Thursday, March 05, 2015

रोशनी हमेशा अंधेरे पर भारी पड़ती है



ज्योति सिंह जो कि निर्भया के नाम से जानी गयी 1989 में पैदा हुई। दिसम्बर 2012 में दिल्ली में एक जघन्यतम हादसे का शिकार होकर मौत से जूझती हुई फ़िर् नहीं रही।

24 साल की लड़की के साथ हुये इस हादसे पर एक डाक्यूमेंट्री बनी। उसमें इस मामले में एक अपराधी के बयान की चर्चा सोशल मीडिया और समाचार संसार में होती रही। BBC की आलोचना भी की लोगों ने कि इस दुर्घटना को भुनाने के लिये उसने फ़िल्म बनाई।

मैंने फ़िल्म देखी। फ़िल्म देखकर कई बार रोना आया। अपराधी ने जो बातें कहीं हैं उस फ़िल्म से उससे कई गुना गर्हित बयान उसके वकील ने टीवी चैनल पर दिये हैं। अपराधियों में से अधिकतर तो अनपढ़, वंचित पृष्ठभूमि के लोग थे। वकील तो पढ़े-लिखे होते हैं। अपराधी के वकील का बयान था- "अगर मेरे परिवार की कोई लडकी ऐसा करेगी तो उसको जला देने में उसे कोई संकोच नहीं होगा।"

लड़की के बारे में फ़िल्म में बताया गया है। उसके पिता उसको जज बनाना चाहते थे। लेकिन वह डॉक्टर बनना चाहती थी। पिता से उसने कहा कि डॉक्टर से बड़ा कोई पेशा नहीं होता। पढ़ाई में पैसे की कमी बात आई तो उसने कहा- आप जो पैसे मेरी शादी में खर्च करना चाहते हों उससे मेरी पढ़ाई करा दें। उसके माता- पिता मान गये। वह पढ़ने लगी।

ज्योति की अंग्रेजी अच्छी थी। खर्च के लिये पैसे की कमी को वह पार्ट टाइम जाब करके पूरा करती थी। रात को कॉल सेंटर में काम करती थी। सिर्फ़ 4-5 घंटे सोती थी। वह कहती थी- "एक लड़की कुछ भी कर सकती है।"
एक बार एक 10-12 साल का लड़का ज्योति का पर्स छीन कर भाग रहा था। उसको पकड़कर पुलिस वाले ने पीटा। उसने उस लड़के को पुलिस वाले से छुड़वाया। उससे पूछा -’तुम यह क्यों करते हो?’ लड़के ने कहा- ’तुम लोगों जैसे कपड़े पहनने का मन होता है। खाने का मन होता है।’

ज्योति ने उससे वायदा कराया कि वह दुबारा चोरी नहीं करेगा। इसके बाद उसने उस बच्चे को कई खाने की चीजें खरीदकर दीं (जिनको देखकर खाने के लालच में उसने पर्स छीना होगा)

दुर्घटना की रात वह अपने दोस्त के साथ पिक्चर देखने गयी थी। घर में बताकर कि 3-4 घंटे में आ जायेगी। उसका दोस्त कोई एक्शन पिक्चर देखने चाहता था। लेकिन उसने ’लाइफ़ ऑफ़ पाई’ देखना तय किया। देखी। लौटते समय बस में हादसा हुआ। वह वावजूद अपनी अदम्य जिजिविषा के बच नहीं सकी।

अपने गांव में अस्पताल बनाना ज्योति का सपना था। उसका सपना अधूरा रह गया। निर्भया फ़ंड के करोडों रुपये बिना उपयोग के रह गये। सरकार को उन पैसों से उस बहादुर बच्ची का सपना पूरा करने के बारे में सोचना चाहिये।

यह फ़िल्म देखकर तमाम अपराधों की जड़ अपनी शिक्षा व्यवस्था. अपने समाज की विषमता, गैरबराबरी के बारे में फ़िर एहसास होता है। हम लोग अभी बहुत-बहुत पिछड़े हैं अपने समाज के हर तबके तक जीवन की न्यूनतम बुनियादी सुविधायें मुहैया कराने के मामले में।

स्त्रियों के बारे में अपने समाज के बहुत बड़े तबके की सोच सामंती है। स्त्रियां उनके लिये घर, परिवार की जरूरतें पूरा करने का माध्यम हैं बस।

 एक बेहद संवेदनशील फ़िल्म जिसको देखकर मन दुखी हो जाता है। जिसको देखकर एहसास होता है कि अपने समाज में अपराधी कैसे बनते हैं और जिसको देखकर यह भी भान होता है कि विपरीत परिस्थितियों में भी अपने समाज में लड़कियों का हौसला कैसा हो सकता है। कैसे वे तमाम अवरोधों को फ़लांगकर आगे बढ़ने का जज्बा रखती हैं।

फ़िल्म के बारे में बहुतों ने लिखा इस नजरिये से लिखा कि इससे समाज में गलत संदेश जाता है। पता नहीं उन लोगों को यह क्यों नहीं लगा कि यह फ़िल्म समाज की अनगिनत लड़कियों के मन में ज्योति सिंह जैसी बनने की ललक जगायेगी जो मां-बाप का सहारा बनना चाहती थी, एक कम उम्र चोर बच्चे को सुधारना चाहती थी । जिसकी सबसे बड़ी तमन्ना अपने गांव में अस्पताल खोलना रही हो।

फ़िल्म देखकर अफ़सोस होता है समाज की ऐसी परिस्थितियों के प्रति जिसके चलते ऐसे अपराधी पैदा होते हैं जो सोचते हैं लड़की के साथ बलात्कार और हत्या में गलती लड़की की ही थी।

फ़िल्म देखकर असमय शहीद हो गयी लड़की के प्रति सम्मान का भाव पैदा होता है।

ज्योति (रोशनी) हमेशा अंधेरे पर भारी पड़ती है।

1 comment:

  1. रोशनी हमेशा अंधेरे पर भारी पड़ती है.... Indeed.. Thank you for this truly valuable post, Sir.

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