडेक्स सेंसेक्स से होड़ लेने लगा।
हिंदी थिसारस में बताया गया है कि गाली देना का मतलब हुआ कोसना। अब अगर विचार करें तो पायेंगे कि दुनिया में कौन ऐसा मनुष्य होगा जो कभी न कभी कोसने की आदत का शिकार न हुआ हो? अब चूंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है लिहाजा उसके द्वारा किये जाने वाले कर्मों के सामाजिक महत्व की बात से कौन इन्कार कर सकता है? लिहाजा गाली देना एक सामाजिक महत्व का कार्य है।
इसी दिशा में अपने मन को आर्कमिडीज की तरह दौडा़ते हुये हमने अपनी स्मृति-गूगल पर खोज की कि सबसे पहले कोसने का कार्य किसने किया? पहली गाली किसने दी? पता चला कि हमारे आदि कवि वाल्मीकि ने पहली बार किसी को कोसा था। दुनिया जानती है कि काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी के जोडे़ में से नर पक्षी को बहेलिये ने मार गिराया था। इस पर मादा क्रौंच पक्षी का विलाप सुन कर वाल्मीकि जी ने बहेलिये को कोसा:-
मां निषाद प्रतिष्ठाम् त्वम् गम: शाश्वती शमा,
यत् क्रौंच मिथुनादेकम् वधी: काममोहितम् ।
(अरे बहेलिये तुमने काममोहित मैथुनरत कौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी प्रतिष्ठा न मिले)
इससे सिद्ध हो गया कि पहली बार जिसने कोसा था वह हमारे आदिकवि थे। एक के साथ एक फ़्री के अंदाज में यह भी तय हुआ कि जो पहली कविता के रूप में विख्यात है वह वस्तुत: कोसना ही था। अब चूंकि कोसना मतलब गाली देना तय हो चुका है लिहाजा यह मानने के अलावा कोई चारा नहीं बचता कि पहली कविता और कुछ नहीं वाल्मीकिजी द्वारा हत्यारे बहेलिये को दी गयी गाली थी ।
वियोगी होगा पहला कवि,आह से उपजा होगा गान को नये अर्थ-वस्त्र धारण करवाकर मेरा मनमयूर उसी तरह नाचने लगा जिस तरह अपने ब्लाग का टेम्पलेट एक बार फ़िर बदलकर किसी ब्लागर का नाचने लगता है तथा वो तारीफ़ की बूंद के लिये तरसने लगता है। अचानक हमारे मनमयूर को अपने भद्दे पैर दिखे और उसने नाचना बंद कर दिया तथा राष्ट्र्गान मुद्रा में खडा़ हो गया । हमने मुगलिया अंदाज में गरजकर पूछा- कौन है वो कम्बख्त जिसने मेरे आराम में दखल देने की गुस्ताखी की? सामने आ?
मन के कोने में दुबके खडे़ सेवक ने फ़र्शी सलाम बजाकर कहा -हुजूरे आला आपका इंकलाब बुलंद रहे । इस नाचीज की गुजारिश है कि आपने जो यह गाली के मुतल्लिक उम्दा बात सबित की है जिसे आजतक कोई सोच तक न पाया उसे आप कानूनी जामा पहनाने के किये किसी गाली विशेषज्ञ से मशवरा कर लें।
हमारे मन-शहंशाह ने कहा-तो गोया हालात इस कदर बेकाबू हो गये हैं कि अब माबदौलत को अपनी सोच को सही साबित करने के लिये मशवरा करना पडे़गा ?
सेवक ने थरथराने का मुजाहिरा करते हुये अपनी आवाज कंपकपाई- गुस्ताखी माफ़, हूजूरे आला ! खुदा आपके इकबाल को बुलंद रखे। गुलाम की इल्तिजा इसलिये है ताकि आपके इस ऊंचे ख्याल को दुनिया भी समझे। आम अवाम की जबान में आपकी बात रखी जायेगी तो दुनिया समझ जायेगी । इसीलिये अर्ज किया है कि इस ख्याल के बारे में किसी काबिल शख्स से गुफ़्तगू कर लें।
शहंशाह बोले- हम खुश हुये तुम्हारी समझ से। आगे से जो भी बाहियात ख्याल आयेगा माबदौलत उस पर तुमसे मशविरा लेंगे। बताओ किस शख्स से गुफ़्तगू की जाये?
सेवक उवाचा- गाली-गलौज के मामले में मुझे बबाली गुरु से काबिल जानकार कोई नहीं दिखा। यह बताकर सेवक उसी तरह लुप्त हो गया जिस तरह तीस सेकेंड बीत जाने पर कौन बनेगा करोड़पति के फ़ोनोफ़्रेन्ड विकल्प का सहायक जवाब देने वाला गायब हो जाता है। मन के बादशाह भी समझदार प्रतियोगी की तरह हाट-सीट त्यागकर ठंडे हो गये।
हमारे मन से बादशाहत तो हवा हो गयी लेकिन जेहन में बवाली गुरु का नाम उसी तरह अटका रहा जैसे रजवाडे़ खत्म होने के बावजूद उनके वंशजों में राजसी अकड़ बनी रहती है। या फ़िर वर्षों विदेश में रहने के बाद भी भाइयों के मन में मक्खी,मच्छर नाले अटके रहते हैं।
लिहाजा हम बवाली गुरु की खोज में निकल पडे़। बवाली गुरु के बारे में कुछ कहना उनकी शान में गुस्ताखी करना होगा। उनका वर्णन किया ही नहीं जा सकता । वे वर्णनातीत हैं । संक्षेप में जैसे हर बीमार उद्योग का इलाज विनिवेश माना जाता है,देश मे हुयी हर गड़बडी़ में बाहरी हाथ होता है उसी तरह बवाली गुरु हर सामाजिक समस्या की जड़ में गाली-गलौज में असुंतलन बताते हैं । वे शांति-सुकून के कितने ही घने अंधकार को सूर्य की तरह अपनी गाली की किरणॊं से तितर-बितर कर देते हैं।
बवाली गुरु के बारे में ज्यादा कुछ और बताने का लालच त्यागकर मैं बिना किसी भूमिका के बवाली गुरु से हुयी बातचीत आपके सामने पेश करता हूं।
बवाली गुरु,गाली शब्द का क्या मतलब है ?
अर्थ तो आपके ऊपर है आप क्या लगाना चाहते हैं। मेरे हिसाब से तो गाली दो लोगों के बीच का वार्तालाप है। ज्यादा ‘संस्किरत’ तो हम नहीं जानते लेकिन लोग कहते हैं कि ‘गल्प’ माने बातचीत होती है। उसी में ‘प’ को पंजाबी लोगों ने धकिया के ‘ल’ कर दिया । ‘गल्प’ से ‘गल्ल’हो गया। ‘गल्ल’ माने बातचीत होती है । यही बिगडते-बिगडते गाली बन गया होगा । तो मेरी समझ में तो गाली बोलचाल का एक अंदाज है। बस्स। गाली देने वाले का मन तमाम विकार से मुक्त रहता है।
अगर यह बोलचाल का अंदाज है तो लोग इसे इतनी बुरी चीज क्यों बताते हैं?
अब भइया, बताने का हम क्या बतायें? अइसा समझ लो कि जिसको अंग्रेजी नहीं आती वही कोसने लगता है अंग्रेजी को। ऐसे ही जो गाली नहीं दे पाता वही कहने लगता है कि बहुत बुरी चीज है। गाली देना बहुत मेहनत का काम है। शरीफ़ों के बस की बात नहीं।
क्या यह स्थापना सच है कि पहली कविता जो है वही पहली गाली भी था?
हां तब क्या ? अरे वाल्मीकि जी में अगर दम होता तो वहीं टेटुआ दबा देते बहेलिये का। मगर उसके हाथ में था तीर-कमान इनके हाथ में था कमंडल । ये कमजोर थे। कमजोर का हथियार होता है कोसना सो लगे कोसने वाल्मीकिजी। वही पहली गाली थी। और चूंकि श्लोक भी था अत: वही पहली कविता भी बन गया।
लोग कहते हैं कि वाल्मीकि जी ने दिया वह शाप था। गाली नहीं।
कैसा शाप ? अरे जब उसी समय बहेलिये को दंड न दे पाये तो क्या शाप ? शाप न हो गया कोई भारत की अदालत हो गयी।आज के अपराध के लिये किसी को दिया हुआ शाप सालों बाद फले तो शाप का क्या महत्व? शाप होता है जैसे गौतम ने अपनी बीबी को दिया । अपनी पत्नी अहिल्या को इंद्र से लटपटाते पकड़ लिया और झट से पानी छिड़ककर बना दिया पत्थर अहल्या को। वे अपनी बीबी से तो जबर थे तो इशू कर दिया शाप । लेकिन इंद्र का कुछ नहीं बिगाड़ पाये। तो उनको शाप नहीं दे पाये । कोस के रह गये होंगे। अब ये क्या कि आप बहेलिये को दीन हीन बन के कोस रहे हैं और बाद मे बतायें कि हमने शाप दे दिया । बाद में बताया भी लोगों ने (आह से उपजा होगा गान/उमड़कर आखों से चुपचाप)। ये रोना धोना कमजोरों के लक्षण हैं जो कि कुछ नहीं कर सकता सिवाय कोसने के।
गाली का सबसे बडा़ सामाजिक महत्व क्या है?
मेरे विचार में तो गाली अहिंसा को बढा़वा देती है। यह दो प्राणियों की कहासुनी तथा मारपीट के बीच फैला मैदान है। कहासुनी की गलियों से निकले प्राणी इसी मैदान में जूझते हुये इतने मगन हो जाते हैं कि मारपीट की सुधि ही बिसरा देते हैं। अगर किसी जोडे़ के इरादे बहुत मजबूत हुये और वह कहासुनी से शुरु करके मारपीट की मंजिले मकसूद तक अगर पहुंच भी जाता है तो भी उसकी मारपीट में वो तेजी नहीं रहती जो बिना गाली-गलौज के मारपीट करते जोडे़ में होती है। इसके अलावा गाली आम आदमी के प्रतिनिधित्व का प्रतीक है। आप देखिये ‘मानसून वेडिंग’ पिक्चर। उसमें वो जो दुबेजी हैं न ,जहां वो जहां मां-बहन की गालियां देते हैं पब्लिक बिना दिमाग लगाये समझ जाती है कि ‘ही बिलांग्स टु कामन मैन’ ।
ऐसा किस आधार पर कहते हैं आप? गाली-गलौज करते हुये मारपीट की तेजी कैसे कम हो जाती है?
देखो भाई यहां कोई रजनीति तो हो नहीं रही जो हम कहें कि यह कुछ-कुछ एक व्यक्ति एक पद वाला मामला है । लेकिन जैसा कि मैंने बताया कि मारपीट और गालीगलौज मेहनत का काम है। दोनो काम एक साथ करने से दोनों की गति गिरेगी। जिस क्षण तुमने गाली देने के लिये सीनें में हवा भरी उसी क्षण यदि मारपीट का काम अंजाम करोगे तो कुछ हवा और निकल जायेगी ।फिर मारपीट में तेजी कहां रहेगी? इसका विपरीत भी सत्य है। अब चूंकि तुम ब्लागिंग के चोचले में पडे़ हो आजकल तो ऐसा समझ लो जब रविरतलामीव्यंजल लिखते हैं तो पोस्ट छो॔टी हो जाती है। जब नहीं लिखते तो लेख बडा़ हो जाता है। तो सब जगह कुछ न कुछ संरक्षण का नियम चलता रहता है। कहीं शब्द संरक्षण कहीं ऊर्जा संरक्षण।
देखा गया है कि कुछ लोग गाली-गलौज होते ही मारपीट करने लगते हैं। यहां गाली-गलौज हिंसा रोकने का काम क्यों नहीं कर पाती?
जैसे आपने देखा होता है कि कुछ पियक्कड़ बोतल का ढक्कन सूंघ कर ही लुढ़कने लगते हैं। वैसे ही कुछ लोग मारपीट का पूरा पेट्रोल भरे होते हैं दिमाग की टंकी में। बस एक स्पार्क चाहिये होता है स्टार्ट करने के लिये । गाली-गलौज यही स्पार्क उपलब्ध कराता है। वैसे अध्ययन से यह बात सामने आयी है कि जो जितनी जल्दी शुरु होते हैं उतनी ही जल्दी खलास भी हो जाते हैं।
गाली-गलौज में आमतौर पर योनि अंगों का ही जिक्र क्यों किया जाता है?
मुझे लगता है कि पहली बार जब गाली का प्रयोग हुआ उस समय मैथुन प्रक्रिया चल रही थी । लिहाजा यौनांगों के विवरण की बहुतायत है गालियों में। दूसरे इसलिये भी कि मनुष्य अपने यौन अंगों को ढकता है। यौनक्रिया छिपकर करता है। गाली गलौज में इन्ही बातों का उल्लेखकर भांडा फोड़ने जैसी उपलब्धि का सुख मिलता है ।
गाली में मां-बहन आदि स्त्री पात्रों का उल्लेख क्यों बहुतायत में होता है?
मेरे विचार में पुरुष प्रधान समाज में मां-बहन आदि स्त्री पात्रों का
उल्लेख करके गालियां दी जाती हैं। क्योंकि मां-बहन आदि आदरणीय माने जाते
हैं लिहाजा जिसको आप गाली देना चाहते हैं उसकी मां-बहन आदि स्त्री पात्रों
का उल्लेख करके आप उसको आशानी से मानसिक कष्ट पहुंचा सकते हैं। स्त्री
प्रधान समाज में गालियों का स्वरूप निश्चित तौर पर भिन्न होगा।
स्त्री पात्रों को संबोधित करते समय गालियों की बात से यह सवाल उठता है कि पत्नी या प्रेमिका को संबोधित गालियां बहुत कम मात्रा में पायी जाती हैं?
तुम भी यार पूरे बुड़बक हो। दुनिया में लोग ककहरा बाद में सीखते हैं गाली पहले। तो लोग बाग क्या किसी को गरियाने के लिये उसके जवान होने और प्रेमिका तथा पत्नी हासिल करने का इंतजार करें। कुछ मिशनरी गाली देने वालों को छोड़ कर बाकी लोग प्रेमी या पति बनते ही गालियां देना छोड़कर गालियां खाना शुरु कर देते हैं। लिहाजा होश ही नहीं रहता इस दिशा में सोचने का। वैसे भी आमतौर पर पाया गया है कि मानव की नई गालियों की सृजनशीलता उसके जवान होने तक चरम पर रहती। बचपने में प्रेमी-पति से संबंधित मौलिक जानकारी के अभाव में इस दिशा में कुछ खास प्रगति नहीं हो पाती ।
एकतरफ़ा गाली-गलौज के बाद मनुष्य शान्त क्यों हो जाता है?
एक तो थक जाता है अकेले गाली देते-देते मनुष्य। दूसरे अकेले गरियाते-गरियाते आदमी ऊब जाता है। तीसरे जाने किन लोगों ने यह भ्रम फ़ॆला रखा है कि गाली बुरी चीज है इसीलिये आदमी अकेले पाप का भागी होने में संकोच करता है। जैसे भ्रष्टाचार है । इसे अगर कोई अकेला आदमी करे तो थककर ,ऊबकर ,डरकर बंद कर दे लेकिन सब कर रहे हैं इसलिये दनादन हो रहा है धकापेल।
कुछ लोगों के चेहरे पर गाली के बाद दिव्य शान्ति रहती है ऐसा क्यों है?
ऐसे लोग पहुंचे हुये सिद्ध होते हैं। गाली-गलौज को भजन-पूजन की तरह करते हैं। जैसे अलख निरंजन टाइप औघड संत।ये गालियां देते हैं तो लगता है देवता पुष्पवर्षा कर रहे हैं। शेफाली के फूल झर रहे हैं। इनके चेहरे पर गाली देने के बाद की शान्ति की उपमा केवल किसी कब्ज के मरीज के दिव्य निपटान के बाद की शान्ति से दी जा सकती है। जैसे किसी सीवर लाइन से कचरा निकल जाता है तो अंदर सफाई हो जाती है वैसे ही गालियां मन के विकार को दूर करके दिव्य शांति का प्रसार करती हैं। गाली वह साबुन है जो मन को साफ़ करके निर्मल कर देती है। फेफडे़ मजबूत होते हैं।
लेकिन गाली को बुरा माना जाता है इससे आप कैसे इन्कार कर सकते हैं?
भैया अब हम क्या बतायें ? तुम तो दुनिया सहित अमेरिका बने हो और हमें बनाये हो इराक। जबरियन गाली को बुरा बता रहे हो। वर्ना देख लो हिंदी थिसारस फ़िर से । गाली गीत (बधाईगीत,विवाहगीत,विदागीत,सोहरगीत,बन्नी-बन्ना गीत के साथ) मंगल कार्यों की सूची में शामिल हैं। केवल मृत्युगीत को अमंगल कार्य में शामिल किया गया है । जब गाली का गीत मंगल कार्य है तो गाली कैसे बुरी हो गयी?
वहां गाली गीत हो गई इसलिये ऐसा होता होगा शायद !
तुम भी यार अजीब अहमक हो। ये तो कुछ वैसा ही हुआ कि कोई वाहियात बात गाकर कह दें तो वह मांगलिक हो जायेगी। या कोई दो कौडी़ का मुक्तक लय ताल में आकर महान हो जाये ।
क्या महिलायें भी गाली देती हैं? अगर हां तो कैसी? कोई अनुभव?
हम कोई जानकारी नहीं है इसबारे में। लेकिन सुना है कि वे आपस में सौन्दर्य चेतना को विस्तार देने वाली बाते करती हैं।सुनने में यह भी आया है ज्यादातर प्रेम संबंधों की शुरुआत मादा पात्र द्वारा ‘ईडियट”बदतमीज”बेशरम’जैसी प्रेमपूर्ण बातें करने से हुयी। हमें तो कुछ अनुभव है नहीं पर सुना है कि कोई लड़की अपनी सहेली पूछ्ती है कि जब लड़के लोग बाते करते हैं तो क्या बाते करते होते होंगे? सहेली ने बताया -करते क्या होंगे जैसे हमलोग करते हैं वैसे ही करते होंगे। सहेली ने शरम से लाल होते हुये कहा -बडे़ बेशरम होते हैं लड़के।
लेकिन फिर भी यह कैसे मान लिया जाये कि गालियों की सामाजिक महत्ता है?
एक कड़वा सच है कि हमारी आधी आबादी अनपढ़ है। जो पढी़ लिखी भी है उसको यौन संबंधों के बारे में जानकारी उतनी ही है जैसे अमेरिका को ओसामा बिन लादेन की। गालियां समाज को यौन संबंधों की (अधकचरी ही सही) प्राथमिक जानकारी देने वाले मुफ्त साफ्ट्वेयर है। गालियां आदिकाल से चली आ रही हैं । कहीं धिक्कार के रूप में ,कहीं कोसने के रूप में कहीं आशीर्वाद के रूप में। हमारे चाचा जब बहुत लाड़-प्यार के मूड में होते हैं, एके ४७ की स्पीड से धाराप्रवाह गालियां बकते हैं। जिस दिन चुप रहते हैं लगता है- घर नहीं मरघट है। यह तो अभिव्यक्ति का तरीका है। आपको पसंद हो अपनाऒ न पसंद हो न अपनाऒ। लेकिन यह तय है कि दुनिया में तमाम बर्बादी और तबाही के जो भी आदेश दिये गये होंगे उनमें गाली का एक भी शब्द शामिल नहीं रहा होगा। निश्चित तौर पर सहज रूप में दी जाने वाली गालियों के दामन में मानवता के खून के बहुत कम दाग होंगे बनिस्बद तमाम सभ्य माने जाने वाले शब्दों के मुकाबले।
महाभारत के कारणों में से एक वाक्य है जिसमें दौप्रदी दुर्योधन का उपहास करती हुई कहती है -अंधे का पुत्र अंधा ही होता है। इन सात शब्दों में कोई भी शब्द ऐसा नहीं है जिसे गाली की पात्रता हासिल हो। फिर भी इनको जोड़कर बना वाक्य महाभारत का कारण बना।
इतना कहकर बवाली गुरु मौन हो गये। मैं लौट आया। मैं अभी भी सोच रहा हूं कि क्या सच में गालियों का कोई सामाजिक महत्व नहीं होता ?
मुझे जो कहना था वह काफ़ी कुछ कह चुका। अब आप बतायें कि क्या लगता है आपको?
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गालियों का सामाजिक महत्व
By फ़ुरसतिया on January 13, 2011
इस पोस्ट में लोगों ने अपने विचार व्यक्त किये हैं और संस्कृति वगैरह के हवाले से बताया है कि गाली देना बहुत खराब बात है। यह सही है लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि गालियां हर समाज में थीं, हैं और रहेंगी। आज आक्रोश बढ़ रहा है तो उसकी अभिव्यक्ति भी हो रही है। उसके लिये गालियों का उपयोग करते हैं लोग। मेरी समझ में गालियां आक्रोश को व्यक्त करके संभावित मारपीट बचाने का काम करती हैं। इसलिये मैं मानता हूं कि गालियां बहुत कुछ हिंसा रोकती हैं।
पाच साल पहले लिखी इस पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुये सुनील दीपक जी ने भी एक पोस्ट लिखी थी जिसमें उन्होंने बताया था-
भारतीय गालियों में एक बात खास है. हमारी अधिकतर गालियाँ स्त्रियों की बात करती हैं. यानि आप का झगड़ा किसी से हो, गाली में अक्सर उसकी माँ या बहन को पुकारा जाता है. ऐसी कुछ गालियाँ अंग्रेजी में भी हैं पर उनका उपयोग आम नहीं है. अंग्रेजी, फ्राँसिसी, इतालवी भाषाओं में आप को गाली देने वाला आप से जबरदस्ती यौन सम्बंध की बात करेगा, आप की माँ, बहन या पत्नी से नहीं. क्या करण है इसका ? शायद इसलिए कि स्त्री और लड़की को हम लोग अधिक हीन समझते हैं ?अपनी इस पोस्ट में मैंने इस मसले पर भी लिखा था। जो लोग भारतीय संस्कृति की दुहाई देते हुये अब गालियां बढ़ने की बात करते हैं उनके लिये रागदरबारी की ये पंक्तियां देखिये- वैद्यजी की धाराप्रवाह संस्कृत निष्ठ गालियां सुनकर यह भ्रम खतम हो गया कि संस्कृत गाली के मामले में कमजोर भाषा है। बहरहाल समय हो तो बांचिये यह लेख गालियों का सामाजिक महत्व और बताइये अपने विचार!
गालियों का सामाजिक महत्व
पिछली पोस्ट में मैंने लिखा:-“लेकिन बुरी मानी जाने वाली वस्तु का भी क्या सामाजिक महत्व हो सकता है? मुझे तो लगता है होता है ।”
इस पर विनयजी ने स्पष्टीकरण मांग लिया:-
सोचने लायक मुद्दा है. आपके स्पष्टीकरण का इन्तज़ार रहेगा. महत्व तो बेशक होता है, क्योंकि अच्छा या बुरा, असर तो होता ही है. पर हर बुरी “माने जानी वाली” वस्तु का सकारात्मक सामाजिक महत्व हो, ऐसा मुझे नहीं लगता.
वैसे तो हम यह कह सकते हैं कि अच्छाई-बुराई सापेक्ष होती है। बुराई न हो तो अच्छाई को कौन गांठे? बुराई वह नींव की ईंट है जिस पर अच्छाई का कंगूरा टिका होता है। लेकिन यहां हम हर बुराई की बात नहीं करेंगे। अच्छे बच्चों की तरह केवल गाली पर ध्यान केंद्रित करेंगे जिसके बारे में यह बात शुरु की गयी थी।
अब हम खोज रहे हैं गाली के समर्थन में तर्क। जैसे खिचडी़ सरकार का मुखिया बहुमत की जुगत लगाता है वैसे ही हम खोज रहे हैं तमाम पोथियों से वे तर्क जो साबित कर दें कि हां हम सही कह रहे थे।
सबसे पहले हमें तर्क मिला अनुनाद सिंह के ब्लाग पर। वहां लिखा है :-
अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
(कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं ।)
ऐसा कोई अक्षर नहीं जिससे किसी मंत्र की शुरुआत न होती हो। अब देखने वाली बात है कि गाली शब्द दो अक्षरों ‘गा’ और ‘ली’ के संयोग से बना है। जो कि खुद ‘ग’ तथा ‘ल’ से बनते हैं। अब जब ‘ग’ व ‘ल’ से कोई मंत्र बनेगा तो ‘गा’ और ‘ली’ से भी जरूर बनेगा। अब आज के धर्मपारायण, धर्मनिरपेक्ष देश में किस माई के लाल की हिम्मत है जो कह सके कि मंत्र का सामाजिक महत्व नहीं होता? लिहाजा निर्विरोध तय पाया गया कि ‘गा’तथा’ली’ से बनने वाले मंत्रों का सामाजिक महत्व होता है। जब अलग-अलग शब्दों से बनने वाले मंत्रों का है तो मिल जाने पर भी कैसे नहीं होगा? होगा न! हां तो यह तय पाया गया कि गालियों का सामाजिक महत्व होता है।
जैसे कुछ अरब देशों में तमाम लोगों का काम केवल एक पत्नी से नहीं चल पाता या जैसे अमेरिकाजी में केवल एक जीवन साथी से मजा नहीं आता वैसे ही ये दिल मांगे मोर की तर्ज पर हम और सबूत खोजने पर जुट ही गये। इतना पसीना बहा दिया जितना अगर तेज टहलते हुये बहाता तो साथ में कई किलो वजन भी बह जाता साथ में। अरविंदकुमार द्वारा संपादित हिंदी थिसारस समांतर कोश में गालियां खोजीं। जो मिला उससे हम खुश हो गये । मुस्कराने तक लगे । अचानक सामने दर्पण आ गया । हमने मुस्कराना स्थगित कर दिया। दर्पण का खूबसूरती इंडेक्स सेंसेक्स से होड़ लेने लगा।
हिंदी थिसारस में बताया गया है कि गाली देना का मतलब हुआ कोसना। अब अगर विचार करें तो पायेंगे कि दुनिया में कौन ऐसा मनुष्य होगा जो कभी न कभी कोसने की आदत का शिकार न हुआ हो? अब चूंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है लिहाजा उसके द्वारा किये जाने वाले कर्मों के सामाजिक महत्व की बात से कौन इन्कार कर सकता है? लिहाजा गाली देना एक सामाजिक महत्व का कार्य है।
इसी दिशा में अपने मन को आर्कमिडीज की तरह दौडा़ते हुये हमने अपनी स्मृति-गूगल पर खोज की कि सबसे पहले कोसने का कार्य किसने किया? पहली गाली किसने दी? पता चला कि हमारे आदि कवि वाल्मीकि ने पहली बार किसी को कोसा था। दुनिया जानती है कि काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी के जोडे़ में से नर पक्षी को बहेलिये ने मार गिराया था। इस पर मादा क्रौंच पक्षी का विलाप सुन कर वाल्मीकि जी ने बहेलिये को कोसा:-
मां निषाद प्रतिष्ठाम् त्वम् गम: शाश्वती शमा,
यत् क्रौंच मिथुनादेकम् वधी: काममोहितम् ।
(अरे बहेलिये तुमने काममोहित मैथुनरत कौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी प्रतिष्ठा न मिले)
इससे सिद्ध हो गया कि पहली बार जिसने कोसा था वह हमारे आदिकवि थे। एक के साथ एक फ़्री के अंदाज में यह भी तय हुआ कि जो पहली कविता के रूप में विख्यात है वह वस्तुत: कोसना ही था। अब चूंकि कोसना मतलब गाली देना तय हो चुका है लिहाजा यह मानने के अलावा कोई चारा नहीं बचता कि पहली कविता और कुछ नहीं वाल्मीकिजी द्वारा हत्यारे बहेलिये को दी गयी गाली थी ।
वियोगी होगा पहला कवि,आह से उपजा होगा गान को नये अर्थ-वस्त्र धारण करवाकर मेरा मनमयूर उसी तरह नाचने लगा जिस तरह अपने ब्लाग का टेम्पलेट एक बार फ़िर बदलकर किसी ब्लागर का नाचने लगता है तथा वो तारीफ़ की बूंद के लिये तरसने लगता है। अचानक हमारे मनमयूर को अपने भद्दे पैर दिखे और उसने नाचना बंद कर दिया तथा राष्ट्र्गान मुद्रा में खडा़ हो गया । हमने मुगलिया अंदाज में गरजकर पूछा- कौन है वो कम्बख्त जिसने मेरे आराम में दखल देने की गुस्ताखी की? सामने आ?
मन के कोने में दुबके खडे़ सेवक ने फ़र्शी सलाम बजाकर कहा -हुजूरे आला आपका इंकलाब बुलंद रहे । इस नाचीज की गुजारिश है कि आपने जो यह गाली के मुतल्लिक उम्दा बात सबित की है जिसे आजतक कोई सोच तक न पाया उसे आप कानूनी जामा पहनाने के किये किसी गाली विशेषज्ञ से मशवरा कर लें।
हमारे मन-शहंशाह ने कहा-तो गोया हालात इस कदर बेकाबू हो गये हैं कि अब माबदौलत को अपनी सोच को सही साबित करने के लिये मशवरा करना पडे़गा ?
सेवक ने थरथराने का मुजाहिरा करते हुये अपनी आवाज कंपकपाई- गुस्ताखी माफ़, हूजूरे आला ! खुदा आपके इकबाल को बुलंद रखे। गुलाम की इल्तिजा इसलिये है ताकि आपके इस ऊंचे ख्याल को दुनिया भी समझे। आम अवाम की जबान में आपकी बात रखी जायेगी तो दुनिया समझ जायेगी । इसीलिये अर्ज किया है कि इस ख्याल के बारे में किसी काबिल शख्स से गुफ़्तगू कर लें।
शहंशाह बोले- हम खुश हुये तुम्हारी समझ से। आगे से जो भी बाहियात ख्याल आयेगा माबदौलत उस पर तुमसे मशविरा लेंगे। बताओ किस शख्स से गुफ़्तगू की जाये?
सेवक उवाचा- गाली-गलौज के मामले में मुझे बबाली गुरु से काबिल जानकार कोई नहीं दिखा। यह बताकर सेवक उसी तरह लुप्त हो गया जिस तरह तीस सेकेंड बीत जाने पर कौन बनेगा करोड़पति के फ़ोनोफ़्रेन्ड विकल्प का सहायक जवाब देने वाला गायब हो जाता है। मन के बादशाह भी समझदार प्रतियोगी की तरह हाट-सीट त्यागकर ठंडे हो गये।
हमारे मन से बादशाहत तो हवा हो गयी लेकिन जेहन में बवाली गुरु का नाम उसी तरह अटका रहा जैसे रजवाडे़ खत्म होने के बावजूद उनके वंशजों में राजसी अकड़ बनी रहती है। या फ़िर वर्षों विदेश में रहने के बाद भी भाइयों के मन में मक्खी,मच्छर नाले अटके रहते हैं।
लिहाजा हम बवाली गुरु की खोज में निकल पडे़। बवाली गुरु के बारे में कुछ कहना उनकी शान में गुस्ताखी करना होगा। उनका वर्णन किया ही नहीं जा सकता । वे वर्णनातीत हैं । संक्षेप में जैसे हर बीमार उद्योग का इलाज विनिवेश माना जाता है,देश मे हुयी हर गड़बडी़ में बाहरी हाथ होता है उसी तरह बवाली गुरु हर सामाजिक समस्या की जड़ में गाली-गलौज में असुंतलन बताते हैं । वे शांति-सुकून के कितने ही घने अंधकार को सूर्य की तरह अपनी गाली की किरणॊं से तितर-बितर कर देते हैं।
बवाली गुरु के बारे में ज्यादा कुछ और बताने का लालच त्यागकर मैं बिना किसी भूमिका के बवाली गुरु से हुयी बातचीत आपके सामने पेश करता हूं।
बवाली गुरु,गाली शब्द का क्या मतलब है ?
अर्थ तो आपके ऊपर है आप क्या लगाना चाहते हैं। मेरे हिसाब से तो गाली दो लोगों के बीच का वार्तालाप है। ज्यादा ‘संस्किरत’ तो हम नहीं जानते लेकिन लोग कहते हैं कि ‘गल्प’ माने बातचीत होती है। उसी में ‘प’ को पंजाबी लोगों ने धकिया के ‘ल’ कर दिया । ‘गल्प’ से ‘गल्ल’हो गया। ‘गल्ल’ माने बातचीत होती है । यही बिगडते-बिगडते गाली बन गया होगा । तो मेरी समझ में तो गाली बोलचाल का एक अंदाज है। बस्स। गाली देने वाले का मन तमाम विकार से मुक्त रहता है।
अगर यह बोलचाल का अंदाज है तो लोग इसे इतनी बुरी चीज क्यों बताते हैं?
अब भइया, बताने का हम क्या बतायें? अइसा समझ लो कि जिसको अंग्रेजी नहीं आती वही कोसने लगता है अंग्रेजी को। ऐसे ही जो गाली नहीं दे पाता वही कहने लगता है कि बहुत बुरी चीज है। गाली देना बहुत मेहनत का काम है। शरीफ़ों के बस की बात नहीं।
क्या यह स्थापना सच है कि पहली कविता जो है वही पहली गाली भी था?
हां तब क्या ? अरे वाल्मीकि जी में अगर दम होता तो वहीं टेटुआ दबा देते बहेलिये का। मगर उसके हाथ में था तीर-कमान इनके हाथ में था कमंडल । ये कमजोर थे। कमजोर का हथियार होता है कोसना सो लगे कोसने वाल्मीकिजी। वही पहली गाली थी। और चूंकि श्लोक भी था अत: वही पहली कविता भी बन गया।
लोग कहते हैं कि वाल्मीकि जी ने दिया वह शाप था। गाली नहीं।
कैसा शाप ? अरे जब उसी समय बहेलिये को दंड न दे पाये तो क्या शाप ? शाप न हो गया कोई भारत की अदालत हो गयी।आज के अपराध के लिये किसी को दिया हुआ शाप सालों बाद फले तो शाप का क्या महत्व? शाप होता है जैसे गौतम ने अपनी बीबी को दिया । अपनी पत्नी अहिल्या को इंद्र से लटपटाते पकड़ लिया और झट से पानी छिड़ककर बना दिया पत्थर अहल्या को। वे अपनी बीबी से तो जबर थे तो इशू कर दिया शाप । लेकिन इंद्र का कुछ नहीं बिगाड़ पाये। तो उनको शाप नहीं दे पाये । कोस के रह गये होंगे। अब ये क्या कि आप बहेलिये को दीन हीन बन के कोस रहे हैं और बाद मे बतायें कि हमने शाप दे दिया । बाद में बताया भी लोगों ने (आह से उपजा होगा गान/उमड़कर आखों से चुपचाप)। ये रोना धोना कमजोरों के लक्षण हैं जो कि कुछ नहीं कर सकता सिवाय कोसने के।
गाली का सबसे बडा़ सामाजिक महत्व क्या है?
मेरे विचार में तो गाली अहिंसा को बढा़वा देती है। यह दो प्राणियों की कहासुनी तथा मारपीट के बीच फैला मैदान है। कहासुनी की गलियों से निकले प्राणी इसी मैदान में जूझते हुये इतने मगन हो जाते हैं कि मारपीट की सुधि ही बिसरा देते हैं। अगर किसी जोडे़ के इरादे बहुत मजबूत हुये और वह कहासुनी से शुरु करके मारपीट की मंजिले मकसूद तक अगर पहुंच भी जाता है तो भी उसकी मारपीट में वो तेजी नहीं रहती जो बिना गाली-गलौज के मारपीट करते जोडे़ में होती है। इसके अलावा गाली आम आदमी के प्रतिनिधित्व का प्रतीक है। आप देखिये ‘मानसून वेडिंग’ पिक्चर। उसमें वो जो दुबेजी हैं न ,जहां वो जहां मां-बहन की गालियां देते हैं पब्लिक बिना दिमाग लगाये समझ जाती है कि ‘ही बिलांग्स टु कामन मैन’ ।
ऐसा किस आधार पर कहते हैं आप? गाली-गलौज करते हुये मारपीट की तेजी कैसे कम हो जाती है?
देखो भाई यहां कोई रजनीति तो हो नहीं रही जो हम कहें कि यह कुछ-कुछ एक व्यक्ति एक पद वाला मामला है । लेकिन जैसा कि मैंने बताया कि मारपीट और गालीगलौज मेहनत का काम है। दोनो काम एक साथ करने से दोनों की गति गिरेगी। जिस क्षण तुमने गाली देने के लिये सीनें में हवा भरी उसी क्षण यदि मारपीट का काम अंजाम करोगे तो कुछ हवा और निकल जायेगी ।फिर मारपीट में तेजी कहां रहेगी? इसका विपरीत भी सत्य है। अब चूंकि तुम ब्लागिंग के चोचले में पडे़ हो आजकल तो ऐसा समझ लो जब रविरतलामीव्यंजल लिखते हैं तो पोस्ट छो॔टी हो जाती है। जब नहीं लिखते तो लेख बडा़ हो जाता है। तो सब जगह कुछ न कुछ संरक्षण का नियम चलता रहता है। कहीं शब्द संरक्षण कहीं ऊर्जा संरक्षण।
देखा गया है कि कुछ लोग गाली-गलौज होते ही मारपीट करने लगते हैं। यहां गाली-गलौज हिंसा रोकने का काम क्यों नहीं कर पाती?
जैसे आपने देखा होता है कि कुछ पियक्कड़ बोतल का ढक्कन सूंघ कर ही लुढ़कने लगते हैं। वैसे ही कुछ लोग मारपीट का पूरा पेट्रोल भरे होते हैं दिमाग की टंकी में। बस एक स्पार्क चाहिये होता है स्टार्ट करने के लिये । गाली-गलौज यही स्पार्क उपलब्ध कराता है। वैसे अध्ययन से यह बात सामने आयी है कि जो जितनी जल्दी शुरु होते हैं उतनी ही जल्दी खलास भी हो जाते हैं।
गाली-गलौज में आमतौर पर योनि अंगों का ही जिक्र क्यों किया जाता है?
मुझे लगता है कि पहली बार जब गाली का प्रयोग हुआ उस समय मैथुन प्रक्रिया चल रही थी । लिहाजा यौनांगों के विवरण की बहुतायत है गालियों में। दूसरे इसलिये भी कि मनुष्य अपने यौन अंगों को ढकता है। यौनक्रिया छिपकर करता है। गाली गलौज में इन्ही बातों का उल्लेखकर भांडा फोड़ने जैसी उपलब्धि का सुख मिलता है ।
गाली में मां-बहन आदि स्त्री पात्रों का उल्लेख क्यों बहुतायत में होता है?
स्त्री पात्रों को संबोधित करते समय गालियों की बात से यह सवाल उठता है कि पत्नी या प्रेमिका को संबोधित गालियां बहुत कम मात्रा में पायी जाती हैं?
तुम भी यार पूरे बुड़बक हो। दुनिया में लोग ककहरा बाद में सीखते हैं गाली पहले। तो लोग बाग क्या किसी को गरियाने के लिये उसके जवान होने और प्रेमिका तथा पत्नी हासिल करने का इंतजार करें। कुछ मिशनरी गाली देने वालों को छोड़ कर बाकी लोग प्रेमी या पति बनते ही गालियां देना छोड़कर गालियां खाना शुरु कर देते हैं। लिहाजा होश ही नहीं रहता इस दिशा में सोचने का। वैसे भी आमतौर पर पाया गया है कि मानव की नई गालियों की सृजनशीलता उसके जवान होने तक चरम पर रहती। बचपने में प्रेमी-पति से संबंधित मौलिक जानकारी के अभाव में इस दिशा में कुछ खास प्रगति नहीं हो पाती ।
एकतरफ़ा गाली-गलौज के बाद मनुष्य शान्त क्यों हो जाता है?
एक तो थक जाता है अकेले गाली देते-देते मनुष्य। दूसरे अकेले गरियाते-गरियाते आदमी ऊब जाता है। तीसरे जाने किन लोगों ने यह भ्रम फ़ॆला रखा है कि गाली बुरी चीज है इसीलिये आदमी अकेले पाप का भागी होने में संकोच करता है। जैसे भ्रष्टाचार है । इसे अगर कोई अकेला आदमी करे तो थककर ,ऊबकर ,डरकर बंद कर दे लेकिन सब कर रहे हैं इसलिये दनादन हो रहा है धकापेल।
कुछ लोगों के चेहरे पर गाली के बाद दिव्य शान्ति रहती है ऐसा क्यों है?
ऐसे लोग पहुंचे हुये सिद्ध होते हैं। गाली-गलौज को भजन-पूजन की तरह करते हैं। जैसे अलख निरंजन टाइप औघड संत।ये गालियां देते हैं तो लगता है देवता पुष्पवर्षा कर रहे हैं। शेफाली के फूल झर रहे हैं। इनके चेहरे पर गाली देने के बाद की शान्ति की उपमा केवल किसी कब्ज के मरीज के दिव्य निपटान के बाद की शान्ति से दी जा सकती है। जैसे किसी सीवर लाइन से कचरा निकल जाता है तो अंदर सफाई हो जाती है वैसे ही गालियां मन के विकार को दूर करके दिव्य शांति का प्रसार करती हैं। गाली वह साबुन है जो मन को साफ़ करके निर्मल कर देती है। फेफडे़ मजबूत होते हैं।
लेकिन गाली को बुरा माना जाता है इससे आप कैसे इन्कार कर सकते हैं?
भैया अब हम क्या बतायें ? तुम तो दुनिया सहित अमेरिका बने हो और हमें बनाये हो इराक। जबरियन गाली को बुरा बता रहे हो। वर्ना देख लो हिंदी थिसारस फ़िर से । गाली गीत (बधाईगीत,विवाहगीत,विदागीत,सोहरगीत,बन्नी-बन्ना गीत के साथ) मंगल कार्यों की सूची में शामिल हैं। केवल मृत्युगीत को अमंगल कार्य में शामिल किया गया है । जब गाली का गीत मंगल कार्य है तो गाली कैसे बुरी हो गयी?
वहां गाली गीत हो गई इसलिये ऐसा होता होगा शायद !
तुम भी यार अजीब अहमक हो। ये तो कुछ वैसा ही हुआ कि कोई वाहियात बात गाकर कह दें तो वह मांगलिक हो जायेगी। या कोई दो कौडी़ का मुक्तक लय ताल में आकर महान हो जाये ।
क्या महिलायें भी गाली देती हैं? अगर हां तो कैसी? कोई अनुभव?
हम कोई जानकारी नहीं है इसबारे में। लेकिन सुना है कि वे आपस में सौन्दर्य चेतना को विस्तार देने वाली बाते करती हैं।सुनने में यह भी आया है ज्यादातर प्रेम संबंधों की शुरुआत मादा पात्र द्वारा ‘ईडियट”बदतमीज”बेशरम’जैसी प्रेमपूर्ण बातें करने से हुयी। हमें तो कुछ अनुभव है नहीं पर सुना है कि कोई लड़की अपनी सहेली पूछ्ती है कि जब लड़के लोग बाते करते हैं तो क्या बाते करते होते होंगे? सहेली ने बताया -करते क्या होंगे जैसे हमलोग करते हैं वैसे ही करते होंगे। सहेली ने शरम से लाल होते हुये कहा -बडे़ बेशरम होते हैं लड़के।
लेकिन फिर भी यह कैसे मान लिया जाये कि गालियों की सामाजिक महत्ता है?
एक कड़वा सच है कि हमारी आधी आबादी अनपढ़ है। जो पढी़ लिखी भी है उसको यौन संबंधों के बारे में जानकारी उतनी ही है जैसे अमेरिका को ओसामा बिन लादेन की। गालियां समाज को यौन संबंधों की (अधकचरी ही सही) प्राथमिक जानकारी देने वाले मुफ्त साफ्ट्वेयर है। गालियां आदिकाल से चली आ रही हैं । कहीं धिक्कार के रूप में ,कहीं कोसने के रूप में कहीं आशीर्वाद के रूप में। हमारे चाचा जब बहुत लाड़-प्यार के मूड में होते हैं, एके ४७ की स्पीड से धाराप्रवाह गालियां बकते हैं। जिस दिन चुप रहते हैं लगता है- घर नहीं मरघट है। यह तो अभिव्यक्ति का तरीका है। आपको पसंद हो अपनाऒ न पसंद हो न अपनाऒ। लेकिन यह तय है कि दुनिया में तमाम बर्बादी और तबाही के जो भी आदेश दिये गये होंगे उनमें गाली का एक भी शब्द शामिल नहीं रहा होगा। निश्चित तौर पर सहज रूप में दी जाने वाली गालियों के दामन में मानवता के खून के बहुत कम दाग होंगे बनिस्बद तमाम सभ्य माने जाने वाले शब्दों के मुकाबले।
महाभारत के कारणों में से एक वाक्य है जिसमें दौप्रदी दुर्योधन का उपहास करती हुई कहती है -अंधे का पुत्र अंधा ही होता है। इन सात शब्दों में कोई भी शब्द ऐसा नहीं है जिसे गाली की पात्रता हासिल हो। फिर भी इनको जोड़कर बना वाक्य महाभारत का कारण बना।
इतना कहकर बवाली गुरु मौन हो गये। मैं लौट आया। मैं अभी भी सोच रहा हूं कि क्या सच में गालियों का कोई सामाजिक महत्व नहीं होता ?
मुझे जो कहना था वह काफ़ी कुछ कह चुका। अब आप बतायें कि क्या लगता है आपको?
Posted in बस यूं ही | 76 Responses
प्रणाम !
चर्चा के लिए और कोई विषय नहीं मिला …..????
आप जैसा दूसरा नहीं …गुरु !
satish saxena की हालिया प्रविष्टी..आपातकालीन स्थिति और तमाशबीन भीड़ -सतीश सक्सेना
दुबारा पढने की जरूरत है……
प्रणाम.
काम चल जाता, वहां बीच में तीखे-भद्दे गालिओं के आ जाने से लट्ठम-पत्थम हो ही जाती है.
प्रणाम.
http://sonal-rastogi.blogspot.com/2010/05/blog-post.html
sonal की हालिया प्रविष्टी..क्षणिकाए
PN Subramanian की हालिया प्रविष्टी..पिचवरम के मैन्ग्रोव – दुनिया का दूसरा बड़ा
इस पोस्ट को यूँ ही हलके में नहीं लिया जा सकता… आपके अन्यतम लेखन प्रतिभा की मिसाल है यह…
सहमत हूँ,गालियाँ हिंसा रोकने का प्रभावशाली साधन है…इसके बिना भाषा और मनोभावों के अभिव्यक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती…सिद्ध है,अधिकांश ही गालियाँ मनुष्य को तनाव मुक्त रखने में सहायक होती हैं…
बचपन में गाँव जाने पर हम बड़े उत्सुक रहा करते थे औरतों की लड़ाई के दृश्य देखने के लिए…ओह, लाजवाब हुआ करते थे…
सैंयाखौकी भैयाखौकी से शुरू होकर कहाँ कहाँ तक ये पहुँचते थे….दर्शनीय होता था….
रंजना. की हालिया प्रविष्टी..बीत रहा
शुरुआती लाइनें पढ़कर इतना कहना चाहूँगी कि गालियाँ किसी भी लोक-संस्कृति का हिस्सा होती हैं और देशज भाषा की गालियाँ तो तत्कालीन समाज की जीवन्तता की द्योतक… लेकिन गालियों का औरतों पर केंद्रित होना निश्चित ही निंदनीय और कुत्सित मानसिकता का परिचायक है.
शेष बाद में…
aradhana की हालिया प्रविष्टी..2010 in review
तुम्हारी इस बात से सहमत हूं कि – गालियाँ किसी भी लोक-संस्कृति का हिस्सा होती हैं और देशज भाषा की गालियाँ तो तत्कालीन समाज की जीवन्तता की द्योतक… लेकिन गालियों का औरतों पर केंद्रित होना निश्चित ही निंदनीय और कुत्सित मानसिकता का परिचायक है.
धन्य हैं आप.:)
shikha varshney की हालिया प्रविष्टी..हाथ में सुट्टा लबों पे गाली -हाय री मीडिया बेचारी
इतना विस्तार से इस विषय पर पहले शायद किसी ने नहीं लिखा होगा.
अल्पना की हालिया प्रविष्टी..छाई इंद्रधनुष सी हिंदी
मुझे लगता है कि आपकी तमाम पोस्टें मील का पत्थर हैं, लिहाजा उन पुरानी पोस्टों का भी, पुनर्प्रकाशन का हक़ बनता है, जिन्हें तमाम लोगों ने नहीं पढा . गालियों पर इतनी विस्तृत , खोजपरक पोस्ट फिलहाल तो नहीं पढी, सो आपकी इस पोस्ट को भी गालियों पर आधारित पहली पोस्ट का सम्मान मिलना ही चाहिए
( बतर्ज़ वाल्मीकि जी) .
अब कुछ पेस्टिंग हो जाये-
“हमारे मन से बादशाहत तो हवा हो गयी लेकिन जेहन में बवाली गुरु का नाम उसी तरह अटका रहा जैसे रजवाडे़ खत्म होने के बावजूद उनके वंशजों में राजसी अकड़ बनी रहती है।”
कम्माल की उपमा.
” कमजोर का हथियार होता है कोसना सो लगे कोसने वाल्मीकिजी। वही पहली गाली थी। और चूंकि श्लोक भी था अत: वही पहली कविता भी बन गया”
ऐसा विश्लेषण बस आप ही कर सकते हैं. बारीक से बारीक बात पर पकड़ और शानदार उपमाएं आपके लेखन की विशेषता है.
“मेरे विचार में तो गाली अहिंसा को बढा़वा देती है। यह दो प्राणियों की कहासुनी तथा मारपीट के बीच फैला मैदान है”
हां शायद.
वन्दना अवस्थी दुबे की हालिया प्रविष्टी..सतना में शिमला का अहसास -
……यही कमेंट शिखा जी के ब्लॉग पर भी कर आया हूँ। मेरा चित्र भो…वाला मेरा मतलब वो वाला इतना गंदा कैसे हो गया समझ ही नहीं पा रहा हूँ ! और भी चित्र बदल गये हैं। यह हाईटेक गाली का नमूना तो नहीं है ?
…..आपकी पोस्ट फुर्सत में बांच लिया अब रात में कमेंट ठेल रहा हूँ।
…..अच्छा लगा।
दानव गाली बांचिये… बिन गाली सब सून
गाली बिना न ऊबरै, गुण्डा, गुण्डी, गून..
गाली बांचन के लिये नहीं लिखी यह पोस्ट,
गाली थीं, हैं , रहेंगी ज्यों मक्खन औ टोस्ट,
गाली उतनी बुरी न जितनी हैं समझी जात,
बिन गाली के जान लो कैसा होगा उत्पात।
गाली को गाली देने वाले अपनी जगह हैं लेकिन गाली की अहमियत भी अपनी जगह है. अब कानपुर के ट्रैफिक को ही देख लीजिये बिन गाली के केतना कदम चल पायेगा? बताइये बताये?
सही है आपकी बात। वैसे ट्रैफ़िक कहीं का हो, गाली का लुब्रीकेंट जरूरी ही हो जाता है, है न!
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..एक बानगी ऐसी भीखोइयापुलुईरससतीश पंचम
आशा है समुचित उपयोग करते रहेंगे इसका।
आप ने गाली पर पूरी रिसर्च कर डाली और थीसिस भी लिख डाला ,
अब भइया, बताने का हम क्या बतायें? अइसा समझ लो कि जिसको अंग्रेजी नहीं आती वही कोसने लगता है अंग्रेजी को। ऐसे ही जो गाली नहीं दे पाता वही कहने लगता है कि बहुत बुरी चीज है। गाली देना बहुत मेहनत का काम है। शरीफ़ों के बस की बात नहीं
वाक़ई ये शरीफ़ों के बस की बात नहीं ,लेकिन आप ने बड़े ही शरीफ़ाना अंदाज़ में गाली की महत्ता का बखान कर दिया,
बहुत मज़ेदार पोस्ट
हां शिखा को भी धन्यवाद जिस के लेख की बदौलत आप का ये लेख अवतरित हुआ
आपका कहना सही है, गालियां भी शॉक एब्सार्वर का काम करती हैं…
इस पोस्ट को पढ़कर अचानक एक बात याद आ गई…अमृतसर में मेरे दूर के एक रिश्तेदार रहते हैं…काफी साल हो गए, उनका बेटा उस वक्त होगा ढाई-तीन साल का…अब ये जनाब बड़ी शेखी के साथ उसे कहते थे…गाल कड, दसा दूंगा (गाली निकाल, दस पैसे दूंगा)…और वो बच्चा बेचारा दस पैसे के लालच में शुरू हो जाता था तुतली ज़ुबान में मां-बहन एक करने में…अब वो महाशय को बच्चे की ये गालियां इतनी भाती थीं कि दूसरों के सामने भी उसे दस पैसे देकर बुलवाते रहते थे…वो बच्चा बड़ा हो गया है…अब जब भी मिलता है तो मैं उसे कहता हूं…गाल कड, दसा दूंगा…ये सुनकर ही वो शर्मा जाता है…
जय हिंद…
Khushdeep Sehgal, Noida की हालिया प्रविष्टी..पाकिस्तान को प्रमोट करने के लिए टैगलाइनखुशदीप
शुक्रिया। ये शाकअब्जार्बर हमेशा काम करता रहे इसके लिये शुभकामनायें ।
यदि गालियाँ अहिंसा का द्योतक हैं तो कभी कभी आक्रोश को भी बढ़ावा देती हैं …जब मार पीट होती है तो मारने के साथ साथ जोर जोर से गलियां भी दी जाती हैं …
नयी नयी उपमाओं के साथ यह पोस्ट विचारणीय है
शुक्रिया आपकी प्रतिक्रिया के लिये। आपकी बात सही है कि गाली कभी-कभी (क्या अक्सर ही) आक्रोश को भी बढ़ावा देती हैं।
कला पक्ष के देखें तो गालियाँ जबान साफ़ करती हैं, इसके उच्चारण में एक अलग वितान है, आलाप टाइप… आप कभी काशी का अस्सी पढ़िए…. गालियाँ साफ़ दिल देनी चाहिए… निष्पक्ष होकर, नदी जैसे, निःस्वार्थ होकर तब ठीक लगता है…
विवाह में भी गालियों का रिवाज़ है. राम जी ने भी खायी थी..और लक्ष्मण को समझाया था…
बहरहाल, व्यथित ना हों… बात दिल से निकली है दिल तक पहुंची है. और असर हुआ है
———————————
यह शिखा जी के ब्लॉग पर लिख कर आया हूँ जहाँ से बात शुरू हुई है बांकी जो आपने डॉ. आराधना को सार में समझाने की कोशिश की है उससे मैं सहमत हूँ, …
आपके ब्लॉग पर इसी की (इसकी भी ) कमी थी … अभी कुछ पहले ही घूमते घूमते शिल्पा – गेरे चुम्बन प्रकरण पर चला गया था… वो भी गज़ब था यह भी गज़ब है… हमारे दिमाग में और कुछ नहीं आता… आप एक भी खिड़की नहीं छोड़ते कोई नयी बात जोड़ने की… बुद्धि गम हुई जाती है इधर… मास्टर … आपको भी डॉक्टर होना था… कहाँ पिस्तौल बनाने वाली कम्पनी में फंस गए… खैर यह गोलियां भी जिंदा कारतूस से कम नहीं हैं बल्कि यह व्यंग नामक हथियार असली कट्टे से ज्यादा धारदार हथियार है
तुम्हारी प्रतिक्रिया पढ़कर तो शर्मा जाने का मन करता है।
हमारे मिथिला में शादी के समय भतखई में जम कर गालिया वर पक्ष द्वारा खाई जाती है। और कन्या पक्ष की महिलाएं गलियाती हैं। खाना से मज़ा गाली खाने में आता है, और उन गालियों की सीमा का आप अंदाज़ा नहीं लगा सकते कि किस श्रेणी की होती हैं।
लेकिन …
दूसरी टिप्पणी में आगे
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..शिवस्वरोदय-26 – सुषुम्ना नाड़ी
वयमपि तदभावाद् गालिदानेsसमर्थाः।
जी हां, आप गाली दिए जाइए क्योंकि आप गालीवान हैं। हमें तो गाली आती नहीं, इसलिए हम कहां से गाली दें।
विदितमिव हि लोके दीयते विद्यमानं
न हि शशकविषाणं कोsपि कस्मै ददाति॥
सभी जानते हैं कि जिसके पास जो होता है वही दे पाता है। क्या कभी कोई किसी को खरगोश के सींग दे पाया है?
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..शिवस्वरोदय-26 – सुषुम्ना नाड़ी
शुक्रिया आपकी दोनों प्रतिक्रियाओं का। यह सही है कि जिसके पास जो होता है वही देता है।
वैसे, आपके द्वारा दी हुयी उपमाओं का कोई जोड़ नहीं. लगता है कि आदिकवि कालिदास के बाद आप ही के लिए कहा जाएगा ‘ उपमा अनूपस्य’
aradhana की हालिया प्रविष्टी..2010 in review
”उपमा अनूप्स्य’ ! वाह। जय हो। आपका इकबाल बुलन्द रहे।
व्हाट अ कमेंट- शुक्रिया।
अव्वल तो इस लेख में कोई तर्क पद्धति है ही नहीं। अगर है भी तो कुतर्क पद्धति। जो बातें लिखीं वो अपने मन की बातें हैं। बाकी सर्वमान्यीकरण, परिभाषीकरण, वर्गीकरण जैसा कुछ करने की कोशिश न थी न है।
आपकी प्रतिक्रिया के लिये आभार।
— कुछ अपवाद भी ध्यान देने योग्य है मसलन ‘गांडू’ , ‘लड़बक ‘ , ‘गांड़…’ से सम्बद्ध गालियों की व्यंजना पुरुष के पौरुष की बाट लगा देने से है , अतः यहाँ वर्गीय आरक्षण में पुरुष है , न कि महिला ! इसलिए इन अपवादों की अनदेखी नहीं की जा सकती !
——————
बाकी धासू पोस्ट . फुरसतियापा ( कोई और ….आपा मत समझिएगा ) टॉप पर है , वही धार , वही रिठेल , वही कौतुक-विनोद !
बाकी श्लील/अश्लील पर एक लोक के गायक को याद करते हुए मैंने अपनी बात कह दी है !
.
वक्त वसूल मजा आया , छक लिए , जय हो !
amrendra nath tripathi की हालिया प्रविष्टी..लोक गाथा – अइसन जोग भरथरी कीन
शुक्रिया। वैसे अपवाद बताये बिना भी अपनी बात कही जा सकती थी।
जे एन यू लाइब्रेरी में अगर कोई शोध ग्रंथ या किताब हो गालियों के बारे में तो उसके बारे में लिखो।
बहुत दिनों से सोच रहा था कि “पूचिये फुरसतिया से” में सामाजिक जीवन में गालियों के योगदान पर आपसे सवाल करूं, आज आपने वह इच्छा पूरी कर दी।
नितिन की हालिया प्रविष्टी..विश्व विकास यात्रा
शुक्रिया। अब और दूसरे सवाल पूछे जायें फ़ुरसतिया से।
dr.anurag की हालिया प्रविष्टी..इत्तेफाको के रिचार्ज कूपन नहीं होते दोस्त !!!!
अनूप शुक्ल की हालिया प्रविष्टी..गालियों का सामाजिक महत्व
गालियाँ बहुत कम्यूनिकैतिव होती हैं -मुझे लगता है आपकी प्रस्थापना सायास है कि महज औरतों को ही गालियों का केंद्र बिंदु बनया जाता है …गावों में पुरुषों को लेकर भी बहुत सी गालिया हैं …
पीपली लाईव में रघुवीर यादव की मुंह से साफ़ साफ़ बेलौस गालियाँ निकलती हैं -यहाँ साले गां* फट रही है और तुमे गाना सूझ रहा है -अब जेसिका फिल्म में आज की असर्टिव औरत के मुंह से हवाईजहाज के सहयात्री के सामने यह गाली बुलवाई गयी है ….
एक दबंगता का छद्मावरण नारी न ओढ़े तो उसका जीवन शायद मुहाल हो जाए महानगरों में -गावं की औरतें तो इतनी धाराप्रवाह गालियाँ बोलती हैं जो पुरुष के मूलस्थानों से जुडी होती हैं और महिलाओं के ही लिए ही होती हैं -इस पर क्या कहेगें आप ?
मेरे विचार से जितनी गालियां भारत में औरतें औरतों को देती हैं पुरुष नहीं देते -ज्यादातर पुरुष संकोची होते हैं ..मैं ही सरकारी नौकरी में आने के काफी बाद कुछ गालियाँ देने में मुश्किल से सहज हो पाया हूँ !
यह क्षेत्र इतना विस्तृत है कि इसमें अंतिम से कुछ कहना मुश्किल है। गालियां थीं, हैं और रहेंगी। महिलायें भी इसी समाज का हिस्सा है। आपस में देखा-देखी अभिव्यक्ति का असर होगा है। वैसे ज्यादातर गालियों में महिलायें निशाने पर होती हैं। उनके साथ जबरियन यौन संबंध बनाने की बात कहते हुये दी जाने वाली गालियां शायद इसीलिये दी जाती हैं जैसा कि लिखा मैंने:
मेरे विचार में पुरुष प्रधान समाज में मां-बहन आदि स्त्री पात्रों का उल्लेख करके गालियां दी जाती हैं। क्योंकि मां-बहन आदि आदरणीय माने जाते हैं लिहाजा जिसको आप गाली देना चाहते हैं उसकी मां-बहन आदि स्त्री पात्रों का उल्लेख करके आप उसको आशानी से मानसिक कष्ट पहुंचा सकते हैं। स्त्री प्रधान समाज में गालियों का स्वरूप निश्चित तौर पर भिन्न होगा।
अब स्त्री प्रधान समाज में गालियों के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं। अलग-अलग देश में गालियों का अंदाज अलग-अलग होगा जैसा सुनील दीपक जी की पोस्ट में बताया गया है।
गालियां सम्पुट हैं। जहां भाषा का हाथ तंग होता है, वहां गालियां सहायक होती हैं!
Gyan Dutt Pandey की हालिया प्रविष्टी..लोकोपकार और विकास
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स्त्री और लड़की किसी भी घेर कि इज्ज़त हुआ करती हैं और गली ज़लील करने के लिए दी जाती है. मतलब स्त्री और लड़की को घेर कि इज्ज़त समझते हैं..
वह रे दुनिया………………:)
अब बराबर आना परेगा………….
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‘अच्छाई-बुराई सापेक्ष होती है। बुराई न हो तो अच्छाई को कौन गांठे?’
सही कहा आपने … रावण नहीं तो राम को कौन पूछता
सतीश चन्द्र सत्यार्थी की हालिया प्रविष्टी..नहाए और साफ़ कपड़ों वालों- घरों में रहो
हम त समझत रहे कि व्यंग में परसाई ,श्रीलाल सुकुल ,शरद जोशी ,धरमवीर ( एक्क्यी से जानिलेहे ,कांग्रेस हराई के बाद ७७ माँ ‘ तीरभा ‘ नाम से सम्पादकीय मा ‘ धर्मयुग ‘ के ) मरहूम नुमा के बाद ,आज के वक़्त माँ ,ज्ञान के बाद हमारैयी नंबर आवथ .
मूल तू त सब के ‘ पेल परान्यो ‘ .
नाहीं ?
तोहसे मुह्जोरी माँ हमार मजाल ?
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चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..इधर से गुजरा था सोचा सलाम करता चलूँ…
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